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हिंदी-साहित्य और मुसलमान कवि

hindi sahity aur musalman kavi

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

अन्य

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पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

हिंदी-साहित्य और मुसलमान कवि

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    सभी देशों के इतिहास में भिन्न जातियों के पारस्परिक संघर्षण के उदाहरण मिलते हैं। उनसे यही सिद्ध होता है कि ऐसे ही संघर्षण से सभ्यता का विकास होता है। भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न अवस्था के कारण विभिन्न जातियों के विभिन्न आदर्श होते हैं। जब एक जाति का दूसरी जाति के साथ मिलन होता है, तब उसका सामाजिक जीवन जटिल हो जाता है, पर इसी जटिलता से सभ्यता का विकास होता है। दो जातियों में परस्पर भिन्नता रहनी चाहिए, परंतु जब उन्हें एक ही स्थान में रहना पड़ता तब विवश होकर उन्हें कोई एक ऐसा संबंध-सूत्र खोजना पड़ता है, जिससे उस भिन्नता में भी एकता स्थापित हो जाए। यही सत्य का अन्वेषण है, बहु में एक और व्यष्टि में समष्टि।

    भारतवर्ष के इतिहास में महत्त्वपूर्ण घटना भिन्न-भिन्न जातियों का पारस्परिक सम्मिलन है। अन्य देशों की अपेक्षा भारत में जाति प्रेम की समस्या अधिक कठिन थी। यूरोप में जिन जातियों का सम्मिलन हुआ है, उनमें इतनी विषमता नहीं थी। उनमें से अधिकांश की उत्पत्ति एक ही शाखा से हुई थी। इसमें संदेह नहीं कि उनमें जातिगत विद्वेष और विरोध की मात्रा कम नहीं थी, तो भी कदाचित् में उनमें वर्णभेद नहीं था। यही कारण है कि इंग्लैंड में सैक्सन और नार्मन जातियों में इतने शीघ्र सम्मिलन हो गया। सच तो यह है कि सभी पाश्चात्य जातियों में वर्ण और शारीरिक गठन की समता है। यही नहीं किंतु उनके आदर्शों में भी अधिक भेद नहीं है। इसीलिए उनके पारस्परिक सम्मिलन में बाधा नहीं आती। परंतु भारतवर्ष की यह दशा नहीं है। प्राचीन काल में श्वेतांग आर्यों का कृष्णकाय आदिम निवासियों से मिलाप हुआ। फिर द्रविड़ जाति से उनका संघर्षण हुआ। उस समय द्रविड़-जाति भी सभ्य थी और उनके आचार-व्यवहार आर्यों के आचार-व्यवहार से सर्वथा भिन्न थे। यह विषमता दूर करने के तीन ही उपाय थे। एक तो यह कि इन जातियों का नाश ही कर दिया जाए। दूसरी यह कि उन्हें वशीभूत कर उन पर अपनी सभ्यता का प्रभाव डाला जाए और तीसरा यह कि एक ऐसे वृहत् सत्य का आविष्कार किया जाए जहाँ किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं रह सकती। भारतीय आर्यों ने इस तीसरे उपाय का अवलंबन किया। भारतवर्ष के इतिहास में जिन महापुरुषों का नाम अग्रगण्य है, उन्होंने यही कार्य किया है। भगवान बुद्ध ने मैत्री की शिक्षा देकर भारत के राष्ट्रीय जीवन में एकता का प्रचार किया। जब भारत पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ, तब देश में एक नए आंदोलन का जन्म हुआ। उस आंदोलन का उद्देश्य था जातीय और धार्मिक विरोध को भूलकर नारायण के प्रेम में सभी मनुष्यों को भ्रातृरूप से ग्रहण करना। हिंदी-साहित्य पर इस आंदोलन का जो प्रभाव पड़ा, उसकी चर्चा यहाँ की जाती है।

    भारत पर मुसलमानों का आधिपत्य सहसा स्थापित नहीं हो गया। हिंदी जाति ने, विशेषकर राजपूतों ने और बाद में मराठों ने बड़ी दृढ़ता से उनका आक्रमण रोका था। मुसलमानों का पहला आक्रमण सन् 664 ईस्वी में हुआ था। उस समय मुसलमान मुलतान तक ही आकर लौट गए और उनका आक्रमण सन् 711 में फिर हुआ; तब उन्होंने सिंधु देश पर अधिकार कर लिया। परंतु कुछ समय के बाद राजपूतों ने उनको वहाँ से हटा दिया। इसके बाद महमूद गजनवी का आक्रमण हुआ। उस समय भी मुसलमानों का प्रभुत्व वहाँ स्थापित नहीं हुआ। सन् 1193 से मुसलमानों का शासन-युग प्रारंभ हुआ। उत्तर भारत में उनका साम्राज्य स्थापित हो जाने पर भी दक्षिण में हिंदू साम्राज्य बना रहा। विजय नगर का पतन होने पर कुछ समय के लिए समग्र भारत में हिंदू-साम्राज्य का लोप हो गया। परंतु सत्रहवीं सदी में मरहठे प्रबल हुए और अंत में उन्होंने फिर हिंदू साम्राज्य की स्थापना की। इसी समय अँग्रेज़ों का प्रभुत्व बढ़ा और कुछ ही समय में हिंदू और मुसलमान दोनों को अँग्रेज़ों का आधिपत्य स्वीकार करना पड़ा।

    यद्यपि भारतवर्ष में मुसलमानों का साम्राज्य सन् 1193 से प्रारंभ होता है। तथापि कितने ही मुसलमान साधक और फ़कीर इन आक्रमणकारियों के पहले ही यहाँ चुके थे। आठवीं सदी में जिस समय भारत का एक भाग मुसलमानों के कब्ज़े में गया, तब से तो हिंदुओं और मुसलमानों में घनिष्ठता और भी बढ़ गई थी। वह मुसलमानों के अभ्युदय का समय था। बग़दाद विद्या का केंद्र हो चुका था। कितने ही भारतीय विद्वान ख़लीफ़ा के दरबार तक पहुँच चुके थे। वहाँ उन लोगों की बदौलत संस्कृत के कितने ही ग्रंथ-रत्नों का अनुवाद अरबी भाषा में हुआ। भारतवर्ष में मुसलमानों ने केवल अपनी प्रभुता ही स्थापित नहीं की, किंतु अपने धर्म का प्रचार भी एक प्रधान उद्देश्य बनाया, और इसी के कारण हिंदू और मुसलमानों का विरोध किया कबीर ने। उन्होंने देखा कि भारतवर्ष में हिंदू और मुसलमानों का विरोध बिल्कुल अस्वाभाविक है।

    कोई हिंदू कोई तुरुक कहावे एक जमीं पर रहिये।

    वही महादेव वही मुहम्मद ब्रह्मा आदम कहिये॥

    वेद किताब पढ़े वे कुतवा वे मौलाना वे पांडे।

    विगत विगत कै नाम धरायो यक माटी के भांडे॥

    कबीर हिंदू और मुसलमान दोनों का हाथ पकड़कर एक ही पथ पर ले जाना चाहते थे। परंतु दोनों इसका विरोध करते थे। कबीर को उनकी इस मूढ़ता-इस धर्मांधता-पर आश्चर्य होता था। उन्होंने देखा कि इस विरोधाग्नि में पड़कर दोनों नष्ट हो जाएँगे।

    साधो देखो जग बौराना।

    साँच कहो तो भारन धावे झूठे जग पतियाना।

    हिंदू कहत है राम हमारा, मुसलमान रहिमाना॥

    आपस में दोउ लरि तरि मूये भरम काहू जाना।

    हिंदू दया मेहर की तुरकन, दोनो घटसों त्यागी॥

    वैं हलाल वैं झटका मारैं, आग दोऊ घर लागी।

    या विधि हँसत चलत है हमको आप कहाये स्याना॥

    कहे कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना।

    स्वदेश की कल्याण-कामना से प्रेरित हो कबीर उस पथ को खोज निकालना चाहते थे, जिस पर हिंदू और मुसलमान दोनों चलकर अपनी आत्मोन्नति कर सकें। परंतु हिंदू एक ओर जा रहे थे, तो मुसलमान ठीक उसके विपरीत जा रहे थे। कबीर ने उनको चेतावनी दी

    अरे इन दुहूं राह पाई।

    हिंदू की हिन्दुवाई देखो तुरकन की तुरकाई।

    कहै कबीर सुनो भाई साधो कौन राह है जाई॥

    इसीलिए कबीर ने हिंदू की हिंदुवाई और तुर्क की तुरकाई दोनों को छोड़ दिया। उन्होंने केवल मनुष्यत्व को ग्रहण किया—

    हिंदू कहूं तो मैं नहीं मुसलमान भी नाहिं।

    सम दृष्टि सतगुरु किया मेटा भरम विकार।

    जहँ देखौं तहँ एकही साहेब का दीदार॥

    सम दृष्टि तब जानिये सीतल समता होय।

    सब जीवन की आत्मा लखें एक सी सोय॥

    कबीर का प्रयास व्यर्थ नहीं हुआ। वे हिंदू और मुसलमानों को सन्मार्ग की ओर अग्रसर करने में ही प्रयत्नशील रहे। भाषा के क्षेत्र में एक स्तर पर दोनों बहुत पहले ही चुके थे। अमीर खुसरो ने इसकी नींव डाल दी थी। हिंदी में काग़ज़-पत्र, शादी-ब्याह, खत-पत्र आदि शब्द इसके प्रमाण हैं। इसके बाद जायसी ने मुसलमानों को हिंदी साहित्य के सौंदर्य का दर्शन कराया।

    तुरकी अरबी हिंदुवी भाषा जेती आहि।

    जामें मारग प्रेम का सवै सराहैं ताहिं॥

    मलिक मुहम्मद जायसी केवल कवि ही नहीं थे, साधक भी थे। हिंदू और मुलसमान दोनों उनका आदर करते थे। कितने ही लोग उनके शिष्य थे। अतएव यह कहना ग़लत होगा कि हिंदी भाषा में रचना कर उन्होंने मुसलमानों को हिंदुओं के समीप लाने की चेष्टा की। जायसी के धार्मिक विचारों का आभास उनके अखरावट से मिलता है। अपने धर्म पर अविचल रहकर कोई दूसरे धर्म को भी श्रद्धा की दृष्टि से देख सकता है, और उसमें सत्य का यथार्थ और अभिन्न रूप देख सकता है। यह जायसी की कृति से भली-भाँति प्रकट हो जाता है। हिंदू भी मुसलमानों की तरह ईश्वर की संतान हैं, उनका भी धर्म ईश्वर की ओर ही प्रेरित करता है और वे घृणा के योग्य नहीं। इस सद्भावना से जायसी के पन्ने के पन्ने भरे पड़े हैं।

    तिन्ह संतति उपराजा भांति ही भांति कुलीन।

    हिंदू तुरुक दुनउ भये अपने-अपने दीन॥

    जायसी ने जो शिक्षाएँ दी हैं, उनमें ऐसी कोई शिक्षा नहीं है जिसे कोई हिंदू स्वीकार कर सके। ईश्वर की सर्वव्यापकता पर उन्होंने कहा है—

    जस तन तस यह धरती जस मन तइस अकास।

    परमहँस तेहि मानस जइस फूल मँह बास॥

    जो उसके दर्शन करना चाहते हैं, उन्हें अपने हृदय को सदैव स्वच्छ रखना चाहिए—

    तन दरपन कहँ साज, दरसन देखा जो चइस।

    मन सों लीजइ मांज, महमद निरमल होम किय॥

    भोग्य और भोक्ता में भी उन्होंने भिन्नता नहीं देखी है—

    सबइ जगत दरपन कइ लेखा।

    आपुहि दरपन आपहु देखा॥

    आपुहि वन अउ आप पखेरू।

    आपुहि सबजा आप अहेरू॥

    आपुहि पुहुप फूल-गति फूले।

    आपुहि भंवर बास-रस भूले॥

    आपुहि फल आपुहि रखवारा।

    आपुहि सोरस चाखन हारा॥

    आपुहि घटघट मुँह सुख चहड़।

    आपुहि आपन रूप सराहइ॥

    आपुहि कागद आप मसि आपुहि लिखनहार।

    आपुहि लिखनी अखर आपुहि पण्डित अपार॥

    जिस आंदोलन के प्रवर्तक कबीर थे, उसकी पुष्टि जायसी के समान मुसलमान साधकों और फ़कीरों ने की। भारत में अपनी-अपनी राजकीय सत्ता स्थापित करने के लिए हिंदू और मुसलमान दोनों प्रयत्नशील थे। परंतु देश में दोनों का स्थान निर्दिष्ट हो चुका था। भारत से मुसलमानों का उतना ही संबंध हो गया, जितना हिंदुओं का प्रतिद्वंद्वी होने पर भी इन दोनों धर्मों का सन्निवेश भारतीय सभ्यता में हो चुका था। हिंदू और मुसलमानों की कला के सम्मिलन से मध्य युग में एक नवीन भारतीय कला की सृष्टि हुई। देश में शांति भी स्थापित हुई। कृषकों का कार्य विर्विघ्न हो गया। व्यवसाय और वाणिज्य की वृद्धि होने लगी। देश में नवीन भावों का प्रचार हो गया। अकबर के राजत्व काल में इसका पूरा प्रभाव प्रकट हुआ। उसके शासन काल में जिस साहित्य और कला की सृष्टि हुई, उसमें हिंदू और मुसलमान का व्यवधान नहीं था। अकबर के महामंत्री अबुल फ़ज़ल ने एक हिंदू मंदिर के लिए जो लेख उत्कीर्ण कराया था, उसका भावार्थ यह है— हे ईश्वर, सभी देव मंदिरों में मनुष्य तुम्हीं को खोजते हैं, सभी भाषाओं में मनुष्य तुम्हीं को पुकारते हैं। विश्व ब्रह्मवाद तुम्हीं हो और मुसलमान धर्म भी तुम्हीं हो। सभी धर्म एक ही बात कहते हैं कि तुम एक हो, तुम अद्वितीय हो। मस्जिदों में तुम्हारी प्रार्थना मुसलमान करते हैं और ईसाई गिर्जाघरों में तुम्हारे लिए घंटा बजाते हैं। एक दिन मैं मस्जिद जाता हूँ और एक दिन गिर्जा, मंदिर-मंदिर में मैं तुम्हीं को खोजता हूँ। तुम्हारे शिष्यों के लिए सत्य तो प्राचीन है और नवीन ।” अबुलफ़ज़ल का यह उद्गार मध्ययुग का नव संदेश था। हिंदी में सूरदास और तुलसीदास ने अपने युग की इसी भावना से प्रेरित हो मानव जीवन के श्रेष्ठ आदर्शों की सृष्टि की थी। इसी भाव को ग्रहण कर रहीम ने कविता लिखी थी। निम्नलिखित पद्यों से प्रकट होता है कि रहीम ने हिंदू भावों को कितना अपना लिया था।

    अनुचित बचन मानिए जदपि गुराइस गाढ़ि।

    है रहीम रघुनाथ ते सुजस भरत को बाढ़ि॥

    कमला थिर रहीम कहि, यह जानत सब कोय।

    पुरुष पुरातन की बधू, क्यों चंचला होय॥

    गहि सरनागति राम की भवसागर की नाव।

    रहिमन जगत उधार कर और कछू उपाय॥

    जो रहीम करिबो हुतो ब्रज को इहै हवाल।

    तो काहे कर पर धरयो गोबर्धन गोपाल॥

    मुग़लों के शासन काल में हिंदी-साहित्य की जो श्रीवृद्धि हुई, उसका कारण यह है कि उस समय मुसलमान भारत को स्वदेश समझने लगे थे। तो हिंदुओं ने तत्कालीन राज-भाषा की उपेक्षा की और मुसलमानों ने हिंदू-साहित्य की। उसी समय वैष्णव संप्रदाय के आचार्यों ने धार्मिक विरोधों को भी मिटाने की चेष्टा की थी। कितने ही मुसलमान साधक श्रीकृष्ण के उपासक हो गए थे। रसखान की भक्ति ने रस की धारा ही बहा दी है। उनका निम्नलिखित पद्य बड़ा प्रसिद्ध है।

    मानुस हौं तो वही रसखान बसौं मिलि गोकुल गोप गुवारन।

    जो पशु होउँ कहा बसु मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मझारन॥

    पाहन हों तो वही गिरि को जु धरयो कर छत्र पुरन्दर धारन।

    जो खग होउँ बसेरो करौं वही कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन॥

    मुसलमानों के लिए यह प्रेम कम साहस का काम नहीं था। ताज का यह कथन सर्वथा उचित था—

    सुनो दिल जानि मेरे दिल की कहानी तुम।

    इल्म की बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं॥

    देव-पूजा ठानी मैं नमाजहू भुलानी तजे।

    कलमा कुरान सारे गुनन गहूँगी मैं॥

    श्यामला सलोना सिरताज सिर कुल्लेदार।

    तेरे नेह दाग मैं निदाघ है दहूँगी मैं॥

    नन्द के कुमार कुरबान ताणी सूरत पै।

    तोंण लाल प्यारे हिन्दुवानी हे रहूँगी मैं॥

    इसी प्रेम से प्रेरित हो कितने ही मुसलमान कवियों ने हिंदी साहित्य को अपनी रचनाओं से अलंकृत किया था।

    राजनीति के क्षेत्र में हिंदू और मुसलमानों का विरोध नहीं दूर हुआ। समाज के क्षेत्र में भी दोनों का संघर्षण बना ही रहा, तो भी साहित्य के क्षेत्र में दोनों ने सत्य को ग्रहण करने में संकोच नहीं किया। इसी चिरंतन सत्य के आधार पर, इसी ऐक्यमूलक आध्यात्मिक आदर्श की भित्ति पर भारत ने अपनी जातीयता की स्थापना की है। इस जातीयता में सभी जातियाँ अपने अस्तित्व को स्थिर रख सकती हैं। इसमें सम्मिलित होने के लिए हिंदुओं ने अपना हिंदुत्व नहीं छोड़ा और मुसलमानों ने अपने धार्मिक और सामाजिक संस्कारों का परित्याग किया। इन दोनों का मिलन उस अनंत सत्य के मंदिर में हुआ था, जहाँ बाह्य आचार-व्यवहार और कृत्रिम जाति-भेद के बंधन से मनुष्य जाति की एकता में भिन्नता नहीं जाती। यह एकता काल्पनिक नहीं थी, हिंदू और मुसलमानों के जीवन में यह अभी तक काम कर रही है। सत्य की सीमा संकुचित कर देने से ही इनमें परस्पर विरोध होता है। ईश्वर में ही सभी विरोधों का मिलन होता है। इसीलिए उसी को अपना लक्ष्य मानकर भारत ने अपनी जातीयता की सृष्टि की है। यहाँ एक ओर समाज में आचार-विचार की रचना होती आई है और दूसरी ओर मनुष्य की एकता को लोग स्वीकार करते आए हैं। एक ओर भिन्न-भिन्न वर्णों में एक ही पंक्ति में बैठकर खाने-पीने तक का निषेध किया गया है और दूसरी ओर 'आत्मवत सर्वभूतेषु' की शिक्षा दी गई है। आधुनिक युग में जाति-भेद की जो समस्या उपस्थित हो गई है, उसके संबंध में रवींद्र बाबू ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि “आजकल जाति-विद्वेष ख़ूब बढ़ गया है। सभ्य जाति अपनी शक्ति के मद से उन्मत्त हो निर्बल जातियों पर अत्याचार करने में संकोच नहीं करती। अभी मनुष्य का विचार उनके लिए उपहासास्पद है। परंतु जब जातीय स्वातंत्रय, परजाति विद्वेष और स्वार्थ सिद्धि का वीभत्स दृष्टिगोचर होने लगेगा तब मनुष्य यह समझेगा कि मनुष्य की यथार्थ मुक्ति किसमें है। नर में नारायण को उपलब्ध करने में ही उसकी मुक्ति है, इसी में उसका कल्याण है। इसके लिए अधिक तर्क करने की आवश्यकता नहीं है।”

    बिन्दु मां सिन्धु समान, को अचरज कासों कहै।

    हेरनहार हेरान, रहिमन अपने आपतें॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-4 (पृष्ठ 43)
    • संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
    • रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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