पंक्ति प्रकाशन की चार पुस्तकों का अंधकार

पंक्ति प्रकाशन की चार पुस्तकों का अंधकार

पंकज प्रखर 26 सितम्बर 2023

‘कवियों में बची रहे थोड़ी लज्जा’

मंगलेश डबराल की इस पंक्ति के साथ यह भी कहना इन दिनों ज़रूरी है कि प्रकाशकों में भी बचा रहे थोड़ा धैर्य―बनी रहे थोड़ी शर्म। 

कविता और लेखक के होने के बहुतायत में प्रकाशन की बहुलता इधर के दिनों की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। संचार क्रांति के बरअक्स अगर कोई क्रांति है तो वह है प्रकाशन-क्रांति! इसमें कुछ कथित लेखक-प्रकाशक इस प्रतिबद्धता के साथ दाख़िल हुए हैं कि अब कुछ भी, कैसा भी कैसे भी करके प्रकाशन से वंचित नहीं रहेगा।

इस तरह देखें तो प्रकाशन की बहुलता ने लेखक और कवि होने की ज़रा-सी संभावनाओं को भी निश्चितता में परिवर्तित किया है। यों दर्ज हो जाने की बेकली बारहा एक बे-हयाई और अनर्गल प्रलाप को जन्म देती है। सहज प्रकाशन की उपलब्धता ने कुछ ऐसा ही परिदृश्य समकालीनता में खड़ा किया है। ऐसे ढेर लगे हैं कि रंग-बिरंगे, चमकते-भकभकाते साहित्यिक-कबाड़ में से अर्थवत्ता जैसी कोई बात निकालना― जू-ए-शीर लाने जैसा है। 

सजग पाठकों को इस नई हिंदी की घमासान उत्पादन-प्रणाली में अच्छा-ख़ासा रिस्क उठाना पड़ रहा है―किताबों के चयन में। जिस सनसनाती अख़बारी प्रतिक्रिया और उन्माद से कविताएँ जन्म ले रही हैं, उसी प्रक्रिया के तहत प्रकाशनों का उदय भी हो रहा है। यह भोजपुरी गीतों की तरह सप्लाई और डिमांड का मामला है। सोशल मीडिया पर उन्मादरत कविधर्मिता और कविमित्र इसके पोषक हैं।

बहरहाल, पंक्ति प्रकाशन से आई चार पुस्तकें मेरे हाथ लगी हैं। यहाँ इन पर कुछ समीक्षापरक व्यक्त करने की कोशिश की है :

[एक]

‘नदियाँ नहीं रुकतीं’—आदित्य रहबर की कविताओं की पहली क़िताब है। इसकी लोकप्रियता सोशल मीडिया पर कुछ इस तरह भी देखी गई ‘‘जैसे नदियाँ नहीं रुकती―वैसे ही यह नदी नहीं रुक रही―अजस्र सरिता के प्रवाह की तरह बह रही―कल-कल छल-छल...’’ इस छल माफ़ कीजिए छल-छल की वजह से इस कविता-संग्रह की तरफ़ आना ज़रूरी जान पड़ता है। ख़ासकर तब यह और भी ज़रूरी हो जाता है, जब एक युवा कवयित्री द्वारा यह कहा जाए कि इस किताब की समीक्षा नहीं, हरेक कविता, हरेक पंक्ति की अलग समीक्षा हो; तब भी इसके बारे में बात करना अपूर्ण ही होगा।


इस किताब की भूमिका स्पष्टीकरण और आत्मप्रवंचना की तरह, ब्लर्ब―कविताओं की लोकप्रियता―मसलन कौन-सी कविता किस प्रशासन की होर्डिंग, किस स्कूल की दीवार पर है–आत्ममुग्धता का परिचय देती हुई कवि की नई संज्ञा की तरह प्रस्तुत है।

इस समूचे कविता-संग्रह में कवि एक निश्चित तेवर के साथ मौजूद है और क्रांति की खोज में है। विद्रोही (प्रिय कवि) की कविताओं में इस कोशिश को ढूँढ़कर उसके प्रेम में क्रांति का अर्थ सुलभता से समाप्त होता है।

यहाँ क्रांति नदी पार करने जितनी आसान है और कवि क्रांति को आत्मसात करते हुए अपने प्रिय कवि विद्रोही की कविता की ख़राब अनुकृति में कहने लगता है : सबसे बड़ी बात तुम मुझे इसलिए भी सुंदर लगती हो, क्योंकि तुममें क्रांति का एक ओज दिखता है और क्रांतिकारी लोग मुझे बेहद पसंद हैं।

इस संग्रह की लगभग हर एक कविता समकालीन संदर्भ, युगीन समस्याओं और तमाम मुद्दों के साथ मौजूद तो है; लेकिन बेहद सतही ढंग और ब्योरों के रूप में। कवि अनुभूति के धरातल पर उतरने से कतराता प्रतीत होता है। वह उन कारणों की भी खोज करने में असफल रहा है जिनका बयान उसकी कविताओं में मौजूद है। यहाँ कविताएँ प्रश्न का अभिनय करती हुई गुज़र रही हैं। वे तमाम संवेदनशील मुद्दों को तात्कालिकता की नज़रों से देख रही हैं!

यहाँ सिर्फ़ बयानबाज़ी की असुंदरता है!

कवियों को यहाँ स्त्रियों की स्थिति पर मात्र इसलिए बोलना है ताकि उन्हें क्लबों में सिगरेट और शराब पीने का अधिकार मिल सके और वे फ़ेमिनिज़्म के नाम पर कर सकें भद्दा मज़ाक़... यहाँ उनका कवि-कर्म यह भी सुनिश्चित करता है कि वे सिर्फ़ बयानों और ब्योरों के संकलन को कविता मानते आ रहे हैं।

अपनी एक कविता ‘चौखट’ जिसमें ‘स्त्रियों को चाँद पर पहुँचने के लिए सिर्फ़ चौखट लाँघना ज़रूरी है’ बताता हुआ कवि ‘भूख’ शीर्षक कविता में स्त्रियों को चौखट से बाहर निकलने को मजबूरी बताता हुआ नज़र आता है।

सही मायनों में कहा जाए तो कवि की रचनाधर्मिता जो लगभग इस संग्रह से कविता की तरह ग़ायब है, दर्ज हो जाने की बेकली से उपजे भ्रम का शिकार हुई है। इस भ्रम में कविताएँ प्रश्न पूछती हुई दाख़िल तो होती हैं, किंतु बीच का पाठ भूलकर जाने कहाँ चली जाती हैं। दुखद है कि इस प्रस्थान के बारे में कवि को भी नहीं पता। ऐसे में इस कविता-संग्रह में अगर कुछ प्रभावी रूप से मौजूद है तो वह है―पुनरोक्ति! इसे दूसरे अर्थों में कहा जाए तो यह पुनरोक्ति-संग्रह है, न कि कविता-संग्रह। इसमें भाषा के नाम पर रघुवीर सहाय, विद्रोही और धूमिल का कोलाज है। एक सीढ़ीनुमा शिल्प में सरकती हुई पंक्तियाँ हैं।

संभवतः कवि काव्यानुशासन, अनुभूति की प्रगाढ़ता, काव्यधर्मिता और आवश्यक धैर्य से परिचित नहीं है। इस संग्रह में 90 से अधिक कविताएँ मौजूद हैं, जहाँ ख़राब और अच्छे के अर्थ में 89 और 1 का मामला भी नहीं बनता।

यहाँ प्रस्तुत कविताएँ कवि के अध्यवसाय और ख़राब समझ के रवैए का परिचय दे रही हैं। सोशल मीडिया पर चर्चित यह कविता-कर्म कवि की छपास और उसके कवि-मित्रों का परिणाम ही है जो समकालीन कविता में एक भ्रम की तरह हैं।

दरअस्ल, यह पूरा संग्रह सनसनाते अख़बारी बयानों से खड़े किए गए बेहद भड़काऊ शब्दों के एक ग़ैरज़रूरी प्रलाप का समुच्चय भर है। चूँकि आदित्य रहबर एक नए कवि हैं और उनका यह पहला कविता-संग्रह है तो उनसे निराश पाठक भाविष्य में उनके कुछ बेहतर कर गुज़रने की माँग करेंगे। उन्हें इस आश्वस्ति के साथ शुभकामनाएँ कि अबकी बार लौटें तो कवितातर लौटें... 

[दो]

‘कुढ़न’—क्षणिकाएँ, कविताएँ और लंबी कविता―तीन हिस्सों में प्रस्तुत एक ऐसा कविता-संग्रह है जो कुछ वर्ष पहले किंडल रूप में प्रकाशित हो चुका है। इसके शुरुआती पन्नों पर क्षणिकाओं के रूप में दर्ज कविताओं में कवि के पास थोड़ी संभावनाएँ दिखती प्रतीत हुई हैं। लेकिन आगे चलकर कविताओं वाले हिस्से में प्रस्तुत कविताएँ बेहद निराश करती हैं। 
‘देवेंद्र दाँगी बरसों से कविता-लेखन में सक्रिय है’ और जैसा कि वह मानते हैं ‘कि मेहनत करते रहने से एक दिन हर सपना सच होता है’ इस अर्थ में उनकी कविताओं में वह समझ नहीं दिखती जो शुरुआती दौर से बरसों से कविता लिखने और किंडल पर छपने के बाद आए हुए कविता-संग्रह में दिखनी चाहिए।

देवेंद्र अपनी अधिकतर कविताओं में अपने बचपन के नॉस्टेल्जिया से उबर नहीं पाए हैं। उनकी कविताओं से उनकी कविताई की समझ महज़ तीसरे दर्जे के विद्यार्थी की तरह जान पड़ती है जो सरल होने के नाम पर कोमल शब्दावली से प्रयुक्त विषयहीन होकर पड़ी है। कवि भाषा और शिल्प से रहित, काव्य-रचनाधर्मिता से विमुख समकालीन काव्य-व्यवहार के परिदृश्य से नितांत अपरिचित प्रतीत होता है। कुछ प्रेम-कविताओं में किशोर मन की उपजी शाब्दिक विकलता है जो एक तुकांत में और हर चार पंक्तियों के बाद टेक की तरह मौजूद है। अनावश्यक तुकांत के फ़ॉर्म में संभव हुई ये कविताएँ किसी किशोर मन की शुरुआती कविताओं की तरह हैं जिनमें लिखने की अचानक जागृत हो उठी भावनाएँ भरभराकर गिर पड़ती हैं। लंबी कविताओं में ‘सातवाँ फेरा’ शीर्षक कविता में कवि (?) कहता है :

‘‘मैं किसी की गोली से नहीं मरूँगा 

मैं तुम्हें वर के साथ सातवाँ फेरा लगाते देख
मर जाऊँगा।’’

ऐसी तमाम सस्ती कविताओं से यह संग्रह भरा पड़ा है। अन्य कविताओं का उल्लेख करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। मैं उन्हें कविता की समझ बढ़ाने और छपास जैसी प्रवृत्ति से मुक्त रहने की सलाह के अलावा शुभकामनाएँ ही दे सकता हूँ।

[तीन]

‘बोनसाई’—भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत रवि प्रकाश मीणा का यह पहला कविता-संग्रह है। ‘कविताओं को संगृहीत करने की उनकी ख़्वाहिश’ पाठकों पर बहुत भारी पड़ी है। वह इस किताब की भूमिका में लिखते हैं, ‘‘मोटा-मोटी कोशिश यही है कि बात को इस तरह कहा जाए कि वह पाठक के ज़ेहन में ज़्यादा देर तक ठहर सके, जम सके, उसे रचनात्मकता का एहसास हो सके।’’ पर अफ़सोस की इस सत्य को स्वीकृत करता हुआ यह संग्रह कहीं भी अपनी रचनात्मकता का एहसास नहीं कराता। यह केवल रचना के लिए उकबकाते मन की उपज है जो विचारशून्यता और भाषाई दरिद्रता के साथ उपस्थित है। इस कविता-संग्रह में कुछ कविताओं के बाद ग़ज़ल जैसी कोई चीज़ मौजूद है जो न तो ख़याल और शिल्प के रूप में दुरुस्त है; बल्कि क़ाफ़िया, रदीफ़ और बह्र से भी ख़ारिज है। इस कविता-संग्रह में प्रस्तुत रचनाएँ लेखक के शैशवकाल की भी नहीं कही जा सकती―वे जल्दबाज़ी में पैदा हुईं―कमज़ोर विचारहीन, शिल्पहीन किसी काव्य-प्रतियोगिता की उपज सरीखी हैं। बेहतर होता यह काव्य-संग्रह बाल-कविताओं की मनोहर पोथी के रूप में प्रस्तुत हुआ होता या तमाम साहित्यिक पेजों की शोभा बढ़ा रहा होता। यह संग्रह अगर किताब के रूप में न भी होता तो कोई साहित्यिक संकट न आन पड़ता। अलबत्ता 128 पन्ने की बर्बादी न करने के लिए हिंदी कविता उनकी आभारी होती, भारी नहीं।

[चार]

‘दूर आसमान पर’ मूल रूप से ख़ुद को लेखक बताते हुए नीरज पांडेय का उपन्यास है और पंक्ति प्रकाशन की प्रायोगिक उपलब्धि है जो किताबों की दुनिया में ‘ज़रा खिसकिए...’ कहती हुई घुसती नज़र आ रही है। 

यह किताब पढ़ते हुए पहला वाक्य एक प्रश्नवाचक चिह्न के साथ उच्चरित होता है : 

यह उपन्यास है? 

क्यों न इसे फ़ेसबुकिया गतिविधियों का संकलन ही कहा जाए। ‘कहाँ है चित्रकार’ शीर्षक से ईश्वर की खोज जैसी जिज्ञासा से शुरू होती यह किताब दैनिक रोज़मर्रा के अनावश्यक प्रलाप के बीच-बीच में सत्य कहती जैसी वाचाल अभिनय करती हुई ‘क्या लौटना वापसी है?’ तक 189 पृष्ठ की बर्बादी का सफ़र तय करती हुई समाप्त होती है। लेखक महोदय! आपके इस ‘दूर आसमान में’ की लेखनी से लौटना ज़रूर एक वापसी ही होगी कि आप उपन्यास शब्द की गंभीरता और अन्य तथ्यों से परिचित हो लें। इस पर बात करना मेरे लिए दुष्कर और इस समीक्षा के पाठकों के लिए अन्याय ही होगा। ऊपर लिखे जा चुके से ऊबने और थकने के बाद मैं इस किताब के लेखक को यही कह सकूँगा कि लौटना ज़रूर एक वापसी ही है। 

***

उपरोक्त चार पुस्तकें जो पंक्ति प्रकाशन के संकल्प उनके भविष्यगामी सोच का परिणाम हैं, पाठ की इच्छा के अंतर्गत ही मेरे हाथ लगीं। मैं यहाँ एक ज़रूरी बातचीत के लिए उपस्थित हो सकता था, लेकिन इन पुस्तकों ने मुझे अ-गंभीर किया और रचना की खोज को निराश! एक काव्यात्मक पंक्ति की तलाश में इन पुस्तकों से गुज़रना हुआ, लेकिन अफ़सोस कि मेरा दम एकदम फूल गया। इस अनुष्ठान में शामिल कवि, प्रकाशक, संपादक आदि के प्रति मेरी सहानुभूति है जो साहित्यिक समझ, चयन के अभाव और जल्दबाज़ी से जूझ रहे हैं। ऐसे में ये चार पुस्तकें साहित्यिक कृति के रूप प्रकाशित होकर, कवि-लेखक-मित्रों द्वारा कविता-रचना के बीच एक भ्रम की तरह पसर कर क्या कर रही हैं? इसे मैं यहाँ एक पाठकीय प्रश्न की तरह जोड़-छोड़कर इस लिखे का अंत करता हूँ।

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