क्या फ़र्क़ पड़ता है
क्या फ़र्क़ पड़ता है वह
मेरी बहन थी या पड़ोस की बच्ची
वह सपने देखती थी और स्कूल जाती थी
आइस-पाइस या इक्कट-दुक्कट खेलते
उसके चेहरे का विस्मय और आश्चर्य
उल्लास और चाँदी की चमक जैसी हँसी
तितलियों जैसी इच्छाएँ और पानी जैसा स्वभाव
पृथ्वी की आँखों को
बच्ची की आँखों में बदल देते थे
प्रकृति उसके रास्ते में हरे पीले भूरे इतने तरह के पत्ते
गिराती थी कि उसके पैर सह लेते थे सूरज की आग
कई पेड़ तो उसे चिड़िया समझते थे
और उसके चहचहाने से पत्तियों को हिलाकर करते थे
अपना मार्मिक अभिवादन
क्या फ़र्क़ पड़ता है वह मेरी बहन थी या पड़ोस की बच्ची
इतना ज़रूर जानता था कि उसकी आवाज़ से होती थी मेरी सुबह
मैं खिड़की पर तैरते हवा के बड़े टुकड़े में उसके पैरों की आहट
सुन लेता था
आज ऐसा कुछ नहीं हुआ
कविता में कहना मुश्किल है फिर भी कह रहा हूँ
जिस समय वह चीख़ रही थी
निर्वस्त्र कर लूटा जा रहा था बचपन
और भविष्य
लूटा जा रहा था दस साल बाद खिलखिलाकर हँसते
वसंत का शैशव
क्या कर रहे थे हम
क्या कर रहे थे
हमारे देवता
क्या कर रही थी पृथ्वी और हवा
क्या कर रहे थे पेड़
क्या कर रही थी चिड़िया
क्या कर रहे थे सूरज और चंद्रमा
सबकी आँखों के सामने खेला जा रहा था
सदी का सबसे घिनौना कृत्य
और वह चीख़ रही थी
जज महोदय आप दें या न दें
बच्चियाँ उन दरिंदों को कविता में
दे रही हैं फाँसी
- रचनाकार : महेश आलोक
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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