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क्या हिंदी नाम की कोई भाषा ही नहीं?

kya hindi naam ki koi bhasha hi nahin?

महावीर प्रसाद द्विवेदी

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

क्या हिंदी नाम की कोई भाषा ही नहीं?

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    जी हाँ, इस नाम की कोई भाषा नहीं। कम से कम संयुक्त प्रांतों में तो इसका कहीं पता नहीं ! ऑनरेबल असग़र अली ख़ाँ, ख़ान बहादुर, की यही राय है। प्रमाण? इसकी क्या ज़रूरत? ख़ान बहादुर का कहना ही काफ़ी प्रमाण है!

    प्रारंभिक शिक्षा-कमिटी ने रीडरों की भाषा के विषय में जो प्रस्ताव पास किए हैं उन्हें उस कमिटी के मेंमर, श्रीयुत असग़र अली ख़ाँ, ठीक नहीं समझते। इसीलिए आपको एक 'Minute of Dissent' (प्रतिकूलताज्ञापक वक्तव्य) लिखना पड़ा है। उसमें अन्यान्य बातों के सिवा ख़ान बहादुर ने लिखा है—

    I beg to deny the presence in these Provinces of any such thing as Hindi language in the sense in which we use the term when speaking of any living language which has a fixed literary Standard, is spoken and written, and is used in correspondence and in law courts. As a matter of fact ancient Bhasha which like Sanskrit is a dead language and is intelligible to those only who know Sanskrit, is now being revived in the form of a new language under the name of Hindi to the detriment of Urdu or Hindustani, which is the lingua franca of the country and is in itself a compromise between the Arabic and Persian on one side and the long defunct Bhasha and Sanskrita on the other and has been in common use for the past three centuries.

    साधारण नियम यह है कि जो जिस बात को जानता हो उसी को उसके विषय कुछ कहना चाहिए। उसी को उस विषय में कुछ कहने का अधिकार भी होता है और सुनने या पढ़ने वालों पर उसी के कहने का कुछ असर भी होता है। फ़ारसी और अरबी का कुछ भी ज्ञान रखने वाला आदमी क़ुरान शरीफ़ या शम्स तबरेज़ की कविता की भाषा पर भाष्य रचने की चेष्टा करे तो वह और कुछ नहीं तो उपहास की दृष्टि से अवश्य ही देखा जाएगा। इस न्याय के अनुसार 'भाषा' और संस्कृत के विषय में उसी मनुष्य को राय देनी चाहिए जो इनसे अभिज्ञ हो और जो इनके साहित्य का ज्ञाता भी हो। अन्यथा उसकी राय का कुछ भी मूल्य होगा। मालूम नहीं, श्रीयुत अस ग़रअली अभी को साहिब 'भाषा' और संस्कृत का कितना ज्ञान रखते हैं। यदि आप हमारी भाषाओं से परिचित नहीं, तो आपने पूर्वोक्त राय देकर बड़े ही साहस का काम किया। आपकी राय से गवर्नमेंट को भ्रम हो सकता है, यह और भी दुःख की बात है। आपके वक्तव्य ये बातें सूचित होती है—

    (1) हिंदी नाम की कोई भाषा इन प्रांतों में नहीं।

    (2) प्राचीन 'भाषा' भी संस्कृत की तरह मर चुकी।

    (3) प्राचीन भाषा केवल संस्कृतज्ञों ही की समझ में आती है।

    (4) उर्दू या हिंदुस्तानी ही इस देश की व्यापक भाषा (Lingus Franca) है।

    (5) तीन सौ वर्ष से यही उर्दू या हिंदुस्तानी भाषा यहाँ बोली जाती है।

    अच्छा तो अब इन बातों पर क्रम-क्रम से विचार कीजिए नीचे दो तरह की भाषाओं के उदाहरण दिए जाते है—

    (क) प्राथमिक पाठ्यपुस्तकों की भी जैसी दशा उपस्थित है, और जिस उदासीनता से हिंदी भाषा के अधिकारी वा उन्नायक अब तक इस विषय को ध्यान देने योग्य ही समझकर कर्तव्यपालन में पूरी-पूरी त्रुटि दिखा रहे हैं, भविष्य में वैसी उदासीनता से अब काम चलेगा।

    [दूसरे साहित्य सम्मेलन के सभापति की वस्तुता]

    (ख) या मसलन् अगलों ने इश्क़े इलाही या मुहब्बते रूहानी को जो एक इंसान को दूसरे इंसान के साथ हो सकती है मजाज़न् शराब के नशे से ताबीर किया था और इस मुनासिबत से जाम सुराही, ख़ुम पैमाना और साक़ी मैफ़रोश वग़ैरह के अलफ़ाज़ बतौर इस्तिमारह के इस्तेमाल किए थे या बाज शोअराय मुतसूफ़ीन ने शराब को इस वजह से कि वह इस दारुल् ग़ुरूर के तअल्लुक़ात से थोड़ी देर को फ़ारिग़ुल् बाल करने वाली है बतौर तफ़ावल के मूसिलईल मतलूब क़रार दिया था रफ़्ता रफ़्ता वह और उसके तमाम लवाज़िमात अपने हकीकी मानों में इस्तिमाल होने लगे।

    [मुत्तद्दमा—दीवाने-हाली, 1893 ई० का संस्करण, पृष्ठ 97]

    अब ख़ान बहादुर बताएँ कि इन दोनों अवतरणों की भाषा एक ही है या जुदा-जुदा। यदि एक नहीं तो आपकी उर्दू या हिंदुस्तानी, जिसमें हाली साहब ने ऊपर का लंबा-चौड़ा वाक्य लिखा है, इस प्रांत के सभी पढ़-लिखे (Educated) आदमियों की भाषा नहीं मानी जा सकती और आपका यह कहना भी नहीं माना जा सकता कि हिंदी नाम की कोई भाषा ही नहीं। यदि आप इन दोनों अवतरणों की भाषा को एक ही समझते हों तो कृपा करके हिंदी मिडिल पास किसी लड़के से (ख) अवतरण का और उर्दू-मिडिल पास से (क) अवतरण का मतलब पूछिए। ऐसा करने से आपको तत्काल ही मालूम हो जाएगा कि ऐसे लड़के इन अवतरणों का ठीक-ठीक अर्थ नहीं बता सकते। यह इस बात का सबूत होगा कि आपकी उर्दू या हिंदुस्तानी से जुदा भी कोई भाषा है और उसी का नाम हिंदी है। इससे यह भी सिद्ध हो जाएगा कि अपर प्राइमरी दरजों में हिंदी और उर्दू भाषाओं की रीडरें जुदा-जुदा होने की ज़रूरत है। बात यह है कि जब तक अरबी-फ़ारसी के कठिन-कठिन शब्द उर्दू में और संस्कृत के हिंदी में नहीं व्यवहार किए जाते तभी तक भाषा का रूप प्रायः एक रहता है। ऐसे शब्दों का प्रयोग आरंभ होते ही भाषाएँ दो हो जाती है और इन प्रयोगों के आधिक्य के साथ ही साथ इन दोनों भाषाओं के रूप में अधिकाधिक भेद होता जाता है। जस्टिस पिगट ने कमिटी की रिपोर्ट में स्वयं ही इस बात को अच्छी तरह स्पष्ट कर दिया है। परंतु, अफ़सोस है, आप अब तक असल बात को दबाने की चेष्टा किए ही जाते हैं। यदि हिंदी नाम की कोई भाषा ही होती तो मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट में जो करोड़ों आदमियों की भाषा हिंदी बताई गई है वह क्यों बताई जाती।

    ख़ान बहादुर की दूसरी और तीसरी बात का उत्तर हम एक ही साथ देना उचित समझते हैं, क्योंकि वे दोनों परस्पर एक-दूसरी से मिली हुई हैं। आप कहते हैं कि—प्राचीन 'भाषा' मर चुकी और उसे मरे तीन सौ वर्ष हुए। इस पर प्रार्थना है कि वह कभी मरी और उसके मरने के कोई लक्षण ही दिखाई देते हैं। यदि आप कभी आगरा, मथुरा, फर्रुख़ाबाद, मैनपुरी और इटावे तशरीफ़ ले जाएँ तो कृपा करके वहाँ के एक-बाघ अपर प्राइमरी और मिडिल स्कूल का मुआइना सही तो मुलाहज़ा अवश्य ही करें। ऐसा करने से आपको मालूम हो जाएगा कि जिसे आप मुर्दा समझ रहे हैं वह अब तक इन ज़िलों में बोली जाती है। इन ज़िलों के मदरसों के हिंदू लड़कों के मुँह से आपको वही भाषा सुनने को मिलेगी। अगर आपकी इस 'भाषा' नामक भाषा को मरे तीन सौ वर्ष हुए तो कृपा करके यह बताइए कि श्रीमान् ही के सधर्मी काज़िम अली आदि कवियों ने किस भाषा में कविता की है? 1700 ईसवी से लेकर ऐसे अनेक मुसलमान कवि हो चुके हैं जिन्होंने 'भाषा' में बड़े-बड़े ग्रंथ बनाएँ हैं। हिंदू-कवियों की आप ख़बर रखते तो कोई विशेष आक्षेप की बात थी; पर अफ़सोस है, आपको अपने घर की ख़बर नहीं। आप ही के कुछ कवियों के नाम नीचे दिए जाते हैं। देखिए—

    (1) आज़मख़ाँ : 1739 ईसवी—शृंगारदर्पण बनाया।

    (2) यूसुफ़ख़ाँ : 1763 ईसवी—रसिकप्रया की टीका लिखी।

    (3) किशवर अली : 1780 ईसवी—सारचंद्रिका लिखी।

    (4) काज़िमअली : 1801 ईसव—सिंहासनबत्तीसी लिखी।

    (5) क़ासिमशाह : 1842 ईसवी—हंस-जवाहिर की कथा लिखी।

    (6) बख़तार ख़ाँ : 1865 ईसवी—सुन्नीसार लिखा।

    अट्ठारवीं और उन्नीसवीं सदी में 'भाषा' के मरने के प्रमाण आपको मिले! कहिएगा तो और भी दस-पाँच प्रमाण दे दिए जाएँगे। सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में तो मालूम कितने मुसलमान कवियों ने भाषा में ही कविता की है। कुतुबन, नूर मुहम्मद, मलिक मुहम्मद जायसी और ख़ानख़ाना का नाम तो शायद आपने भी सुना होगा। उसके पहले तो, 700 से लेकर 1600 ईसवी तक, यहाँ शाही ज़माने में, दफ़्तर तक इसी 'भाषा' या हिंदी में थे। फिर भी आप 'भाषा' को तीन सौ साल से मुर्दा बताते हैं! सच तो यह है कि आज से सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले तक आपके पूर्वज भी इस 'भाषा' की कदर करते थे। भाषा-विषयक भेदभाव बहुत थोड़े समय से हुआ है। आप लोगों की बदौलत वह भेदभाव अब दिन पर दिन बढ़ रहा है। उसके अधिकाधिक बढ़ाने के लिए आप ज़िंदा को मुर्दा तक कह देने में संकोच नहीं करते! देखिए, आप ही के भाईबंद आपकी—नहीं, हमारी—भाषा के विषय में क्या कहते हैं। शम्सुल-उल्मा मौलवी मुहम्मद हुसैन (आज़ाद) अपनी किताब आबेहयात में लिखते हैं—

    मुसलमान भी इस ज़माने में यहाँ की ज़बान से मुहब्बत रखते थे। चुनाँचे सोलहवीं सदी ईसवी शेरशाही अहद में मलिक मुहम्मद जायसी एक शायर हुआ। उसने पदमावत की दास्तान नज़्म की। इससे अहद मज़कूर की ज़बान ही नहीं मालूम होती बल्कि साबित होता है कि मुसलमान इस मुल्क में रहकर यहाँ की ज़बान को किस प्यार से बोलने लगे थे।

    ख़ैर, आप यहाँ की ज़बान को प्यार कीजिए तो सही, यहाँ की 'भाषा' को 300 वर्ष की मुर्दा तो कहिए। आप तीन सौ वर्ष से यहाँ उर्दू या हिंदुस्तानी भाषा बोली जाने की दुहाई देते हैं। पर पूर्वोक्त शम्सुल-उल्मा महाशय की राय को भी आप कोई चीज़ समझते हैं या नहीं? उनमें भी ज़ुबांदानी का कुछ मआद्दा था, यह आप मानते है या नहीं? उन्होंने तो अपनी किताब—सखुनदाने पारिस—में एक जगह लिखा है—

    “डेढ़ सौ बरस हुए कि टेकचंद बहार और ख़ान आरजू दो फिलस्सफ़ा लुगत फ़ारसी के दिल्ली में पैदा हुए। यह फ़ारसी ज़बान के माहिर थे। और हिंदी उनके वतन की ज़बान थी। दोनों ज़बानों के मुक़ाबला करने का आसान मौक़ा था। इसलिए हज़ारों बरस का मिटा हुआ सुराग़ साफ़ निकल आया।

    जब बताइए, आज़ाद की राय में तो डेढ़ सौ वर्ष पहले आपकी उर्दू या हिंदुस्तानी बेचारी पैदा भी हुई थी। क्योंकि इस अवतरण में 'दोनों ज़बानों' से उनका मतलब हिंदी और फ़ारसी ही से है। हिंदी के अस्तित्व को तो वे साफ़ शब्दों में क़ुबूल कर रहे हैं। फिर यह आप किस प्रमाण पर फ़रमाते हैं कि तीन सौ वर्ष से यहाँ उर्दू या हिंदुस्तानी ही बोली जाती है। आपके कह देने मात्र से हिंदी ही मर या जी सकती है और 'भाषा' ही।

    यदि 'भाषा' के मर जाने से आपका मतलब 'भाषा' के गद्य के मर जाने से है तो वह भी कभी नहीं मरा। उसकी उसी तरह उन्नति होती चली आई है जैसी कि उर्दू की हुई है। सोलहवीं, सत्रहवीं और अठारहवीं सदी में ऐसे कितने ही कवि और लेखक हो गए हैं जिन्होंने गद्य लिखा है। उदाहरण के लिए गंगा भाट, जटमल, सूरति मिश्र, ललितकिशोरी और सदल मिश्र का नाम ले लेना ही काफ़ी होगा। जटमल (1923 ई०) के गद्य का एक नमूना भी ले लीजिए—

    “गोराबादल की कथा गुरु के बस सरस्वती के मेहरबानी से पूरन भई। ति वास्ते गुरु कू सरस्वती कू नमस्कार करता हूँ। ये कथा सोला से असी के साल में फागुन सुदी पूनम के रोज़ बनाई।

    उन्नीसवीं सदी के लेखकों का नामोल्लेख करने की आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि इस सदी में तो लल्लूलाल आदि ने हिंदी के गद्य में कितनी ही पुस्तकें बना डालीं और गत पचास वर्षों में हिंदी के साहित्य की बहुत कुछ उन्नति हुई।

    ख़ान बहादुर का तीसरा आक्षेप यह है कि प्राचीन 'भाषा' केवल संस्कृतज्ञों ही की समझ में आती है। आपका यह आक्षेप साफ़ नहीं। प्राचीन (ancient) से आपका क्या मतलब? कितनी पुरानी? निःसंदेह चंद की भाषा से आपका मतलब नहीं। क्योंकि उसके प्रचार का तो यहाँ सवाल ही नहीं। मतलब शायद आपका यही दो-तीन सी वर्ष की पुरानी हिंदी से है। अतएव आपके इस आक्षेप से यह बात बिलकुल ही सिद्ध हो गई कि जिस विषय में आप गवर्नमेंट को अपनी राय दे रहे हैं उसका बहुत ही कम ज्ञान आप रखते हैं। किसी गाँव में आप चले जाइए, दस-पाँच आदमी आपको ज़रूर ही ऐसे मिलेंगे जो रामायण, सूरसागर और लल्लूलाल का प्रेमसागर प्रेम से पढ़ते और उनका मतलब दूसरों को समझाते होंगे। देहात में संस्कृतज्ञ कहाँ? और, जहाँ कहीं दस-बीस गाँवों में एक आध है भी वह ख़ान बहादुर की 'भाषा' से नफ़रत करने वाला है। वह भागवत, शिवपुराण, रघुवंश आदि ही में मस्त रहता है और 'भाषा' पढ़ना अपनी हतक समझता है। यदि आपका मतलब वर्तमान हिंदी की पुस्तकों और समाचार-पत्रों से है और आप यह समझते हैं कि संस्कृत ही उन्हें समझ सकते हैं तो हम यही कहेंगे कि आप यदि रीडरों के भाषा-विषयक विचार में शामिल होते तो ही अच्छा था क्योंकि हिंदी, 'भाषा' और संस्कृत के विषय में जिसका ज्ञान इतना भ्रमपूर्ण और इतना अल्प नहीं के बराबर—हो उसे ऐसे विषयों में राय देने का कोई अधिकार नहीं। उसकी राय की क़ीमत ही कितनी! क्लिष्ट हिंदी का सब लोगों की समझ में आना एक बात है, और यह कहना कि उसे केवल संस्कृतज्ञ ही समझ सकते हैं बिलकुल ही दूसरी बात है। पहले कथन में कुछ सत्यता है, पर दूसरे में उसका सर्वथा अभाव है।

    आनरेबल असग़र अली ख़ाँ की पाँचवीं उक्ति यह है कि उर्दू या हिंदुस्तानी हो यहाँ की सार्वदेशिक भाषा (Lingua Franca) है। आपके इस कथन की सचाई की जाँच सहज ही में हो सकती है। ऊपर हाली साहब के दीवान और दूसरे साहित्य-सम्मेलन के सभापति के भाषण से जो अवतरण दिए गए हैं उन्हें ख़ाँ साहिब बारी-बारी से एक बंगाली, एक मदरासी, एक गुजराती और एक महाराष्ट्री को, जो इस प्रांत के निवासी हों, दिखावें और उनसे यह कहें कि इनका मतलब हमें समझा दीजिए। बस तत्काल ही आपको मालूम हो जाएगा कि दो में से कौन भाषा अन्य प्रांतवासी अधिक समझ सकते हैं। हिंदी के अवतरण के यदि चार शब्द उनकी समझ में आवेंगे तो उर्दू के अवतरण के पंद्रह-बीस समझ पड़ेंगे, क्योंकि उसमें कोई 30-40 फ़ीसदी के हिसाब से अरबी, फ़ारसी के अपरिचित और क्लिष्ट शब्द ठूँस दिए गए हैं। जो भाषा अधिक आदमियों की समझ में आवे वही सार्वदेशिक भाषा बनने का दावा कर सकती है, और कोई नहीं। जिस ढंग की भाषा इस समय उर्दू के अख़बारों और किताबों में लिखी जाती है—विशेष करके हमारे मुसलमान भाइयों के हाथ से वह कदापि अन्य प्रांतवासी हिंदुओं की समझ में अच्छी तरह नहीं सकती। अतएव वह सार्वदेशिक भाषा बनने के किसी तरह योग्य नहीं।

    श्रीयुत असग़र अली ख़ाँ के इस कथन से कि Urdu or Hindustani is the lingua franca of the country एक भेद की बात खुल गई। वह यह कि आप लोगों की राय में यह 'हिंदुस्तानी' और कुछ नहीं, उर्दू ही का दूसरा नाम है। 'Urdu or Hindustani' का और क्या अर्थ हो सकता है? अतएव समझना चाहिए कि मदरसों के प्राइमरी (आरंभिक) दरजों की रीडरों में, तथा अन्यत्र भी, जब हिंदुस्तानी भाषा के प्रयोग पर ज़ोर दिया जाता है तब 'हिंदुस्तानी' नाम की आड़ में उर्दू ही का पक्ष लिया जाता है और बेचारी हिंदी के बहिष्कार की चेष्टा की जाती है। गवर्नमेंट कहती है कि जिन कानूनी किताबों के अनुवाद उसने देवनागरी अक्षरों में प्रकाशित हैं उनकी भाषा 'हिंदुस्तानी' है। इस दशा में, यदि गवर्नमेंट के भी ख़्याल ख़ान बहादुर ही के जैसे मान लिए जाएँ तो, यही कहना पड़ेगा कि यह हिंदुस्तानी और कुछ नहीं, 40 फ़ीसदी अरबी और फ़ारसी शब्दों की भरमार से भरी हुई उर्दू ही है।

    सर चार्ल्स लायल ने एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में ठीक ही लिखा है—The Courts where Urdu has since 1832 become the official language, contribute to the spread of the stiff and difficult phraseology of the Acts of the legislature, as different from the natural idiom of the people as can well be imagined.

    सो सर चार्ल्स लायल की राय में इन क़ानूनी अनुवादों की भाषा नही महाक्लिष्ट उर्दू है जिसे मौलवी और अच्छी उर्दू जानने वाले ही समझ सकते हैं। यह सर्वसाधारण की बोलचाल की भाषा और मुहावरों से सर्वथा ख़ाली है। अतएव सब लोग यदि इस भाषा को समझ सकें तो आश्चर्य ही क्या है।

    अच्छा उर्दू और हिंदी भाषाएँ तो अब पुरानी हो चुकीं। यह नई हिंदुस्तानी भाषा कहाँ से कूद पड़ी। पूर्वोक्त सी० जे० लायल साहब, सुनिए, क्या कहते हैं—Hindustani or Urdu is a dialect of the Hindi. Hindustani is the English name for the language. The natives call it Urdu or Urdu Zaban.

    अतएव लायल साहब के अनुसार यह हिंदुस्तानी और कुछ नहीं, उर्दू का नामांतर मात्र है और अँग्रेज़ी ही की बदौलत उसका यह नामकरण हुआ है। अतएव जहाँ कहीं यह नाम जावे, समझ लेना चाहिए कि मतलब उर्दू से है। इस दशा में स्पष्ट है कि गवर्नमेंट की आज्ञा से किए गए क़ानूनी अनुवादों की भाषा, हिंदुस्तानी नाम की आड़ में छिपी हुई, ख़ालिस उर्दू ही है।

    अच्छा, यह उर्दू क्या चीज़ है। लायल साहब कहते हैं कि यह हिंदी भाषा को एक शाखा अर्थात् उसकी एक प्रांतिक बोली है। मतलब यह कि प्रधान भाषा हिंदी है। उर्दू उसी से निकली है। सो इसी प्रधान भाषा हिंदी का—उर्दू की इसी जननी या माता का—अस्तित्व तक आनरेबिल असग़रअली ख़ाँ नहीं स्वीकार करते। अफ़सोस!

    ज़ुबांदानी में डॉक्टर ग्रियर्सन का इस समय सिक्का माना जाता है। वे भी लायल साहब ही के मत की पोषकता करते हैं। The languages of India' नामक पुस्तक के पृष्ठ 83 पर वे लिखते है—

    As a Vernacular, Hindustani is the dialect of the Western Hind, which exhibits that language in the act of shading off into Punjabi.

    अर्थात् हिंदुस्तानी और कुछ नहीं, पछाहीं हिंदी की एक बोली मात्र है। उर्दू की उत्पत्ति कुछ काल पूर्व तक देहली के बाज़ारों में हुई बताई जाती थी। उसे डॉक्टर ग्रियर्सन ने ग़लत साबित कर दिया है। इस हिंदुस्तानी या उर्दू के विषय में उनकी राय—

    Hindustani is simply the vernacular of the Upper Doab, on which a certain amount of litetrary polish has been bestowed, and from which a few rustic idioms have been excluded.

    जिस देशी भाषा में हमारे साहब लोग अपने नौकर-चाकरों और हिंदुस्तानी कर्मचारियों से बातचीत करते हैं, और जिसमें बंगाल, मदरास, बंबई और पंजाब आदि प्रांतों के निवासी परस्पर एक दूसरे पर अपने मन के भाव प्रकट करते हैं उसे सार्वदेशिक या व्यापक भाषा मान लेने में हर्ज़ नहीं। उसे चाहे हिंदुस्तानी कहिए, चाहे हिंदी पर वह भाषा सिर्फ़ बोलने की है। वह साहित्य की भाषा नहीं। साहित्य की भाषा उर्दू या हिंदी ही हो सकती है। अख़बार और किताबें इन्हीं दोनों भाषाओं में लिखी जाती है—हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, उर्दू फ़ारसी लिपि में। हिंदी का झुकाव संस्कृत की ओर है, उर्दू और फ़ारसी का अरबी की ओर। गवर्नमेंट यदि 'हिंदुस्तानी' नाम को रखना ही चाहती है तो बोल-चाल की भाषा के संबंध में वह उसका व्यवहार करे। साहित्य की भाषा अब 'हिंदुस्तानी' है और आगे होने ही के लक्षण दिखाई देते हैं।

    उर्दू को जो महत्त्व प्राप्त हुआ है वह गवर्नमेंट ही की कृपा का फल है। यदि उसे गवर्नमेंट कचहरियों और अपने दफ़्तरों में स्थान देती तो अँग्रेज़ी राज्य में उसकी बहुत ही कम क़दर होती। ख़ान बहादुर को यह बात भूलना चाहिए। परंतु इससे यह नहीं सूचित होता कि उर्दू में कोई ऐसी बात है जिसके कारण यही सरकारी दफ़्तरों की भाषा हो सकती है। उलटा उसमें एक नहीं, अनेक दोष हैं, जिनका उल्लेख सैकड़ों दफ़े किया जा चुका है। यदि उसमें कोई अनोखी बात होती तो संयुक्त प्रांत और पंजाब के सिवा अन्य प्रांतों में भी उसी का प्रचार हो जाता। यह जानकर भी कि इन प्रांतों में देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा जानने वालों ही की संख्या अधिक है, गवर्नमेंट ने जो फ़ारसी की शिकस्ता लिपि और उर्दू ही भाषा को ज़ारी रक्खा है, इसका गूढ़ आशय वही जाने। वह अपने सिक्के पर फ़ारसी लिपि ही नहीं, फ़ारसी भाषा में भी ره روپیه खोद देती है और पेशावर, नैनीताल, तूतीकोरिन और रंगून तक के निवासियों से कहती है कि इसी को पढ़ो—तुम्हारे ही सुभीते के लिए हमने ऐसा किया है! इस दशा में उसके इस काम की प्रतिकूल आलोचना करने और अपनी इस नीति को बदलने के लिए उससे प्रार्थना करने के सिवा और हो ही क्या सकता है!

    हम उर्दू भाषा और फ़ारसी लिपि से रत्ती भर भी द्वेष नहीं रखते। लाखों हिंदू लिखते, पढ़ते हैं। हिंदुओं ने हज़ारों पुस्तकें उर्दू में लिखी हैं और बराबर लिखते जाते हैं। यदि उर्दू उठ भी जाए तो भी हम उर्दू-साहित्य से लाभ उठाने के लिए फ़ारसी लिपि और उर्दू भाषा सीखेंगे। परंतु हम अपनी भाषा हिंदी की उन्नति अवश्य ही करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे उसी भाषा में शिक्षा पावें, क्योंकि उसी में शिक्षा देने से हमें लाभ और हमारा सुभीता है। इससे उर्दू के पक्षपातियों की कोई हानि नहीं। वे अपनी भाषा की उन्नति करें, हम अपनी की। वे सिर्फ़ इतना ही करें कि हिंदी को हानि पहुँचाने की चेष्टा छोड़ दें।

    यहाँ तक जो कुछ लिखा गया उससे स्पष्ट है कि—आनरेबिल असग़ रअली ख़ाँ के भाषा-विषयक प्रतिकूलता-गमित वक्तव्य में भी सार नहीं।

    गवर्नमेंट को चाहिए कि वह प्राइमरी मदरसों की रीडरों की भाषा शुरू से ही जुदा-जुदा रखे। हिंदी की रीडर अलग रहें, उर्दू की अलग। यदि यह हो सके तो अपर प्राइमरी दरजों ही की रीडरें वह जुदा-जुदा रखे। यह भी हो सके तो कमिटी की सिफ़ारिश के अनुसार कार्यवाई की तो वह अवश्य ही आज्ञा दे दे। और तो हमें विश्वास है कि कमिटी के सूचनानुसार परिवर्तन करने से भी बहुत दिन काम चलेगा। शीघ्र ही फिर भी उलटफेर करने की ज़रूरत पड़ेगी।

    [असंकलित, दिसंबर, 1913]

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-1 (पृष्ठ 161)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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