साधारण का सहज सौंदर्य

साधारण का सहज सौंदर्य

सुदीप्ति 09 जनवरी 2024

‘‘जिस शैलजा से तुम यहाँ पहली बार मिल रहे हो मैं उसी शैलजा को ढूँढ़ने आई हूँ, सामने होकर भी मिलती नहीं है, अगर तुम्हें मुझसे पहले मिल जाए न, तो सँभालकर रख लेना।’’

‘थ्री ऑफ़ अस’ फ़िल्म के लगभग आधा बीत जाने के बाद शैलजा जब दीपांकर से यह संवाद कहती है तो मानो फ़िल्म को समझने की एक नज़र फिल्म के भीतर से ही मिल जाती है। घर के दरवाज़े पर लगे की-होल से घर के बाहर झाँकने पर जितना दिख जाए उतना तो यह संवाद दिखा ही देता है। क़ायदे से फ़िल्म यहाँ से ज़्यादा खुलने लगती है।

मेरे लिए छूटे हुए प्रेम की कथा नहीं है—‘थ्री ऑफ़ अस’। सच कहिए तो प्रेम-कथा है ही नहीं! प्रेम उतना ही है जितना जीवन की सहज साधारणता में होता है। करुणा की सघनता में प्रेम जैसा होता है, उतना ही है। 

तो क्या है? अपनी ही नज़रों में अलोप होने से पहले अपने को ढूँढ़ने की कथा है। लोप/अलोप/ विलोप से पहले ख़ुद को निहारने का सुख, अपने जीवन को जीने का संतोष और सुख-दुःख के स्पंदन को महसूस कर सकने की एक कोशिश है। 

यहाँ स्मृति धुंधलाता जाता ऐसा आईना है जिसमें शैलजा अपने को देखती, पाती और जीती है। फ़िल्म के लगभग अंत में जब वह पति से लरजती आवाज़ में पूछती है, ‘‘अगर मैं भरत (बेटे) को भूल गई तो?’’ इस भूलने की आशंका के बीच याद को जीने की कोशिश है। इस स्मृति-लोक में वह उस भविष्य के लिए जाती है जिसमें जाते हुए वह अब ख़ुद को नहीं पा सकेगी। सामने प्रेमी हो या पति वह रिश्तों को ही नहीं उनके साथ बँधे अपने जीवन को भूल सूनी आँखों से वैसे ही देखने वाली है जैसे पापड़ वाली अम्मा को देखती है। स्मृति ही लगाव की वह तरलता है जिसके बिना आँखें सूनी और सूखी होती हैं। वैसी सूखी जिनसे कोंकण जाने से पहले शैलजा अपने आस-पास को देखती है, अपनी सहेलियों के बीच मौजूद शून्य को देखती है। वही स्मृति-हीन आँखें।

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कभी आपने डिमेन्शिया या अल्जाइमर के बारे में ध्यान से सोचा है? मैंने इसके पीड़ित को दूर से देखा भी है और वर्तमान में किसी बेहद अपने को इससे जूझते हुए देख रही हूँ। पीड़ित और उनके साथ जीवन जीने वालों के लिए कितनी त्रासद स्थिति होती है इसमें कि क्या कहें-सुने। अपने किसी प्रिय-पात्र को इस हाल में देखना भी आसान नहीं। इसे देखते हुए मैं हमेशा सोचने लगती हूँ कि स्मृतियाँ दुखदायी होते हुए भी हमारे लिए ज़रूरी क्यों हैं? 

क्या इसलिए कि यह हमें अपने-आपसे, अपने लोगों से, एहसासों से जोड़ने का माध्यम है। अगर स्मृति नहीं रही तो हम अपने संबंधों के दुख तक नहीं जान पाएँगे। हमारी आँखों से आँसू सिर्फ़ तात्कालिक शारीरिक तकलीफ़ में गिरेंगे। हम हँसी और आँसू दोनों को भूल जाएँगे। हम किसी से ख़ुद को जोड़ ही नहीं पाएँगे और कितने अकेले हो जाएँगे? इस भयावह आसन्न भविष्य के बीच शैलजा सबसे मधुर स्मृतियों को जीने, दुहराने, अबोधपने की ग़लतियों की माफ़ी माँगने और अपने को माफ़ करने गई है कोंकण। फ़िल्म का अंतिम दृश्य इस बात को और गहरे अर्थों में स्पष्ट करता है। जिस व्यथा की स्मृति का आत्म-स्वीकार मुश्किल होता है जब वह भी ग़ायब होने लगे तो कैसा भय उत्पन्न होता है। कभी-कभी तो यही लगता है कि मन में दबाए हुए अपराध-बोध की घुटन इतनी होती है कि स्मृति उसके आगे घुटने टेक देती है। 

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फ़िल्म देखने वाले लोग अक्सर प्रदीप की पत्नी या शैलजा के पति की उदारता पर मोहित होते हैं। बेशक दोनों किरदार बहुत सुंदर रूप से विकसित किए गए हैं और वैसे ही हैं जैसा कि होना चाहिए। अल्फ़ा मेल के ग्लोरीफ़िकेशन के दौर में ऐसे किरदार मोहक लगते हैं। वास्तव में, एक उम्र साथ बिता लेने के बाद पति-पत्नी में एक दूसरे के प्रति वात्सल्य भाव तो उमड़ने ही लगता है। 

दरअस्ल, प्रेम में लोग प्रिय के अतीत पर भी क़ाबिज़ हो जाना चाहते हैं। प्रेम में ईर्ष्या, जलन और पजेसिवनेस को इतनी प्रमुखता मिल गई है कि स्वीकृति, उदारता और करुणा कहीं पीछे छूट गए हैं। उदार होना मानो कमज़ोर होना है और हक़ जताना मानो प्यार करना है। उदारता हमें अलग से रेखांकित करने वाली चीज़ लगती है, जबकि होना यही चाहिए। क़ायदे से जो हमारे साथ जब है उस समय पूरी ईमानदारी से है, इतनी भर बात होती है। हम किसी से कितना भी प्रेम करें, लेकिन उसके अतीत और भविष्य पर हमारा अधिकार नहीं होता है। भविष्य के सपने साथ देखे जा सकते हैं, पर अतीत तो बिल्कुल उसका अपना स्पेस है। इस बात को ठीक से समझ लेने पर पता चल जाता है कि दोनों के पार्टनर एकदम सही भूमिका में हैं।

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इस फ़िल्म की सबसे बड़ी बात इसकी साधारणता है। साधारण का सहज सौंदर्य कितना मर्मस्पर्शी हो सकता है, यह फ़िल्म इसका नमूना है। साधारण जीवन में जैसा साहसिक, सामाजिक, राजनीतिक हुआ जा सकता है; इसका निर्देशक हुआ है। फ़िल्म अपने कथानक में, अपने संवादों से बहुत कुछ ऐसा कहती है जो सामाजिक और राजनीतिक रूप से ज़रूरी है। मसलन शुरुआत में ही एक स्त्री दृढ़ता से तलाक़ के लिए अड़ी रहती है और कहती है जब इतने सालों में नहीं कुछ बदला तो अब तीन महीनों में क्या हो जाएगा? एक स्त्री भविष्य का निर्णय साफ़-साफ़ ले रही। यह ओपनिंग सीन क्या कुछ कहता नहीं? 

फिर सोचिए अगर फ़िल्म में शैलजा की जगह एक मेल लीड होता तो? किसी पुरुष के लिए अतीत में लौटना, उन जगहों को छू लेने में ऐसी कोई बड़ी बात नहीं जैसी मध्यवर्ग की एक सामान्य प्रौढ़ स्त्री के लिए है। इस मूल बिंदु पर जब आप ध्यान देंगे तो संवादों के बीच जो कहा जा रहा उसे भी पढ़ सकेंगे। शैलजा की अँग्रेज़ी अध्यापक कहती हैं, ‘‘दीपांकर यह एक नंबर की शैतान थी, एकदम मोगैंबो थी और यह उसका डागा...’’ मोगैंबो प्रदीप नहीं था, शैलजा थी। और उनकी बेटी शादी न करने के फ़ैसले पर जो कुछ कहती है, वह आज के प्रतिगामी दौर में स्त्री को लेकर एक सशक्त बयान है।

फ़िल्म में दीपांकर का एक संवाद है, ‘‘प्रदीप ने एक बहुत अजीब-सी बात कही बचपन में उसके साथ कुछ हुआ था, उसके बाद वह कभी आदमियों पर भरोसा कर ही नहीं पाया, उसकी दोस्ती ज़्यादातर लड़कियों के साथ रही, पर मुझसे मिलकर उसे ऐसा लगा कि मुझ पर भरोसा किया जा सकता है।’’ शैलजा पूछती है, ‘‘क्यूँ?’’ वह कहता है, ‘‘क्योंकि शैलजा मुझ पर भरोसा करती है।’’

यहाँ वह ‘तुम मुझ पर भरोसा करती हो’ नहीं कह रहा। ‘शैलजा करती है’—थर्ड पर्सन में संबोधित करना रेखांकित करना है। पत्नी से अलग जो व्यक्ति है, उसे संबोधित करना है।
सोशल मीडिया पर सबसे ज़्यादा चर्चित संवाद है जो सामान्य ईर्ष्या-भाव में एक रात पति पूछता है :
‘‘तुम कभी मेरे साथ इतनी ख़ुश हुई हो?
‘‘क्या मतलब है इस बात का?’’
‘‘मतलब वही है जो है!’’
‘‘मैं ख़ुश हूँ इससे तुम्हें दिक़्क़त है?’’
‘‘नहीं! तुम ख़ुश हो सकती हो, तुम हो भी...’’
‘‘...अरे ये क्या बात हुई मैं अपने बचपन के घर आई हूँ, ख़ुश तो होऊँगी ही।’’

आप देखिए, यहाँ भी वह कहती है कि बचपन के घर आई हूँ। कोंकण में शैलजा और दीपांकर भटकते हुए से घूम रहे हैं और जब पहली बार शैलजा के स्कूल की सहेली पीछे से पुकार लेती है और उसके घर में बचपन की ग्रुप फ़ोटो देखते शैलजा प्रदीप कामत कहती है तो सहेली टोकती है, ‘‘तुम प्रदीप को पूरा नाम लेकर कब से पुकारने लगी कि प्रदीप कामत कह रही हो।’’ वह दृश्य शैलजा के सहज संकोच का है। इतने साल बीत गए या पति सामने है तो वह बचपन के दोस्त का भी पूरा नाम लेकर बुला रही है। प्रदीप की पत्नी भी उसको बहुत लाड़ में और कुछ-कुछ चुहल से ताने देती है कविता लिखने पर। सच पूछिए तो रोज़ के जीवन में अगर ऐसा ना हो तो वह जीवन बहुत ही कृत्रिम हो जाएगा।

फ़िल्म में मेरा प्रिय दृश्य है दोनों औरतों के बीच एक अधूरे संवाद का। शैलजा जब हिचक में कहती है कि तुम्हें अजीब लगा होगा न... तो सारिका (प्रदीप की पत्नी) कहती है कि बहुत प्यारा वाला अजीब। कितनी प्यारी बात थी और दृश्य में दिया जाने वाला फूल कैसा प्रतीकात्मक। 

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‘थ्री ऑफ़ अस’ देखते हुए मुझे बार-बार दो फ़िल्मों की याद आती है—‘स्टिल एलिस’ और ‘पास्ट लाइव्स’ की याद आती है।

पास्ट लाइव्स की इसलिए क्योंकि प्रवास और किशोर उम्र का लगाव दोनों फ़िल्मों की कथा के भीतर के तनाव का एक सूत्र है। किशोर उम्र के लगाव में ख़ास बात होती है उसका ऑकवर्डनेस। वह प्रेम है यह साफ़-साफ़ कहा नहीं जा सकता, लेकिन जो लगाव या झुकाव है वह हमेशा एक कोमल-सी याद की तरह से मौजूद रहता है। उसकी गुदगुदी रहती है। लौटना उस कोमलता को छू लेने की कोशिश भर है।

विस्मृति का आविर्भाव और स्मृति का मोह ‘स्टिल एलिस’ की याद दिलाने के लिए। भूलना कैसे त्रासद है, उस फ़िल्म से ज़्यादा और कोई फ़िल्म मुझे नहीं बता सकी है।

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इस फ़िल्म को लेकर बहुत सारे लोग नॉस्टेल्जिया की भी बात कर रहे हैं। दरअस्ल, इस फिल्म के दृश्य—क़स्बा है कि शहर या कि गाँव है... पर जो भी कोंकण उसके बीच झूलते हुए दृश्य... हमारी उम्र या इसी आस-पास के लोगों को अपने किशोर उम्र के दृश्यों से जोड़ते हैं। इसीलिए हम इसको देखकर नॉस्टेल्जिया के शिकार होते हैं। छोटे क़स्बों में जो सीधा-सादा जीवन है जो आज के समय में वहाँ से भी ग़ायब हो रहा है, वह जीवन हमें खींचता है। कई बार वह दृश्य में परेशान भी करते हैं, क्योंकि आज हाथ बढ़ाकर उन दृश्यों को हासिल नहीं किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि अतीत में वे सारे दृश्य पेंसिल से खींची हुई रेखाएँ थीं जिन्हें भविष्य की रबड़ ने मिटा दिया। ऐसे ही किसी दृश्य को देखते हुए आँखें भर भी जाती हैं। सूने पेड़ और भुतहा कुँए हमें अतीत के उस पटल पर ले जाते हैं, जहाँ हम पहुँच नहीं पा रहे। शैलजा कहती है—सुख-दुःख, प्रेम के संबंध में—‘‘सीधा-सादा जीवन हमें याद नहीं रहता, गुज़रते वक़्त के साथ हम बदल जाते हैं, हम भूल जाते हैं।’’ मुझे लगता है कि अविनाश अरुण की आँखें और कैमरा उस परिदृश्य को रचते हैं जो इतना सीधा-सादा है कि हम उस दृश्य को एक उपन्यास में पढ़ सकते हैं, कविता में गुन सकते हैं, सिनेमा के परदे पर देख सकते हैं; पर उसमें जा नहीं सकते। पन्ने पलटते गए हैं, जर्जर और पीले पड़ गए हैं। इस किताबी अतीत में जाया नहीं जा सकता है। सिनेमेटोग्राफी की लोमहर्षक पकड़ पुराने पसंदीदा उपन्यास की तरह है, इसके लिए आपको बड़ी स्क्रीन पर इस फ़िल्म को देखना चाहिए। फिल्म में कुछ और ख़ास न हो तब भी सिनेमेटोग्राफी इसे कमाल की फ़िल्म बनाती है।

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