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देशी भाषाओं में शिक्षा

deshi bhashaon mein shiksha

महावीर प्रसाद द्विवेदी

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

देशी भाषाओं में शिक्षा

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    बात 20 जनवरी को इन प्रांतों की काउंसिल की बैठक में एक मेंबर ने गवर्नमेंट से पूछा कि देशी भाषाओं में कुछ अधिक शिक्षा देने के विषय में क्या हो रहा है। उत्तर में गवर्नमेंट और ने यह सब पत्र-व्यवहार दिखा दिया जो तब तक उससे और शिक्षा-विभाग के डायरेक्टरों से हुआ था। यह पत्र-व्यवहार 31 जनवरी, 1914 के गवर्नमेंट गैजट में प्रकाशित हुआ है। उससे नीचे लिखी हुई बातें मालूम हुई।

    गवर्नमेंट को सूचनाएँ दी गई कि प्रारंभिक मदरसों के आगे भी देशी भाषाओं में शिक्षा दी जानी चाहिए। एम० ए० और बी० ए० क्लासों तक में उनका प्रवेश होना चाहिए। इस पर गवर्नमेंट ने एक कमिटी बना दी। उसमें उसने इन लोगों को रखा—

    गवर्नमेंट की तरफ़ से

    (1) शिक्षा विभाग के डाइरेक्टर, डि ला फोसी साहब (सभापति)

    (2) माननीय पंडित सुंदरलाल

    (3) पादरी ई० ग्रीब्ज़

    (4) शम्स-उल्-उल्मा मौलाना शिबली

    (5) मुंशी आबिदाली, स्कूलों के स्पेशल इंस्पेक्टर

    विश्वविद्यालय की तरफ़ से

    (1) ए० बोनिस साहब

    (2) महामहोपाध्याय डॉक्टर गंगानाथ झा

    (3) मिर्ज़ा हबीबहुसैन, अमीनाबाद (लखनऊ) हाईस्कूल के हेड मास्टर गवर्नमेंट ने डाइरेक्टर साहब को लिखा कि इन्हीं लोगों के साथ बैठकर वे इस पर विचार करें कि इस विषय में क्या कर्तव्य है। साथ ही विचारणीय बातों की सूची भी गवर्नमेंट ने भेज दी। पर यह कह दिया कि इन बातों के सिवा और भी आवश्यक बातों पर कमिटी विचार कर सकती है। इस सूची का सारांश नीचे दिया जाता है—

    स्कूलों का पाठ्यक्रम

    (1) इस सूबे की देशी भाषाओं का व्याकरण पढ़ाने में पश्चिमी ढंग से काम सेना चाहिए या नहीं? अर्थात् फ़ारसी और संस्कृत के व्याकरण का अनुकरण बंद या कम कर देना चाहिए या नहीं?

    (2) जो व्याकरण प्रचलित हैं उनसे अरबी और संस्कृत भाषा के व्याकरणों का कुछ ज्ञान हो जाता है या नहीं?

    (3) हिंदी-उर्दू की प्रचलित रीडरों की भाषाओं की वाक्य रचना एक ही है पर साहित्य दोनों का बहुत कुछ बुरा है। क्या यह साहित्य का भेद भी मिटा दिया जाए? अधिका फ़ारसी हो के शब्द रहें संस्कृत ही के। तिस पर भी भाषा शिक्षित आदमियों की भाषा बनी रहें।

    (4) उर्दू-हिंदी भाषाओं की कविता में क्या बहुत भेद है? क्या यह नहीं हो सकता कि रामायण और पद्मावत के कुछ अंश दोनों भाषाओं की रीडरों में रहे?

    (5) जिस भाषा का नाम हिंदी है उसके इतिहास और उसकी शाखाओं आदि का विवरण भी क्या स्कूलों के पाठ्यक्रम में रखना चाहिए?

    (6) जिन दरजों में आजकल गणित या विज्ञान या इतिहास, देशी भाषाओं में, सिखाया जाता है, क्या उनके आगे भी इन्हीं भाषाओं में सिखाना चाहिए?

    विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम

    (7) क्या देशी भाषाओं का ज्ञान विस्तृत रूप में करना मुनासिब है? मैट्रिकुलेशन, एफ़० ए० और बी० ए० की परीक्षाओं के लिए क्या यह नियम कर देना चाहिए कि अँग्रेज़ी से देशी भाषाओं में और देशी भाषाओं से अँग्रेज़ी में तरजुमे के परचे ज़रूर रहें और एक परचा निबंध लिखने के लिए भी रहे!

    (8) नंबर (5) विषय भी क्या विस्तृत रूप से मैट्रिकुलेशन में सिखाना चाहिए?

    (9) क्या यह भी नियम कर देना चाहिए कि मैट्रिकुलेशन, एफ़० ए० और बी० ए० में, जिसका जी चाहे, देशी भाषाओं के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध ग्रंथकारों के ग्रंथों का गुण-दोष निर्णायक ज्ञान, तथा उनके प्रयुक्त व्याकरण-प्रयोगों का भी ज्ञान प्राप्त करे? और इसलिए, क्या कुछ ग्रंथों को पाठ्य-पुस्तक नियत करना चाहिए?

    (10) क्या एम० ए० के लिए भी नियम कर देना चाहिए कि, विश्वविद्यालय कमिशन की सिफ़ारिश के अनुसार, जिसका जी चाहे, देशी भाषाओं का विशेष ज्ञान प्राप्त करे? उदाहरण के लिए तुलसीदास के तथा ब्रजभाषा और राजपूताने के कवियों के ग्रंथों और उनकी भाषा का गुणदोष-विवेचनात्मक ज्ञान।

    इनमें से कितनी ही सूचनाएँ अत्यंत महत्त्व की हैं। पर बड़े खेद की बात है कि जो लोग देशी भाषाओं की उन्नति के लिए जी-जान होकर प्रयत्न और परिश्रम कर रहे हैं उनको गवर्नमेंट की इन शुभचिंतनाओं की ख़बर तक नहीं। इनकी आलोचना करना और गवर्नमेंट पर अपनी सम्मति प्रकट करना तो दूर की बात है। इसमें उनका कुछ अपराध नहीं। गवर्नमेंट शायद उनको इस तरह के काग़ज़-पत्र दिखाने के लायक़ ही नहीं समझती। जहाँ तक हम जानते हैं, शायद ही किसी हिंदी-पत्र के दफ़्तर में यह पत्र-व्यवहार गवर्नमेंट का भेजा हुआ पहुँचा हो। यदि ये कार्य पूर्वोक्त माननीय मेंबर की बदौलत गवर्नमेंट गैजट में छप जाते तो हमें तो इनकी कुछ भी ख़बर होती। अस्तु।

    गवर्नमेंट का यह पूछना ही अफ़सोस की बात है कि किसी ख़ास विषय की शिक्षा देशी भाषाओं में होनी चाहिए या नहीं। शिक्षा का अभिप्राय यदि ज्ञान-संपादन करना है तो भाषा-विषयक प्रश्न के लिए जगह ही नहीं। ज्ञान-संपादन का सबसे सीधा और सुलभ मार्ग मनुष्य की निज की भाषा है। यदि अँग्रेज़ी भाषा में कोई विशेषता होती तो फ़्रांस, जर्मनी, रूस और जापान आदि देश भी उसी में शिक्षा पाने का प्रबंध कर देते। पर यह बात नहीं। विदेशी भाषा में ज्ञान-संपादन करने से संपादन-मार्ग में उलटा विघ्न उपस्थित हो जाता है—ज्ञान-संपादन में विलंब होता है। विलंब क्या, अधिकांश बच्चे ज्ञान-संपादन से वंचित तक रह जाते हैं। यह बात इतनी स्पष्ट है कि इसमें शंका और संदेह के लिए जगह ही नहीं। परंतु फिर भी, सरकार जो यह पूछती है कि इतिहास, विज्ञान और गणित आदि को ऊँची शिक्षा हमारी भाषा में दी जानी चाहिए या नहीं, सो हमारे दुर्भाग्य के सिवा और कुछ नहीं हमारी भाषा में यथेष्ट शब्द नहीं; हमारी भाषा अँग्रेज़ी के सदृश भावपूर्ण नहीं हमारी भाषा में विज्ञान की परिभाषा नहीं—ये सब फ़िज़ूल बातें हैं। हमारी भाषा में सब कुछ है। अगर किसी बात की कमी है तो उच्चशिक्षा-दान के आरंभ की कमी है। आरंभ कीजिए, फिर देखिए, कमी की विभीषिका का कहीं भी पता लगेगा। रूसी और जापानी भाषाओं में क्या कमी थी? फिर रूस और जापान ने अँग्रेज़ी को क्यों अपनाया? उनको जाने दीजिए, टर्की और फ़ारिस को देखिए। वहाँ क्या किसी विदेशी भाषा को प्रधानता दी गई है? हिंदुस्तान में अँग्रेज़ी भाषा सीखने की सिर्फ़ इसलिए ज़रूरत है कि यहाँ अँग्रेज़ों का राज्य है। राजकीय काम अँग्रेज़ी ही में अधिक होता है। बस, और कुछ नहीं। सो यदि और सब विषयों की शिक्षा देशी भाषाओं में दी जाए तो अँग्रेज़ी सीखने के लिए विद्यार्थियों को और भी अधिक समय मिले। इस प्रबंध से अँग्रेज़ी सीखने में उलटा सुभीता होगा, विघ्न पड़ेगा। अँग्रेज़ी के सदृश क्लिष्ट विदेशी भाषा में शिक्षा देने की हानियाँ बताते बैठने की ज़रूरत नहीं लंदन में यदि एक कॉलेज खोल दिया जाए और वहाँ वालों के लिए यह नियम कर दिया जाए कि हिंदी-उर्दू में सही, जर्मन या फ्रेंच ही में विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण करनी पड़ेगी, तो देखिए क्या तमाशा होता है! भारत में विदेशी भाषा बड़ा ही ग़जब ढा रही है। उसी की कृपा से हम लोग अपनी भाषा भूल से रहे हैं। अँग्रेज़ीदाँ मातृभाषा को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। कितने ही महात्मा तो ऐसे हैं जिन्हें अपनी भाषा का एक शब्द तक लिखते लज्जा मालूम होती है। उनकी अँग्रेज़ी-चिट्ठियों का उत्तर बार-बार मातृभाषा में देने पर भी वे शिष्टाचार पर लात मारते और अँग्रेज़ी लिखते ही चले जाते है! हाय री अँग्रेज़ी तूने हमारे खाद्य और पेय पदार्थों में परिवर्तन कर दिया; तूने हमारे वस्त्र-परिच्छदों में अदल-बदल कर डाला; यहाँ तक कि तूने हमारी मातृभाषा को भी तिरस्कृत कर दिया!!! अभागे हिंदुस्तान को छोड़कर धरती की पीठ पर एक भी ऐसा सभ्य देश नहीं वहाँ इस तरह की अस्वाभाविक बातें होती हों और जहाँ विदेशी भाषा में ही विशेष कर शिक्षा दी जाती हो।

    अच्छा, अब देखिए, कमिटी ने गवर्नमेंट की सूचनाओं या सवालों के क्या उत्तर दिए यहाँ उनका सारांश दिया जाता है—

    स्कूलों का पाठ्यक्रम

    (1) व्याकरण पढ़ने में पश्चिमी ढंग से काम लिया जाए। उर्दू का व्याकरण फ़ारसी अरबी के व्याकरणों के आधार पर बना है और हिंदी का संस्कृत के अँग्रेज़ी व्याकरण के कितने ही पारिभाषिक शब्द ऐसे हैं जिनके पर्यायवाची हिंदी-उर्दू में हैं ही नहीं। अतएव ढंग बदलने की ज़रूरत नहीं। पर हिंदी-उर्दू के वर्तमान व्याकरण दोषपूर्ण हैं। उनके दुहराए जाने—उनमें साद्यंत संशोधन किए जाने की ज़रूरत है।

    (2) वर्तमान व्याकरणों की सहायता से संस्कृत और फ़ारसी अरबी का ज्ञान हो सकता है उससे अधिक ज्ञान-संपादन की ज़रूरत नहीं।

    (3) और (4) के विषय में आगे चलकर लिखा जाएगा।

    (5) हिंदी का इतिहास आदि डॉक्टर ग्रियर्सन ने अपनी भाषा विषयक रिपोटों में दिया है। उसका सारांश उर्दू-हिंदी के व्याकरणों में देना चाहिए। मिडिल क्लास से यह दिया जाए। स्कूलों की पढ़ाई में भी यह रहे कॉलेज में भी उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ यह जारी रक्खा जाए।

    (6) (क) यद्यपि स्कूलों में आठवीं क्लास से लेकर आगे गणित की परीक्षा अँग्रेज़ी ही में होती है और अँग्रेज़ी ही के पारिभाषिक शब्द काम में लाए जाते हैं। तथापि गणित की शिक्षा मुख्यतः देशी ही भाषाओं में दी जाती है। अतएव कमिटी के हिंदुस्तानी मेंबरों की राय में इस क्रम में रद्दोबदल करने की ज़रूरत नहीं रद्दोबदल करने से उर्दू और हिंदी के अलग-अलग पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग करना पड़ेगा। (ख) सातवीं और आठवीं क्लासों में अँग्रेज़ी के विज्ञानविषयक पारिभाषिक शब्द काम में लाए जाते हैं। तथापि विज्ञान की शिक्षा प्रधानतः देशी ही भाषाओं में दी जाती है। कमिटी की राय है कि विद्यार्थियों की परीक्षा देशी भाषाओं में भी होनी चाहिए और ऊपर के मिडिल दरजों की पाठ्य-पुस्तकें देशी ही भाषाओं में तैयार होनी चाहिए। ऊपरी दरजों में अँग्रेज़ी में ही मिला और परीक्षा का वर्तमान क्रम जारी रखना चाहिए। (ग) आठवीं क्लास तक देशी भाषाओं ही में इसलिए पढ़ाया जाए और मिडिल तक परीक्षा भी उन्हीं में ली जाए। उसके आगे अँग्रेज़ी ही का साम्राज्य रहे।

    विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम

    (7) (क) मैट्रिकुलेशन क्लास के विद्यार्थियों को एक देशी भाषा की शिक्षा देना अनिवार्य कर दिया जाए। इसके लिए उचित पाठ्य-पुस्तकें बनें। निबंध लिखना भी सिखाया जाए। देशी भाषाओं की शिक्षा के सुभीते के लिए गणित की पढ़ाई कुछ कर दी जाए और इंग्लैंड का इतिहास बिलकुल ही पढ़ाया जाए।

    (ख) एफ़.ए. में अँग्रेज़ी से देशी भाषाओं में और देशी भाषाओं से अँग्रेज़ी में अनुवाद का एक परचा रहे। यह नियम अनिवार्य कर दिया जाए। विद्यार्थियों को इस निमित्त यथानियम अनुवाद-शिक्षा दी जाए।

    (ग) बी० ए० और बी० एस-सी० में भी अनुवाद का परचा रहे। निबंध रचना भी सिखाई जाए और उसमें परीक्षा भी ली जाए। यह सब भी अनिवार्य कर दिया जाए।

    (8) हिंदी का इतिहास आदि विस्तृत रूप से सिखाया जाए।

    (9) देशी भाषाओं की तारतम्य-बोधक या गुण-दोष परीक्षणविषयक शिक्षा की आवश्यकता नहीं हो, बी० ए० हो जाने पर जो विद्यार्थी यह विषय सीखना चाहे उनके लिए इसका प्रबंध कर दिया जाए।

    (10) गुण-दोष-परीक्षणपूर्वक हिंदी की शिक्षा एम० ए० के लिए निर्दिष्ट की जाए। जो विद्यार्थी एम०ए० में संस्कृत में उनके लिए हिंदी का तुलनामूलक भाषाशास्त्र भी रखा जाए। मुसलमान मेंबरों की राय हुई कि उनके लिए भी यही नियम किया जाए पर और मेंबरों ने कहा-उर्दू के लिए यह कैसे हो सकेगा। उसकी शिक्षा के लिए तो तुलनामूलक पुस्तकें ही नहीं।

    कमिटी की इन सिफ़ारिशों का अधिकांश सर्वथा अभिनंदनीय है। उनके अनुसार शिक्षा-क्रम में फेरफार करते ज्ञान-संपादन में भी अधिक सुभीता होगा और अपनी भाषा का भी कुछ अधिक ज्ञान विद्यार्थियों को हो जाएगा। कमिटी की सिफ़ारिशों को गवर्नमेंट के पास पहुँचे दो वर्ष से भी अधिक समय हो गया। परंतु अब तक गवर्नमेंट ने अपना निश्चय नहीं प्रकाशित किया। यह उसने नहीं बताया कि कमिटी की कौन बात उसे पसंद है, कौन नहीं, तथा कब से किन-किन सिफ़ारिशों को वह कार्य में परिणत करेगी। गवर्नमेंट की दीर्घसूत्रता नई नहीं। परंतु विषय के महत्त्व और गौरव को भी देखना चाहिए। आशा है, वह इस विषय में अपना मंतव्य शीघ्र ही प्रकाशित करने की कृपा करेगी।

    कमिटी की कई बातें हमारी समझ में नहीं आई। इसका कारण यह हो सकता है कि हम शिक्षा की पेचीदा बातों से अभिज्ञ नहीं। शिक्षा की कठिनाइयाँ और उससे होने वाले हानि-लाभ शिक्षक और शिक्षा विभाग के कर्मचारी अवश्य ही अधिक समझ सकते हैं। तथापि साधारण समझ रखने वालों के ध्यान में यह बात नहीं सकती कि गणित, विज्ञान और इतिहास की शिक्षा देशी भाषाओं ही में क्यों विशेष रूप से दी जाए। अंकगणित, बीजगणित और रेखा गणित के पारिभाषिक शब्द संस्कृत और अरबी में पूर्णरूप से विद्यमान है। फिर भला अपने पर की भाषा में गणित क्यों ऊँचे दरजों में भी सिखाया जाए? अब तो विज्ञान की मुख्य-मुख्य शाखाओं के भी पारिभाषिक शब्द हिंदी में निश्चित हो गए हैं। फिर क्या कारण है, जो अपनी भाषा में विज्ञान की अधिक शिक्षा देकर अँग्रेज़ी की सहायता ली जाए? अच्छा इतिहास के लिए तो पारिभाषिक शब्दों का मुँह देखने की ज़रूरत नहीं, फिर आठवें ही दरजे तक इतिहास की शिक्षा देशी भाषाओं में क्यों? ये बातें ऐसी हैं जो बहुत खटकती हैं। हमारी राय तो यह है कि देशी भाषाओं में इन विषयों की शिक्षा का निश्चय हो जाने पर पुस्तकों और परिभाषाओं का अभाव या कभी-कभी बाधक होगी। यदि वर्ष दो वर्ष थोड़ी-बहुत विघ्न-बाधा भी उपस्थित होगी तो आगे रहेगी। अँग्रेज़ी में इन विषयों की शिक्षा देकर विद्यार्थियों का समय नष्ट और उनके दिमाग़ को व्यर्थ कमज़ोर करने की अपेक्षा कुछ समय तक विघ्न-बाधाएँ सहना भी अनुचित नहीं। अँग्रेज़ी ही में गणित, इतिहास और विज्ञान पढ़ाकर अँग्रेज़ी भाषा में पारदर्शिता प्राप्त करना मंगलजनक नहीं। अँग्रेज़ी भाषा का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त करने के लिए अन्य अनुकूल पुस्तकों और साधनों का आय लेकर ये सब विषय अपनी ही भाषा में पढ़ाने से लाभ है।

    स्कूलों के पाठ्यक्रम के तीसरे और चौथे विषय का संबंध हिंदी-उर्दू और उनके गद्य-पद्य की भाषा से है। यह विषय अभिज्ञों की दृष्टि में बहुत ही सीधा और स्पष्ट है। पर कुछ लोगों ने इसे व्यर्थ ही कँटीला बना रखा है। बर्न साहब यद्यपि इस कमिटी के मेंबर थे, पर सरकार उनको हिंदी-उर्दू का उद्भट ज्ञाता समझती है। इस कारण कमिटी ने इस विषय में उनकी लिखित राय पेश की। इस पर कमेटी के मुसलमान मेंबर, मौलाना शिबली नेमानी और मिर्ज़ा हबीबहुसैन, ने बर्न साहब के नोट की बातों का खंडन करने के लिए लंबे-लंबे लेख लिखे। इनमें से बर्न साहब के नोट को पढ़कर हमें दुःख, मौलाना शिबली के नोट को पढ़कर आनंद और मिर्ज़ा साहब के नोट को पढ़कर बड़ा अफ़सोस हुआ।

    बर्न साहब की राय है कि (1) हिंदी-उर्दू की रीडरों की भाषा एक ही होनी चाहिए। संस्कृत और अरबी-फ़ारसी के शब्द उसमें रहें, पर वे ऐसे हों जो सब लोग समझ सकें। (2) हिंदुस्तानी, अर्थात् उर्दू के गद्य-पद्य की भाषा तो एक ही है, पर हिंदी की नहीं। हिंदी के पद्य की भाषा में गद्य की भाषा से भेद है। अतएव इस भेद की भी शिक्षा देनी चाहिए और पद्य की भाषा का भेद समझाने के लिए एक अलग व्याकरण बनना चाहिए। (3) हिंदू और मुसलमान दोनों को रामायण और पदुमावत पढ़ना चाहिए।

    बर्न साहब का यह भी कथन है कि उर्दू या हिंदुस्तानी एक ही भाषा है। पढ़ें-लिखे लोग सब उर्दू बोलते हैं। जितना गद्य है सबका सब या तो उर्दू में लिखा जाता है या ऊँची हिंदी में। उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक संस्कृत और फ़ारसी को छोड़कर उर्दू और हिंदी में गद्य था ही नहीं।

    इस पर हमारा वक्तव्य यह है कि उर्दू (हिंदुस्तानी) और हिंदी-भाषाशास्त्र की दृष्टि से अवश्य ही दो भिन्न भाषाएँ नहीं। उनकी प्रकृति एक ही है। पर यह एकता बोलचाल ही की भाषा तक है। साहित्य की भाषा में भिन्नता है। उर्दू साहित्य की भाषा में फ़ारसी-अरबी के शब्दों का आधिक्य रहता है और हिंदी-साहित्य की भाषा में संस्कृत-शब्दों का। इस दशा में हिंदी-साहित्य की भाषा को यदि आप ऊँची हिंदी कहें तो उर्दू-साहित्य की भाषा को भी आपको ऊँची उर्दू कहना चाहिए। स्कूल की रीडरों के सिवा उर्दू की बहुत ही कम साहित्यश्रेणि-भक्त पुस्तकें ऐसी मिलेंगी जिनकी भाषा सर्व-साधारण की समझ में सकती है। अतएव यह कृत्रिम भेद आप कीजिए। जहाँ तक साहित्य से संबंध है उर्दू और हिंदी में एकता नहीं हो सकती। भाषा-ज्ञान की वृद्धि के लिए उर्दू को फ़ारसी-अरबी का और हिंदी को संस्कृत का आश्रय लेना ही पड़ेगा। अतएव स्कूली किताबों की भाषा एक कर देने की चेष्टा कदापि सफल होने की नहीं।

    साहब हिंदी पथ की भाषा में भिन्नता बताते हैं। यह आपकी भूल है। भाषा भिन्न नहीं। पद्य में कवियों को भाषा-विषयक थोड़ी बहुत निरंकुशता प्राप्त रहती है। इससे वे छंद के अनुरोध से कभी-कभी शब्दों को तोड़-मरोड़ देते हैं। यह बात सभी भाषाओं के पद्य में पाई जाती है। पर इससे भाषा में भिन्न का आरोप नहीं किया जा सकता। यह थोड़ी बहुत भिन्नता भी अब दूर होती जाती है। आज दस-बारह वर्षों से हिंदी में जो कविता होती है यह प्रायः बोलचाल ही की भाषा में होती है। अतएव अब वह समय दूर नहीं जब स्कूलों के लिए सब विषयों की नई तरह की हिंदी कविता सुलभ हो जाएगी।

    रही बर्न साहब की यह बात कि उन्नीसवीं सदी के पहले हिंदी-उर्दू में गद्य था ही नहीं, सो भी सर्वांश में ठीक नहीं। उर्दू में तो सचमुच गद्य साहित्य था; पर हिंदी में थोड़ा नहीं, बहुत था इसका प्रमाण हम गत दिसंबर की 'सरस्वती' दे चुके हैं।

    बर्न साहब के नोट के बदन में शम्स-उल-उल्मा मौलाना शिबली ने जो नोट लिखा है उसे पढ़कर हम बहुत प्रसन्न हुए। आपने उसमें बड़ी योग्यता से दुर्ग साहब के भ्रमों का खंडन किया है। मौलाना साहब ने लिखा है कि स्कूली किताबों में भाषा का एकाकार करने से अपार हानि होगी। छोटे दरजों में तो इस एकाकार से किसी तरह काम चल जाएगा, पर आगे नहीं। भाषा में नए-नए भावों और विचारों को व्यक्त करने की ज़रूरत होती है। हिंदुस्तानी भाषा रखने से उन भावों और विचारों को प्रकट करने के लिए शब्द कहाँ से आएँगे? अतएव प्रारंभिक दरजों के आगे की पुस्तकों की भाषा जुदा-जुदा किए बिना किसी तरह निस्तार नहीं। देवनागरी अक्षरों में छपी हुई पुस्तकों की भाषा हिंदी रहे और फ़ारसी अक्षरों में छपी हुई पुस्तकों की भाषा उर्दू ऐसा करने से टेक्स्ट बुक कमिटी के हिंदू-मुसलमान मेंबरों में नित नया झगड़ा हुआ ही करेगा। हिंदू संस्कृत की ओर झुकेंगे, मुसलमान अरबी-फ़ारसी की ओर। नतीजा यह होगा कि भाषा सत्यानास जाएगी। वह हिंदी ही रहेगी, उर्दू ही मौलाना साहब की यह राय बहुत ठीक है। हम उनकी सत्यनिष्ठा की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। यही बात हम भी कहते चले रहे हैं।

    मौलाना साहब की राय है कि हिंदी गद्य की भाषा भिन्न नहीं। अतएव उसके लिए किसी विशेष व्याकरण के बनाए और पढ़ाए जाने की ज़रूरत नहीं। रामायण को बने तीन सौ वर्ष हुए। उसके कुछ शब्दों में जो भिन्नता जान पड़ती है उसका कारण प्राचीनता और कवि की निरंकुशता है। तथापि रामायण ऐसी पुस्तक नहीं जो हिंदू-मुसलमान दोनों के पढ़ने की चीज़ समझी जा सके। जो लड़के नई और पुरानी हिंदी का अध्ययन करना चाहे उन्हीं के लिए वह लाभदायक है। मौलवी साहब की इतनी ही बात से हम सहमत नहीं। मुसलमान उसे पढ़ें तो हमारी कोई शिकायत नहीं। पर हिंदू विद्यार्थियों के लिए उसका पढ़ाया जाना परमावश्यक है। उसकी भाषा में कहीं-कहीं पर जो आजकल की भाषा से अंतर देख पड़ता है वह इतना थोड़ा है कि छोटे-छोटे बच्चे तक, थोड़े ही हमारे से, उन क्लिष्ट माने गए स्थलों को भी समझ सकते हैं।

    इस संबंध में मिर्ज़ा हबीब हुसेन साहब, बी० ए० का नोट पढ़कर किसी भी पक्षपातहीन मनुष्य को आश्चर्य हुए बिना रहेगा। मौलाना शिबली नामी विद्वान है। उनकी राय से मिर्ज़ा जी की राय बिलकुल ही नहीं मिलती। मिर्ज़ा जी लखनऊ के अमीनाबाद हाई स्कूल में हेडमास्टर हैं। सिविल लिस्ट के अनुसार शिक्षाविभाग में दाख़िल हुए आपको अभी पाँच ही छः वर्ष हुए। पहले आप क्या थे, उर्दू-हिंदी और संस्कृत-फ़ारसी के साहित्य से आपका कहाँ तक सरोकार है, कौन-कौन पुस्तकें और किन-किन विषयों की आपने लिखी हैं—इसकी हमें कुछ भी ख़बर नहीं। क्या समझकर विश्वविद्यालय ने आपको इस कमिटी में रखा, सो वही जाने। अवश्य उनमें कमिटी में बैठने की योग्यता होगी। अन्यथा वे क्यों इस काम के लिए चुने जाते। जो कुछ हो, आपकी राय भ्रम, पक्षपात और कहीं-कहीं कुत्सा से भी परिपूर्ण देखकर और की तो बात ही नहीं, शायद मौलाना शिबली को भी अफ़सोस हुआ होगा।

    मिर्ज़ा जी की राय है कि (1) रामायण की भाषा छः-सात सौ वर्ष पहले बोली जाती रही हो तो रही हो, (2) प्राचीन 'भाषा' अथवा अवधी भी संस्कृत की तरह मर चुकी, (3) हिंदी नाम की कोई भाषा नहीं, (4) हिंदी शब्द 'गँवारी' का पर्यायवाची है। अर्थात् वह गँवारी बोली है और बिगड़ी हुई उर्दू के सिवा और कुछ नहीं, (5) यहाँ की भाषा का नाम उर्दू ही है, और (6) पाँचवें दरजे से लेकर आगे सर्वत्र यही उर्दू या हिंदुस्तानी ज़ारी करना चाहिए।

    यही आपके चार-पाँच पृष्ठ-व्यापी नोट का सारांश है। आपका भाषा ज्ञान इतना अल्प और वह भी इतना भ्रमपूर्ण है कि आपकी बातों का उत्तर देना समय और श्रम को व्यर्थ करना है। इस विषय में ख़ान बहादुर असग़र अली से आप किसी बात में कम नहीं; अधिक चाहे भले ही हों। ख़ान बहादुर के भाषाज्ञान और तर्काभास की बानगी दिखाते समय, दिसंबर की सरस्वती में, हम इन भ्रमों का खंडन कर भी चुके हैं। अतएव मिर्ज़ा जी की बातों का उत्तर उपेक्षा के सिवा हमारे पास और कुछ भी नहीं। आप यही समझ रहें हैं कि तुलसीदास ने अपने समय के तीन-चार सौ वर्ष पहले की भाषा में रामायण की रचना की है। यही क्यों, आप चाहें तो यह भी मान सकते हैं कि आपकी उर्दू की उत्पत्ति के पहले यहाँ सब लोग फ़ारसी बोलते थे, और उसके भी पहले अरबी। हमें विश्वास है कि गवर्नमेंट के सलाहकार जो कुछ करेंगे समझ-बूझ कर ही करेंगे। जस्टिल पिगट और शम्स-उल्-उल्मा शिवली की रायों पर भी आख़िर गवर्नमेंट विचार करेगी ही।

    [सरस्वती, अप्रैल, 1914 में प्रकाशित। असंकलित।]

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-1 (पृष्ठ 175)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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