ख़ुद में क्या है
कभी जान नहीं पाता
पर हर बार हर दफ़ा यही लगता है
किसी से बात कर
किसी को चाह कर
किसी के नज़दीक जाकर
मैंने कुछ खो दिया है
कुछ ऐसा
जिसे फिर चाह कर भी समेट न सकूँगा
और किसी ऊँचाई पर बैठा कभी
ख़ुद को देखूँगा
सोचूँगा
पर किसी सोच से
किसी समझ से
यह न जान सकूँगा
कि यह क्या मृगतृष्णा है
जो कभी पूरी नहीं होती।
मैं हर बार
किसी गंदी सतह पर
लोट जाता हूँ,
अपने अस्तित्व को खोजते-खोजते
मुझसे मेरा सब कुछ खो गया
न भावनाओं पर वश रहा
न किसी सोच की सीमा रही
न नैतिकता को ही समझ सका
न अपनी पहचान ही ख़ुद को बता पाया,
इस महती खोज में
जिसमें कभी निकला था आत्मविश्वास से
कि ढूँढ़ूँगा कुछ ऐसा
जिसे किसी ने पाया नहीं
जो मुझे देगा बोध
संपूर्णता का,
उस खोज में
मैं अकिंचन ही होता गया
और जहाँ कोई हवस बची थी ख़ुद को
ऊँचा रखने की, वहीं मैं
धँसता चला गया
दिशाओं की ओर हाथ बढ़ाता कि
कोई तो खींच ले
और हाथ-पैर मारते-मारते
मेरे मुँह में ही कीचड़ भर गया,
सच है—अपनी पुकार बस हम सुनते हैं,
कभी तो चीख़ पड़ने की भी सामर्थ्य खो जाती है,
किसी की बाँह भी नहीं मिलती थाम लेने को
और बर्फ़ की सिल्ली की तरह
रिसता-रिसता अपना अस्तित्व ही
गल जाता है।
जहाँ जो भी अस्तित्ववान् है
वह किसी प्यास में लगातार चीख़ता है
पर सूखते जाते गले से
आवाज़ नहीं आती,
हाथ के नाख़ूनों से
ख़ुद को काट-काटकर टीस सहने में
जहाँ पहले कष्ट होता था
फिर मज़ा आने लगा
और पागल-सा आदमी
अस्थि-पंजर से लटके गोश्त को
नोच-नोचकर ख़ुद को महसूस करता है,
नंगा होकर
दीवार से रगड़ता है
कि बदन हिल जाए
कोई धीरे-धीरे गरमाने का
लहकता हुआ एहसास हो
बस यही तो अस्तित्व है
कि भोगते रहो अपने होने को
उस देह के संवेदनों को
ख़ुद ही महसूस करो
हँसो-गाओ-गुनगुनाओ
उछलो-कूदो-रोओ-सिसको-कराहो
फिर सिर को अपने पैरों पर रखकर
गोद में सिर छिपा
चुप हो शांत हो जाओ
समय के बहाव में
सब बनता है
और झर जाता है
पर देह
अपने संवेदनों से मुक्त न हो
कभी सोता
कभी जागता है
बस दौड़ते रहने में
भागते रहने में
पकड़ने में, भींचने में, दबोचने में
काट खाने में रिसते ख़ून से उठती गंध में
नहाने में
कोई अंतर नहीं आता
बस एक अंतहीन अंधी दौड़
जहाँ सब पता है
क्या करना है
किसी बदबूदार नाले में
साँस लेना है
उसकी दुर्गंध को
ख़ुद में समेटना है
और वहीं उल्टी कर देनी है
उल्टी को समेटना है
उसे मथ-मथकर गाना है
एक बोध से आगे
अस्तित्व कहीं नहीं जाता
सारे चिंतन में जो टिका है अस्तित्व पर
कुछ नज़र नहीं आता
अँधेरे में हाथ मारते-मारते
कभी साँप मिलते हैं
कभी बिच्छू
कभी चींटियाँ रेंगती मिलती हैं
कभी काली बिल्लियाँ
और सब मिलकर
आवाज़ करते हैं
वह आवाज़
जो निकलती है
पर मरती नहीं
मारती है
दूसरे को नहीं ख़ुद को!
- रचनाकार : शशि शेखर
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए अदिति शर्मा द्वारा चयनित
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