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भारतीय संस्कृति की देन

bharatiy sanskriti ki den

हजारीप्रसाद द्विवेदी

हजारीप्रसाद द्विवेदी

भारतीय संस्कृति की देन

हजारीप्रसाद द्विवेदी

और अधिकहजारीप्रसाद द्विवेदी

    भारतीय संस्कृति पर कुछ कहने से पहले मैं यह निवेदन कर देना कर्त्तव्य समझता हूँ कि मैं संस्कृति को किसी देश-विशेष या जाति-विशेष की अपनी मौलिकता नहीं मानता। मेरे विचार से सारे संसार के मनुष्यों की एक ही सामान्य मानव-संस्कृति हो सकती है। यह दूसरी बात है कि वह व्यापक संस्कृति अब तक सारे संसार में अनुभूत और अंगीकृत नहीं हो सकी है। नाना ऐतिहासिक परंपराओं के भीतर से गुज़र कर और भौगोलिक परिस्थितियों में रहकर संसार के भिन्न-भिन्न समुदायों ने उस महान् मानवीय संस्कृति के भिन्न-भिन्न पहलुओं का साक्षात्कार किया है। नाना प्रकार की धार्मिक साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवा, भक्ति तथा योगमूलक अनुभूतियों के भीतर से मनुष्य उस महान् सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को क्रमशः प्राप्त करता जा रहा है जिसे हम 'संस्कृति' शब्द द्वारा व्यक्त करते हैं। यह संस्कृति शब्द बहुत अधिक प्रचलित है तथापि यह अस्पष्ट रूप में ही समझा जाता है। इसकी सर्वसम्मत कोई परिभाषा नहीं बन सकी है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि और संस्कारों के अनुसार इसका अर्थ समझ लेता है। फिर इसको एकदम अस्पष्ट भी नहीं कह सकते; क्योंकि प्रत्येक मनुष्य जानता है कि मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएँ ही संस्कृति है। इसकी अस्पष्टता का कारण यही है कि अब भी मनुष्य इसके संपूर्ण और व्यापक रूप को देख नहीं सका है। संसार के सभी महान् तत्व इसी प्रकार मानव चित्त में अस्पष्ट रूप से आभासित होते हैं। उनका आभासित होना ही उनकी सत्ता का प्रमाण है। मनुष्य की श्रेष्ठतर मान्यताएँ केवल अनुभूत होकर ही अपनी महिमा सूचित करती हैं। उनको स्पष्ट और सुव्यवस्थित परिभाषा में बाँधना सब समय संभव नहीं होता। केवल नेति-नेति कह कर ही मनुष्य ने उस अनुभूति को प्रकाशित किया है। अपनी चरम सत्यानुभूति को प्रकट करते समय कबीरदास ने इसी प्रकार की विवशता का अनुभव करते हुए कहा था—‘ऐसा लो नहिं तैसा लो, मैं केहि विधि कहौं अनूठा लो!’ मनुष्य की सामान्य संस्कृति भी बहुत ऐसी ही अनूठी वस्तु है। मनुष्य ने उसे अभी तक संपूर्ण पाया नहीं है; पर उसे पाने के लिए व्यग्र भाव से उद्योग कर रहा है। यह मार-काट, नोंच-खसोट और झगड़ा-टंटा भी उसी प्रयत्न के अंग है। आपको यह बात कुछ विरोधाभास सी लगेगी, पर है सत्य। रास्ता खोजते समय भटक जाना, थक जाना या झुँझला पड़ना, इस बात के सबूत नहीं हैं कि रास्ता खोजने की इच्छा ही नहीं है। कविवर रविंद्रनाथ ने अपनी कविजनोचित भाषा में इस बात को इस प्रकार कहा है कि यह जो लुहार की दुकान की खटाखट और धूल-धकड़ है, इनसे घबराने की ज़रूरत नहीं है। यहाँ वीणा के तार तैयार हो रहे हैं। जब ये तार बन जाएँगे तो एक दिन इनके मधुर संगीत-ध्वनि से निश्चय ही मन और प्राण तृप्त हो जाएँगे। ये युद्ध-विग्रह, ये कूटनीतिक दाँव-पेंच, ये दमन और शोषण के साधन ये सब एक दिन समाप्त हो जाएँगे। मनुष्य दिन-दिन अपने महान् लक्ष्य के नज़दीक पहुँचता जाएगा। सामान्य मानव-संस्कृति ऐसा ही दुर्लभ लक्ष्य है। मेरा विश्वास है कि प्रत्येक देश और जाति ने अपनी ऐतिहासिक परंपराओं और भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार उस महान् लक्ष्य के किसी-न-किसी पहलू का अवश्य साक्षात्कार किया है। ज्यों-ज्यों वैज्ञानिक साधनों के परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न देश और भिन्न-भिन्न जातियाँ एक दूसरे के नज़दीक आती जाएँगी; त्यों-त्यों इन अंश सत्यों की सार्थकता प्रकट होती जाएगी और हम सामान्य व्यापक सत्य को पाते जाएँगे। आज की मारा-मारी इसमें थोड़ी रुकावट डाल सकती है; पर इस प्रयत्न को निःशेष भाव से समाप्त नहीं कर सकती। अपने इस विश्वास का कारण मैं आगे बताने का प्रयत्न करूँगा।

    जो आदमी ऐसा विश्वास करता है, उससे संस्कृति के साथ ‘भारतीय’ विशेषण जोड़ने का अर्थ पूछना नितांत संगत है। क्या ‘भारतीय' से मतलब भारतवर्ष के समस्त अच्छे-बुरे प्रयत्न और संस्कार हैं? नहीं; समस्त भारतीय संस्कार अच्छे ही हैं या मनुष्य की सर्वोत्तम साधना की ओर अग्रसर करने वाले ही है, ऐसा मैं नहीं मानता। ऐस देखा गया है कि एक जाति ने जिस बात को अपना अत्यंत महत्त्वपूर्ण संस्कार माना है, वह दूसरी जाति की सर्वोत्तम साधना के साथ मेल नहीं खाता। ऐसा भी हो सकता है कि एक जाति के संस्कार दूसरे जाति के संस्कार के एकदम उलटे पड़ते हो। हो सकता है कि एक जाति मंदिरों और मूर्तियों के निर्माण में ही अपनी कृतार्थता मानती और यह भी हो सकता है कि दूसरी जाति उनको तोड़ डालने को है अपनी चरम सार्थकता मानती हो। ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं। ऐसे स्थलों पर विचार करने की आवश्यकता होगी। सत्य परस्पर विरोध नहीं होता। प्रसिद्ध संत-रज्जबदास ने कहा था—

    'सब साँच मिली सो साँच है ना मिले सो झूठ। संपूर्ण सत्य अविरोधी होता है। जहाँ भी अविरोधी दिखे, वहाँ सोचने की ज़रूरत होगी। हो सकता कि दो भिन्न-भिन्न जन-समुदाय मोहवश दो सत्य बातों को ही बड़ा सत्य मान बैठे हों। हो सकता है कि दोनों में से एक सही हो और दूसरा ग़लत। साथ ही यह भी हो सकता है कि दोनों सही रास्ते पर हों, पर उनके दृष्टिकोण ग़लत हो। यदि हमें अपनी ग़लती मालूम हो तो उसे निर्मम भाव से छोड़ देना होगा। महाभारत ने बहुत पहले घोषणा की थी कि जो धर्म दूसरे धर्म को बाधित करता है, वह धर्म नहीं है कुधर्म है। सच्चा धर्म अविरोधी होता है—

    धर्मो यो बाधते धर्म धर्मः कुधर्म तत्।

    अविरोधी तु यो धर्मः धर्मो युतिसत्तम॥

    मैं जब 'भारतीय' विशेषण जोड़कर संस्कृति शब्द का प्रयोग करता हूँ तो मैं भारतवर्ष द्वारा अधिगत और साक्षात्कृत अविरोधी धर्म की ही बात करता हूँ। अपनी विशेष भौगोलिक परिस्थिति में और विशेष ऐतिहासिक परंपरा के भीतर से मनुष्य के सर्वोत्तम को प्रकाशित करने के लिए इस देश के लोगों ने भी कुछ प्रयत्न किए हैं। जितने अंश में वह प्रयत्न संसार के अन्य मनुष्यों के प्रयत्न का अविरोधी है, उतने अंश में वह उनका पूरक भी है। भिन्न-भिन्न देशों और भिन्न-भिन्न जातियों के अनुभूत और साक्षात्कृत अन्य अविरोधी धर्मों की भाँति वह मनुष्य की जययात्रा में सहायक है। वह मनुष्य के सर्वोत्तम को जितने अंश में प्रकाशित और अग्रसर कर सका है उतने ही अंश में यह सार्थक और महान् है। वही भारतीय संस्कृति है। उसको प्रकट करना, उसकी व्याख्या करना या उसके प्रति जिज्ञासा-भाव उचित है। यह प्रयास अपनी बड़ाई का प्रमाण-पत्र संग्रह करने के लिए नहीं है, बल्कि मनुष्य की जययात्रा में सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से प्ररोचित है। इसी महान् उद्देश्य के लिए उसका अध्ययन, मनन और प्रकाशन होना चाहिए।

    मनुष्य की जययात्रा! क्या मनुष्य ने किसी अज्ञात शत्रु को परास्त करने के लिए अपना दुर्द्धर रथ जोता है? मनुष्य की जययात्रा! क्या जान-बूझकर लोकचित्त को व्यामोहित करने के लिए यह पहेली जैसा वाक्य बताया गया है? मनुष्य की जययात्रा का क्या अर्थ हो सकता है? परंतु मैं पाठकों को किसी प्रकार के शब्द-जाल में उलझाने का संकल्प लेकर नहीं आया हूँ। मुझे यह वाक्य सचमुच बड़ा बल देता है। जाने किस अनादि-काल के एक अज्ञात मुहूर्त में यह पृथ्वी नामक ग्रहपिंड सूर्य-मंडल से टूटकर उसी के चारों ओर चक्कर काटने लगा था। मुझे उस समय का चित्र कल्पना के नेत्रों से देखने में बड़ा आनंद आता है। उस सद्यस्त्रुटित धरित्री-पिंड में ज्वलंत गैस भरे हुए थे। कोई नहीं जानता कि इन असंख्य अग्निगर्भ-कणों में से किसमें या किनमें जीवत्व का अंकुर वर्तमान था। शायद वह सर्वत्र परिव्याप्त था। इसके बाद लाखों वर्ष तक धरती ठंडी होती रही, लाखों वर्ष तक उस पर तरल-तप्त धातुओं को लहाछेह वर्षा होती रही, लाखों वर्ष तक उसके भीतर और बाहर प्रलयकांड मचा रहा, पृथ्वी अन्यान्य ग्रहों के साथ सूर्य के चारों ओर उसी प्रकार नाचती रही जिस प्रकार खिलाड़ी के इशारे पर सर्कस के घोड़े नाचते रहते हैं। जीवतत्त्व स्थिर अविक्षुब्ध भाव से उचित अवसर की प्रतीक्षा में बैठा रहा। अवसर आने पर उसने समस्त जड़शक्ति के विरुद्ध विद्रोह करके सिर उठाया—नगण्य तृणाँकुर के रूप में! तब से आज तक संपूर्ण जड़शक्ति अपने आकर्षण का समूचा वेग लगाकर भी उसे नीचे की ओर नहीं खींच सकी। सृष्टि के इतिहास में यह एकदम अघटित घटना थी। अब तक महाकर्ष (ग्रेविटेशन पावर) के विराट् वेग को रोकने में कोई समर्थ नहीं हो सका था। जीवतत्त्व प्रथम बार अपनी ऊर्ध्वगामिनी वृत्ति की अदना ताक़त के बल पर इस महाकर्ष को अस्वीकार कर सका। तब से यह निरंतर अग्रसर होता गया। मनुष्य उसी की अंतिम परिणति है। वह एक कोश से अनेक कोशों के जटिल संघटन में, कर्मेंद्रियों से ज्ञानेंद्रियों की ओर, ज्ञानेंद्रिय से मन और बुद्धि की तरफ़ संकुचित होता हुआ मानवात्मा के रूप में प्रकट हुआ। पंडितों ने देखा है कि मनुष्य तक आते-आते, प्रकृति ने अपने कारख़ाने में असंख्य प्रयोग किए हैं। पुराने जंतुओं की विशाल ठठरियाँ आज भी यत्र-तत्र भी मिल जाती है और उन असंख्य प्रयोगों की गवाही दे जाती हैं। प्रकृति अपने प्रयोगों में कृपण कभी भी नहीं रही है। उसने बर्बादी की कभी परवाह नहीं की। दस वृक्षों के लिए वह दस लाख बीज बनाने में कभी कोताही नहीं करती। यह सब क्या व्यर्थ की अंधता है, सुस्पष्ट योजना का अभाव है या हिसाब जानने का दुष्परिणाम? कौन बताएगा कि किस महान् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्रकृति ने इतनी बर्बादी सही है? हम केवल यही जानते हैं कि जब जीवत्व समस्त विघ्न-बाधाओं को अतिक्रम करके मनुष्य-रूप में अभिव्यक्त हुए तब इतिहास ही बदल गया। जो कुछ जैसा होना है, वह होकर ही रहेगा—यही प्रकृति का अचल विधान है। कार्य-कारण बनता है और नए कार्य को जन्म देता है। कार्य-कारणों की इस नीरंध्र ठोस परंपरा में इच्छा का कोई स्थान नहीं था। जो जैसा होने को है, वह होकर ही रहेगा। इसी समय मनुष्य आया। उसने इस साधारण नियम को अस्वीकार किया। उसने अपनी इच्छा के लिए जाने कहाँ से एक फाँक निकाला। जो जैसा है वैसा ही मान लेने की विवशता को उसने नहीं माना जैसा होना चाहिए, वही बड़ी बात है। इस जगह से सृष्टि का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। एक बार कल्पना कीजिए तरल-तप्त धातुओं के प्रचंड समुद्र की, निरंतर झरने वाले अग्निगर्भ मेघों की, विपुल जड़ संघात की, और फिर कल्पना कीजिए क्षुद्रकाय मनुष्य की! विराट बह्मांड निकाय, कोटि-कोटि नक्षत्रों का अनमय आवर्तनृत्य, अनंत शून्य में निरंतर उदयमान और विनाशमान नीहारिका पुंज विस्मयकारी है; पर उनसे अधिक विस्मयकारी है मनुष्य, जो नगण्य स्थान-काल में रहकर इनकी नाप-जोख करने निकल पड़ा है! क्या मनुष्य इस सृष्टि की अंतिम परिणति है? क्या विधाता ने केशवदास के बीरबल की भाँति इस कृती जीव की रचना करके हाथ झाड़ लिया है—मैं करतार बली बलवीर दियो करतार दुहूँ कर तारी! कौन कह सकता है? परंतु यह क्या मनुष्य की अमोघ जययात्रा नहीं है? क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि समस्त ग़लतियों के बावजूद मनुष्य भी मनुष्यता की उचतर अभिव्यक्तियों को ओर ही बढ़ रहा है?

    यह जो स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होता है, जो कुछ जैसा होने वाला है, उसको वैसा ही मानकर जैसा होना चाहिए, उसकी ओर जाने का प्रयत्न है, यही मनुष्य की मनुष्यता है। अनेक बातों में मनुष्य और पशु में कोई भेद नहीं है। मनुष्य पशु की अवस्था से ही अग्रसर होकर इस अवस्था में आया है। इसलिए स्थूल को छोड़कर रह नहीं सकता। यही कारण है कि मनुष्य को दो प्रकार के कर्तव्य निबाहने पड़ते हैं—एक स्थूल को क्षुधा निवृत करना और दूसरा सूक्ष्म से सूक्ष्मतर तत्त्व की ओर बढ़ने वाली अपनी ऊर्ध्वगामिनी वृत्ति को संतुष्ट करना। आहार-निद्रा आदि के साधन भी मनुष्य को जुटाने पड़े हैं। यद्यपि मनुष्य-बुद्धि ने इनमें भी कमाल का उत्कर्ष दिखाया है, पर प्रयोजन प्रयोजन ही हैं। प्रयोजन के जो अतीत है, जहाँ मनुष्य की अनंदिनी वृति ही चरितार्थ होती है, वहाँ मनुष्य की ऊर्ध्वगामिनी वृत्ति को संतोष होता है। ज्यों-ज्यों मनुष्य संघबद्द होकर रहने का अभ्यस्त होता गया है त्यों-त्यों उसे सामाजिक संघटन के लिए नाना प्रकार के नियम-क़ानून बनाने पड़े। इस संघटन को दोषहीन और गतिशील बनाने के लिए उसने दंड-पुरस्कार की व्यवस्था भी की, इन बातों को एक शब्द में सभ्यता कहते हैं। आर्थिक व्यवस्था, राजनीतिक संघटन, नैतिक परंपरा और सौंदर्यबोध को तीव्रतर करने की योजना; ये सभ्यता के चार स्तंभ है। इन सबके सम्मिलित प्रभाव से संस्कृति बनती है। सभ्यता मनुष्य के बाह्य प्रयोजनों को सहजलभ्य करने का विधान है और संस्कृति प्रयोजनातीत अंतर आनंद की अभिव्यक्ति। परंतु शायद फिर मैं पहेलियों की बोली बोलने लगा हूँ। आप जानना चाहेंगे कि यह बाह्य प्रयोजन और अंतर अभिव्यक्ति क्या बला है? किसको तुम बाह्य कहते हो और किसको अंतर, तुम्हारे कथन में प्रमाण क्या है?

    यह जो हमारे बाह्यकरण है—कर्मेंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय है—ये हमारे अत्यंत स्थूल प्रयोजनों के निवर्तक हैं। मन इनसे सूक्ष्म है, बुद्धि और भी सूक्ष्म है। मन से हम हज़ार गज की लंबाई की भी एकाएक धारणा नहीं कर सकते; पर बुद्धि द्वारा, ज्योतिषी कोटि-कोटि प्रकाश वर्षों में फैले हुए ग्रह-नक्षत्रों की नाप-जोख किया करते हैं। परंतु बुद्धि भी बड़ी चीज़ नहीं है। बुद्धि से भी बढ़कर कोई वस्तु है। वही अंतरतम है। गीता में कहा है—

    इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।

    मनसस्तु पराबुद्धेंयोर्बुद्धे पर तस्तु सः॥

    जो वस्तु केवल इंद्रियों को संतुष्ट कर सके, वह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। जो वस्तु मन को संतुष्ट कर सके, अर्थात् हमारे भावावेगों को संतोष दे सके, वह पहली से सूक्ष्म होने पर भी बहुत बड़ी नहीं है। जो बात बुद्धि को संतोष दे सके, वह ज़रूर बड़ी है, पर वह भी बाह्य है। बुद्धि से भी परे कुछ है। वही वास्तव है, उसका संतोष ही काम्य है। परंतु वह क्या है? मैं भारतीय मनीषा के इस मंततव्य तक आपको ले आकर यह आशा नहीं कर रहा हूँ कि आप शास्त्र-वाक्य पर विश्वास कर लें। मैं इसके निकट आपको ले आकर छोड़ देता हूँ; क्योंकि मैं जानता हूँ कि यहाँ तक आकर आप इसकी गहराई में पैठने का प्रयत्न अवश्य करेंगे। जब तक इसकी गहराई में पैठने का प्रयत्न नहीं किया जाता तब तक मनुष्य के बड़े-बड़े प्रयत्नों का रहस्य समझ में नहीं नहीं आएगा।

    तैत्तरीय उपनिषद् में भृगुवल्ली वरुण के पुत्र भृगु की मनोरंजक कथा दी हुई है। भृगु ने जाकर वरुण से कहा था कि हे भगवन्, मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूँ। पिता ने तप करने की आज्ञा दी। कठिन तपस्या के बाद पुत्र ने समझा—अन्न ही ब्रह्मा है। पिता ने फिर तप करने को कहा। इस बार पुत्र कुछ और गहराई में गया। उसने प्राण को ही ब्रह्मा समझा। पिता को संतोष नहीं हुआ। उन्होंने पुत्र को पुनः तप करने के लिए उत्साहित किया। पुत्र ने फिर तप किया और समझा कि मन ही ब्रह्मा है! पिता फिर भी असंतुष्ट ही रहे। फिर तप करने के बाद पुत्र ने अनुभव किया—विज्ञान ही ब्रह्म है। पर पिता को अब भी संतोष नहीं हुआ। पुनर्वार कठिन तप के बाद पुत्र ने समझा—आनंद ही ब्रह्मा है। यही चरम सत्य था। इस प्रकार अन्न (भौतिक पदार्थ)—प्राण—मन—विज्ञान (बुद्धि)—आनंद (अध्यात्म तत्व)—ये ही ज्ञान के पाँच स्तर हैं। ये उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। इन्हीं पाँचों को आश्रय करके संसार के भिन्न-भिन्न दार्शनिक मत बने हैं। साधारणतः इनको आश्रय करके दो-दो प्रकार के मत बन जाते हैं। तर्काश्रित मत और विश्वास समर्थित मत। संदेह को उद्रिक्त करने वाला तर्काश्रित मत फ़िलासफ़ी का प्रतिपाद्य मत बन गया है और विश्वास को आश्रय करके श्रद्धा को उद्रिक्त करने वाला मत धर्म विज्ञान का। भारतवर्ष का इतिहास अन्य देशों से कुछ विचित्र रहा है। सभ्यता के उष:काल से लेकर आधुनिक काल के आरंभ तक हमारे इस देश में नाना मानव-समूहों की धारा बराबर इस देश में आती रही है। इसमें सभ्य, अर्धसभ्य और बर्बर सभी श्रेणी के मनुष्य रहे हैं। भारतीय मनीषी शुरू से ही मनुष्य के बहुविध विश्वासों और मतों को जानने का अवसर पा सके हैं। इसलिए यहाँ धर्म विज्ञान और तत्व जिज्ञासा कभी परस्पर विरोधी मत नहीं माने गए। भारतीय ऋषि ने दोनों का उचित सामंजस्य किया है। शायद इस विषय में भारतवर्ष सारे संसार को कुछ दे सकता है। भारतवर्ष के दार्शनिक साहित्य के आलोचकों को आश्चर्य हुआ है कि इस देश में उस चीज़ का कभी विकास ही नहीं हो पाया, जिसे फ़िलासफ़ी कहते हैं। भारतवर्ष के दर्शन धर्म पर आधारित बनाए गए हैं। 'दर्शन' शब्द का अर्थ ही देखना है। इसका अंतर्निहित अर्थ यह है कि 'दर्शन' कुछ सिद्ध महात्माओं के देखे हुए (साक्षात्कृत) सत्यों का प्रतिपादन करते हैं। जैसा कि हमने अभी लक्ष्य किया है, यह 'देखना’ तब वास्तविक होगा जब वह केवल इंद्रिय द्वारा, प्राण द्वारा, मन द्वारा यहाँ तक कि बुद्धि द्वारा भी दृष्ट स्थूल तथ्यों को पीछे छोड़कर उस वस्तु के द्वारा देखा गया हो जो आनंदस्वरूप है, जो सबके परे और सबसे सूक्ष्म है। यही स्वसंवेद्य ज्ञान है परंतु यह नहीं समझना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति जो कुछ भी अनुभव करता है, वह सत्य ही है। शरीर और मन की शुद्धि आवश्यक है। जब तक मनुष्य का बाहर और भीतर शुद्ध, निर्मल और पवित्र नहीं होते तब तक वह ग़लत वस्तु को सत्य समझ सकता है। चंचल मन से कोई मामूली समस्या भी ठीक-ठीक समाहित नहीं होती। यह जो बाह्य और अंतकरणों का शुद्धि है, यही भारतीय दर्शनों की विशेषता है। जैसे-तैसे रहकर, जैसा-तैसा सोचकर बड़े सत्य को अनुभव नहीं किया जा सकता। चंचल चित्त केवल विकृत चिंता में ही लगा रहता है। भारतीय मनीषियों ने इस चंचल चित्त को वश करने के उपाय बनाए हैं। इसी उपाय का नाम योग है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि यद्यपि मन बड़ा चंचल है और उसे वश में करना कठिन है तथापि अभ्यास और वैराग्य से उसे वश में किया जा सकता है। अभ्यास और वैराग्य के लिए भारतीय साहित्य में शताधिक ग्रंथ वर्तमान हैं। संभवतः सारे संसार के बुद्धिजीवी इस विषय में यहाँ से कुछ सीख सकते हैं। केवल बौद्धिक विश्लेषण द्वारा सत्य तक नहीं पहुँचा सकता। सर्वत्र अभ्यास और वैराग्य आवश्यक हैं।

    हमने अभी जिन पाँच तत्वों को लक्ष्य किया, उनमें सबसे स्थूल है यह शरीर, फिर प्राण और फिर मन। शरीर का प्रतीक बिंदु है। भारतीय मनीषियों ने अनुभव किया है कि इनमें से किसी एक को संयत करने का अभ्यास किया जाए तो बाक़ी संयत हो जाते हैं। भारतवर्ष के नाना आध्यात्मिक पंथ इन तीनों को संयत करने के ऊपर ज़ोर देने के कारण अलग-अलग हो गए हैं। संयमन की विधि भी सर्वत्र एक नहीं है। नाना बौद्ध और शाक्त साधनाओं में बिंदु को वश में करने की विधियाँ बताई गई हैं, हठयोग प्राण को वश करने के पक्ष में है, राज-योग मन को वश करने की विधि बताता है। ये सब अभ्यास द्वारा सिद्ध होते हैं। ऊपर-ऊपर से देखने वाले आलोचक भारतीय साधन-मार्गों में इतना अधिक भेद देखते हैं कि उन्हें समझ में ही नहीं आता कि ये विभिन्न पंथ किस प्रकार अपने को एक ही मूल उद्गम से उद्भूत बताते हैं। गहराई में जाने वाले के लिए ये विरोध नगण्य हैं। नाना भाँति के अभ्यास के द्वारा साधक बिंदु, प्राण और मन को स्थिर करता है। तब जाकर अंत:करण निर्मल स्फटिक मणि के समान होता है परंतु ये भ्रांति का अवकाश रहता है। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने केवल अभ्यास को ही एकमात्र साधन नहीं माना। अभ्यास के साथ वैराग्य होना चाहिए। राग-द्वेष-वश जो इंद्रियचांचल्य होता है, उसको रोकना, राग और विराग के विषयों को अलग-अलग समझ सकना, मन द्वारा विषयों की चिंता और अंत में मानसिक उत्सुकता को दबा देना—ये सब वैराग्य