मैं क्या पढूँ?
main kya paDhun?
60 वर्षों से उपन्यास और कहानी पढ़ता आ रहा हूँ—एक छात्र के रूप में और फिर एक अध्यापक के रूप में। दोनों ही स्थितियों में मैं पाठक ही रहा हूँ। छात्रावस्था में सभी लोगों के लिए संसार रहस्यमय रहता है। उसी के साथ हम लोगों के हृदय में जो एक महत्त्व की आकांक्षा होती है, उसके कारण इस संसार में सर्वत्र एक गौरव खोजते हैं। कल्पना-जगत में सौंदर्य के साथ शौर्य का मेल होता है। राजकुमार अप्रतिम सुंदरी की खोज में सात समुद्र पार कर कठिन विपत्तियों का सामना करता है और अंत में अपने सभी विरोधियों को पराभूत कर उस सुंदरी को पा लेता है। यह सुंदरी भी उसके शौर्य से प्रसन्न होकर उसके गले में जयमाला डाल देती है। सभी प्रारंभिक उपन्यासों में हम प्रेम के साथ शौर्य की कथा पढ़ते हैं। पर भगवती चरण वर्मा जी के 'भूले बिसरे चित्र' पढ़ने के बाद अब 72 वर्ष की अवस्था में मैं यह सोचने लगा हूँ कि अब क्या पढूँ? मैं तो कथा साहित्य का ही प्रेमी पाठक रहा हूँ। हिंदी में औपन्यासिक साहित्य का जो विकास हुआ उसे मैं स्वयं देख चुका हूँ। कथा-साहित्य के संबंध में शोध निबंध पूर्ववर्ती उपन्यासकारों की समीक्षा करते हैं। अधिकांश विज्ञों की दृष्टि में प्रेमचंद जी ने ही हिंदी के औपन्यासिक साहित्य में प्राण-प्रतिष्ठा की। यह सच है कि हिंदी साहित्य ने विशेष गौरव प्राप्त नहीं किया। उस समय हिंदी में बंग भाषा के श्रेष्ठ उपन्यासकारों के उपन्यासों के अनुवाद विशेष लोकप्रिय थे। कितने ही श्रेष्ठ लेखकों ने अनुवाद का यह काम किया है। उन दिनों में न तो मौलिक कृतियों में कोई विशेष साहित्यिक गौरव देखता था और न अनुवादों में कोई हीनता। मौलिक उपन्यासों में मैं 'परीक्षा-गुरु' पढ़ चुका था। भट्ट जी के नूतन ब्रह्मचारी और सौ अजान एक सुजान से परिचित हो चुका था। लज्जाराम मेहता के पूर्व रसिकालाल की कथा में भी मुझे रस मिला था। परंतु बंकिम बाबू और रमेश बाबू के उपन्यासों की ओर मेरा विशेष आकर्षण था। उनकी कृतियों में प्रेम के साथ शौर्य की अपूर्व कथाएँ थीं। देवी चौधरानी को पढ़कर कौन छात्र मुग्ध नहीं होगा? 'आनंद मठ' से किस छात्र को देशभक्ति की सच्ची प्रेरणा नहीं मिलेगी? 'माधवी कंकण' में किस छात्र को आल्हाद नहीं होगा? फिर भी मौलिक उपन्यासों में भी उन दिनों की एक ऐसा उपन्यास था, जिसने बालकों के साथ-साथ वृद्धों को भी अपने रचना-कौशल से आकृष्ट कर लिया था। वह था देवकीनंदन खत्री का चंद्रकांता। मैंने कहीं पढ़ा था कि शिवप्रसाद गुप्त जी उनके उपन्यासों के ऐसे प्रेमी थे कि ज्यों ही खत्री जी एक भाग समाप्त करते थे त्यों ही प्रेस में भेजे जाने के पहले ही वे उसे पढ़ डालते थे।
लोकप्रियता की दृष्टि से बंग भाषा के उपन्यासों के अनुवाद ने भी जनता में यह स्थान प्राप्त नहीं किया, जो देवकीनंदन खत्री के चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति नामक उपन्यासों ने किया। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि उन दिनों कितने ही लोग एक स्थान में बैठ जाते थे, कोई एक व्यक्ति चंद्रकांता-संतति पढ़ता जाता था और बाक़ी लोग उसे ध्यान से सुना करते थे। यह आश्चर्य की बात है कि अभी तक चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति के प्रति साधारण पाठकों को एक आकर्षण है। जब 1918 में प्रेमचंद जी का सेवा सदन प्रकाशित हुआ, तब मैं स्वयं हिंदी साहित्य के क्षेत्र में प्रविष्ट हो चुका था। उस समय मैं बंग भाषा के श्रेष्ठ उपन्यासकारों की कला-कुशलता से परिचित हो चुका था। मैं अभी तक बंग भाषा के उपन्यासों के अनुवाद पढ़ता रहता हूँ। उपन्यासों में जो पात्र अंकित हुए हैं, उनमें से कितनों ने मुझ पर विशेष प्रभाव डाला है। वृद्धावस्था में भी मैं शरत बाबू के इंद्रनाथ और श्रीकांत को नहीं भूल सकता। बनफूल के सदाशिव तो मेरे लिए अविस्मरणीय हैं। पर हिंदी के औपन्यासिक पात्रों में ऐसे आकर्षक पात्र मुझे नहीं मिले हैं। रंगभूमि में मैं विनय की ओर आकृष्ट हुआ। अज्ञेय जी के शेखर से भी प्रभावित हुआ। फिर भी वे मेरे लिए चिर-परिचित मित्र की तरह स्पृहणीय नहीं हुए इसी से हिंदी के मौलिक उपन्यासकारों की कृतियों पर मेरा आकर्षण कम हो रहा है। भगवतीचरण वर्मा के भूले बिसरे चित्र पढ़ने के बाद तो मैं जब हिंदी के आधुनिक उपन्यास पढ़ने बैठता हूँ, तब मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मानों मैं किसी अपरिचित लोक में भटक रहा हूँ। आधुनिक नायकों और नायिकाओं के चरित्र में मैं न कोई प्रेम का गौरव देख पाता हूँ और न पौरुष का कोई गुण ही। वासनाओं के विकृत चित्रों से मुझे विरक्ति हो जाती है। भूले बिसरे चित्र के नायक की तरह मैं भी अपने साथियों से पूछा करता हूँ, क्यों भाई! तुम क्या यह सब कुछ समझ लेते हो? तब वे लोग भी यही उत्तर देते हैं, हम लोग तो कुछ नहीं समझते। और तभी मैं हताश होकर यह सोचता हूँ कि मैं क्या पढूँ?
हिंदी में कहानियों की विशेष समीक्षाएँ हो रही हैं। किसी कृति की विशेष निंदा भी। हम लोगों के समान जो साधारण कथा-प्रेमी पाठक हैं, उनके लिए विज्ञों की इन समीक्षाओं और आलोचनाओं से कोई संतोष नहीं होता। नई धारा के संपादक ने एक बार हिंदी के उपन्यासकारों के संबंध में लिखा था कि यदि पूरे देश के साहित्यकारों में चोटी के पाँच नाम लिए जाएँ, तो क्या हिंदी का एक भी लेखक उनमें आ सकेगा? हमें अपनी कृतियों की ओर देखना पड़ेगा कि वे सचमुच कैसी हैं और जनता की नज़र में उनका क्या मूल्य है। कुछ मित्र-आलोचकों और संपादकों की कृपा से प्रशस्तियाँ प्रकाशित कराके हम अपने को बहला सकते हैं, पर हिंदी का कथा साहित्य आज मृतप्राय हो गया है। आजकल की कहानियों को लेकर पाठकों के लिए बड़ी विस्मयजनक स्थिति हो जाती है। उपेंद्रनाथ अश्क भी ने लिखा है कि नए कहानीकारों के इस या उस ग्रुप के झंडावर समालोचकों के परस्पर विरोधी ही नहीं, कई बार आत्मविरोधी लेखों को पढ़कर इस बात का निश्चय तक कर पाना कठिन हो जाता है, कि अच्छी या नई कहानी कौन-सी है। नामवर जी ने तो अपने एक लेख में यह लिखा है कि पुरानी और अच्छी ये परस्पर विरोधी शब्द हैं, पुरानी अच्छी हो ही नहीं सकती। चंद्रगुप्त विद्यालंकार जी ने लिखा है कि हिंदी के कुछ नए कहानी लेखक डंके की चोट से यह दावा करने लगे हैं कि अभी तक की हिंदी कहानी सिर्फ़ कूड़ा-कचरा थी, उनमें मूल्यों का प्रावधान ही कहीं नज़र नहीं आता है। हम लोग हिंदी कहानी का उद्धार कर रहे हैं। पर कितने ही नए कहानी लेखकों ने ऊबड़-खाबड़ रेवलिंग को नई कहानी के नाम पर विघ्नता के नाम पर लिखना शुरू किया है। वे विश्व साहित्य को अपनी शानदार देन मानने लगे हैं। मेरी राय में इस मूर्खतापूर्ण बुद्धि से बहुत बड़ा अहित हुआ है। विज्ञों के इस विचार में मेरे समान पाठक कभी नहीं पढ़ते। उन्हें आम खाने से काम, गुठली गिनने से उन्हें कोई लाभ नहीं होता। आम चाहे कहीं का हो, यदि उसे खाकर हमें तृप्ति नहीं हुई तो बनारस, बंबई या लखनऊ का कोई भी आम हम में तृप्ति नहीं ला सकता। इसी प्रकार यदि कहानियाँ से हमें रस नहीं मिला, तो समीक्षकों की कितनी भी विद्वतापूर्ण समीक्षा या व्याख्या क्यों न हो, वह हमें कहानियों की ओर आकृष्ट नहीं कर सकती। कहानी में कला का वह आकर्षण कैसा होता है, इसका वर्णन प्रसिद्ध अँग्रेज़ी लेखक बुडहाऊस ने अपनी एक कहानी में किया है। उस कहानी का मर्म यह है :
एक बार एक नवयुवक एक जासूसी फ़िल्म देखने के लिए गया। वह स्वयं जासूरी उपन्यासों का बड़ा प्रेमी था। इसीलिए जब कोई जासूसी फ़िल्म आती, तो वह अवश्य देखने के लिए जाता। उस दिन संयोगवश एक सुंदर नवयुवती उसी के समीप बैठी थी। वह भी जासूसी उपन्यासों से अनुराग रखती थी। इसी कारण उन दोनों में परिचय हो गया। वे दोनों अपने-अपने प्रिय जासूसों की पटुता की बातें करने लगे। जब खेल प्रारंभ हुआ तब वह युवती उसमें इतनी तल्लीन हो गई कि वह सब कुछ भूल गई। एक स्थान पर वह जोश में आकर खड़ी हो गई और उस नवयुवक के पैर पर पैर रखकर दबाने लगी। जब नवयुवक ने इसकी ओर उसका ध्यान आकृष्ट किया तब वह लज्जित हो गई। परंतु इस परिचय का परिणाम यह हुआ कि दोनों में पहले तो घनिष्टता हुई और फिर प्रेम युवक उस युवती से विवाह करने के लिए व्यग्र हो उठा। युवती ने बतलाया कि वह अपनी संरक्षिका चाची के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकती है और उसकी चाची इस विवाह का विरोध कर रही है। युवक और युवती दोनों को यह चिंता हुई कि किस प्रकार चाची का विरोध दूर किया जाए। वह चाची भी रहस्यमय उपन्यासों की पाठिका थी। एक बार युवक ने युवती को एक कौतूहलवर्द्धक उपन्यास दिया था। चाची ने उसे अपनी भतीजी के कमरे में पाया और उसे पढ़ने में वह तल्लीन हो गई। यह देखकर युवक ने उस चाची के कमरे में छिपकर उस उपन्यास को उठा लिया और फिर उसे वह अपने कमरे में ले आया। चाची उस उपन्यास के लिए विशेष व्यग्र हुई। जब उसे मालूम हुआ कि उसे वह युवक ले गया है, तब वह उसके कमरे में पहुँची। उस युवक ने कहा कि पहले आप विवाह की अनुमति दीजिए, तब आपको वह उपन्यास दूँगा। चाची उस उपन्यास को पढ़ने के लिए इतनी व्यग्र थी कि उसने विवाह की अनुमति दे दी। यह कथा का सच्चा रस है, जिसे पाने के लिए साधारण पाठक उपन्यास पढ़ते हैं।
अँग्रेज़ी के उपन्सास-लेखक स्टीवेंसन साहब विचित्र घटनाओं से पूर्ण कौतूहलवर्द्धक उपन्यासों के लिए प्रसिद्ध हैं। ट्रेज़र आइलैंड उनका ऐसा हो कौतूहलवर्द्धक उपन्यास है। स्कूलों और कॉलेजों के छात्रों के लिए वह उपन्यास कभी-कभी पाठ्य-पुस्तक हो जाता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक रमण के संबंध में बताया गया है कि उन्होंने एक दिन एक रेलवे बुक स्टाल में ट्रेज़र आइलैंड की प्रति देखी। उसको वे अपनी छात्रावस्था में पढ़ चुके थे, उसे देखकर उन्होंने उसे ख़रीद लिया। प्रौढ़ावस्था में भी उपन्यास को पढ़कर वे बड़े प्रसन्न हुए। उसी दिन उन्होंने स्टीवेंसन साहब के अन्य उपन्यासों को भी ख़रीद लिया। यह कथा का रस है।
विज्ञ लोग चाहे जो कहें, साधारण पाठक उपन्यासों को सामाजिक समस्याओं का समाधान करने के लिए नहीं पढ़ते। प्रेमचंदजी ने अपने सेवा सदन में एक सामाजिक समस्या को लिया है, परंतु क्या यह कहा जा सकता है कि सेवा सदन में सुमन की जीवन-समस्या का सचमुच समाधान हो गया? पति से तिरस्कृत होकर उसने विद्रोही भाव से जिस वेश्यावृत्ति को स्वीकार किया, वह विद्रोही-भाव क्या सेवा सदन में जाकर लुप्त हो गया? उसमें तारुण्य था, सौंदर्य था और वासना भी थी। अपने अस्थायी जीवन में उसने अपने रूप के उपासकों के साथ जो व्यवहार किया था, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नारी सौंदर्य में कितना आकर्षण होता है, यह वह जानती थी। इसके बाद एक के प्रति उसके भी हृदय में विशुद्ध प्रेम का आविर्भाव हुआ, भले ही उस युवक का विवाह उसी की बहिन से हो गया। परंतु उस युवक ने सुमन के हृदय में एक हलचल तो मचा दी थी। यह कौन कह सकता है कि फिर उसके जीवन में ऐसा कोई युवक नहीं आया? परंतु हम लोग सुमन की जीवन-समस्या पर विचार नहीं करते। हम तो सेवा सदन को उसी रूप में पढ़ लेते हैं और एक तृप्ति का अनुभव करते हैं। यही बात अन्य उपन्यासों के संबंध में भी कही जा सकती है। गोदान यथार्थवादी उपन्यास कहा गया है। उसमें ज़मींदार के शोषण और किसान की यथार्थ अवस्था का चित्र अंकित किया गया है। जीवन की जो यथार्थता है, उसकी अनुभूति हम स्वयं करते हैं उसके लिए उपन्यासों के कल्पित माया-लोक के कल्पित पात्रों की कल्पित समस्याओं और उसके समाधानों से पाठकों को संतोष नहीं हो सकता। टेढ़े-मेढ़े रास्ते के उत्तर में सीधे-सादे रास्ते लिखे जाएँ अथवा पाथेर पाँचाली के जवाब में दादा कामरेड की रचना की जाए तो, पाठक लेखकों के साथ उनके कल्पित माया-लोक में विचरण करने में तल्लीन हो जाता है। तभी उसे तृप्ति होती है। उपन्यास का प्रभाव पाठकों पर पड़ता है। पर वह ऐसे अलक्षित रूप से पड़ता है कि पाठक स्वयं उसका विश्लेषण नहीं करता, वह उसको आत्मसात् कर लेता है। यही कारण है कि उपन्यासों के कितने ही पात्र पाठकों के लिए उनके मित्रों की भाँति सहचर हो जाते हैं। हमें ऐसे उपन्यास पढ़ने से विरक्ति नहीं होती, जिनमें हम अपने परिचित सहचरों के समान औपन्यासिक पात्रों से मिलते हैं। ड्यूमा नामक फ्रेंच लेखक के संबंध में कहा जाता है कि वह अपने उपन्यास के पात्रों के साथ स्वयं बातचीत किया करता था। वे पात्र उनके लिए बिल्कुल सजीव थे। श्रेष्ठ उपन्यासों के पात्र भी पाठकों के लिए ऐसे ही सजीव हो जाते हैं। हिंदी के उपन्यासों में मैं स्वयं छः उपन्यासों से विशेष प्रभावित हुआ हूँ। मैं उन्हें कई बार पढ़ चुका हूँ और कई बार पढ़ने पर भी मुझे उनसे विरक्ति नहीं होती। 'गोदान' की अपेक्षा में 'रंगभूमि' से अधिक प्रभावित हुआ। भगवती बाबू के टेढ़े-मेढ़े रास्ते से मुझे विशेष संतोष हुआ। जैनेंद्र के उपन्यासों में 'सुखदा' ने मुझे विशेष आकृष्ट किया। अज्ञेय जी के 'शेखर' से भी अधिक औपन्यासिक रस मुझे भगवती बाबू के 'भूले बिसरे चित्र' में प्राप्त हुआ। हिंदी में कितने ही नए-नए उपन्यास लिखे जा रहे हैं। स्वयं भगवती बाबू ने भी अन्य उपन्यासों की रचना की है, परंतु मुझे तो अब नई कृतियों से संतोष नहीं होता।
मैं स्वयं 72 वर्ष का हो गया हूँ। तरुणावस्था और प्रौढ़ावस्था दोनों को अतिक्रमण कर चुका हूँ। तारुण्य काल में जिस रूप के लिए लालसा होती है, उस रूप की विकृति वृद्धावस्था में देख चुका हूँ। मेरे तारुण्य काल में जो नारियाँ, सौंदर्य की देवियाँ थीं, उनमें अब वह सौंदर्य नहीं रहा। इसी प्रकार रूपोन्माद के साथ वासना की जो आँधी आती है, और जिसके कारण हम सारी मर्यादा को छिन्न-भिन्न कर देते हैं, वह भी प्रौढ़ावस्था की चिंता में अपनी प्रचंडता खो बैठती है। वृद्धावस्था में तो वासना का वह उन्माद उपहास-जनक जो जाता है। इसीलिए अत्याधिक उपन्यासों में वासना के जो चित्र अंकित होते हैं, उनमें मैं किसी भी प्रकार की दिव्यता नहीं देख सकता। मैं जान गया हूँ कि वे सब तारुण्य काल के विकार मात्र हैं। ऐसे तरुणों की प्रेम-लीलाओं में वासना के नाम से भावों का जो उत्थान-पतन प्रदर्शित किया जाता है, उसमें तारुण्य की अहंवृत्ति भी काम करती है। सभी तरुण यह समझते हैं कि वे स्वयं अपने भाग्य के विधाता हैं। उनमें आत्म-विश्वास की दृढ़ता रहती है, वे अपने भीतर एक आत्मगौरव भी पाते हैं। इसीलिए समझते हैं किसी भी नारी का हृदयेश्वर बनने में उन्हें कोई बाधा नहीं है। यह है आधुनिक समाज में जो एक नवीन स्थिति उत्पन्न हो रही है उसके कारण नारी के जीवन में एक जटिलता आ गई है। उसमें युवतियों के साथ-साथ युवकों मानसिक उलझनें विकसित हो रही हैं उसके कारण कभी-कभी समाज के भीतर असाधारण प्रेम के प्रसंग उत्पन्न हो जाते हैं। अपने जीवन में मैं प्रेम की ऐसी असाधारण स्थितियों को स्वयं देख चुका हूँ। जैनेंद्र जी का त्याग पत्र पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि यदि मृणालिनी का विवाह उनकी इच्छा के अनुसार उसके प्रेमी डॉक्टर से हो जाता, तो उनका जीवन दुःखमय न होता। परंतु सुनीता में ठीक इसके विपरीत जीव की स्थिति अंकित की गई है। मैंने भी अपने जीवन में देखा है कि प्रेम के सूत्र में बद्ध होकर जिन युवकों और युवतियों ने विवाह बंधन को स्वीकार किया, उनका भी जीवन सुखमय नहीं रहा। ऐसी भी स्थिति मैंने देखी है, जहाँ कितने ही वर्षों तक परस्पर पति-पत्नियों के रूप में सुखमय जीवन व्यतीत करने के बाद पति-पत्नी में विच्छेद हो गया है। यही नहीं, प्रेम के बंधन में बल और सब प्रकार से श्री-सम्मन होने पर भी स्त्रियों और पुरुषों में ऐसी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं, कि उन लोगों के लिए अपना जीवन दुर्वह भी हो गया। किसी-किसी स्त्री ने तो आत्महत्या तक कर डाली। जैनेंद्र जी के कितने ही उपन्यासों में जीवन का जो चित्र अंकित हुआ है उसके कारण सचमुच ऐसा जान पड़ता है कि जीवन एक पहेली है। प्रेम के संबंध में यह कहा जा सकता है कि यथार्थ में प्रेम एक मिथ्या भावना है और उसमें वासना ही काम करती है। वासना में अतृप्ति होने के कारण जैसे युवक अपनी एक प्रेमिका को छोड़कर दूसरी और तीसरी भी बना डालते हैं उसी प्रकार स्त्री भी अपने एक प्रेमी को छोड़कर दूसरे और तीसरे पुरुष को प्रेमी के रूप में स्वीकार कर लेती है। अंत में जब प्रौढ़ावस्था आ जाती है तब प्रेम का रूप त्याग और सेवा में लक्षित होता है। अधिकांश उपन्यासों में तारुण्य की लीलाओं का ही वर्णन होता है। अपनी इन्हीं लीलाओं के कारण गुनाहों के देवता बनकर एक कल्पित गौरव का भी अनुभव करते हैं। हाल्केन के उपन्यास में बतलाया गया है कि एक युवक एक युवती के साथ प्रेम करता था। युवती भी उससे अनुरक्त थी। उन दोनों के संरक्षक भी यही चाहते थे कि उन दोनों का विवाह हो जाए। उसके बाद उस युवक का छोटा भाई आया और वह उस युवती पर मुग्ध हो गया। युवती भी उस पर मुग्ध हो गई। यह बात जब उस युवक को मालूम हुई, तब उसने जान-बूझकर अपनी प्रेमिका का विवाह अपने छोटे भाई से करा दिया। परंतु उसने अपने भाई से यह प्रतिज्ञा करा ली कि वह अपने प्रेम में दृढ़ रहेगा। फिर भी उसका भाई अपने प्रेम में दृढ़ नहीं रहा। वह एक अन्य स्त्री पर अनुरक्त हो गया। ऐसी प्रेम-लीलाएँ अन्य उपन्यासों में भी वर्णित हुई हैं। तरुणावस्था में जो एक रूपोन्याद होता है, उसके कारण ऐसे कितने ही युवक ऐसे गुनाहों के देवता बन जाते हैं। उनके गुनाहों की भयंकरता का एक चित्र एक अँग्रेज़ी कहानी में अंकित किया गया है। उसमें बतलाया गया है कि एक नवयुवती का कोई संरक्षक नहीं था। उसकी केवल एक बहिन थी। वह युवती एक युवक पर ख़ूब अनुरक्त हो गई। उसे यह भी विश्वास हो गया कि वह युवक उस पर सच्चा प्रेम करता है। जब कभी वह युवक उसके घर आता, तब वह युवती बड़े प्रेम से उसका स्वागत करती थी। उसकी छोटी बहिन बाहर किसी स्कूल में पढ़ती थी। जब वह लौटी, तब वह युवक उसी पर मुग्ध हो गया। वह बड़ी बहिन की उपेक्षा करने लगा और छोटी बहिन से प्रेमालाप करने लगा। बड़ी बहिन को दुःख अवश्य हुआ, फिर भी उसने चुपचाप अपनी बहिन के सुख के लिए इस स्थिति को सह लिया। विवाह की बात भी तय हो गई, किंतु उसके बाद उस युवक ने एक दूसरी युवती को देखा। वह ऊँचे घराने की लड़की थी। वह उस गाँव से कुछ दूर दूसरे गाँव में रहती थी। वह युवक उस युवती पर मुग्ध हो गया। उसने उन दोनों बहिनों का तिरस्कार किया और इस तीसरी युवती के पास जाने लगा। यह बात उन दोनों बहिनों से छिपी न रही। छोटी बहिन को अत्याधिक दुःख हुआ। उसकी दयनीय स्थिति को देखकर बड़ी बहिन विशेष व्याकुल हुई और वह एक रात को उस युवक से मिलने के लिए गई। मालूम हुआ कि वह युवक अपनी प्रेमिका के घर गया हुआ है। तब वह युवती भी उस युवक की प्रेमिका के घर की ओर रवाना हुई। रास्ते में गाँव के बाहर एक नदी बहती थी। नदी में भयंकर बाढ़ आई हुई थी, अतः वह उस नदी के पुल के पास खड़ी होकर उस युवक की प्रतीक्षा करने लगी। आधी रात को वह युवक लौटा। वह ख़ूब शराब पी कर आया था। पुल के पास उसे रोक कर पहले तो उस युवती ने उसे ख़ूब समझाया, परंतु वह युवक उन दोनों बहिनों का उपहास करने लगा। तब उस युवती ने उसको ख़ूब ज़ोर से धक्का दिया और अचानक धक्का खाकर वह नदी में गिर पड़ा और डूबकर मर गया। वह युवती घर लौट आई और दोनों बहिनें निरपेक्ष भाव से अपना जीवन व्यतीत करने लगीं। केवल स्त्रियाँ ही पुरुषों से प्रताड़ित और तिरस्कृत नहीं होतीं। पुरुष भी स्त्रियों से ऐसे लांक्षित होते हैं। मैंने स्वयं अपने जीवन में ऐसे लोगों को देखा है जो अपनी स्त्रियों पर विशेष प्रेम रखकर भी उनसे प्रताड़ित हुए हैं। अमृतराय जी ने अपने एक छोटे उपन्यास में एक ऐसी ही कथा लिखी थी जो अपने पति से तिरस्कृत रहती थी, पर अपने प्रेमी के लिए बड़ी व्यग्र रहती थी। एक दिन उस प्रेमी का पत्र पाकर वह उसका स्वागत करने में तत्पर हो गई। उस दिन उसने अपने पति की विशेष उपेक्षा की। उसका पति उसके लिए पत्र लिखकर चला गया। उस पत्र में उसने अपनी पत्नी को मुक्त करने की बात लिखी थी साथ ही उसे अपने प्रेमी के साथ ही रहने की सलाह दी थी। उधर पति के जाने से बेख़बर पत्नी अपने प्रेमी के आगमन की प्रतीक्षा करती रही, पर उस प्रेमी के स्थान पर एक दूसरी युवती आई और उसने बताया कि उसका वह प्रेमी कितना बड़ा ठग है और उसने कितनी ही युवतियों को धोखा दिया है। तब वह स्त्री अपने पति के कमरे में गई। वहाँ उसने अपने पति के पत्र को पढ़ा और तब वह हताश होकर अपने कमरे में चुपचाप बैठी रही। यहीं कथा का अंत हो गया है।
इसमें संदेह नहीं कि अत्याधुनिक उपन्यासों में मनोविज्ञान का विश्लेषण किया जाता है, यथार्थवाद के नाम से जीवन के एक से एक कुत्सित चित्र अंकित किए जाते हैं। उस समय ऐसा जान पड़ता है कि मानों जीवन में कहीं गौरव ही नहीं है। सर्वत्र केवल एक हीनता है। उपन्यास-लेखक चाहे आदर्शवाद को स्वीकार करें या यथार्थवाद को, उसकी कृतियों में हम जीवन का एक विकृत रूप ही देखते हैं और तब उपन्यास पढ़ लेने के बाद हम लोग यह सोचने लगते हैं कि क्या सचमुच हम लोगों के जीवन की यही गति है। क्या जीवन की इन्हीं विकृतियों में ही उपन्यासकारों की सच्ची कला कुशलता है। क्या ऐसे उपन्यासकारों से हमें मानसिक तृप्ति होती है? एक के बाद एक जो उपन्यास पढ़ता हूँ उनमें केवल प्रेम की विकृति में ही उपन्यासकारों की कला कुशलता दिखाई देती है। मैं अपने समाज के भीतर इन समस्याओं का समाधान ढूँढ़ने के लिए सदैव तत्पर रहता हूँ। परंतु यथार्थ जगत में जिनमें उच्छिन्नता दिखाई देती है वही उपन्यास साहित्य में एक दिव्य रूप धारण कर लेती है। आर्थिक विषमता अवश्य है। स्वाधीनता की प्राप्ति से भी वह विषमता कम नहीं हुई है। भिन्न-भिन्न लेखक अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार विभिन्न कथाओं की रचना कर रहे हैं। पर अभी तक मेरे समान पाठकों के लिए हिंदी के अति आधुनिक उपन्यासों में वह रस नहीं मिलता, जो बंग भाषा के उपन्यासों में मिलता है। हम अभी तक शरत् बाबू के नारी पात्रों के साथ-साथ पुरुष पात्रों की कथाओं से एक विशेष तृप्ति का अनुभव करते थे। हिंदी का आधुनिक कथा-साहित्य मेरे लिए सचमुच विरक्तिजनक होता जा रहा है। इसलिए अब मेरे लिए विचारणीय हो गया है कि अब मैं क्या पढूँ?
- पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-7 (पृष्ठ 175)
- संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
- रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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