मृत्यु के आईने में जीवन कितना कुरूप दिखता होगा

मृत्यु के आईने में जीवन कितना कुरूप दिखता होगा

आदर्श भूषण 01 जून 2023

मन के गहरे में बस डूब है। ऐसी डूब, जिसमें उत्तरजीविता एक प्रश्न की तरह सतह पर छूट जाए। सतह पर जीवन की संभावना भी गुंजलकों के हुलिए में। डूब का समय अपनी जगह पर नहीं है। चेतना से भटका हुआ बस देह लिए मैट्रिक्स की किसी विचित्र त्रुटि की तरह निरायाम किसी बड़े आयतन के बीच का आयतन लगता हूँ। उससे बाहर आने का वर्तमान एक पीड़ित सुबह है। उस सुबह की पीड़ा को उगने में बरस लगे हैं। उनकी नोक पर लेटे हुए कितनी-कितनी बार आँतों तक में उनकी धाँस टोही है।

अपने छूटे हुए को याद करता हूँ। वह हमेशा से ही संवेद्य था। वह जब छूटा, तब लगता था कि समय के पास मेरे लिए भी समय है। आह, निरा भ्रम। और कितना उजड्ड भ्रम का नेपथ्य। नेपथ्य की उदारताओं में मंचन का अभ्यास कितना अधूरा कि दुनिया की स्पॉटलाइट में यह अभिनय मूक और स्तब्ध।

अभी। ठीक इस समय, जब यह कुछ शब्द जीवट की पकड़ से फिसलते जा रहे हैं, मैं अँधेरे के सामने हूँ। बिल्कुल प्रत्यक्ष और नग्न। इतना कि आत्म के पास न देह और न त्वचा। इतना घना एकांत कि अपने उपस्थित होने को भी नकारता। उदासी है। लौट-लौट आती है। अपने प्रति और कम आसक्त करती हुई—बनाती हुई। यह नहीं कि वर्तमान टूटेगा ही नहीं। टूटेगा। और वह तो हर क्षण टूटता जा रहा है संगतिक। अपने समस्थानिकों में छूटता जा रहा है। 

अपनी इस उदास-म्लान जीविका के प्रश्न पूछने को अपनी ओर बार-बार चलने की कोशिश होती है। दैनंदिनी देहरी पर पाँव धर खींच लेती है। क्या यह क्षण ईप्सितों की अभिधा में था कभी या प्रारब्ध बार-बार बदल रहा है अपनी धुरी से अकेंद्रिक। क्यों अपने दुर्लब्धों से इतना क्लांत हूँ? क्यों नहीं आसान समय की नदी में तैरना? सब कुछ तो इतना जंगम है। इतना धाराप्रवाह कि न चाहते हुए भी किसी एक क्षण पर रुकना संभव नहीं। फिर यह डूब क्यों बढ़ती जाती है? क्या एक अच्छे प्लवक का सुभाग्य नहीं इस दैनंदिनी के हिस्से? 

मृत्यु के आईने में जीवन कितना कुरूप दिखता होगा। भंगुर की उपस्थिति में आसक्तियों का इतना कबाड़। इतनी व्यवस्था भी नहीं कि विदा कहने के अर्थों में पीड़ा बची रहे समय के बीच और बीच के बाद और बहुत बाद तक।

कभी–कभी यों होता है कि अपनी भाषा के स्वाँगों के बीच चलना शुरू करता हूँ। चलते–चलते कहीं नहीं पहुँचता। वही इस चलने का हासिल है। निरुपायों की ढेर में बची हुई वैकल्पिकी। समय अब भी अपनी जगह पर नहीं है। वह यहाँ कभी नहीं था। अथ से ही भटका हुआ।

अर्थों के पीछे शब्द कितने आधुनिक और बनावटी लगते हैं। जैसे जीवन। जीवन अपने अर्थों में कितना व्यस्त और असमाप्त किंतु अपनी शाब्दिकी में कसा हुआ और क्रूर-निष्ठुर। इसी में तंद्रा और भूख की सहार्ध कड़वाहट। उत्तरजीविता में भटकने के उपायों का एक तंग पूला। 

पाले पड़ते दिनों में होने की एक ठंडी सुध को कुरेदता अब भी अपने से बाहर निकलने की कल्पना पर लकड़ियाँ रखता हूँ उसे उष्ण करने को। अपने प्रति उदार होने को, अपने को देखने को स्वरूप-स्वकल्प और तथागत के शाब्दिक अर्थों में ही सही। यह इस समय का प्राप्य है, जीवन की तरह भ्रामक। मृत्यु जैसे कठोर शब्दों में स्थिर होने का सौंदर्य भी मात्र इसी जीवन का भ्रम है।

नाहक़ ही कोई भटका हुआ हरकारा बीते हुए की धुन में मगन भाग्य की पाती पढ़ रहा है। अस्पष्ट लिपि में छूटते हैं शब्द और सुख का एक महीन हिस्सा उसकी आँखों के सामने से फिसल जाता है। वह सुख, जिसे अपने जिए में शामिल रहना था किंतु रिक्तियों में एक स्किप पॉइंट की तरह छूट गया।

अंतिम के बारे में वृथा ही सोचता हूँ—वह अंतिम जिसके बाद स्मृति भी नहीं बचती। उसके बाद उपस्थितियों का कोई साक्ष्य नहीं। अँधेरा और घना होता जाता है। अंतिम में अंधकार क्यों है इतना? जो निर्कल्प है, क्या उसमें प्रकाश का लेष मात्र भी अंश नहीं? क्या जो जीवन भर अँधेरा देखते हैं, मृत्यु उनके लिए प्रकाश की कल्पना नहीं हो सकती? 

रोज़ शाम एक ख़ाली उदास सड़क पर डरीरें पारता हुआ अपनी उदासी की ख़बर उसको देता हूँ, उसकी उदासी में दाख़िल होते हुए। डरीरें पारने से जो खर्रर्र की ध्वनि होती है, उसी में रहता हूँ। वही मेरी रैखिक गति है। सर्जना की सब रेखाएँ उसी संगीत में गुझी हुई हैं। सब जिए-लिखे में उसी खर्रर्र का अनाधिकृत शोर है। उससे ऊब नहीं होती, जैसे झींगुरों की आवाज़ रात से यदि गुम हो जाए तो सन्नाटे में एक अजीब शोर उठ जाता है। झींगुरों का संगीत जीवन का राग मालूम होता है, कितना रैखिक और आप्त।

संभवतः यह एक पहेली या रहस्य की तरह मालूम हो सकता है। लेकिन क्या जीवन आप ही रहस्य नहीं? उसे रहस्य की तरह सर्जना में रखना उसके प्रति निष्ठ होना ही तो है। इसमें क्या ग़लत? जीवन की ज्यामिति ही ऐसी है कि अभी वह केंद्र नियत नहीं, जिसके वृत्त पर हम चल रहे हैं। इसलिए वह ज्यामित है भी और नहीं भी।

हम सब जिस डोंगी को खेने में लगे हैं, उसमें एक छेद है। उस छेद को भरने का कोई उपकरण इस प्लवन में उपलब्ध नहीं। डोंगी को खेने की क्रिया ही जीवनचर्या है। उस छेद के बारे में सोचना मृत्यु के बारे में सोचना। वह संगत है पानी के विराट आयतन के साथ। भौतिकी के नियमों से बँधा पानी को गति और पथ देता हुआ। पानी मृत्यु नहीं है। पानी मुक्ति है। वही आस-पास है, जो घेरे हुए है सजीवन को। क्रिया की निरंतरता में कारक अव्यय ढूँढ़ रहा है। अव्ययों में नहीं है मोक्ष।

मैट्रिक्स टूटता है। शून्य आकार लेने लगता है। रिक्ति शून्य नहीं है। निर्वात भी शून्य नहीं। अभाव भी शून्य नहीं। शून्य की सार्वभौमिकता में बस शून्य है। उसका आकार भी कल्प से बाहर है, किंतु वह है। जैसे उसकी अस्ति है। उसके लिए गर्भ भी यह कल्पना ही है, लेकिन वह गर्भनाल तोड़ चुका है। सदियों से वह वयस्क होने की क्रिया में है। यह क्रिया ख़त्म नहीं होती। मैट्रिक्स बार-बार टूटता है—बनता है। जीवन का लूप। आवृत्तियों का ठोस।

यथार्थवाद इसे नहीं देखता—नहीं मानता। दिखती हुई, चलती हुई दुनिया को खेलने के लिए रोज़मर्रा का लेमनचूस पकड़ाकर कोई दुर्धर्ष सर्जक ठहठहे लगा रहा है, अघा रहा है। वह अपने स्वप्नों के समांतर जाग रहा है। उसकी नींद नहीं टूटती। उसकी जाग के भ्रम की यातना में एक पूरी सृष्टि सर्कस कर रही है। तंद्रा टूटेगी तो समय का प्रवाह टूट जाएगा। सारे वर्तमान एक हो जाएँगे। एक क्षण में ही जीवन और मृत्यु, जैसे ऑरोबोरोस अपनी पूँछ निगलते हुए दृष्टियों से ओझल हो रहा हो।

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