जन-गण-मन

jan gan man

 

एक

मुझे माफ़ करना मेरे दोस्तों
मैं एक पराजित योद्धा हूँ और 
मेरे पास तुम्हें देने के लिए 
कोई उपदेश नहीं है
इसलिए नहीं कि मुझे बिठा दिया गया है
प्यास के पहाड़ों पर
कि मेरी आँखों में टाँग दिया गया है
भूख का भूगोल
कि मेरी अंतड़ियों को मरोड़कर भींच दिया गया है 
मुट्ठियों के बीच 
कि मेरी आत्मा पर पतन का अंतिम प्रहार 
कर दिया गया है
वरन् इसलिए कि 
न तो मौत आती है 
और न मैं ये बात भूल पाता हूँ
कि मैं एक योद्धा हूँ
और पराजित हो गया हूँ

दो

मैं एक पराजित योद्धा हूँ
और पड़ गया हूँ मौत का बिस्तर बिछाकर
जलते हुए समंदर की बड़वाग्नि में
मैं सोचता हूँ कि मैं बुरा फँसा
मौत सोचती है कि मैं बुरे फँसी
समंदर सोचता है कि मैं बुरे फँसा
और अग्नि समझती है कि मैं बुरे फँसी
मैं सोचता हूँ कि ये मौत बिना मारे मुझे छोड़ेगी नहीं 
और मौत सोचती है कि ये आदमी तो मरेगा नहीं
और समंदर सोचता है कि इस झगड़े का तो कोई 
अंत ही नहीं है
और अग्नि सोचती है कि जब तक अंत नहीं होगा,
तब तक जलना पड़ेगा
फ़िलहाल मैं एक पराजित योद्धा हूँ
और पड़ गया हूँ मौत का बिस्तर बिछाकर
जलते हुए समंदर की बड़वाग्नि में

तीन

मैं भी मरूँगा 
और भारत भाग्य विधाता भी मरेगा
मरना तो जन-गण-मन अधिनायक को भी पड़ेगा 
लेकिन मैं चाहता हूँ
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरे
फिर भारत-भाग्य विधाता मरे
फिर साधु के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूँ—आराम से, उधर चलकर बसंत ऋतु में
जब दोनों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगाता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा।

स्रोत :
  • पुस्तक : नई खेती (पृष्ठ 3)
  • रचनाकार : रमाशंकर यादव विद्रोही
  • प्रकाशन : सांस, जसम
  • संस्करण : 2011

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