खोल दो ये द्वार, शायद
रोशनी की किरण कोई
एक पल को ही—
यहाँ मेहमान बन जाए,
बंद सदियों से पड़े हैं,
द्वार मन के
और पहरेदार बैठे देहली पर,
रूढ़ियों के द्वार पर ताले पड़े हैं,
तोड़ना जिनको कठिन है,
एक साधारण मनुज की
शक्ति से बिल्कुल परे है।
आज जीवन के गहन अंतिम प्रहर में,
सत्य हो आया उदित
यह हाय! कैसा?
हम जिन्हें अपना समझते
और रहते साथ जिन के
नित्य छाया से कभी के,
वे हमें पहचान पाए हैं न किंचित!
अजनबी हैं वे सभी
जो साथ अपने चल रहे हैं।
और जिन से निकटता
शायद कभी संभव नहीं है,
दूर है जो सैकड़ो योजन परे हैं
बीच में उनके तथा अपने,
अडिग पर्वत खड़े हैं,
गहन नद नाले पड़े हैं
साथ केवल दो क़दम जो चल सके थे,
काँपते शंकित मनों से
धड़कते उत्सुक उरों से
जान पाए हैं वही कुछ सत्य हमको।
वास्तविकता से हम हाय! सब कितना परे हैं।
कौन जाने आज इस अंतिम सफ़र में
साथ देने आ गया है मीत जो सूनी डगर में,
जान पाए दर्द दिल का
और सच्ची भावना से
नहीं कोरी साँत्वना से
घाव भर दे इस जिगर के।
कौन जाने अंत इस तमपूर्ण मग का
किसी सोने-सी उषा की लालिमा,
नव दीप्ति से आकूल भर जाए।
और जीवन जो अमा से होड़ करता आ रहा है
एक पल को ही सही
मधु ज्योत्सना का ज्वार बन जाए!
और रोदन जो रहा साथी पुराना
इस हृदय का
एक पल को ही मधुर मुस्कान बन जाए।
खोल दो ये द्वार, शायद
रोशनी की किरण कोई,
एक पल को ही यहाँ मेहमान हो जाए।
- पुस्तक : तीन पीढ़ियाँ साठ कविताएँ (पृष्ठ 23)
- रचनाकार : बोधि प्रकाशन
- प्रकाशन : खुशीराम वाशिष्ठ
- संस्करण : 2024
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