‘पुनः सवेरा एक और फेरा है जी का’

‘पुनः सवेरा एक और फेरा है जी का’

कुमार मंगलम 11 जनवरी 2024

उस्ताद राशिद ख़ान को एक संगीत-प्रेमी कैसे याद कर सकता है? इस पर ठहरता हूँ तो कुछ तस्वीरें ज़ेहन में आती हैं। ‘राग यमन’, ‘मारवा’, ‘सोहनी’, ‘मेघ’ और ‘ललित’ जैसे गंभीर ख़याल गाने वाले सिद्ध गायक—राशिद ख़ान। जहाँ भारतीय शास्त्रीय संगीत का बेहद सधा हुआ अनुशासन मौजूद है। जैसे एक समर्पित साधक अपने साधना में लीन हो। उप शास्त्रीय संगीत ‘ठुमरी’, पूर्वी, ‘टप्पे’ और ‘तराना’ इत्यादि गाने वाले— राशिद ख़ान। जहाँ एक आत्मीय खिलंदड़ापन और नोक-झोंक मौजूद हो। सभी संगतकारों को जगह देता हुआ, संवादी और लोकतांत्रिक— राशिद ख़ान। फ़िल्मी संगीत, जैज और कोक स्टूडियो जैसे युवाओं में लोकप्रिय गीत गाने वाले— राशिद ख़ान। एक परंपराबद्ध आधुनिक। जिसके पास कुछ नई और लोकप्रिय चीज़ों के लिए भी अवकाश है। यह अवकाश कुछ उस क़िस्म का है जहाँ नई पीढ़ी से एक ऐसा संवाद की कोई सूरत निकले। यह कुछ-कुछ सुनने की तैयारी कराने जैसा हो या एक कोशिश कि इस रास्ते कुछ नए श्रोताओं को जोड़ा जा सके। संकटमोचन मंदिर के परिसर में टहलते हुए अपने विचार में मग्न एक आस्तिक इंसान। अपने पुत्र को संकटमोचन मंदिर में संकटमोचन के सामने सजदा करने के लिए उत्साहित करता हुआ एक आत्मीय पिता। बनारस में गंगा घाट पर भीड़ से अपने को बचा कर टहलते हुए एक आम मनुष्य और संकटमोचन मंदिर में कार्यक्रम से पहले सुरमंडल मिलाते और कार्यक्रम के बाद अपने मुरीदों से मिलते हुए— राशिद ख़ान। ये वे छवियाँ हैं जिनसे मुझे राशिद ख़ान की याद आती है।

कला में छप्पन वर्ष की उम्र कोई बहुत बड़ी उम्र नहीं मानी जाती। यह कला के पकने की उम्र होती है। कला में निखार आने में एक लंबा वक़्त लगता है। यह राशिद ख़ान साहेब की ख़ुशनसीबी थी कि उन्हें कला जगत में वह पहचान और प्रसिद्धि दोनों मिली जिसके वह सबल हकदार थे। भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी ने राशिद ख़ान को ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत का भविष्य’ कहा था। 

‘आश्वस्ति’ कुछ अजीब शै है। मृत्यु अक्सर वह छोड़ जाती है, जिसमें हम जीवन के चिह्नों को तलाशते हैं। किंचित भारतीय श्रोताओं की यह बदनसीबी ही कही जाएगी कि अक्सर हमारे भविष्य को बहुत कम समय मिलता है। हम ऐसे त्रासद और हतभाग्य समय में जीने को विवश हैं, जहाँ जेनुइन प्रतिभाएँ उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। यह ऐसा समय है जहाँ कम मनुष्यों की भरमार है। बौनों और आत्ममुग्धों की संख्या हर क्षेत्र में बढती गई है। उस्ताद राशिद ख़ान के जाने से जो रिक्ति हुई है, इसकी भरपाई अब दूर तक संभव प्रतीत नहीं होती दिख रही है। 

उस्ताद राशिद ख़ान रामपुर सहसवान घराने के ध्वजवाहक कलाकार। एक कलाकार की तैयारी और प्रस्तुति को अक्सर एक श्रोता समझ नहीं पाता। उसे एक उत्पाद के मानिंद एक तैयार चीज़ मिलती है। मेरा भी उस्ताद राशिद ख़ान से कुछ ऐसा ही संबंध रहा है—उत्पादक और भोक्ता का, किंतु संबंध चाहे जैसा हो एक समय के बाद उससे मोह होना स्वभाविक मानवीय गुण है। हमारी कल्पनाओं में भी यह रिक्ति कहीं नहीं थी। पिछले दिनों जब वह बीमार हुए तो यह उम्मीद थी कि उनके जीवन की यह मध्य-लय सम पर आकर उनकी ख़याल गायकी की ही तरह द्रुत में आ जाएगी, लेकिन यह ‘पुनः सवेरा एक और फेरा है जी का’ ही साबित हुआ। उन्होंने मध्य-लय के सम को ही अपना अंतिम सम माना। 

सोचता हूँ उस्ताद राशिद ख़ान को पहली बार कब देखा-सुना। संकटमोचन संगीत समारोह में सहभागी होने के अपने आरंभिक दिनों में संभवतः 2011 में। तब युवा कवि अब दिवंगत रविशंकर उपाध्याय के नेतृत्व में मुझे नया-नया शास्त्रीय संगीत सुनने का चस्का लगा था। उस दिन संभवतः पाँचवी या छठवीं प्रस्तुति उस्ताद राशिद ख़ान की थी। तीसरी प्रस्तुति के बाद उन्होंने कहा कि जब उस्ताद आएँगे तो उन्हें जगा दूँ। उस्ताद आए और सुरमंडल के पहले ही झंकार से आचार्य (रविशंकर उपाध्याय को हम प्रेम और आदरवश यही बुलाते हैं) चेतन-अवस्था में आ गए। उस रात पहली बार उस्ताद राशिद ख़ान को प्रत्यक्ष सुना था। उसके बाद यह सिलसिला चल निकला कि संकटमोचन संगीत समारोह की कुछ अनिवार्य प्रस्तुतियों में राशिद ख़ान को ज़रूर सुना जाए।

दरअस्ल, संकटमोचन संगीत समारोह हम जैसे नए श्रोताओं के सीखने की पहली पाठशाला है। यह एक ऐसा मंच था जहाँ हमने एक आत्मीय अनौपचारिकता के साथ भारतीय शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्यों को न सिर्फ़ सुना, बल्कि उनकी आत्मीयता भी पाई। आज जब राशिद ख़ान को याद कर रहा हूँ तो एक दृश्य ज़ेहन में कार्यक्रम के बाद मशहूर तबलावादक संजू सहाय से ग्रीन रूम में गले लगने का आत्मीय दृश्य बार-बार सामने आ रहा है। प्रस्तुति के बीच लंबे आलाप के बाद श्रोताओं का हर-हर महादेव का उद्घोष और उस्ताद की स्मित मुस्कान जैसे सभी श्रोताओं के मन पर अमिट है। संकटमोचन संगीत समारोह की प्रस्तुतियों में बहुत कम कलाकारों के हिस्से में श्रोताओं की ओर से इतने आग्रह आते हैं कि कम से कम कलाकार को तीन या चार प्रस्तुतियों तक उठने ही न दिया जाए। फिर स्मृतिशेष हरिराम द्विवेदी जी के मधुर आग्रह और समय की दुहाई देकर कलाकार अपनी प्रस्तुति का समापन करे। उस्ताद राशिद ख़ान को संकटमोचन संगीत समारोह में यह प्यार सहज मिला था। इस दृश्य का दुहराव अब संभव नहीं है। 

कोरोना महामारी के ठीक पहले नई दिल्ली में जवालाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्पीक मैके द्वारा आयोजित गर्मी के बेहद उमस भरे दिन में उस्ताद राशिद ख़ान की प्रस्तुति होनी थी। अक्सर गर्मी के उमस भरे दिन में मैं उस्ताद राशिद ख़ान के मेघ को सुनता रहता हूँ। उस दिन जब घर से निकला तो मेरे मन में यही इच्छा थी कि काश! उस्ताद आज मेघ गा देते। पहली प्रस्तुति बाँसुरी के अन्यतम कलाकार हरिप्रसाद चौरसिया की थी। उन्होंने उस दिन थोड़ा कम बजाया। उम्र का असर बहुत साफ़ पंडित जी पर दिखने लगा था। ऐसा लग रहा था, जैसे साँसें लंबी तान में टूट जा रही हैं। मैं इस प्रस्तुति से बहुत ख़ुश नहीं था। मेरी सारी उम्मीद अब उस्ताद राशिद ख़ान की प्रस्तुति पर लगी हुई थी। मैं जानता था कि यहाँ उनसे ‘आओगे जब तुम साजना...’ जैसी चर्चित और बहुश्रुत फ़िल्मी संगीत की फ़रमाइश ज़रूर होगी और मैं उस दिन बिल्कुल इसे सुनना नहीं चाहता था। बहरहाल; उस्ताद की प्रस्तुति के लिए घोषणा हुई और उनके सहयोगी, संगतकार और शिष्य मंच पर आए। उस्ताद ने पहले तानपूरे को और फिर सुरमंडल को मिलाया। उद्घोषकीय औपचारिकता के बाद उस्ताद ने अपने सुरमंडल पर जैसे ही उँगलियाँ फिराई मैं सुखद आश्चर्य से भर गया। यह तो राग मेघ है। मन आश्वस्त हुआ। इस उमस भरे दिन में जैसे घनघोर बारिश की पूर्व-सूचना। लगा जैसे कलाकार का मन उसके प्रशंसक से जुड़ा होता है। उस दिन उस्ताद पूरे रंग में थे। आलाप और सारंगी की तान, जैसे उमस के बाद बारिश के पहली फुहार। विलंबित एकताल में जो आलाप सारंगी के मद्धिम संगत से शुरू हुआ वह जब द्रुत में आया तो लगा धीरे-धीरे बढ़ती हुई बारिश में सभी रससिक्त हो चुके हों, तबले की थाप ऐसी जैसे बारिश में घन-गर्जन। द्रुत झपताल में ‘गरज घटा घन’ की बंदिश, तबले की थाप और सुरमंडल की मधुर आवाज़ बारिश की आवृत्ति की जैसी मनोरचना कर रही थीं, मानो हम बारिश में भीग रहे हों। यह संयोजन भारतीय शास्त्रीय संगीत की आवृत्तिमूलकता के अनुरूप ही थी। यह उस दिन की उनकी पहली प्रस्तुति थी। मेघ सुनते-सुनते मेरे मन में आया कि उस्ताद आज की प्रस्तुति का समापन तराना से करते तो आनंद आ जाता है। यह मेरा निरा लोभ था। उस्ताद ने उस दिन जैसे हमें आश्चर्यचकित करने का मन बना लिया था। मेघ के बाद सोहनी, सोहनी की ठुमरी ‘देख बेग मन ललचाये’ और द्रुत में ही समापन तराना से किया। इस प्रस्तुति के बाद श्रोताओं की ओर से ‘आओगे जब तुम साजना...’ की फ़रमाइश की गई। उस्ताद ने अपनी मुस्कान बिखेरते हुए कहा कि मुझे मालूम है कि आप उसे हमेशा सुनते हैं, आज मैं आपको अपनी पसंद की चीज़ सुनाता हूँ और उस दिन उस्ताद ने अपने गायन का समापन ‘याद पिया की आए...’ बंदिश सुना कर किया। मैं बहुत प्रसन्नचित्त और सुखद आश्चर्य से परिपूर्ण जब बाहर आया तो देखा कि हल्की बारिश से जेएनयू की सड़कें भीगी हुई हैं और पूरा जेएनयू एक सोंधी सुगंध से भर गया है। 

उस्ताद राशिद ख़ान की अंतिम प्रस्तुति फिर गत वर्ष संकटमोचन संगीत समारोह में ही सुनी और इस प्रस्तुति को सुनकर मैं लौट आया था। कल जब वह अपने जीवन के अंतिम सम पर आए तो इन स्मृतियों को फिर से जीता रहा। आज जब आपकी अनुपस्थिति को आपकी आवाज़ की उपस्थिति से भर रहा हूँ और लय और तान के द्वंद्व में खोया हुआ हूँ तो रविशंकर उपाध्याय की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं : 

“अतीत कब गौरवान्वित हुआ 
यशोगान से 
उसे तो हर क्षण मजा आया 
घुलने में 
वर्तमान की उठती तान में”

उस्ताद आपकी आवाज तो अब भी साथ है, लेकिन वह स्मित और उसकी तासीर हमें अब नसीब नहीं। आपकी आवाज़ की तान जो उस्ताद आमिर ख़ान और पंडित भीमसेन जोशी की तरह (जिनसे आप प्रभावित रहे) ऊर्ध्वमुखी तरंगों की तरह हमारे भीतर बसी रहे। यह अंतिम सम है। विराम। 

सुरमंडल पर उँगलियाँ फिरती रहेंगी
गायक साधता रहेगा सुर
आलाप का कंपन सिहराता रहेगा श्रोताओं को

बीच आलाप में अपने संगतकारों को 
मुस्कुराकर जगह देता रहेगा गायक
तानपूरे पर अब भी कोई चिड़िया आकर 
छेड़ जाएगी कोई तार

ख्याल, ठुमरी और तराने सुने जाते रहेंगे 
पर मध्य-लय में दो तानों के बीच 
जब भी सम आएगा
उसे भरने के लिए तानपूरा या सुरमंडल से 
जो निकलेगा स्वर वह कुछ कम होगा

थोड़ा कम होगा
श्रोताओं के वाह के बाद की स्मित : 
पानों से रससिक्त वह लाली भी होगी थोड़ी कम
सारंगी से निकलेगा जो विषाद वह और गहरा होगा
अंतिम सम होगा—
कुछ और विषादी।

***

शीर्षक : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की एक काव्य-पंक्ति

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