दलितों-आदिवासियों का भारत बंद है साहेब!
daliton adivasiyon ka bharat band hai saheb!
(21 अगस्त को भारत बंद के दौरान हमारा क्रांतिकारी शहर)
शहर और शहर के लोग
अक्सर एक इकाई की तरह देखे जाते हैं
वहाँ के वासिंदो को नाज़ रहता है
अपने शहर के इतिहास-भूगोल पर
मैं जिस शहर में रहता हूँ
वह बहुत इज़्ज़तदार शहर है
बहुत तरक़्क़ी पसंद शहर है
यहाँ कवि, लेखक, समाज सुधारक
और देश की चिंता करने वाले लोग निवास करते हैं।
मेरे शहर में दफ़न है पिता से बगावत करने वाला
मुगल शहजादा
शाहज़ादे की माँ भी यहीं दफ़न है।
हमारा शहर दुखी मुगल शहज़ादे की
स्मृतियों को सीने से लगा रखा है
हमारा शहर
उसके क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ता है
हर साल जलसा करता है
मर्सिया पढ़ता है
कुरआन पाक का तेलावत करता है।
हमारा शहर धर्म–नगर है
देश की दो महान नदियों का संगम है यहाँ
गंगा-जमुनी तहज़ीब का यह शहर
मानवता और अध्यात्म का अक्षय स्रोत है साक्षात।
हमारे शहर की बेटियाँ
झँडाबरदार होती आई हैं हमेशा से
शहर के कई बागों में उन्होंने उपवास किया है
क्रांति की गीत गाई हैं।
क्रांति और नवजागरण की समृद्ध विरासत की नीव पर खड़े
हमारे शहर के वासिंदे बहुत ख़ास हैं
मानवाधिकार के हनन पर
वह ईंट से ईंट बजा देते हैं
शहर का अभिजन नागरिक समाज सजग रहता है हमेशा।
21 अगस्त 2024 का भारत बंद
अलग था
इस बार शहर एक इकाई के रूप में नही दिखा
मंडल आयोग को मसीहा मानने वाले
ख़ामोश रहे इस बार
अमीर–ग़रीब पर तक़रीर करने वाले
मग्न थे दुनिया बदलने वाली किताबों को बाँचने
और इस आंदोलन की ताकत आँकने में।
दलितों–आदिवासियों के भारत बंद में खुली थीं–
सैलून की दूकानें
व्यस्त थे केशकलाकार
दाढ़ी-मूछें और केश संवारने में।
सछूत पिछड़ी जातियों के दुकानदार
चाय बना रहे थे
समोसा तल रहे थे
लोहे–ताम्बे और पीतल के कारीगर
बर्तनों और मूर्तियों को गढ़ रहे थे
मिट्टी के कारीगर
दीया-कलश और खिलौनों पर रंग चढ़ा रहे थे।
हर मोर्चे में खड़े होने वाले रिक्शा चालक
रिक्शा चला रहे थे
सब पेट की फ़िक्र में लगे थे।
नुक्कड़–चौराहे पर तैनात थे वर्दीधारी
शहर अपनी लय में चल रहा था।
वर्दीधारियों को लक्ष्य करके मुसाफ़िर ने
जब रिक्शे वाले से पूछा
तब पैडल पर जोर लगाते
बोलने लायक साँस संभालते
पाँच–सात लोगों की ओर इशारा करते हुए
रिक्शा वाला बोला–
‘आज दलितों–आदिवासियों का भारत बंद है साहेब’
मुसाफ़िर मुड़ा और देखा–
चौराहे से पाँच-सात लोग चले आ रहे थे
उनकी आवाज़ें बुलंद थीं–
‘बैकलाग भर्ती बहाल करो...’
‘एस, एसटी का बंटवारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा...’
बेखौफ़ आवाज़ें
संगीनों के साए में आगे बढ़ गईं
और रिक्शा
बगावती मुग़ल शहज़ादे की क़ब्र से दाएँ मुड़ गया...
- रचनाकार : जनार्दन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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