एक झिलमिलाती इच्छा है रौशनी
ek jhilmilati ichchha hai raushani
क्यों आँसू बहाएँ
बोरियत के गंजे सिर पर
यह घृणित है या कुछ और…
सौंदर्यशास्त्र, तार्किकता…उफ़्!
भाषा में बोरियत
मैं अपनी पलकों पर
नक़ली पलकें सिलने में माहिर हूँ
गोमेद की पीतवर्णी झलक
सारी घृणा ख़त्म कर देती है
मै जानती हूँ परछाईं बुनना
जोकि दरवाज़ा बंद कर देती है
जब प्यार
दालान में खड़े होकर
होंठों से दस्तक देता है
तुम्हारे पत्रों को दुबारा पढ़ते हुए
मैं हमारी यात्राओं के बारे में सोचती हूँ
गर्मियों के सारे वायदे
डफ़ीन1 में अटके हुए हैं—
घंटियों के नीचे जम्हाई लेते हुए
अब पाँच बज चुके हैं
पतंगें, फ़र्श के पत्थर, बिखरी धूल…
कुछ भी नहीं दीखते
रूमाल की तरह बेतरतीब फ़र्श
सारा दृश्य उलझा हुआ और कामुक
कोट के हुक पर ऊन चढ़े हुए
मंथर बीतती रात
अपना गला साफ़ करती है
इधर मेरी मेज़ पर सुंदर बेतरतीबी
आँसू क्यों बहाना ख़ून की दावत पर?
उस बूढ़े की जाँघों के बीच क्यों तलाश करना?
ओ वेनिस!
मैं तुम्हें ढक लेने के लिए तैयार हूँ—
मेरे नर्म घेरे की मेरी गुलखैरी जीभ के साथ
चोरी के फ़र को तराशने के लिए तैयार
तुम्हारी बकवास बाँहों में नम होकर
गिरने को तैयार
क्यों बहना, मेकअप करना, गुलछर्रे उड़ाना
उत्तर क्यों देना?
भागना क्यों?
तुम्हारी जमी हुई नींद की स्मृति
हरदम मेरा पीछा करती है
अब फिर तुमसे कब मिलूँगी
अपनी हालत पर बिना आँसू बहाए।
- पुस्तक : सदानीरा पत्रिका
- संपादक : अविनाश मिश्र
- रचनाकार : जॉयस मन्सूर
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