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हिंदी कविता की गति

hi.ndii kavita kii gati

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

अन्य

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पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

हिंदी कविता की गति

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    हिंदी कविता की गति

    कितने ही विद्वानों की राय है कि जातीय अभ्युदय से ही साहित्य का अभ्युदय होता है। उदाहरण के लिए प्राचीन और अर्वाचीन साहित्य के इतिहास से कई प्रमाण उद्धृत किए जाते हैं। प्राचीन यूरोप में पेरीक्लिस के समय में एथेंस की क्षमता ख़ूब बढ़ी−चढ़ी थी। उसी समय ग्रीक−साहित्य की भी श्री−वृद्धि हुई। अरास्टस के शासन काल में रोम अपनी पार्थिव प्रभुता के लिए जितना प्रसिद्ध था, उतना ही साहित्य−संपत्ति के लिए भी। इंग्लैंड के श्रेष्ठ कवि उत्पन्न हुए थे। फ़्रांस में चौदहवें लूई का युग साहित्यिक और राष्ट्रीय वैभव, दोनों के लिए विख्यात है। भारतीय साहित्य में गुप्त वंश और श्रीहर्ष के काल में साहित्य की उन्नति हुई थी, वैसी ही उन्नति देश के ऐश्वर्य में भी हुई थी। उपर्युक्त बातें सच होने पर भी यदि यही सिद्धांत मान लिय जाए तो आत्मा के ऊपर बाह्य शक्ति का प्राधान्य स्वीकार करना पड़ेगा। परंतु सच पूछो तो इस मत का समर्थन किसी प्रकार नहीं किया जा सकता। यदि साहित्य का अभ्युदय एकमात्र राष्ट्र शक्ति के ऊपर निर्भर है, तो अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में जर्मनी में साहित्य की जो उन्नति हुई थी वह होनी चाहिए। उस समय जर्मनी राष्ट्रीय शक्ति से शून्य था। जब नेपोलियन ने जर्मन जाति को पददलित कर जेना नगर में प्रवेश किया तब उस नगर में जर्मनी का श्रेष्ठ कवि गटी और श्रेष्ठ दार्शनिक हीगल दोनों उपस्थित थे। जर्मन जाति ने पीछे से अपनी बड़ी उन्नति की। उसकी क्षमता भी ख़ूब बढ़ी। पर साहित्य की जो स्थाई संपत्ति गटी और हीगल के समय एकत्र हुई, वह फिर कभी हुई। तब यह कैसे कहा जा सकता है कि श्रेष्ठ साहित्य जातीय अभ्युदय का फल है। बात यह है कि जब किसी युग में किसी देश की जातीय आत्मा जाग्रत होती है, तब देश में एक नवीन शक्ति युग में किसी देश की जातीय आत्मा जाग्रत होती है, तब देश में एक नवीन शक्ति उत्पन्न होती है। वह शक्ति कितने ही रूपों में प्रकट होती है। पेरीक्लिस के समय में उस शक्ति की अभिव्यक्ति एथेंस की पार्थिव−समृद्धि को बढ़ा देती है, तो कभी वह साहित्य को ही श्री−संपन्न कर देती है। हिंदी−साहित्य के इतिहास में यही बात देखी जाती है। हिंदी−साहित्य की उत्पति और वृद्धि हिंदू−जाति की हीनावस्था में ही हुई है। परंतु वह एक शक्ति का ही फल है। अब विचारणीय यह है कि कौन−सी शक्ति थी, जिससे हिंदी−साहित्य की सृष्टि हुई। भारतवर्ष में एक हज़ार वर्ष तक बौद्ध−धर्म का आधिपत्य था। जब उसके स्थान में नव−हिंदू−धर्म प्रतिष्ठित हुआ तब वह ब्राह्मणों की विजय माना गया। बौद्ध−धर्म की हीनावस्था में जो नवीन संस्कृति−साहित्य निर्मित हुआ उसमें बौद्ध धर्म के अत्यंत ग्लानिकर चित्र अंकित किए गए। ब्राह्मणों द्वारा अंकित किए गए ये चित्र बौद्ध−धर्म की यथार्थ अवस्था के द्योतक नहीं हो सकते। बौद्ध मत के अधिकांश अधिकारी विलासिता में भले ही पड़ गए हों, पर उससे बौद्ध−धर्म पर लांछन नहीं लगाया जा सकता। किंतु विजेता ब्राह्मणों को इसकी परवा नहीं थी। उन्होंने सभी बौद्ध यतियों के जीवन में पापाचार ही देखा और हिंदू−समाज में सदाचार फैलाने का भार अपने ऊपर लिया। नवीन हिंदू धर्म की सभी व्यवस्थाएँ संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध हुई। जन साधारण से उनका ज़रा भी संपर्क रहा। यदि किसी को किसी धार्मिक कृत्य में संदेह होता तो उसे किसी पंडित से व्यवस्था लेनी पड़ती। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज में हिंदु धर्म के आदर्श का प्रचार हो सका। तब धार्मिक कृत्य में संदेह होता तो उसे किसी पंडित से व्यवस्था लेनी पड़ती। इसका परिणाम यह हुआ कि समाज में हिंदू धर्म के आदर्श का प्रचार हो सका। तब धार्मिक कृत्यों के आडंबर में सदाचार का लोप हो गया। स्मृति अथवा दर्शन−शास्त्र की जटिल समस्याओं से सर्वसाधारण को संतोष नहीं हो सकता। उन्हें तो लौकिक साहित्य की आवश्यकता थी। उनके असंतोष को दूर करने के लिए हिंदी में वैष्णव−साहित्य की सृष्टि हुई। उनका धार्मिक असंतोष उससे बिल्कुल दूर हो गया। जब हिंदी में धार्मिक सिद्धांत प्रकट होने लगे तब पंडितों ने उसका ख़ूब विरोध किया। संस्कृत भाषा के विद्वानों की भाषा थी और हिंदी सर्व−साधारण की। अतएव हिंदी−साहित्य को जनता ने तो अपनाया, पर विद्वानों ने उसको तिरस्कार की दृष्टि से देखा। कबीर के निम्नलिखित दोहों से यह बात अच्छी तरह सूचित होती हैं−

    संस्कृतिहिं पंडित कहै बहुत करै अभिमान।

    भाषा जानि तरक करै तो नर मूढ़ अजान॥

    संसकिरत संसार में पंडित करे बखान।

    भाषा भक्ति दृढ़ावही न्यारा पद निर्वान॥

    हृदयगत भाव जनता की भाषा में अच्दी तरह व्यक्त किए जा सकते हैं, सर्व−साधारण का संस्कृत साहित्य की ओर पूज्य भाव अवश्य था, परंतु उनका हृदय तो उन्हीं विचारों को अधिक ग्रहण कर सकता था, जो उनकी भाषा में व्यक्त किए जाएँ। अतएव विद्वानों से अनादृत होने पर भी हिंदी साहित्य का प्रचार बढ़ने लगा। धार्मिक भाव तो वैष्णव साहित्य के द्वारा प्रचलित हुए और स्वाधीनता का भाव भाटों और चारणों ने जाग्रत रखा। चंद्र कवि हिंदी के प्रथम युग के कवियों में माने गए हैं। उनकी रचना में हिंदी साम्राज्य की निर्वाणोन्मुख शक्ति का वर्णन है। उनके बाद भी राजपूत चारणों ने ही जनता में स्वाधीनता संदेश को जागृत रखा। उनकी रचनाएँ भले ही लुप्त हो जाएँ, पर स्वाधीनता की ज्योति अस्त हुई। हिंदी साहित्य की धार्मिक भावों की प्रेरणा से ही विशेष उन्नति हुर्इ। हिंदू साम्राज्य का गौरव नष्ट हो गया। हिंदू जाति ने मुसलमानों का आधिपत्य स्वीकार कर लिया था। यह सच है कि मुसलमानों के शासन काल में भारतीय ऐश्वर्य का ही आधिपत्य था। तो भी वह कहना अनुचित नहीं कि हिंदू जाति का सौभाग्य सूर्य अस्त हो चुका था। ऐसी अवस्था में हिंदी के धार्मिक साहित्य ने बड़ा काम किया। यह साहित्य उदार भावों से पूर्ण है। इसी ने नीचों और अधमों के लिए आत्मद्वार का मार्ग खोल दिया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि हिंदी साहित्य के द्वारा हिंदू और मुसलमानों में एकता का सूत्रपात हुआ। कुछ विद्वानों की राय है हिंदू समाज में एकेश्वारवाद का प्राबल्य मुसलमानों के ही कारण हुआ। किसी−किसी की यह भी सम्मति है कि हिंदी में तुकांत कविताओं का प्रचार मुसलमानों ने ही किया। कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं है कि मुसलानों के शासनकाल में हिंदी−साहित्य का प्रचार बढ़ा। पर यह कहना कठिन है कि भारतवर्ष में मुसलमानों का आगमन होता, तो हिंदी साहित्य का कैसा स्वरूप होता? हाँ, इतना निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि हिंदी के उस युग में भक्तिवाद का आविर्भाव अवश्यंभावी था। हिंदी−समाज में जो विचारधारा बह रही थी, उसकी गति मुसलमानों के आगमन काल के पहले से ही निर्दिष्ट हो चुकी थी। तो मुसलमानों के आक्रमण ने और उनके शासन ने ही उसकी गति में किसी प्रकार की बाधा डाली। भारतवर्ष का सामाजिक संगठन ही ऐसा था कि राजनीतिक क्षेत्र में उत्क्रंति होने पर भी भारतीय समाज अपने निर्दिष्ट पथ पर स्थिर रहा। जिस समय हिंदू साम्राज्य नष्ट हुआ और मुसलमानों का आधिपत्य स्थापित हो गया, तब भी उसकी गति स्थिर ही रही। पानीपत के युद्ध ने भारतीय साम्राज्य को मुग़लों के हाथ सौंप दिया। पर भारतीय समाज ने अपनी सत्ता क़ायम ही रखी। यदि समाज की अवस्था परिवर्तित हुई तो उसका कारण राजनीतिक नहीं था। वह समाज के भीतर ही विद्यमान था। उसे जानने के लिए हमें तत्कालीन साहित्य का अवलोकन करना होगा। कबीर, दादू आदि संतों ने जिन भावों का प्रचार किया, वे हिंदू जाति की पारंपरिक गतिविधि हैं। इन भावों को हिंदी−साहित्य ने अपने प्राचीनतम साहित्य से प्राप्त किया है। इन्हीं के कारण आधुनिक भारतवर्ष वैदिक काल के भारतवर्ष से अपना संबंध अक्षुण्ण रखने में समर्थ हुआ है। भारतवर्ष में अनादिकाल से एक भावना स्रोत बह रहा है। उस स्रोत उद्गम वैदिक ऋषियों के तपोवन में हुआ था। कभी इस स्रोत की गति तीव्र हुई है और कभी मंद। परंतु वह लुप्त नहीं हुई है। यह अभी तक विद्यमान है और जब तक हिंदू जाति का अस्तित्व है, तब तक इसका लोप नहीं होगा। यह भावना−स्रोत क्या है, वह जानने के लिए हमें एक बार अपने पूर्ववर्ती साहित्य पर दृष्टि डालनी होगी। सभी जातियाँ किसी आदर्श की प्राप्ति के लिए चेष्टा करती हैं और यही आदर्श उनकी सभ्यता में परिस्फुटित होता है, अथवा यह कहना चाहिए कि ज्यों−ज्यों उनकी सभ्यता में उस आदर्श की अभिव्यक्ति होती है, त्यों−त्यों उनकी सभ्यता का विकास होता है। यह आदर्श क्या है, जीवन की पूर्णता। प्रत्येक जाति ‘श्रेष्ठ’ मनुष्य की कामना करती है। वही उसका आदर्श है। उसके आगे उसकी शक्ति नहीं जा सकती। अब प्रश्न यह है कि भारतवर्ष का कौन−सा आदर्श था? उसने अपने श्रेष्ठ मनुष्य के रूप की क्या कल्पना की थी? भारतीय साहित्य में जो चरित्र आदर्श रूप से अंकित किए गए हैं, उन सभी के जीवन में हम एक बात पाते हैं। वह है त्याग की महत्ता। यह त्याग अपने जीवन को रिक्त करने के लिए नहीं किया जाता, वरन् उसको पूर्ण करने के लिए। प्रेम की चरम सीमा त्याग में है। धर्म की भी अंतिम अवधि त्याग है। इसी भावना के कारण भारतीय साहित्य में दुःख से बच निकलने की चेष्टा नहीं की गई है, वरन् उसको अंगकार कर उसे सुख का रूप दिया गया है। जो संग्रह करना चाहता है वह मानो अपने अधिकार की सीमा को संकुचित करता है। विश्व से अपना संबंध छोड़कर एक क्षुद्र सीमा में वह निवास करता है। परंतु त्याग से वह विश्व को अपना कर लेता है। तब उसका जीवन अपूर्ण के बदले पूर्ण हो जाता है। जल बिंदू तभी तक क्षुद्र है, जब तक वह अपने को पृथक रखता है, किंतु ज्यों ही वह अपने को अनंत समुद्र में त्याग देता है, त्यों ही वह स्वयं अनंत हो जाता है।

    हद में पीव पाइए बेहद में भरपूर।

    हद−बेहद की गम लखै नासे जीव हज़ूर॥

    हद में बैठा कथत है, बेहद की गम नाहिं।

    बेहद की गम होयेगी तक कछु कथना काहिं॥

    वैदिक काल के ऋथयों ने प्रश्न किया−

    कस्मैं देवाय हविषा विधेम॥

    उसके उत्तर में कहा गया−

    यो देवोऽग्नौ योऽप्सु यो विश्वभुवनमाविवेश।

    यो औषधीषु यो बनस्पतिषु तस्मै देवाय नमोनमः॥

    अर्थात् जो देव अग्नि में, जल में, विश्वभुवन में व्याप्त हो रहा है और जो औषधियों में तथा वनस्पतियों में भी है, उसे नमस्कार है। यही विश्व भावना भारतीय साहित्य का सर्वस्व है। जब लोग विश्व बोध की इस भावना को भूल रहे थे, तब कबीर को इसी की चेतावनी देनी पड़ी−

    सपुट मांहि समाइया सो साहिब नहिं होय।

    सकल भाण्ड में रमि रहा, मेरा साहब सोय॥

    हमें अब विचार यह करना है कि हिंदी−साहित्य ने अपना कौन−सा संदेश दिया है, जो वैदिक साहित्य तथा संस्कृति साहित्य से अधिक विशेषता रखता है। कहते संकोच होता है−

    ऐसो अद्भुत मन कथो, कधो तो धरो छिपाय।

    वेद क़ुराना ना लिखी, कहौं तो को पतियाय॥

    यथार्थ बात यह है कि सत्य का स्वरूप चिरंतन है। हिंदी साहित्य में साधकों ने अपने जीवन में उसी सत्य का अनुभव कर उसे प्रकट किया है। उन्होंने मनुष्य जीवन में सत्य का पूर्व रूप दिखलाया है। हिंदी−साहित्य की उत्पत्ति उस काल में हुई थी, जब भारतीय सत्य अनुभूति का विषय होकर तर्क का विषय हो गया था। विद्वान् सत्य को ग्रंथों में खोजते थे, मानव−जीवन में नहीं। तर्क और विवाद से सत्य की उपलब्धि नहीं होती। सत्य के धाम का मार्ग एकमात्र अनुभूति है−

    कबीर का घर शिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।

    पांव टिकै पिपीलिका, पंडित लादै बैल॥

    बिन पाँवन की राह है, बिन बस्ती का देश।

    बिना पिंड का पुरुष है, कहै कबीर संदेश॥

    हिंदी−साहित्य के साधकों का यही संदेशा था। उन्होंने मिथ्या आडंबर को धर्म नहीं माना; वरन् जीवन में ही सत्य की उपलब्धि का उपदेश दिया।

    कांकर पाथर जोरिकै, मसजिद दुर्इ चुनाय।

    वा चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहिरा हुआ खुदाय॥

    पूजा, सेवा, नेम, ब्रत, गुडियन कासा खेल।

    जब लगि दिल परिचय नहीं, तब लगि संसय मेल॥

    संसार में अनंत काल से विश्व का रहस्य जानने के लिए चेष्टा की जा रही है। जो साधक भगवान की लीला को पृथवी पर प्रत्यक्ष देखना चाहते हैं, वे सहज साधनाओं से उसे प्राप्त करते हैं। कृच्छ साधन मात्र से उसका रहस्य समझ में नहीं आता। संतो ने कहा है कि मैंने तो घर छोड़ा और वन ही गया। मैंने कोई भी क्लेश स्वीकार नहीं किया। सहज प्रेम से मैंने पृथवी को उसी रूप में देखा।

    जो इस सहज पथ के पथिक होंगे, वे विश्व के प्रवाह को अपनी वासना अथवा लोभ के वश क्षणभर के लिए भी रोक रखना नहीं चाहेंगे। यदि विश्व का प्रवाह रुक जाए तो समस्त सौंदर्य का प्रवाह स्थिर होकर मृत्यु−पुंज में परिणत हो जाए। जो साधक हैं, वे किसी को भी रोक कर, बाधा देकर, स्थिर नहीं करना चाहते। वे असत्य से कलुषित नहीं होते। नदी के प्रवाह के समान माया का प्रवाह बहता रहता है।

    तब उपाय क्या है? क्या निर्विकल्प ध्यान अथवा कृच्छ् साधना से इष्ट की प्राप्ति होती है? संतों में अग्रगण्य साधक जब−जब धर्म−साधन में प्रवृत्त हुए, तब वे आँख−कान मूँदकर निर्विकल्प ध्यान में नहीं डूबे।

    पहले वे असीम और निराकर के ध्यान में मग्न होकर रूप और रस से दूर हट गए थे। किंतु उनका सौंदर्य प्रेमी मन जैसे भाव के लिए उत्सुक था, वैसे ही रूप के लिए भी व्याकुल था। दोनों को उपलब्ध करने के लिए उन्होंने समस्त पृथ्वी खोज डाली। अंत में रूप में ही उन्होंने भाव को पाया। उन्होंने कहा है−

    “जिसके लिए मैं जगत भर ढूँढ़ता फिरा, देखता हूँ वह तो घट में ही है। प्राण में बिना डूबे घट का यह रहस्य समझ में नहीं आता। इसलिए रस में गोता लगाकर मैंने रस के रस का आविष्कार कर लिया।”

    साधारण मनुष्य जड़ के समान रूप की पूजा करता हे, परंतु वह रूप को देखता नहीं। इसी से विश्व में सौंदर्य रस का जो स्वाद, जो आनंद है, वह व्यर्थ हो जाता है। उस आनंद को पाने के लिए सजग होना पड़ेगा। जागृत आत्मा ही उस आनंद की उपलब्धि कर सकता है। जो जड़त्व की निद्रा से अविभूत हैं, वे उस स्वाद को कहाँ से पा सकते हैं। प्रेम रहने से इस रहस्य का उद्घाटन नहीं हो सकता। इसी से इन आनंद का पता भी नहीं चलता−

    लोग कहने लगे−संत तुम तो साधक थे, अब शिल्परसिक मात्र हो। रूप और आकार से तुम्हारा क्या प्रयोजन? तुम अरूप, असीम के सेवक हो। संत ने कहा−हे साधकगण, ये सब जितने रूप हैं वहीं हमारी जपमाला हैं। धर्म के व्यर्थ आचार का पालन कर हमने देख लिया कि उससे हमारा अंतःकरण पूर्ण नहीं हुआ। विश्व के जो आकार निरंतर परिवर्तित हो रहे हैं, उसी माला पर भगवान का निरंतर जप हो रहा है−

    उनका कथन है कि घट में ही सब सुख और आनंद है।

    घट के इस आनंद का स्वाद पाते ही सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। घट के इस आनंद का जिसने अनुभव नहीं किया, वह कभी सुखी भी नहीं हुआ।

    लोग कहते हैं कि यह संसार दुःखमय है। बतलाओ तो किसलिए तुम्हारे चारों ओर ग्रह−नक्षत्र निरंतर घूम रहे हैं? जो विश्वचक्र घूम रहा है वही तो अमृत−दान करता है। कोल्हू के घूमने से जैसे तेल टपकता है, वैसी ही विश्व−चक्र के परिभ्रमण से भाव−सौंदर्य का अमृत निस्पंदित होता है। यदि यह चक्र कभी बंद हो जाए, तो वस्तु के विषम पुंज में पड़कर संसार नष्ट हो जाए। यह चक्र नित्य चल रहा है, इसलिए अमृत−महारस की धारा भी निरंतर बहती जा रही है।

    विश्व की रक्षा के लिए वह नित्य यात्रा हो रही है। जिन्हें हम परिवर्तनशील आकार कहते हैं, वे मानो पुकार−पुकार कर कह रहे हैं कि हम सब अगम और अगोचर के मंदिर में यत्रा कर रहे हैं। इस गोचर मूर्ति और सौंदर्य के साथ−साथ हम भी उसी अगोचर के मंदिर की यात्रा कर रहे हैं। वह रस−मंदिर हमसे दूर नहीं है। वह हमारे अंतःकरण में है। जब हम उस मंदिर में बैठ जाते हैं, तब हम देखते हैं कि हमारे मंदिर में मोहन गए। वह मोहन कैसे हैं−

    यह अखिल ब्राह्मांड भगवान का लीला−क्षेत्र है। यहाँ सदैव सौंदर्य परिस्फुटित होता है, सर्वदा उत्सव होते रहते हैं। संत उसी का अनुभव कर संसार के सौंदर्य पर मुग्ध हो जाते हैं। तब उन्होंने कहा, हे ईश्वर! तुम्हारा पवन, तुम्हारा चंद्र, तुम्हारा सलिल, तुम्हारा सूर्य सभी ने मुझको मुग्ध कर रखा है। सप्त सागर धरणी−धरा, अष्टकुल पर्वत मेरु, जिधर देखता हूँ, वहीं ही मुग्ध हो जाता हूँ। हे जगजीवन, तुम्हारा त्रिभुवन देखकर नेत्र शीतल हो गए। इन सभी सौंदर्यों के भीतर तुम्हारी ही पूजा शोभा पा रही है।

    संत ने कहा, मैं रूप और सौंदर्य के लिए इतना व्याकुल हूँ, पर इससे ख़्याल मत करना कि मैं रूप से अतीत निर्विकल्प और निराकर के धाम से अपरिचित हूँ। वहीं के तीर्थ में गोता लगाने से मैं मोहन के इस विचित्र धाम का रहस्य समझ सका हूँ। मैं निवासी तो उसी देश का हूँ। केवल रस−मिलन की आकांक्षा से ‘एक−रस’ देश से इस ‘विचित्र−रस’ देश में आया हूँ। उसी देश का निवासी होने के कारण में इस सुंदर विचित्र धाम का उपभोग कर सकता हूँ। वेद और क़ुरान इस रहस्य को क्या जानें? रस के इस रहस्य लोक में उनका प्रवेश नहीं। अरूप से ही रूप की सार्थकता है। भाव में ही आकार की सफ़लता है। तिल का प्राण तेल है, फ़ल का जीवन सुगंध है, दूध के भीतर नवनीत ही जीवन है, परमात्मा में ही आत्मा का यथार्थ जीवन है।

    उनका कहना है कि जब मैंने रूप के अतीत को देख लिया है, तभी उस रूप का उपभोग कर सकता हूँ। रूप को पाने के लिए तृष्णा ही नहीं होती। जब से रूप धाम से आया हूँ तभी से मेरा रोम−रोम रस की पिपासा के व्याकुल हो पुकार रहा है−हे विधाता, मेरे हृदय में भाव−धन की घटा छाकर रस−वर्षण करो। मेरी समस्त देह रसना होकर आस्वादन करना चाहती है; वाणी होकर यशोगान करना चाहती है, नेत्र होकर तुम्हारे अरूप रूप को देखना चाहती है। जब तुमसे विरह हुआ तभी मैं इस रूप−वैचित्र्य को देख सका हूँ। यही विरही की दृष्ट है।

    हम लोगों में विरह की बड़ी व्याकुलता है। समस्त भुवन को पाकर भी हम तृप्त नहीं होते। बात यह है कि यह विरह उसी की तृष्णा है। वही हमारे भीतर अपना रूप देखना चाहता है। हम उसके दर्पण हैं, अमृत रस की इस अंजलि में विश्व की पिपासा निहित है। दर्पण रहने से अपना रूप अपने को नहीं दीखता।

    यदि यह सृष्टि हमारी भी सृष्टि के लिए है, इसलिए दूध बछड़े की सृष्टि है। क्या बिना बछड़े के दूध हो सकता है? बछड़ा होने से ही गाय दूध देती है। दूध देकर गाय को सुख होता है और दूध पाकर बछड़े को। बछड़े के प्रति गाय को प्रेम है, वही उसके स्तन में रस होकर भरा रहता है। इसी तरह हमारे प्रेम से ही विधाता की सृष्टि है। यदि हमारे प्रति विधाता का कोई प्रेम रहे तो उसकी सृष्टि भी असंभव है। यदि हमारे प्रति विधाता का कोई प्रेम रहे तो उसकी सृष्टि भी अंसभव है। विधाता की शक्ति प्रेम के द्वारा ही व्यक्त होती है। इसी से वह विश्व प्रेम−रस से पूर्ण है। इसी से वह हमारी भी सृष्टि है। विश्व−सौंदर्य के उपभोग में हमारा पूरा अधिकार है। क्या सृष्टि में और क्या भोग में, ब्रह्म के बिना हम और हमारे बिना ब्रह्म अपूर्ण है। यदि हम रहें तब उसके नाम की सार्थकता कहाँ से हो? नाम के उच्चारण से ही तो नाम की सार्थकता है।

    जैसे नाद के बिना श्रुति के बिना नाद व्यर्थ है, जैसे नेत्र के बिना रूप और रूप के बिना नेत्र व्यर्थ हैं, जैसे रसना के बिना स्वाद और स्वाद के बिना रसना व्यर्थ है, ठीक ऐसा ही संबंध हमारे और उसके बीच है−

    चिरकाल से असीम इस रूप−सीमा के लिए और सीमा असीम के लिए व्याकुल है। यही विश्वव्यापी क्रंदन है।

    साधक विरक्त होता है और प्रेमी भी जो अनित्य है उसे बह जाने देता है। जो नित्य है वह प्रेम बल से ही बना रहेगा। जो वह चला उसके पीछे दौड़ने से लाभ क्या?

    ब्रह्म के स्वर से बाँध लेने पर सभी सहज हो जाते हैं। यही यथार्थ सेवा है। इसी सेवा-व्रत को ग्रहण करने के कारण पृथ्वी शस्य-श्यामला रहती है, रवि और शशि प्रकाशमान होते हैं, नहीं तो क्या धरित्री ने कोई साधना की है? नील आकाश ने कौन-सा संन्यास लिया है? किस साधना के बल से रवि और शशि ने ज्योति रूपी अमृत प्राप्त किया है?

    सहज साधन का एकमात्र मार्ग है ब्रह्म के साथ स्वर मिलना। क्योंकि ब्रह्म ‘महागुणी’ है और उसकी यह सृष्टि ही संगीत है। इस विश्व को धूल−मिट्टी अथवा जड़−पुंज समझना चाहिए। स्थूल दृष्टि से तो यही प्रतीत होता है, पर है यह परम शिल्प। उसी के स्वर−संगीत से आज भी विश्व में राग और वर्ण की छटा है। वह आज भी घटों में रूप तथा आकार की सीमा में−बज रहा है। जो ब्रह्म है वह तो निरंजन है। परंतु वह ओंकार संगीत ही उसका आकार है। जितने रंग और रूप हैं, सब उसी के विस्तार हैं।

    संगीत की यह सृष्टि सुखकर नहीं है। जिसके हृदय का आश्रय ग्रहण कर सौंदर्य, रस, संगीत की सृष्टि होती है उसके हृदय में अनंत ज्वाला है। जब तक संगीत अपने को पूर्णरूप से प्रकाशित नहीं करता, तब तक मन की गुप्त गुंजन ही दुःख देती रहती है।

    ब्रह्म स्वयं इसी ज्वाला में अहर्निश मग्न रहता है। उसके मन का भाव असीम है। उसकी सीमा और रूप में प्रकाश करना होगा। यह कम व्यथा नहीं है। ब्रह्म तो असीम और अरूप से अपने संगीत के द्वारा रूप और सीमा के वैचित्र्य में आता है। साधक को उसी संगीत से सीमा और रूप से असीम और अरूप की ओर यात्रा करनी होगी। वह जिस पथ से आता है, उसी पथ पर आकर तो उसे कभी नहीं देखा जा सकता। उससे मिलने के लिए हमें उल्टे पथ से जाना होगा। यही साधक की ज्वाला है। साधक के पास असीम भाषा है। उसके छंद और स्वर में किसी प्रकार असीम के भाव व्यक्त करने होंगे, ससीम देखा और वर्णों में असीम का भाव−विचित्र स्फुटित करना होगा। यही विधाता से मिलने का संकेत है। इसलिए ब्रह्मरसपिपासु ब्रह्म की सृष्टि करते हुए ब्रह्म की ओर अग्रसर होते रहते हैं। ब्रह्म की ज्वाला यह है कि यह असीम से ससीम की ओर जाना चाहता है और हमारी ज्वाला यह है कि हम सीमा के भीतर से असीम में जाना चाहते हैं। साधक की यह ज्वाला उसकी आत्मा की विपुलता का प्रमाण है। उसकी आत्मा की क्षुधा अपरिमित है। पवन, जल, सभी को उसने पान कर लिया है। धरित्री, आकाश, चंद्र, सूर्य, अग्नि ये पाँचों मिलकर भी उसके केवल एक ग्रासमात्र हैं।

    इसी असीम तृष्णा को एकमात्र असीम भाव ही तृप्त कर सकता है, जिस भाव की कोई सीमा पा सकता है और जिसका कोई मूल्य अंकित कर सकता है।

    इस असीम भाव−रस से हमारी तृष्णा मिट सकती है। क्षुद्र, ससीम, सुख का रस पान करने से यह तृष्णा मिटने की नहीं। इसलिए संतों ने प्रार्थना की कि हे प्रभो, प्रकाशपूर्ण आलोक का प्याला भर−भर कर दो−

    उसे छोड़ कर हमारी इस तृष्णा को कौन दूर कर सकता है? क्योंकि हमारी यह तृष्णा उससे किसी प्रकार कम नहीं है। जैसे हमारे राम अपार हैं वैसे ही हमारी भक्ति भी अपार है। इन दोनों का कोई परिमाण नहीं है। जैसे निर्गुण राम हैं वैसी ही निरंजन हमारी भक्ति है। जैसे परिपूर्ण राम हैं वैसी ही पूर्ण हमारी भक्ति है।

    जो आनंद रस का पान करते हैं, उन्हें उसका मूल्य भी जब तक उनके हृदय की गुंजन−ध्वनि बाहर नहीं व्यक्त होती है, दाह से पीड़ित रहते हैं, किंतु आशा यही है कि यह ज्वाला ही इस अनित्य संसार का नित्य धन है। जिस आनंद−धारा में साधक डूब जाते हैं उसकी तो इति हो जाती है, किंतु साधक की ज्वाला नित्य संगीत रूप में विद्यमान रहती है।

    साधना की सबसे बड़ी बात यह है, कि जो साधक होता है वह अपने को अपना नहीं मानता। जो अपने संबंध में ख़ूब सचेत रहता है, जो यह समझता है कि हम चरम तक पहुँच गए हैं, उसके और कुछ होने की आशा नहीं रहती। जो मनुष्य उड़ता रहता है वह यह नहीं जानता कि हम चल रहे हैं। वह यही कहता है कि हमने तो यह रास्ता पकड़ लिया है। परंतु जो यह कहते हैं कि हम पहुँच गए हैं और तुम सब इसी रास्ते से चले आओ, उन्होंने रास्ते को ही नहीं देख पाया है। सच बात यह है कि जो यथार्थ गुरु हैं वे कोई नवीन पद्धति या पंथ नहीं चलाते। वे मनुष्यों के स्वभाव−वैचित्र्य को समझते हैं, इसलिए उनको किसी एक पथ-विशेष पर चलने के लिए बाध्य नहीं करते। वे सभी के हृदय में नवीन प्रेम, नवीन आनंद और नवीन आशा जाग्रत करते रहते हैं, इसलिए उनको किसी एक पथ-विशेष पर चलने के लिए बाध्य नहीं रहते हैं और सभी अपने−अपने ढंग से अग्रसर होते रहते हैं। यही मुक्ति−दाता गुरु के लक्षण हैं और यही उनकी मुक्ति−दीक्षा है।

    प्रकृति में अपरूप सौंदर्य की जो नित्य सृष्टि हो रही है, उसका कारण यह है कि प्रकृति अज्ञ है। मनुष्य के लिए कठिनता की बात यह है कि वह सचेतन है। वह जब इसी अति चेतना के सेतु से पार होकर परम आनंद−सृष्टि में प्रवृत्त हो जाता है, तब उसकी सृष्टि अपरूप हो जाती है। प्रकृति का सौंदर्य देखकर नेत्र शीतल हो जाते हैं और उसी के द्वारा हम समझ पाते हैं कि इस सृष्टि का मूल क्या है? आकाश में स्वामी बैठे हैं। असीम और अनंत का हाल जानकर भी पृथ्वी हरित वस्त्र धारण कर अपरूप सौंदर्य की सृष्टि कर रही है, नित्य नूतन शृंगार कर रही है। अपार और अनंत पृथ्वी पुष्पिता और सफल वसुधा हो गई है। गगन के गर्जन से जल-स्थल पूर्ण हो गए हैं। काल का मुख काला कर स्वामी हमारे लिए सदैव सु−काल (सुखमय) रहते हैं। हे दीन−दयालो! तुम्हारे घर में प्रेम का मेघ सघन हो गया है, अब तुम प्रेमधारा बरसाओ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रन्थावली खंड−4 (पृष्ठ 33)
    • रचनाकार : हरीसाधन मुखोपाध्याय
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन

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