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रहस्यवाद

rahasyavad

जयशंकर प्रसाद

अन्य

अन्य

जयशंकर प्रसाद

रहस्यवाद

जयशंकर प्रसाद

और अधिकजयशंकर प्रसाद

    काव्य में आत्मा की संकल्पात्मक मूल अनुभूति की मुख्य धारा रहस्यवाद है। रहस्यवाद के संबंध में कहा जाता है कि उसका मूल उद्गम सेमेटिक धर्म-भावना है, और इसीलिए भारत के लिए वह बाहर की वस्तु है। किंतु शाम देश के यहूदी, जिनके पैगंबर मूसा इत्यादि थे, सिद्धांत में ईश्वर को उपास्य और मनुष्य को जिहोवा (यहूदियों के ईश्वर) का उपासक अथवा दास मानते थे। सेमेटिक धर्म में मनुष्य की ईश्वर से समता करना अपराध समझा गया है। क्राइस्ट ने ईश्वर का पुत्र होने की ही घोषणा की थी, परंतु मनुष्य का ईश्वर से यह संबंध जिहोवा के उपासकों ने सहन नहीं किया और उसे सूली पर चढ़वा दिया। पिछले काल में यहूदियों के अनुयायी मुसलमानों ने भी 'अनलहक' कहने पर मंसूर को उसी पथ का पथिक बनाया। सरमद का भी सर काटा गया। सेमेटिक धर्मभावना के विरुद्ध चलने वाले ईसा, मंसूर और सरमद आर्य अद्वैत धर्मभावना से अधिक परिचित थे।

    सूफ़ी संप्रदाय मुसलमानी धर्म के भीतर वह विचारधारा है जो अरब और सिंध का परस्पर संपर्क होने के बाद से उत्पन्न हुई थी। यद्यपि सूफ़ी धर्म का पूर्ण विकास तो पिछले काल में आर्यों की बस्ती ईरान में हुआ, फिर भी उसके सब आचार इस्लाम के अनुसार ही हैं। उनके तौहीद में चुनाव है एक का, अन्य देवताओं में से, कि संपूर्ण अद्वैत का। तौहीद का अद्वैत से कोई दार्शनिक संबंध नहीं। उसमें जहाँ कहीं पुनर्जन्म या आत्मा के दार्शनिक तत्त्व का आभास है, वह भारतीय रहस्यवाद का अनुकरण मात्र है। क्योंकि शामी धर्मों के भीतर अद्वैत कल्पना दुर्लभ नहीं, त्याज्य भी है।

    कुछ लोगों का कहना है मेसोपोटामिया बाबिलन के बाल, ईस्टर प्रभृति देवताओं के मंदिरों में रहने वाली देवदासियाँ ही धार्मिक प्रेम का उद्गम हैं और वहीं से धर्म और प्रेम का मिश्रण, उपासना में कामोपभोग इत्यादि अनाचार का आरंभ हुआ तथा यह प्रेम ईसाई धर्म के द्वारा भारतवर्ष के वैष्णव धर्म को मिला। किंतु उन्हें यह नहीं मालूम कि काम का धर्म में अथवा सृष्टि के उद्गम में बहुत बड़ा प्रभाव ऋग्वेद के समय में ही माना जा चुका है—कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसोरेतः प्रथमं यदासीत्। यह काम प्रेम का प्राचीन वैदिक रूप है। और प्रेम से वह शब्द अधिक व्यापक भी है। जब से हम ने प्रेम को Love या इश्क़ का पर्याय मान लिया, तभी से 'काम' शब्द की महत्ता कम हो गई। संभवतः विवेकवादियों की आदर्श भावना के कारण इस शब्द में केवल स्त्री पुरुष संबंध के अर्थ का ही भान होने लगा। किंतु काम में जिस व्यापक भावना का समावेश है, वह इन सब भावों को आवृत कर लेता है। इसी वैदिक काम की, आगम शास्त्रों में, कामकला के रूप में उपासना भारत में विकसित हुई थी। यह उपासना सौंदर्य, आनंद और उन्माद भाव की साधना प्रणाली थी। पीछे बारहवीं शताब्दी के सूफ़ी इब्न अरबी ने भी अपने सिद्धांतों में इसकी महत्ता स्वीकार की है। वह कहता है कि मनुष्य ने जितने प्रकार के देवताओं की पूजा का समारंभ किया है, उनमें काम ही सब से मुख्य है। यह काम ही ईश्वर की अभिव्यक्ति का सब से बड़ा व्यापक रूप है।

    देवदासियों का प्रचार दक्षिण के मंदिरों में वर्तमान है और उत्तरीय भारत में ईसवीय सन् से कई सौ बरस पहले शिव, स्कंद, सरस्वती इत्यादि देवताओं के मंदिर नगर के किस भाग में होते थे, इसका उल्लेख चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में किया है। और सरस्वती मंदिर तो यात्रागोष्ठी तथा संगीत आदि कला-संबंधी समाजों के लिए प्रसिद्ध था। देवदासियाँ मंदिरों में रहती ही थीं, परंतु वे उस देवप्रतिमा के विशेष ¬अंतर्निहित भावों को कला के द्वारा अभिव्यक्त करने के लिए ही रहती थीं। उनमें प्रेम-पुजारिनों का होना असंभव नहीं था। सूफ़ी रबिया से पहले ही दक्षिण भारत की देवदासी अंदल ने जिस कृष्ण-प्रेम का संगीत गाया था उसकी आविष्कर्त्री अंदल को ही मान लेने में मुझे तो संदेह ही है। कृष्ण-प्रेम उस मंदिर का सामूहिक भाव था, जिस की अनुभूति अंदल ने भी की। ऐतिहासिक अनुक्रम के आधार पर यह कहा जा सकता है कि फ़ारस में जिस सूफ़ी धर्म का विकास हुआ था, उस पर काश्मीर के साधकों का बहुत कुछ प्रभाव था। यों तो एक-दूसरे के साथ संपर्क में आने पर विचारों का थोड़ा-बहुत आदान-प्रदान होता ही है, किंतु भारतीय रहस्यवाद ठीक मेसोपोटामिया से आया है, यह कहना वैसा ही है जैसा वेदों को 'सुमेरियन डॉकुमेंट' सिद्ध करने का प्रयास।

    शैवों का अद्वैतवाद और उनका सामरस्यवाला रहस्य-संप्रदाय, वैष्णवों का माधुर्य भाव और उनके प्रेम का रहस्य तथा कामकला की सौंदर्य-उपासना आदि का उद्गम वेदों और उपनिषदों के ऋषियों की वे साधना प्रणालियाँ हैं, जिनका उन्होंने समय-समय पर अपने संघों में प्रचार किया था।

    भारतीय विचारधारा में रहस्यवाद को स्थान देने का एक मुख्य कारण है। ऐसे अलोचकों के मन में एक तरह की झुँझलाहट है। रहस्यवाद आनंद पथ को उनके कल्पित भारतीयोचित विवेक में सम्मिलित कर लेने से आदर्शवाद का ढाँचा ढीला पड़ जाता है। इसलिए वे इस बात को स्वीकार करने में डरते हैं कि जीवन में यथार्थ वस्तु आनंद है, ज्ञान से अज्ञान से मनुष्य उसी की खोज में लगा है। आदर्शवाद ने विवेक के नाम पर आनंद और उसके पथ लिए जो जनरव फैलाया है, वही उसे अपनी वस्तु कहकर स्वीकार करने में बाधक है। किंतु प्राचीन आर्य लोग सदैव से अपने क्रियाकलाप में आनंद, उल्लास और प्रमोद के उपासक रहे; और आज के भी अन्यदेशीय आर्यसंघ आनंद के मूल संस्कार से संस्कृत और दीक्षित हैं। आनंदभावना, प्रियकल्पना और प्रमोद हमारी व्यवहार्य वस्तु थी। आज की जातिगत निर्वीर्यता के कारण उसे ग्रहण कर सकने पर, यह सेमेटिक है कहकर संतोष कर लिया जाता है।

    कदाचित् इन आलोचकों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि आरंभिक वैदिक काल में प्रकृति पूजा अथवा बहुदेव-उपासना के युग में ही, जब ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति’ के अनुसार एकेश्वरवाद विकसित हो रहा था, तभी आत्मवाद की प्रतिष्ठा भी पल्लवित हुई। इन दोनों धाराओं के दो प्रतीक थे। एकेश्वरवाद के वरुण और आत्मवाद के इंद्र प्रतिनिधि माने गए। वरुण न्यायपति राजा और विवेकपक्ष के आदर्श थे। महावीर इंद्र आत्मवाद और आनंद के प्रचारक थे। वरुण को देवताओं के अधिपति पद से हटना पड़ा, इंद्र के आत्मवाद की प्रेरणा ने आर्यों में आनंद की विचारधारा उत्पन्न की। फिर तो इंद्र ही देवराज पद पर प्रतिष्ठित हुए। वैदिक साहित्य में आत्मवाद के प्रचारक इंद्र की जैसी चर्चा है, उर्वशी आदि अप्सराओं का जो प्रसंग है, वह उनके आनंद के अनुकूल ही है। बाहरी याज्ञिक क्रियाकलापों के रहते हुए भी वैदिक आर्यों के हृदय में आत्मवाद और एकेश्वरवाद की दोनों दार्शनिक विचारधाराएँ अपनी उपयोगिता में संघर्ष करने लगीं। सप्तसिंधु के प्रबुद्ध तरुण आर्यों ने इस आनंद वाली धारा का अधिक स्वागत किया। क्योंकि वे स्वत्व के उपासक थे। और वरुण यद्यपि आर्यों की उपासना में गौण रूप से सम्मिलित थे, तथापि उन की प्रतिष्ठा असुर के रूप में सीरिया आदि अन्य देशों में हुई। आत्मा में आनंद भोग का भारतीय आर्यों ने अधिक आदर किया। उधर असुर के अनुयायी आर्य एकेश्वरवाद और विवेक के प्रतिष्ठापक हुए। भारत के आर्यों ने कर्मकांड और बड़े-बड़े यज्ञों में उल्लास पूर्ण आनंद का ही दृश्य देखना आरंभ किया और आत्मवाद के प्रतिष्ठापक इंद्र के उद्देश्य से बड़े-बड़े यज्ञों की कल्पनाएँ हुईं। किंतु इस आत्मवाद और यज्ञ वाली विचारधारा की वैदिक आयों में प्रधानता हो जाने पर भी, कुछ आर्य लोग अपने को उस आर्य संघ में दीक्षित नहीं कर सके—वे व्रात्यों कहे जाने लगे। वैदिक धर्म को प्रधान धारा में, जिसके अंतर में आत्मवाद था और बाहर याज्ञिक क्रियाओं का उल्लास था, व्रात्यों के लिए स्थान नहीं रहा। उन व्रात्यों ने अत्यंत प्राचीन अपनी चैत्यपूजा आदि के रूप में उपासना का क्रम प्रचलित रखा और दार्शनिक दृष्टि से उन्होंने विवेक के आधार पर नए-नए तर्कों की उद्भावना की। फिर तो आत्मवाद के अनुयायियों में भी अग्निहोत्र आदि कर्मकांडों की आत्मपरक व्याख्याएँ होने लगीं। उन्होंने स्वाध्याय-मंडल स्थापित किए। भारतवर्ष का राजनैतिक विभाजन भी वैदिक काल के बाद इन्हीं दो तरह के दार्शनिक धर्मों के आधार पर हुआ।

    वृष्णि संघ ब्रज में और मगध के व्रात्य और अयाज्ञिक आर्य बुद्धिवाद के आधार पर नए-नए दर्शनों की स्थापना करने लगे। इन्हीं लोगों के उत्तराधिकारी वे तीर्थंकर लोग थे जिन्होंने ईसा से हज़ारों वर्ष पहले मगध में बौद्धिक विवेचना के आधार पर दुःखवाद के दर्शन की प्रतिष्ठा की। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर विवेक के तर्क ने जिस बुद्धिवाद का विकास किया वह दार्शनिकों की उस विचारधारा को अभिव्यक्त कर सका जिसमें संसार दुःखमय माना गया और दुःख से छूटना ही परम पुरुषार्थ समझा गया। दुःखनिवृत्ति दुःखवाद का ही परिणाम है। फिर तो विवेक की मात्रा यहाँ तक बढ़ी कि वे बुद्धिवादी अपरिग्रही, नम्र दिगंबर, पानी गरम करके पीने वाले और मुँह पर कपड़ा बाँध कर चलने वाले हुए। इन लोगों के आचरण विलक्षण और भिन्न-भिन्न थे। वैदिक काल के बाद इन व्रात्यों के संघ किस-किस तरह का प्रचार करते घूमते थे, उन सबका उल्लेख तो नहीं मिलता; किंतु बुद्ध के जिन प्रतिद्वंद्वी मस्करी गोशाल, अजित केश-कंबली, नाथपुत्र, संजय बेलटिठ्पुत्र, पूरन कस्सप आदि तीर्थंकरों का नाम मिलता है, वे प्रायः दुःखातिरेकवादी, आत्मवाद में आस्था रखने वाले तथा बाह्य उपासना में चैत्यपूजक थे। दुःखवाद जिस मननशैली का फल था वह बुद्धि या विवेक के आधार पर, तर्कों के आश्रय में बढ़ती ही रही। अनात्मवाद की प्रतिक्रिया होनी ही चाहिए। फलतः पिछले काल में भारत के दार्शनिक अनात्मवादी ही भक्तिवादी बने और बुद्धिवाद का विकास भक्ति के रूप में हुआ। जिन-जिन लोगों में आत्मविश्वास नहीं था उन्हें एक त्राणकारी की आवश्यकता हुई। प्रणति वाली शरण खोजने की कामना-बुद्धिवाद की एक धारा-प्राचीन एकेश्वरवाद के आधार पर ईश्वरभक्ति के स्वरूप में बढ़ी और इन लोगों ने अपने लिए अवलंब खोजने में नए-नए देवताओं और शक्तियों की उपासना प्रचलित की। हाँ, आनंद वाद वाली मुख्य अद्वैतधारा में भक्ति का विकास एक दूसरे ही रूप में हो चुका था, जिसके संबंध में आगे चलकर कहा जाएगा।

    ऊपर कहा जा चुका है कि वैदिक साहित्य की प्रधान धारा में उसकी याज्ञिक क्रियाओं की आत्मपरक व्याख्याएँ होने लगी थीं और व्रात्य दर्शनों की प्रचुरता के युग में भी आनंद का सिद्धांत संहिता के बाद श्रुतिपरंपरा में आरण्यक स्वाध्याय मंडलों में प्रचलित रहा। तैत्तिरीय में एक कथा है कि भृगु जब अपने पिता अथवा गुरु वरुण के पास आत्म उपदेश के लिए गए तो उन्होंने बार-बार तप करने की ही शिक्षा दी और बार-बार तप करके भी भृगु संतुष्ट हुए और फिर आनंद-सिद्धांत की उपलब्धि करके ही उन्हें परितोष हुआ। विवेक और विज्ञान से भी आनंद को अधिक महत्त्व देने वाले भारतीय ऋषि अपने सिद्धांत का परंपरा में प्रचार करते ही रहे।

    तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात्। अन्योअंतर आत्मानंदमयः। तेनेप पूर्णः। वा एष पुरुषविव एव। तस्य पुरुषविधताम् अन्वयं पुरुषविधः। तन्य प्रियमेव शिरः। मोदो दक्षिणः पक्षः। प्रमोद उत्तर: पक्षः। आनंद आत्मा।

    उपनिषद् में आनंद की प्रतिष्ठा के साथ प्रेम और प्रमोद की भी कल्पना हो गई थी, जो आनंदसिद्धांत के लिए आवश्यक है। इस तरह जहाँ एक ओर भारतीय आर्य व्रात्यों में तर्क के आधार पर विकल्पात्मक बुद्धिवाद का प्रचार हो रहा था वहाँ प्रधान वैदिक धारा के अनुयायी आर्यों में आनंद का सिद्धांत भी प्रचारित हो रहा था। वे कहते थे—

    नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो मेषया बहुना श्रुतेन। (मुंडक)

    नैषा तर्केण मतिराषनेया। (कठ)

    आनंदमय आत्मा की उपलब्धि विकल्पात्मक विचारों और तर्कों से नहीं हो सकती।

    इन लोगों ने अपने विचारों के अनुयायी राष्ट्रों में परिषदें स्थापित की थीं और व्रात्य संघों के सदृश ही इनके भी स्वाध्यायमंडल थे, जो व्रात्य संघों से पीछे के नहीं अपितु पहले के थे। हाँ, इन लोगों ने भी बुद्धिवाद का अपने लिए उपयोग किया था; किंतु उसे वे अविद्या कहते थे, क्योंकि वह कर्म और विज्ञान की उन्नति करती है और नानात्व को बताती है। मुख्यतः तो वे अद्वैत और आनंद के ही उपासक रहे। विज्ञानमय याज्ञिक क्रियाकलापों से वे ऊपर उठ चुके थे। कंठ, पांचाल, काशी और कोसल में तो उन की परिषदें थीं ही, किंतु मगध की पूर्वीय सीमा पर भी उसके दुःख और अनात्मवादी राष्ट्रों के एक छोर पर विदेहों की बस्ती थी, जो संपूर्ण अद्वैतवादी थे। ब्राह्मण ग्रंथ में सदानीरा के उस पार यज्ञ की अग्नि जाने की जो कथा है उसका रहस्य इन्हीं मगध के व्रात्य संघों से संबंध रखता था। किंतु माधव विदेह ने सदानीरा के पार अपने मुख में जिस अग्नि को ले जाकर स्थापित किया था वह विदेहों का प्राचीन आत्मवाद ही था। इन परिषदों में और स्वाध्यायमंडलों में वैदिक मंत्रकाल के उत्तराधिकारी ऋषियों ने संकल्पात्मक ढंग से विचार किया, सिद्धांत बनाए और साधना पद्धति भी स्थिर की। उनके सामने ये सव प्रश्न आए—

    केनेषितं पतति प्रेयितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रेति युक्तः।

    केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं देवो युनत्ति॥

    (केनोपनिषद्)

    किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाताजीवाम केन सम्प्रनिश्रह॥

    अधिष्ठिताः केन स्रावेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥

    (श्वेताश्वतरोपनिषत्)

    इन प्रश्नों पर उनके संवाद अनुभवगम्य आत्मा को संकल्पात्मक रूप से निर्देश करने के लिए होते थे। इस तरह के विचारों का सूत्रपात शुक्ल यजुर्वेद के 39 और 40 अध्यायों में ही हो चुका था। उपनिषद् उसी ढंग से आत्मा और अद्वैत के संबंध में संकल्पात्मक विचार कर रहे थे, यहाँ तक कि श्रुतियाँ संकल्पात्मक काव्यमय ही थीं और इसीलिए वे लोग 'कविर्मनीषी' में भेद नहीं मानते थे। किंतु व्रात्य संघों के बाह्य आदर्शवाद से, विवेक और बुद्धिवाद से भारतीय हृदय बहुत कुछ अभिभूत हो रहा था; इसलिए इन आनंदवादियों की साधना प्रणाली कुछ-कुछ गुप्त और रहस्यात्मक होती थी।

    तपःप्रभावाद्देवप्रसादाच्च ब्रह्मह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान्।

    अत्याश्रमिभ्यः परम पवित्रं प्रोत्राच सम्यृपिसंघजुष्टम्॥

    वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्ये प्रचीदितम्।

    नाप्रशान्ताय दातव्यं नापुत्रायाशिष्याय वा पुनः॥

    (श्वेताश्वतर०)

    उनकी साधना-पद्धतियों का उल्लेख छांदोग्य उपनिषदों में प्रचुरता से है। ये लोग अपनी शिष्यमंडली में विशेष प्रकार की गुप्त साधना प्रणालियों के प्रवर्तक थे। बौद्ध साहित्य में जिस तरह के साधनों का विवरण मिलता है वे बहुत-कुछ इन ऋषियों और इनके उपनिषदों के अनुकरण मात्र थे, फिर भी वे अपने ढंग के बुद्धिवादी थे। और वे उपनिषदों के ‘तां योगमिति मन्यंते स्थिरमिनिंद्रयधारणम्’ वाले योग का अपने ढंग से अनात्मवाद के साधन के लिए उपयोग करने लगे।

    श्रुतियों का और निगम का काल समाप्त होने पर ऋषियों के उत्तराधिकारियों ने आगमों की अवतारणा की और ये आत्मवादी आनंदमय कोश की खोज में लगे ही रहे। आनंद का स्वभाव ही उल्लास है, इसलिए साधना प्रणाली में उसकी मात्रा उपेक्षित रह सकी। कल्पना और साधना के दोनों पक्ष अपनी-अपनी उन्नति करने लगे। कल्पना विचार करती थी, साधना उसे व्यवहार्य बनाती थी। आगम के अनुयायियों ने निगम के आनंदवाद का अनुसरण किया, विचारों में भी और क्रियाओं में भी। निगम ने कहा था—

    आनंदाहये खल्विमानि भृताति जायंते, आनंदेनजातानि जीवंति। आनंद प्रयंत्यभिसंविशंति॥

    आगमवादियों ने दोहराया—

    आनंदोच्छलिता शक्तिः सृजत्यात्मानमात्मना।

    आगम के टीकाकारों ने भी इस अद्वैत आनंद को अच्छी तरह पल्लवित किया—

    विगलित भेदसंस्कारमानंदरसप्रवाहमयमेव पश्यति।

    (क्षेमराज)

    हाँ, इन सिद्धों ने आनंदरस की साधना में और विचारों में प्रकारांतर भी उपस्थित किया। अद्वैत को समझने के लिए—

    आत्मैवेदमय आसात्...स वै नैव रेमे। तस्मादेकाकी रमते द्वितीयमैच्छत् हैतावानास यथा स्रीपुमाँ सौ संपरिष्वकतौं इम वात्मानंद्वधापातयत्। इत्यादि बृहदारंयक श्रुति का अनुकरण करके समता के आधार पर भक्ति की और मित्र प्रणय की-सी मधुर कल्पना भी की। क्षेमराज ने एक प्राचीन उद्धरण दिया—

    जाते समरसानंदे द्वैतमप्ययमृतोपमम्।

    मित्रयोरिव दम्पत्योर्जीवात्मपरमात्मनोः॥

    यह भक्ति का आरंभिक स्वरूप आगमों में अद्वैत की भूमिका पर ही सुगठित हुआ। उनकी कल्पना निराली थी—

    समाधिवव्रेणाप्यन्यैरभेयो भेदभृधरः।

    पराभृष्टश्च नष्टश्च त्वद्भक्तिवलशालिभिः॥

    यह भक्ति भेदभाव, द्वैत, जीवात्मा और परमात्मा की भिन्नता को नष्ट करने वाली थी। ऐसी ही भक्ति के लिए माहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त के गुरु उत्पल ने कहा है—

    भक्तिलक्ष्मीसमृद्धानां किमन्यदुपयाचितम्।

    अद्वैतवाद के इस नवीन विकास में प्रेमभक्ति की योजना तैत्तिरीय आदि श्रुतियों के ही आधार पर हुई थी। फिर तो सौंदर्य भावना भी स्फुट हो चली—

    श्रुत्वापि शुद्वचैतन्यमात्मानमतिसुंदरम्

    (अष्टावक्रगीला)

    इन आगम के अनुयायी सिद्धों ने प्राचीन आनंद मार्ग को अद्वैत की प्रतिष्ठा के साथ अपनी साधना पद्धति में प्रचलित रखा और इसे वे रहस्य संप्रदाय कहते थे। शिवसूत्रविमर्शिनी की प्रत्तावना में क्षेमराज ने लिखा है—

    द्वैतदर्शनाधिवासितव्राये जीवलोके रहस्यसंप्रदायो मा विच्छेदि

    रहस्य संप्रदाय जिस में लुप्त हो इसलिए शिवसूत्रों की महादेवगिरि से प्रतिलिपि की गई। द्वैतदर्शनों की प्रचुरता थी। रहस्य संप्रदाय अद्वैतवादी था। इन लोगों ने पाशुपत-योग की प्राचीन साधना पद्धति के साथ-साथ आनंद की योजना करने के लिए काम-उपासना प्रणाली भी दृष्टांत के रूप में स्वीकृत की। उसके लिए भी श्रुति का आधार लिया गया।

    तद्यथा प्रियया स्त्रिया संपरिष्वक्तो बाह्ये किंचन वेद नांतरम् (बृहदारण्यक)।

    उपमंत्रयते हिंकारो जपयते प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते उद्गीथ।

    आत्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन आत्मानंद: स्वराड् भवति।

    इन छांदोग्य आदि श्रुतियों के प्रकाश में यह रति प्रीति—अद्वैतमूला भक्ति रहस्यवादियों में निरंतर प्रांजल होती गई। इस दार्शनिक सत्य को व्यावहारिक रूप देने में किसी विशेष अनाचार की आवश्यकता थी। संसार को मिथ्या मानकर असंभव कल्पना के पीछे भटकना नहीं पड़ता था। दुःखवाद से उत्पन्न संन्यास और संसार से विराग की आवश्यकता थी। अद्वैत मूलक रहस्यवाद के व्यावहारिक रूप में विश्व को आत्मा का अभिन्न अंग शैवागमों में मान लिया गया था। फिर तो सहज आनंद की कल्पना भी इन लोगों ने की। श्रुति इसी कोटि के साधकों के लिए पहले ही कह चुकी थी—

    या बुद्धयते सा दीक्षा यदश्नाती तडविः यत्पिवति तदस्य सोमपानं यद्रमते तदुपसदो...। इसी का अनुकरण है—

    आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणः शरीरं गृहं

    पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः

    सौंदर्यलहरी भी उसो स्वर में कहती है—

    सपर्यापर्यायस्तव भवत् यन्मे विलसितम्।

    (शांकरी मानसपूजा)

    इन साधकों में जगत् और अंतरात्मा की व्यावहारिक अद्वयता में आनंद की सहज भावना विकसित हुई। वे कहते हैं—

    त्वमेव स्वात्मानं परिणमयिसुं विश्ववपुषा।

    चिदानंदकारं शिवयुवति भावेन विभृषे॥

    (सौंदर्यलहरी)

    किसी काश्मीरी भक्त कवि ने कहा है—

    तत्तदिंद्रियमुखेन संततं युष्मदर्चनरसायनासवम्।

    सर्वभावचपकेषु पृरितेष्वापिवत्रिव भवेयमुन्मदः॥

    इस में इंद्रियों के मुख से अर्चन-रस का आसव पीने की जो कल्पना है वह आनंद की सहज भावना से ओत-प्रोत है।

    आगमानुयायी स्पंदशास्त्र के अनुसार प्रत्येक भावना में, प्रत्येक अवस्था में वह आत्मानंद प्रतिष्ठित है—

    अतिक्रुद्धः प्रहृष्टो वा किं करोति परामृशन्।

    धावन् वा यत्पदं गच्छेत्तत्र स्पंद: प्रतिष्ठितः॥

    और उन की अद्वैत साधना के अनुसार सब विषयों में—इंद्रियों के अर्थों में निरूपण करने पर कहीं भी अशिव, अमंगल, निरानंद नहीं—

    विषयेषु सर्वेषु इन्द्रियार्थेषु स्थितम्।

    यत्र यत्र निरुप्येत नाशिवं विद्यते कचित्॥

    जिस मन को बुद्धिवादी मनोदुनिग्रहं चलम् समझकर ब्रह्म पथ में विमूढ़ हो जाते हैं उसके लिए आनंद के उपासकों के पास सरल उपाय था। वे कहते हैं—

    यत्र यत्र मनो याति ज्ञेयं तत्रैव चिंतयेत्।

    चलित्वा यास्यते कुत्र सर्वं शिवमयं यतः॥

    मन चलकर जाएगा कहाँ? बाहर-भीतर आनंदघन शिव के अतिरिक्त दूसरा स्थान कौन है?

    ये विवेक और आनंद की विशुद्ध धाराएँ अपनी परिणति में अनात्म और दुःखमय कर्मवादी बौद्ध हीनयान संप्रदाय तथा दूसरी ओर आत्मवादी आनंदमय रहस्य संप्रदाय के रूप में प्रकट हुई। इसके अनंतर मिश्र विचारधाराओं की सृष्टि होने लगी। अनात्मवाद से विचलित होकर बुद्ध में ही सत्ता मानकर बौद्धों का एक दल महायान का अनुयायी बना। शुद्ध बुद्धिवाद के बाद इस में कर्मकांडात्मक उपासना और देवताओं की कल्पना भी सम्मिलित हो चली थी। लोकनाथ आदि देवी-देवताओं की उपासना कोरा शून्यवाद ही नहीं रह गई। तत्कालीन साधारण आर्य जनता में प्रचलित वैदिक बहुदेवपूजा से शून्यवाद का यह समन्वय ही महायान संप्रदाय था और बौद्धों की ही तरह वैदिक धर्मानुयायियों की ओर से जो समन्वयात्मक प्रयत्न हुआ, उसी ने ठीक महायान की ही तरह पौराणिक धर्म की सृष्टि की। इस पौराणिक धर्म के युग में विवेकवाद का सब से बड़ा प्रतीक रामचंद्र के रूप में अवतरित हुआ, जो केवल अपनी मर्यादा में और दुःखसहिष्णुता में महान् रहे। किंतु पौराणिक युग का सब से बड़ा प्रयत्न श्रीकृष्ण के पूर्णावतार का निरूपण था। इनमें गीता का पक्ष जैसा बुद्धिवादी था, वैसा ही ब्रजलीला और द्वारका का ऐश्वर्यभोग आनंद से संबद्ध था।

    जैसे वैदिक-काल के इंद्र ने वरुण को हटाकर अपनी सत्ता स्थापित कर ली, उसी तरह इंद्र का प्रत्याख्यान करके कृष्ण की प्रतिष्ठा हुई। किंतु शोधकों की तरह यह मानने को मैं प्रस्तुत नहीं कि वैदिक इंद्र के आधार पर पौराणिक कृष्ण की कल्पना खड़ी की गई। कृष्ण अपने युग के पुरुषोत्तम थे; उनका व्यक्तित्व बुद्धिवाद और आनंद का समन्वय था। इंद्र की ही तरह अहं या आत्मवाद का समर्थन करने पर भी कृष्ण की उपासना में समरसता नहीं, अपितु द्वैतभावना और समर्पण ही अधिक रहा। मिलन और आनंद से अधिक वह उपासना विरहोन्मुख ही बनी रही। और होनी भी चाहिए, क्योंकि इसका संपूर्ण उपक्रम जिन पुराणवादियों के हाथ में था वे बुद्धिवाद से अभिभूत थे। संभवतः इसीलिए यह प्रेममूलक रहस्यवाद विरहकल्पना में अधिक प्रवीण हुआ। पौराणिक धर्म का दार्शनिक स्वरूप हुआ मायावाद। मायावाद बौद्ध अनात्मवाद और वैदिक आत्मवाद के मिश्र उपकरणों से संगठित हुआ था। इसीलिए जगत् को मिथ्या-दुःखमय मानकर सच्चिदानंद की जगत् से परे कल्पना हुई। विश्वात्मवादी शिवाद्वैत की भी कुछ बातें इसमें ली गईं। आनंद और माया उन्हीं की देन थी। बुद्धिवाद को यद्यपि आगमवादियों की तरह अविद्या मान लिया था—अख्यात्युल्लसितेपु, भिन्नेषु भावेषु बुद्धिरित्युच्यते—तथापि विवेक से आत्मनिरूपण के लिए मायावाद के प्रवर्तक श्री गौडपाद ने मनोनिग्रह का उपाय बताया था—दुःखं सर्वमनुस्मृत्य कामभोगात्रिवर्तयेत्। (मांडूक्यकारिका)।

    कामभोग से निवृत्त होने के लिए दुःखभावना करने का ही उनका उपदेश नहीं था। किंतु वे मानसिक सुख को भी हेय समझते थे—

    नास्वादयेत्सुखं तत्र निस्संघ: प्रज्ञया भवेत्। (मांडूक्यकारिका)

    आनंद सत्-चित् के साथ सम्मिलित था, परंतु है यह प्रज्ञावाद-बुद्धि की विकल्पना। मायातत्व को आगम से लेकर उसे रूप ही दूसरा दिया गया। बुद्धिवाद की दर्शनों में प्रधानता थी, फिर तो आचार्य ने बौद्धिक शून्यवाद में जिस पांडित्य के बल पर आत्मवाद की प्रतिष्ठा की वह पहले के लोगों से भी छिपा नहीं रहा। कहा भी गया—मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमेव हि।

    महायान और पौराणिक धर्म ने साथ-साथ बौद्ध उपासक संप्रदाय को विभक्त कर लिया था। फिर तो बौद्धमत शून्य से ऊबकर सहज आनंद की खोज में लगा। अधिकांश बौद्ध ऊपर कहे हुए कृष्णसंप्रदाय की द्वैतमूला भक्ति में सम्मिलित हुए। और दूसरा अंश आगमों का अनुयायी बना। उस समय आगमों में दो विचार प्रधान थे कुछ लोग आत्मा को प्रधानता देकर जगत् को, 'इदम् को 'अहम्' में पर्यवसित करने के समर्थक थे और वे शैवागमवादी कहलाए। जो लोग आत्मा की अद्वयता को शक्ति तरंग जगत् में लीन होने की साधना मानते थे वे शाक्तागमवादी हुए। उस काल की भारतीय साधना पद्धति व्यक्तिगत उत्कर्ष में अधिक प्रयुक्त हो रही थी। दक्षिण के श्री पर्वत से जिस मंत्रवाद का बौद्धों में प्रचार हो रहा था वह धीरे-धीरे वज्रयान में किस तरह परिणत हुआ और आगमसंप्रदाय में घुसकर अनात्मवादी बौद्धों ने आत्मा की अवहेलना करके भी वैदिक अंबिका आदि देवियों के अनुकरण में कितनी शक्तियों की सृष्टि की और कैसी रहस्यपूर्ण साधना पद्धतियाँ प्रचलित की, उसका विवरण देने के लिए यहाँ अवसर नहीं। इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि उन्होंने बुद्ध, धर्म और संघ के त्रिरत्न के स्थान पर कामिनी, काम और सुरा को प्रतिष्ठित किया। धारणी मंत्रों की योजना की। पीछे ये मंत्रात्मक भावनाएँ प्रतिमा बनने लगीं। मंत्रों में जिन विचारधारणाओं का संकेत था वे देवता का रूप धरकर व्यक्त हुई। परोक्ष पूजा पद्धति की प्रचुरता हुई।

    पौराणिक-धर्म ने इसी ढंग पर देववाद का प्रचार किया। उपनिषदों के षोडश कला पुरुष के प्रतिनिधि बने सोलह कला वाले पूर्ण अवतार श्रीकृष्णचंद्र। सुंदर नर रूप की यह पराकाष्ठा थी। नारी मूर्ति में सुंदरी की, ललिता की सौंदर्य प्रतिमा के अतिरिक्त सौंदर्य भावना के लिए अन्य उपाय भी माने गए। 'नरपति जयचर्या' स्वरशास्त्र का एक प्राचीन ग्रंथ है। उसमें मन की भावना के लिए बताया गया है—

    गौरांगी नवयौवनां शशिमुखीं तांबूलगर्भाननां

    मुक्तामंडनशुभ्रमाल्यवसनां श्रीखंडचर्चांगिताम्।

    दृष्ट्वा कामपि कामिनीं स्वयमिमां ब्राह्मीं पुरो भावये

    दंतश्चिंतयतो जनस्य मनसि त्रैलोक्यमुन्मीलिनीम्।

    यह सौंदर्य धारणा हृदय में त्रैलोक्य का उन्मीलन करने वाली है। यहाँ समझ लेना चाहिए कि भारत में सौंदर्य-आलंबन नर और नारी की प्रतिच्छवि मन को महाशक्तिशाली बनाने तथा उन्नत करने के उपाय में उपासना के स्वरूप में व्यवहृत होने लगी थी।

    बौद्धों के उत्तराधिकारी भी शून्यवाद से घबराकर अनेक प्रकार की मंत्रसाधना में लगे थे। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प देखने से यह प्रगट होता है। फिर शैवागमों में जो अनुकूल अंश थे उन्हें भी अपनाने से ये रुके। योगाचार तथा अन्य गुप्त साधनाओं वाला बौद्ध संप्रदाय आनंद की खोज में आगमवादियों से मिला। विचारों में सर्वं क्षणिकं सर्व दुःखं सर्वमनात्मम्। पर आनंदरूपममृतं यद्विभाति ने विजय प्राप्त की। परंतु इनके संपर्क में आने पर शैवागमों का विश्वात्मवाद वाला शांभव सिद्धांत भी व्यक्तिगत संकुचित अहं में सीमित होने लगा। इस संकुचित आत्मवाद को आगमों में निंदनीय और अपूर्ण अहंता कहते थे; किंतु बौद्धों ने उस सरल अद्वैतबोध को व्यक्तिगत आत्मवाद की ओर झुका कर शरीर को वज्र की तरह अप्रतिहतगतिशाली बनाने के लिए तथा सांपत्तिक स्वतंत्रता के लिए रसायन बनाने में लगाया। बौद्ध विज्ञानवादी थे। पूर्व के ये विज्ञानवादी ठीक उसी तरह व्यक्तिगत स्वार्थों के उपासक रहे जैसे वर्तमान पश्चिम अपनी वैज्ञानिक साधना में सामूहिक स्वार्थों का भयंकर उपासक है। आगमवादी नाथ संप्रदाय के पास हठयोग क्रियाएँ थीं और उत्तरीय श्री पर्वत बना कामरूप। फिर तो चौरासी सिद्धों की अवतारणा हुई। हाँ, इन दोनों की परंपरा प्रायः एक है, किंतु आलंबन में भेद है। एक शून्य कहकर भी निरंजन में लीन होना चाहता है और दूसरा ईश्वरवादी होने पर भी शून्य को भूमिका मात्र मान लेता है। रहस्यवाद इन कई तरह की धाराओं में उपासना का केंद्र बना रहा। जहाँ बाह्य आडंबर के साथ उपासना थी वहीं भीतर सिद्धांत में अद्वैत भावना रहस्यवाद की सूत्रधारिणी थी। इस रहस्य भावना में वैदिक काल से ही इंद्र के अनुकरण में अद्वैत की प्रतिष्ठा थी। विचारों का जो अनुक्रम ऊपर दिया गया है, उसी तरह वैदिक काल से रहस्यवाद की अभिव्यक्ति की परंपरा भी मिलती है।

    ऋग्वेद के दसवें मंडल के अड़तालीसवें सूक्त तथा एक सौ उन्नीसवें सूक्त में इंद्र की जो आत्मस्तुति है, वह अहंभावना तथा अद्वैतभावना से प्रेरित सिद्ध होता है। अहं भुवं वसुनः पूर्यस्पतिरहं धनानि सं जयामि शश्वतः तथा अहमस्मि महामहो इत्यादि उक्तियाँ रहस्यवाद की वैदिक भावनाएँ हैं। इस छोटे से निबंध में वैदिक वाङ्मय की सब रहस्यमयी उक्तियों का संकलन करना संभव नहीं; किंतु जो लोग यह सोचते हैं कि आवेश में अटपटी वाणी कहने वाले शामी पैगंबर ही थे, वे कदाचित् यह नहीं समझ सके कि वैदिक ऋषि भी गुह्य बातों को चमत्कारपूर्ण सांकेतिक भाषा में कहते थे। अजामेकांलोहितशुक्रकृष्णाम् तथा तमेकनेमिं त्रिष्टतं षोडशांतं शतार्वारम् इत्यादि मंत्र इसी तरह के हैं।

    वेदों, उपनिषदों और आगमों में यह रहस्यमयी आनंदसाधना की परंपरा के ही उल्लेख हैं। अपनी साधना का अधिकार उन्होंने कम नहीं समझा था। वैदिक ऋषि भी अपने जोम में कह गए हैं—

    आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः।

    कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति

    आज तुलसी साहब की ‘जिन जाना तिन जाना नाही’ इत्यादि को देखकर इसे एक बार ही शाम देश से आई हुई समझ लेने का जिन्हें आग्रह हो उनकी तो बात ही दूसरी है, किंतु केनोपनिषत् के ‘यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य वेद सः’ का ही अनुकरण यह नहीं है, यह कहना सत्य से दूर होगा। ‘यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह’ इत्यादि श्रुति में बाहर और भीतर की पिंड और ब्रह्मांड की एकता का जो प्रतिपादन किया गया है, संत मत में उसीका अनुकरण किया गया है।

    यह भी कहा जाता है कि यहाँ उपासना, कर्म के साथ ज्ञान की धारा विशुद्ध रही और उसमें आराध्य से मिलने के लिए कई कक्ष नहीं बनाए गए। किंतु छांदोग्य में जिस शून्य आकाश का उल्लेख दहरोपासना में हुआ है, उसी से बौद्धों के शून्य और आगमों की शून्य भूमिका का संबंध है। फिर कबीर की शून्य महलिया शाम देश की सौगात कैसे कही जा सकती है? (तं चेदू त्रियुर्यदिदमस्मिन् त्रह्मपुरे दहरं पुंडरीकं वेश्म दहरोऽस्मिन्नंतराकाशः— छांदोग्य०)

    तथा—पंचकोशप्रतीकाशं हृदयं चाप्यधोगुखम्।—इत्यादि श्रुतियों में नीवारशूकवत् तन्वी शिखा के मध्य में परमात्मा का जो स्थान निर्दिष्ट किया गया है, वह मंदिर या महल कहीं विदेश से नहीं आया है। आगमों में तो इस रहस्य भावना का उल्लेख है ही, जिसका उदाहरण ऊपर दिया जा चुका है।

    श्रीकृष्ण को आलंबन मानकर द्वैत-उपासकों ने जिस आनंद और प्रेम की सृष्टि की उसमें विरह और दुःख आवश्यक था। द्वैतमूलक उपासना के बुद्धिवादी प्रवर्तक भागवतों ने गोपियों में जिस विरह की स्थापना की वह परकीय प्रेम के कारण दुःख के समीप अधिक हो सका और उसका उल्लेख भागवत में विरल नहीं है। इस प्रेम में पर का दार्शनिक मूल है ‘स्व’ को अस्वीकार करना। फिर तो बृहदारंयक के यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं पश्यति के अनुसार वह प्रेम विरह सापेक्ष ही होगा। किंतु सिद्धों ने आगम के बाद रहस्यवाद की धारा अपनी प्रचलित भाषा में, जिसे वे संध्या-भाषा कहते थे, अविच्छिन्न रखी और सहज आनंद के उपासक बने रहे।

    अनुभव सहज भा मोल रे जोई।

    चोकोष्टि विभुका जइसो तइसो होई॥

    जइसने आछिले वइसन अच्छ।

    सहज पथिक जोई भान्ति माहो वास॥

    (नारोपा)

    वे शैवागम की अनुकृति ही नहीं, शिव की योगेश्वर मूर्ति की भावना भी आरोपित करते थे।

    नाडि शक्ति दिर धरिय खदे।

    अनहा डमरू बाजए वीर नादे॥

    कह कपाली योगी पइठ अचारे।

    देह अरी विहरए एकारें॥

    (कणहपा)

    इन आगमानुयायी सिद्धों में आत्म-अनुभूति स्वापेक्ष थी। परोक्ष विरह उनके समीप था। वह प्रेम कथा स्वपर्यवसित थी। उस प्रेम-रूपक की एक कल्पना देखिए—

    ऊँचा ऊँचा पावत तहिं बसइ सबरी बाली।

    मोरंगि पीच्छ परहिण सवरी गिवत गुंजरी माली॥

    उमत सबरो पागल शबरो माकर गुली गुहाउर।

    तोहोरि णिय घरिणी णामे सहज सुंदरी॥

    (शबरपा)

    ऊपर वाला पद्य शबरी रागिनी में है। संभवतः शबरी रागिनी आसावरी का पहला नाम है। सिद्ध लोग अपनी साधना में संगीत की योजना कर चुके थे। नादानुसंधान की आगमोक्त साधना के आधार पर बाह्य नाद का भी इन की साधना में विकास हुआ था, ऐसा प्रतीत होता है। अनुन्मत्ता उन्मत्तवदाचरंत: सिद्धों ने आनंद के लिए संगीत को भी अपनी उपासना में मिलाकर जिस भारतीय संगीत में योग दिया है, उसमें भरत मुनि के अनुसार पहले ही से नटराज के संगीतमय नृत्य का मूल था। सिद्धों की परंपरा में संभवतः बैजू बावरा आदि संगीतनायक थे, जिन्होंने अपनी ध्रुपदों में योग का वर्णन किया है।

    इन सिद्धों ने ब्रह्मानंद का भी परिचय प्राप्त किया था। सिद्ध भुसुक कहते हैं—

    बिरमानंद विलक्षण सूध जो येथू दुझै सो येथु बूध।

    भुसुक भणइ मह बूझिय मेले सहजानंद महासुह खेलें॥

    इन लोगों ने भी वेद, पुराण और आगमों का कबीर की तरह तिरस्कार किया है। कदाचित् पिछले काल के संतों ने इन सिद्धों का ही अनुकरण किया है।

    आगम वेद पुराणे पंडिठ मान बहंति।

    पक सिरिफल अलिय जिमवाहेरित भ्रमयंति॥

    (कण्हपा)

    आगमों में ऋग्वेद के काम की उपासना कामेश्वर के रूप में प्रचलित थी और उसका विकसित स्वरूप परिमार्जित भी था। वे कहते थे—

    जायया सम्परिष्वक्तो वाह्यं वेद नांतरम्।

    निदर्शनं श्रुतिः प्राह मूर्खस्तं मन्यते विधिम्॥

    फिर भी सहजानंद के पीछे बौद्धिक गुप्त कर्मकांड की व्यवस्था भयानक हो चली थी। और वह रहस्यवाद की बोधमयी सीमा के उच्छंखलता से पार कर चुकी थी। हिंदी के इन आदि रहस्यवादियों को, आनंद के सहज साधकों का, बुद्धिवादी निर्गुण संतों को स्थान देना पड़ा। कबीर इस परंपरा के सबसे बड़े कवि है। कबीर में विवेकवादी राम का अवलंब है और संभवतः वे भी साधो सहज समाधि भली इत्यादि में सिद्धों की सहज भावना को ही, जो उन्हें आगमवादियों से मिली थी, दोहराते हैं। कवित्व की दृष्टि से भी कबीर पर सिद्धों की कविता की छाया है। उन पर कुछ मुसलमानी प्रभाव भी पड़ा अवश्य; परंतु शामी पैगंबरों से अधिक उनके समीप थे वैदिक ऋषि, तीर्थंकर नाथ और सिद्ध। कबीर के बाद तथा कुछ-कुछ समकाल में ही कृष्ण वाली मिश्र रहस्य की धारा आरंभ हो चली थी। निर्गुण राम और सुधारक रहस्यवाद के साथ ही तुलसीदास के सगुण समर्थ राम का भी वर्णन सामने आया। कहना असंगत होगा कि उस समय हिंदी साहित्य में रहस्यवाद की इतनी प्रबलता थी कि स्वयं तुलसीदास को भी अपने महाप्रबंध में रहस्यात्मक संकेत रखना पड़ा। कदाचित् इसीलिए उन्होंने कहा है—अस मानस मानस चख चाही। किंतु कृष्णचंद्र में आनंद और विवेक का, प्रेम और सौंदर्य का सम्मिश्रण था। फिर तो ब्रज के कवियों ने राधिका-कन्हाई-सुमिरन के बहाने आनंद की सहज भावना परोक्ष भाव में की। मीरा और सूरदास ने प्रेम के रहस्य का साहित्य संकलन किया। देव, रसखान, घनआनंद इन्हीं के अनुयायी थे। मीरा ने कहा—

    सूली ऊपर सेज पिया की, किस विध मिलणो होय।

    यह प्रेम, मिलन की प्रतीक्षा में, सदैव विरहोन्मुख रहा। देव ने भी कुछ इसी धुन में कहना चाहा—

    हों ही ब्रज वृंदावन मोही में बसत सदा

    जमुना तरंग स्याम रंग श्रवण की।

    चहुँ ओर सुंदर सघन वन देखियत,

    कुंजन में सुनियत गुंजन अलीन की॥

    बंसीबट-तट नटनागर नटत मो में,

    रास के विलास की मधुर धुनि बीन की।

    भर रही भनक बनक ताल तानन की

    तनक तनक ता में खनक चुरीन की॥

    परंतु वे वृंदावन ही बन सके, श्याम नहीं। यह प्रेम का रहस्यवाद विरह-दुःख से अधिक अभिभूत रहा। यद्यपि कुछ लोगों ने इसमें सहज आनंद की योजना भी की थी और उसमें माधुर्य-महाभाव के उज्ज्वल नीलमणि को परकीय प्रेम के कारण गोप्य और रहस्यमूलक बनाने का प्रयत्न भी किया था, परंतु द्वैतमूलक होने के कारण तथा बाह्य आवरण में बुद्धिवादी होने से यह विषय में साहित्यिक ही अधिक रहा। निर्गुण संप्रदाय वाले संतों ने भी राम की बहुरिया बनकर प्रेम और विरह की कल्पना कर ली थी; किंतु सिद्धों की रहस्य संप्रदाय की परंपरा में तुकनगिरि और रसालगिरि आदि ही शुद्ध रहस्यवादी कवि लावनी में आनंद और अद्वयता की धारा बहाते रहे।

    साहित्य में विश्वसुंदरी प्रकृति में चेतनता का आरोप संस्कृत वाङ्मय में प्रचुरता से उपलब्ध होता है। यह प्रकृति अथवा शक्ति का रहस्यवाद सौंदर्यलहरी के ‘शरीर त्वं शंभो’ का अनुकरण मात्र है। वर्तमान हिंदी में इस अद्वैत रहस्यवाद की सौंदर्यमयी व्यंजना होने लगी है, वह साहित्य में रहस्यवाद का स्वाभाविक विकास है। इसमें अपरोक्ष अनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौंदर्य के द्वारा अहं का इदम् से समन्वय करने का सुंदर प्रयत्न है। हाँ विरह भी युग की वेदना के अनुकूल मिलन का साधन बनकर इसमें सम्मिलित है। वर्तमान रहस्यवाद की धारा भारत की निजी संपत्ति है, इसमें संदेह नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जयशंकर प्रसाद ग्रंथावली (पृष्ठ 477)
    • संपादक : सत्यप्रकाश मिश्र
    • रचनाकार : जयशंकर प्रसाद
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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