मैंने हिंदी को क्यों चुना

मैंने हिंदी को क्यों चुना

रुकैया 07 दिसम्बर 2023

पत्रकारिता में स्नातक की डिग्री प्राप्त हुए मुझे लगभग दो साल पूरे हो चुके हैं। मेरे साथ के सभी सहपाठियों ने कहीं न कहीं दाख़िला ले लिया है और वे अक्सर पूछते हैं कि मैंने कहीं पर दाख़िला क्यों नहीं लिया!

मेरे पास उनके इस सवाल का बहुत साधारण-सा जवाब है, लेकिन मैं उन्हें देना नहीं चाहती; क्योंकि मेरे दिमाग़ में कुछ ऐसा चल रहा है जिसका कई बार मुझे ही इल्म नहीं होता। यह अज़ीब है, लेकिन ऐसा ही है। इसमें मैं कुछ नहीं कर सकती। इंसानी दिमाग़ ऐसे ही चलता है कि बहुत बार समझ ही नहीं आता कि आप ख़ुद से और अपनी ज़िंदगी से चाहते क्या हैं!

मैं पत्रकारिता की छात्रा रही हूँ। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के अम्बेडकर कॉलेज से हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार में ग्रेजुएट हूँ। पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद भी, पत्रकारिता न करने का फ़ैसला मैंने क्यों किया... यह सवाल हर दूसरा व्यक्ति मुझसे करता है, लेकिन इसका जवाब हर उस पत्रकारिता के छात्र को पता है जो मीडिया हाउस के अंदर सुबह से शाम तक अपना सिर खपाता है या कह लीजिए कि मसालेदार ख़बर ढूँढ़ता-लिखता-बनाता है।

बहरहाल, बहुत ज़्यादा सोच-विचार करने के बाद मैंने हिंदी में परास्नातक (मास्टर्स) करने का फ़ैसला लिया जिसकी वजह से मैंने दो साल तक किसी भी और विषय में दाख़िला नहीं लिया।

मेरे दोस्तों का अब तक पत्रकारिता में मास्टर्स हो भी चुका है, लेकिन मैं अभी भी बस पत्रकारिता की डिग्री के साथ एक छोटी-मोटी नौकरी कर रही हूँ और मास्टर्स में एडमिशन ले रही हूँ...

पत्रकारिता की पढ़ाई करते वक़्त जो चीज़ें दिमाग़ में चलती थीं, वे बेहद अद्भुत होती थीं। मैं आज जब उनके बारे में सोचती हूँ तो हँसी आ जाती है। मेरी इस बात को वे लोग अच्छे से समझ पाएँगे जो पत्रकारिता के छात्र रहे हैं। एक अलग तरह के जज़्बे के साथ हम क्रांतिकारी छात्र बनते हुए पत्रकारिता में दाख़िला लेते हैं, लेकिन पत्रकारिता पढ़ते-पढ़ते कुछ और ही बन जाते हैं... ‘इस कुछ और’ ने ही मुझे हिंदी चुनने पर मजबूर किया।

मैं जब पत्रकारिता पढ़ रही थी, उस दौरान ही एक रोज़ जब मैं कॉलेज से घर लौटी तो मुझे एक दौरा पड़ा और यह दौरा एक हफ़्ते में दुबारा पड़ा था। जब पहली बार पड़ा था तो मैं अपने घर पर नहीं थी। मैं अपने पड़ोस के घर में थी। यह पहला दौरा मुझे वॉशरूम में आया, इस वजह से किसी को यह समझ नहीं आया कि मेरे साथ क्या हुआ! बहुत देर तक वॉशरूम से बाहर न आने पर जब किसी ने अंदर आकर देखा तो मैं गिरी हुई पड़ी थी। इसके बाद घर के नज़दीकी डॉक्टर को बुलाकर मुझे दिखाया गया और डॉक्टर ने बताया कि कमज़ोरी के वजह से मुझे चक्कर आया और इसलिए मैं गिर गई थी। मुझे और मेरे परिवार को तब तक यह पता नहीं था कि मुझे दौरा पड़ा था।

इस घटना के कुछ रोज़ बाद मुझे दुबारा से दौरा पड़ा जो कि मुझे सबके सामने आया। मेरी हालत बहुत ख़राब हो चुकी थी। मेरा पूरा परिवार बहुत बुरी तरह से डर चुका था और उन्हें यह समझ नहीं आ रहा था कि मुझे क्या हो रहा है। मेरे घर में सब रो रहे थे और बुरी तरह चीख़-चिल्ला रहे थे। फिर मुझे जल्दी-जल्दी अस्पताल ले जाया गया, जहाँ पर मेरा सीटी स्कैन हुआ और जिसके बाद डॉक्टर ने कहा कि मेरा दिमाग़ी इलाज चलेगा। इसके बाद मुझे दूसरे अस्पताल भेज दिया गया।

दिल्लीवाले जानते होंगे कि दिलशाद गार्डन में एक सरकारी अस्पताल है—गुरु तेग बहादुर जिसे जीटीबी के नाम से जाना जाता है। उसके ही बराबर में एक अस्पताल है—इहबास (मानव व्यवहार और संबद्ध विज्ञान संस्थान) जिसमें सारे दिमाग़ी रोगों का इलाज होता है। मुझे जीटीबी से इहबास में भेजा गया, जहाँ पर मेरे तरह-तरह के टेस्ट हुए। जब सीटी स्कैन हुआ था पता तो तभी चल गया था कि मुझे दौरा पड़ा है, लेकिन इहबास के डॉक्टर्स ने कहा कि आपके कुछ बड़े टेस्ट होंगे उसके बाद ही हम आपको बता सकते हैं कि आख़िर आपको दौरा क्यों पड़ा।

मेरे परिवार ने जल्दी से जल्दी मेरे सारे टेस्ट करवाए और रिपोर्ट दिखाई तो डॉक्टर्स ने कहा कि इनके दिमाग़ की कुछ नसें डैमेज हो गई हैं जिसकी वजह से इनको दौरे पड़े हैं, आप बहुत ठीक समय पर इनको अस्पताल ले आए हैं... हम इलाज शुरू कर रहे है, लेकिन इलाज लंबा चलेगा। कम से कम तीन साल तक लगातार दवाई खानी होगी और एक भी दिन अगर दवाई न खाई तो दुबारा से दवाई का कोर्स शुरू करना पड़ेगा।

मेरी दवाई शुरू हो गई। इस शुरुआत के बाद मैं चीज़ें भूलने लगी और इस वजह से बहुत परेशान भी रहने लगी। मैंने डॉक्टर्स को अपनी परेशानी बताई तो उन्होंने मुझसे कहा कि जब हमारे शरीर के किसी अंग को चोट लग जाती है तो उसे भरने में वक़्त लगता है। आपके दिमाग़ की नसें चोटिल हैं, उन्हें ठीक होने में समय लगेगा।

इस दौरान ही इहबास अस्पताल के मनोचिकित्सक से भी मेरी बातचीत हुई। उन्होंने अकेले में मुझसे बैठकर बातें कीं और यह जानने की कोशिश की कि मेरे दिमाग़ में क्या चल रहा है और क्या मैं अवसादग्रस्त तो नहीं हूँ? मैं अवसादग्रस्त थी या शायद यह मेरे अवसादग्रस्त होने का शुरुआती दौर था... मुझे इस बारे में ज़्यादा पता नहीं है। हाँ, मैं इतना ज़रूर जानती हूँ कि मैं बहुत ज़्यादा सोचने लगी थी और इस वजह से ही मेरे साथ यह सब हुआ था। डॉक्टर्स से भी जब मैंने बात की तो उन्होंने भी यही कहा था कि ज़्यादा सोचने से मेरे साथ यह सब हो रहा है और मैं ख़ुद को ख़ुद ही ठीक कर सकती हूँ।

मैं अब सबके साथ होते हुए भी अकेला महसूस करती थी। ऐसा नहीं है कि मेरे पास दोस्तों की कमी थी, लेकिन मैं उन सबके बीच में होते हुए भी उन लोगों को अपने दिल की बात नहीं बता पा रही थी। जब आप स्कूल से निकलकर कॉलेज-लाइफ़ जी रहे होते हैं तो आप एक अलग तरह के माहौल में होते हैं। पता नहीं कॉलेज जाने के बाद लोग कैसे आराम से मज़े की ज़िंदगी बिताते हैं! मुझे उस वक़्त इतनी टेंशन होती थी कि कॉलेज पूरा होने का बाद मैं क्या करूँगी, मुझे कहाँ नौकरी मिलेगी, क्या मैं कुछ कर पाऊँगी भी या नहीं...

यों समय निकलता गया और कॉलेज पूरा हुआ जिसके बाद मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या आई कि मुझे इंटर्नशिप कहाँ मिलेगी? वेब ‘जनसत्ता’ में किसी तरह इंटर्नशिप मिल गई और कुछ महीने ‘जनसत्ता’ में इंटर्नशिप की जिसके बाद नौकरी ढूँढ़नी शुरू की।

पत्रकारिता में दाख़िला लेते समय छात्र सोचते हैं कि तीन साल पढ़ाई करने के बाद हमें एक अच्छे मीडिया हाउस में नौकरी मिल जाएगी, लेकिन जब हम बाहर की दुनिया में निकलते हैं; तब हमें पता चलता है कि बिना सोर्स के नौकरी मिलना बहुत मुश्किल होता है।

ख़ैर, कॉलेज ख़त्म होने के बाद मैंने एक छोटे-से वेब पोर्टल में काम करना शुरू किया जिसके बाद मैंने यह महसूस किया कि मीडिया में काम करना आसान नहीं होता क्योंकि आपको बहुत बार वह सब करना पड़ता है जो आप करना नहीं चाहते। मीडिया मैं बहुत प्रेशर होता है और एक स्वस्थ व्यक्ति ही वहाँ काम कर सकता है—मानसिक और शारीरिक रूप से बिल्कुल स्वस्थ, ताकि वह अपने काम के साथ न्याय कर सके।

यह बात भला किससे छुपी है कि मीडिया अब पहले जैसा बिल्कुल नहीं है। जैसा हमें मीडिया के बारे में पढ़ाया जाता है, वैसा बिल्कुल भी होता नहीं है या कम होता है। मीडिया में भी अब कॉल सेंटर की तरह टार्गेट दे दिया जाता है कि आपको रोज़ की इतनी ख़बर बनानी हैं। ख़बर कोई ऐसी चीज़ तो नहीं है कि जिसको हम अपने मन से लिख दें, लेकिन मीडिया हाउस में ऐसा ही करवाया जाता है। इस दौड़ में एक दूसरे से आगे भागने के चक्कर में किसी भी तरह की ख़बर बनाकर एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में हमेशा शामिल होना पड़ता है। नौकरी न चली जाए इसलिए आप ये सब कर तो लेते हैं, लेकिन आपका अंदर से मन नहीं करता। आपके दिमाग़ में हमेशा यही सवाल चलता है कि क्या मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई इसलिए ही की थी कि मैं ज़बरदस्ती ख़बर में मसाला डालूँ, कैची शीर्षक लिखूँ, क्यों मैं ऐसी ख़बर लिखूँ जो कि मैं नहीं लिखना चाहती। ऐसे ही ढेरों सवाल मेरे दिमाग़ में चलते थे और शाम होते-आते मैं बहुत थक जाती थी।

मीडिया में काम करने वाला व्यक्ति शारीरिक रूप से नहीं बल्कि मानसिक रूप से ज़्यादा थक जाता है जो कि मेरे साथ बहुत होता था। अगर आप ग़लती से लड़की हों तो उसमें और चार चाँद लग जाते हैं।

मीडिया में काम करने के दौरान मैं मानसिक रूप से बहुत ज़्यादा परेशान हो गई थी और मेरे सिर में काफ़ी दर्द होना शुरू हो गया था। डॉक्टर्स ने मुझे मना किया था कि मैं किसी भी तरह का तनाव न लूँ। इसलिए ही मेरा मन मीडिया से उठता जा रहा था और इस वजह से मेरा बिल्कुल मन नहीं था कि मैं पत्रकारिता में मास्टर्स करूँ, इसलिए मैं दो साल तक पढ़ाई से दूर रही। किसी दूसरे विषय में एडमिशन भी इसलिए नहीं लिया, क्योंकि पहले तो समझ नहीं आ रहा था कि अगर पत्रकारिता नहीं तो मुझे और क्या पढ़ना चाहिए?

मैंने अपने कुछ सीनियर्स और दोस्तों से कहा कि अगर कोई जॉब हो तो बताना। ‘रेख़्ता फ़ाउंडेशन’ में एक सीनियर ने मेरा सीवी भेजा और एक रोज़ अचानक से मेरे पास कॉल आई कि आपको इंटरव्यू के लिए ‘रेख़्ता’ आना है। इसके बाद मैंने ‘रेख़्ता फ़ाउंडेशन’ की ‘हिन्दवी’ वेबसाइट्स में काम शुरू किया, क्योंकि मुझे हिंदी साहित्य में पहले से रुचि थी। कुछ उपन्यास और कहानियाँ मैंने पत्रकारिता के दौरान पढ़ी थीं, हालाँकि ज़्यादा साहित्य मैंने तब तक पढ़ा नहीं था। ‘हिन्दवी’ के लिए काम करते समय हिंदी साहित्य को मैंने और नज़दीक से पढ़ा। इसके बाद मैंने सोचा कि क्यों न हिंदी मैं मास्टर्स कर लिया जाए। कुछ सीनियर्स से बात की तो उन्होंने भी राय दी कि तुम्हारे लिए हिंदी मैं एम.ए. करना बहुत सही रहेगा, क्योंकि तुम हिंदी साहित्य से लगातार जुड़ी हुई हो और उसमें ही काम कर रही हो तो हिंदी तुम्हारे लिए सही है। तुम हिंदी में अपना भविष्य बना सकती हो, क्योंकि तुम्हारे पास काम के साथ-साथ हिंदी की डिग्री भी होगी।

इसके बाद मैंने ख़ुद सोच-विचार किया और दिल्ली विश्वविद्यालय में एम.ए. हिंदी में दाख़िला ले लिया। इस तरह से हिंदी साहित्य को आज मैं एक अलग ढंग से पढ़-समझ रही हूँ।

नौकरी और पढ़ाई दोनों एक साथ करना आसान नहीं होता। आपको बहुत बार जिस जगह होना चाहिए, आप वहाँ नहीं हो पाते... और यह कोई नई बात तो नहीं है, ऐसा अक्सर बहुतों के साथ और बहुत बार होता है।

मेरे लिए यह फ़ैसला लेना आसान नहीं रहा कि मुझे रेगुलर एम.ए. (हिंदी) करना चाहिए या फिर एनसीवेब (नॉन कॉलेजिएट महिला शिक्षा बोर्ड) से... हालाँकि ओपन से परास्नातक करने का विकल्प हमेशा से मेरे पास रहा है, लेकिन मुझे यह विकल्प कभी पसंद नहीं आया। व्यक्तिगत तौर पर मैं कभी भी ओपन से पढ़ाई करने के पक्ष में नहीं रही हूँ... बाक़ी सबकी अपनी-अपनी वजह होती हैं—रेगुलर और ओपन से पढ़ाई करने को लेकर... इसलिए मैं इस विषय पर कोई विशेष टिप्पणी नहीं करना चाहती।

यहाँ जिन लोगों को पता नहीं है, उन्हें मैं यह बता दूँ कि दिल्ली विश्वविद्यालय के माध्यम से आप तीन तरह से स्नातक और परास्नातक की डिग्री प्राप्त कर सकते हैं—एक तो आप रेगुलर कॉलेज में एडमिशन ले सकते हैं, दूसरा अगर आप स्त्री हैं तो आपको नॉन कॉलेजिएट महिला शिक्षा बोर्ड के अतंर्गत दाख़िला मिल सकता है, तीसरा और आख़िरी तरीक़ा यह है कि आप स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग (एसओएल) के माध्यम से स्नातक और परास्नातक में दाख़िला ले सकते है।

मैंने जब यह सोचा कि हिंदी में परास्नातक करना चाहिए तो मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल यही था कि मैं रेगुलर से एम.ए. करूँ या फिर एनसीवेब से, क्योंकि दोनों का पाठ्यक्रम एक समान है और मुझे जितना बताया गया था उसके आधार पर दोनों डिग्री की मान्यता भी बराबर होती है। लेकिन दोनों में एक फ़र्क़ होता है कि रेगुलर में आपकी रोज़ क्लास होती है, जबकि एनसीवेब में हफ़्ते में दो दिन (शनिवार और रविवार को) क्लास होती है या जब रेगुलर कॉलेज की छुट्टी होती है, तब एनसीवेब वाले छात्राओं की रेगुलर क्लास हो जाती है।

मेरी एक बहुत ख़ास दोस्त है। हम दोनों का नाम दिल्ली विश्वविद्यालय के कई रेगुलर कॉलेज में आ चुका था और वह मुझे समझा रही थी कि मैं रेगुलर में दाख़िला ले लूँ। उसका कहना था कि मैं रेगुलर कॉलेज और नौकरी दोनों को एक साथ मैनेज कर सकती हूँ। लेकिन मुझे पता था कि मेरे लिए दोनों को एक साथ मैनेज करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसलिए मैंने उससे कहा कि एनसीवेब में दाख़िला लिया जाए, ओपन से तो सही रहेगा—कम से कम में हफ़्ते में दो दिन क्लास ले पाऊँगी और नौकरी भी नहीं छोड़नी पड़ेगी।

मैंने बहुत सोच-विचार करने के बाद एनसीवेब में दाख़िला ले लिया, क्योंकि रेगुलर में अगर मैं एडमिशन लेती तो मुझे नौकरी छोड़नी पड़ती जो कि मैं नहीं छोड़ सकती थी। नौकरी के साथ पढ़ाई करना अपने आपमें एक बड़ी बात होती है। पता नहीं लोगों को मेरी यह बात इतनी सही लगेगी या नहीं, लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि नौकरी और पढ़ाई दोनों एक साथ करना सबके बस की बात नहीं है; क्योंकि एक नौकरीशुदा व्यक्ति रोज़ की भागदौड़ से इतना थक जाता है कि घर लौटकर उसे पढ़ाई भी करनी है, यह बात वह बिल्कुल भूल ही जाता है।

अब अगर कोई यह कहता है कि ऑफ़िस से घर आने के बाद बहुत समय होता है, उसमें आप आराम से अपना सिलेबस कवर कर सकते हैं, तो मैं उसे यह बता दूँ कि ऑफ़िस से घर आकर भी घर के बहुत से ऐसे काम होते हैं जो स्त्रियों को करने पड़ते हैं और इन कामों से किसी भी सूरत में इनकार नहीं किया जा सकता और न ही इन्हें कल के लिए स्थगित किया जा सकता है।

नौकरी, पढ़ाई, घर का काम एक साथ सँभालना आसान तो नहीं है; लेकिन करना पड़ता है, क्योंकि आप इनमें से किसी भी चीज़ को छोड़कर नहीं चल सकते। सबका मुझे पता नहीं, लेकिन मैं जिस तरह की इंसान हूँ—मेरे लिए यह बहुत मायने रखता है कि मैं ख़ुद को समय के साथ ढाल सकूँ और अपना मानसिक विकास करती रहूँ।

मेरे लिए किसी विषय की पढ़ाई का अर्थ है—उस विषय का पूर्ण अध्ययन करना, उससे जुड़ी बातों पर तर्क-वितर्क करना... और यह मैं अकेले घर पर बैठकर नहीं कर सकती। और शायद यही कारण है कि मैं कभी ओपन से पढ़ाई करना नहीं चाहती। आपका बाहर निकलना और दुनिया को समझना बहुत ज़रूरी होता है; क्योंकि आप जिस समाज में रह रहे होते हैं, वहाँ पर क्या चल रहा है, इसका ज्ञान आपको होना चाहिए।

ख़ैर, हिंदी पत्रकारिता पढ़ते समय हमें एक हिंदी का पेपर भी पढ़ाया गया था; ग़नीमत है जिसकी वजह से मुझे हिंदी परास्नातक में दाख़िला मिल पाया। मैं जब विश्वविद्यालय दाख़िला लेने पहुँची तो वहाँ पर मेरे अलावा सभी छात्राएँ हिंदी ऑनर्स या फिर बी.ए. प्रोग्राम वाली थीं। बेहद जद्दोदहद के बाद मेरा नंबर आया, मुझे दाख़िले के लिए अंदर बुलाया गया। ...और इस तरह से मैंने हिंदी परास्नातक में दाख़िला ले लिया।

ज़िंदगी हमारी सोच के परे चलती है, यह बात हम जितनी जल्दी समझ लेते हैं, उतना ही हमारे लिए अच्छा होता है। हर बार आपकी बनाई हुई योजना काम कर जाए ऐसा नहीं होता... कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ।

मैं फ़र्स्ट डे फ़र्स्ट क्लास नहीं ले पाई थी, क्योंकि उस समय मैं ऑफ़िस में थी और इस वजह से शुरुआत की एक-दो क्लास लेना मेरे लिए मुमकिन नहीं हुआ। मुझे बहुत बुरा लगता है कि जब मैं क्लास नहीं ले पाती। लेकिन सारी चीज़ें देखनी पड़ती हैं।

एक दिन शनिवार को ऑफ़िस का हाफ़ डे था तो मैं जल्दी-जल्दी ऑफ़िस से निकली। नोएडा के सेक्टर-16 मेट्रो स्टेशन से मैंने विश्वविद्यालय के लिए मेट्रो पकड़ी और किसी तरह से मैं विश्वविद्यालय पहुँच गई। हालाँकि मैं यह जानती थी कि मैं एक ही क्लास ले पाऊँगी, क्योंकि तीन बजे के लगभग मैं विश्वविद्यालय पहुँची थी और तब तक मेरी दो विषयों की क्लास हो चुकी थी और तीसरे विषय की शुरू होने वाली थी।

एनसीवेब की वेबसाइट पर एक नोटिस आया था जिसके द्वारा मुझे यह पता चला था कि कहाँ पर क्लास होंगी और कितने बजे किस विषय की क्लास होगी। मैं पहली बार क्लास लेने जा रही थी, इसलिए मुझे यह नहीं पता था कि जिस जगह पर क्लास होनी है, उस जगह पर कैसे जाया जाए, जिसकी वजह से मैं लेट भी हो रही थी; लेकिन मैं विद्यार्थियों से पूछते-पूछते अपनी क्लास तक पहुँच ही गई थी।

मुझे क्लास में देर से जाना बिल्कुल पसंद नहीं है। यह बहुत अजीब लगता है, क्योंकि प्रोफ़ेसर पढ़ा रहे होते हैं और एकदम से आप क्लास को बीच में डिस्टर्ब कर देते हैं तो पूरी क्लास की नज़रें आप पर टिक जाती हैं। यह मुझे एक बहुत परेशान करने वाला अनुभव लगता है। इसलिए इस तरह की नज़रों से मैं हमेशा बचने की कोशिश करती आई हूँ। आप पहली बार क्लास लेने जा रहे हो और लेट हो जाओ तो पहले तो आप ख़ुद को एडजस्ट करने की कोशिश करते हैं। इसके बाद आपका ध्यान इस तरफ़ जाता है कि प्रोफ़ेसर साहब क्या पढ़ा रहे है!

अच्छा मैं आपको बता देती हूँ कि अगर आप एम.ए. हिंदी में करते हैं तो आपको दो साल तक हिंदी साहित्य से जुड़े सभी विषयों पर पढ़ाया जाता है और सेमेस्टर में आपको चार से पाँच पेपर दिए जाते हैं जो कि आपको पढ़ने पड़ते हैं। इसलिए हमें भी पहले सेमेस्टर में पढ़ने के लिए पाँच पेपर दिए गए थे जो कि इस तरह से थे :

● हिंदी साहित्य का इतिहास (आदिकाल से रीतिकाल तक)

● आदिकालीन हिंदी काव्य

● भक्तिकालीन हिंदी काव्य

● हिंदी कथा-साहित्य

● भारतीय काव्यशास्त्र (जो कि मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था और न आज है।)

ख़ैर, पहली क्लास जिससे मैं गुज़री थी, वह ‘हिंदी साहित्य का इतिहास (आदिकाल से रीतिकाल तक)’ की थी। इस क्लास को एक महिला प्रोफ़ेसर ले रही थीं। पहली बात कि मुझसे पहले कुछ क्लासेस छूट गई थीं और दूसरी बात कि मैं क्लास में देर से पहुँची थी, इस वजह से मुझे बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था कि क्लास में किस विषय पर बातचीत हो रही है। बहुत देर के बाद मुझे समझ आया कि मै’म सिलेबस के हिसाब से तो पढ़ा रही हैं, लेकिन टॉपिक कुछ आगे-पीछे करके पढ़ा रही हैं।

अच्छा जिन विद्यार्थियों ने बी.ए. हिंदी में किया था, उनको आसानी से क्लास में पढ़ाई जा रही चीज़ें समझ में आ रही थीं, शायद बस एक मैं ही थी जिसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। एकबारगी मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी ग़लत क्लास में तो नहीं बैठ गई।

किसी तरह क्लास ख़त्म हुई। इसके बाद मैं एक लड़की से मिली, जिसका नाम दुर्गेश्वरी है। दुर्गेश्वरी पहली ऐसी लड़की थी, जिससे मैंने क्लास में बातचीत करना शुरू किया था। दरअस्ल, क्लास का एक व्हाट्सएप ग्रुप बन रहा था, जिसमें वह सबके फ़ोन नंबर एड कर रही थी।

क्लास लेकर जब मैं बाहर निकली तो मेरी दुर्गेश्वरी से क्लास, टीचर और टाइमिंग को लेकर बातचीत होना शुरू हुई। मैं और दुर्गेश्वरी बस स्टैंड तक साथ गए और हमने बहुत से विषयों पर बात की। दुर्गेश्वरी से बातचीत का अनुभव बहुत अलग रहा है। दुर्गेश्वरी जैसी लड़कियाँ हमारे समाज में बहुत कम होती हैं... यह बात उससे बातचीत के बाद मुझे अच्छे से समझ आ गई थी।

दुर्गेश्वरी के साथ पहली मुलाक़ात को दोस्ती का नाम तो नहीं दे सकते, लेकिन हाँ वह पहली ऐसी लड़की थी—क्लास की—जिसका नंबर मेरे फ़ोन में था और जिससे मैं क्लास और पढ़ाई को लेकर बात करती थी।

दुर्गेश्वरी स्वभाव की बहुत अच्छी लड़की है... यह लोगों को उससे बात करने के बाद पता चलता है, लेकिन उससे पहले लोग उसकी तरफ़ उसके बालों को देखकर आकर्षित होते हैं; क्योंकि उसके बाल बहुत ख़ूबसूरत और लंबे हैं। शायद उसकी तरफ़ आकर्षित होने का पहला कारण यही है! बाक़ी दुर्गेश्वरी बहुत अच्छी कविताएँ भी लिखती है और बहुत ही सुंदर तरीक़े से कविता-पाठ भी करती है।

अगली क्लास रविवार की थी, इसलिए मैं सुबह ही क्लास लेने के लिए पहुँच गई थी। उस क्लास में मेरी कुछ और लोगों से मुलाक़ात हुई। मेरी कक्षा में बहुत से ऐसे विद्यार्थी हैं जो एक कॉलेज से पढ़कर आए हैं, इसलिए वे क्लास में पहले से ही दोस्त बने हुए थे।

मैं उस दिन उस क्लास में बहुत अकेला महसूस कर रही थी। मैं हमेशा से बहुत सारे दोस्तों के बीच में रही हूँ। मेरे हमेशा से बहुत सारे दोस्त रहे हैं, इसलिए मैंने कभी ऐसा अकेलापन उस दिन से पहले महसूस नहीं किया था। हाँ, ऐसा ज़रूरी नहीं है कि कहीं पर जाकर आपके एकदम से दोस्त बन जाएँ, लेकिन ऐसे कभी अकेले बिना किसी दोस्त के मैं क्लास में कभी बैठी नहीं, इसलिए मुझे बहुत अकेलापन महसूस हुआ।

ग्रेजुएशन में क्लास के पहले दिन ही जिस लड़की से मेरी बातचीत हुई थी, वह आज मेरी बेस्ट फ़्रेंड है और उसकी वजह से ही मेरा ग्रेजुएशन बहुत यादगार बना... इसलिए जब मैं एम.ए. की क्लास में थी तो मुझे मेरे दोस्त मीना, निशा और नूरीन की बहुत याद आई। हर सूरत इन तीनों ने मेरा ग्रेजुएशन के दौरान बहुत ध्यान रखा था।

आपकी ज़िंदगी में अगर कुछ बदलाव होते हैं तो वह एकदम नहीं हो जाते, उनके पीछे काफ़ी समय और संघर्ष लगा होता है; बस हमें पता नहीं चलता...

स्कूल और कॉलेज तक मैंने हिंदी को सिर्फ़ उतना ही पढ़ा जितना हमें पढ़ाया गया और जितने की ज़रूरत उस समय महूसस होती थी या यूँ कह लीजिए पेपर में लिखने मात्र के लिए जितने की ज़रूरत पड़ती थी।

मैंने स्कूल में जो हिंदी साहित्य पढ़ा, उसका बेहतर मतलब अब जाकर समझ में आता है। ऐसा नहीं है कि उस समय स्कूल के सिलेबस में जो कहानी, कविता, दोहे, पद आदि लगाए जाते थे; वे बहुत मुश्किल होते थे या अध्यापक उसे अच्छे से समझा नहीं पाते थे... बात यह है कि बस उस समय विद्यार्थियों का मानसिक विकास हो रहा होता है, इसलिए साहित्य को पढ़कर जो समझ बाद में बनती है; वह उस दौरान नहीं बन पाती।

हाँ कुछ कहानी, कविता, दोहे आदि की छाप दिमाग़ में ज़रूर रह जाती है जो कि उस वक़्त भी हमें कुछ सोचने पर मजबूर करती थी; जैसे : कबीर के दोहे, प्रेमचंद की कहानियाँ, सुभद्राकुमारी चौहान की कविता ‘झाँसी की रानी’ आदि ऐसा ही हिंदी साहित्य है; जिसने उस समय मुझे सोचने के लिए मजबूर किया था।

आज भी जब मैं एम.ए. हिंदी साहित्य की क्लास में बैठती हूँ, तो मुझे अपने स्कूल के दिनों के हिंदी पीरियड की याद आ जाती है। कैसे मैं क्लास में खड़ी होकर रीडिंग करती थी और पूरी क्लास का ध्यान इस ओर होता था कि मैं क्या पढ़ रही हूँ। उस समय क्लास में रीडिंग करते-करते अचानक से आँखों के सामने जो होता था, मैं उसको कुछ और पढ़ देती थी और आज भी कभी-कभी वही चीज़ मेरे साथ होती है। इस बात को मैं आज तक समझ नहीं पाई कि ऐसा क्यों होता है। शायद पढ़ते-पढ़ते ध्यान कहीं ओर चला जाता होगा। मुझे यह बात सोचकर ख़ुद पर बहुत हँसी भी आती है। अब आप लोग यह मत सोचने लग जाना कि मुझे दिखता नहीं है।

मुझे ऐसा लगता है कि आप किसी भी क्लास में बैठ जाओ, लेकिन स्कूल के दिनों की यादें कुछ ऐसी होती हैं जो आपके साथ हमेशा रहती हैं और समय-समय पर वे आती हैं और आपको एक पुरानी दुनिया में ले जाती हैं।

कॉलेज के शुरुआती दिनों में हमें एक टाइम टेबल दिया गया और साथ ही हमारे साथ एक अजीब-सी घटना घटी। मेरे लिए तो वह अजीब ही थी, लेकिन प्रोफ़ेसर का कहना था कि एम.ए. की क्लासेज़ में अध्यापक को गाइड के रूप में लेना चाहिए, क्योंकि एम.ए. के स्तर की पढ़ाई करते समय हमें ख़ुद से ही ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है। अध्यापक सिर्फ़ सलाहकार का काम कर सकते हैं।

ख़ैर, मैं इस प्रसंग को अजीब इसलिए कह रही हूँ; क्योंकि आज से पहले ऐसा कभी मेरे साथ नहीं हुआ था। जैसा कि पहले भी मैं आपको बता चुकी हूँ—पहले सेमेस्टर में हमें पाँच पेपर पढ़ने थे और सिर्फ़ तीन पेपर पढ़ाने के लिए हमें प्रोफ़ेसर मुहैया हुए थे। अब मुझे यह नहीं पता कि विश्वविद्यालय ने सिर्फ़ एन.सी. वेब के विद्यार्थियों के साथ ही ऐसा किया था या फिर रेगुलर स्टूडेंट के साथ भी यही किया गया था।

आप यक़ीन नहीं करेंगे कि आदिकाल और भक्तिकाल को पहले सेमेस्टर में मैंने ख़ुद से पढ़ा और समझा। इससे पहले मैंने कभी आदिकाल को इस रूप में नहीं पढ़ा था।

जब पहले सेमेस्टर में आदिकाल के लिए हमें प्रोफ़ेसर नहीं मिले तो क्लास के सारे बच्चों के बीच बहुत तनाव का माहौल पैदा हो गया था, क्योंकि हिंदी साहित्य का आदिकाल आसान नहीं है; उसकी भाषा खड़ी बोली हिंदी नहीं होती। उसे पढ़ने और समझने के लिए आपको एक टीचर या गाइड की ज़रूरत पड़ती ही है।

आदिकाल से ‘सरहपा का दोहाकोश’, ‘गोरखनाथ की गोरखबानी’ इन दोनों ही किताबों के बारे में मैंने पहली बार सुना था, इससे पहले मुझे पता भी नहीं था कि हिंदी साहित्य में हमें सिद्धों और नाथों को भी पढ़ना पड़ेगा।

एम.ए. की दूसरी क्लास में मुझे प्रोफ़ेसर से रूह-ब-रूह होना का मौक़ा मिला और उन्हीं में से एक प्रोफ़ेसर का व्यक्तित्व एवं पढ़ाने का तरीक़ा मुझे बहुत पसंद आया। कोई एक पेपर या विषय आपका मनपंसद इसलिए भी बन जाता है, क्योंकि उसको पढ़ाने वाला टीचर आपका प्रिय होता है।

ऐसे ही एक प्रोफ़ेसर से पढ़ने का सौभाग्य मुझे एम.ए. हिंदी फ़र्स्ट सेमेस्टर में मिला, जिनका नाम डॉ. हरनेक सिंह गिल है। सर ने दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘श्री गुरू नानक देव खालसा कॉलेज’ में 39 साल तक एम.ए. के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाई और वहीं से सेवानिवृत्त हुए। इसके साथ ही उन्होंने लगभग 15 साल तक ‘स्कूल ऑफ़ ओपन लर्निंग’ में एम.ए. के विद्यार्थियों को हिंदी और पत्रकारिता भी पढ़ाई और साल 2019 से वह एन.सी. वेब में हिंदी पढ़ा रहे हैं।

हिंदी साहित्य के बड़े साहित्यकारों और आलोचकों के बारे में सर अक्सर क्लास में अपने अनुभव साझा करते हैं। वह बीच-बीच में पढ़ाते-पढ़ाते अपने अध्यापक डॉ. नगेन्द्र, भाषा-वैज्ञानिक डॉ भोलानाथ तिवारी, डॉ. निर्मला जैन आदि के बारे में भी बताते हैं। वह बहुत ख़ुशी से हम लोगों के साथ यह सब कुछ शेयर करते हुए अपने पुराने दिनों को याद करते हैं।

उनका पढ़ाने का ढंग दूसरे प्रोफ़ेसरों से इसलिए भी अलग है, क्योंकि वह अपने विषय के अलावा अन्य बहुत से ज़रूरी विषयों की जानकारी पढ़ाते-पढ़ाते छात्रों को दे देते हैं।

अब तक मैं जितने भी प्रोफ़ेसर या टीचर्स से पढ़ी हूँ, उन सभी में से सबसे अलग और मेरे प्रिय प्रोफ़ेसर डॉ. हरनेक सिंह गिल सर ही रहे हैं, क्योंकि उनका पढ़ाने और चीज़ों को प्रस्तुत करने का तरीक़ा मुझे बहुत ज़्यादा पसंद आता है। लगभग 68 साल की उम्र होने के बावजूद उनमें आज भी पढ़ने-पढ़ाने का जो जज़्बा मुझे दिखता है, वह किसी नौजवान में भी दुर्लभ है।

कभी-कभी आप बिल्कुल अकेले होते हैं, लेकिन फिर भी आपको अकेलापन महसूस नहीं होता। आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि आपके पास सुकून होता है।

सुकून क्या है? इसकी परिभाषा और अर्थ क्या है? इसके जवाब सबके लिए अलग-अलग हो सकते हैं। जैसे मेरे लिए मंडी हाउस की सड़कों पर टहलना सुकून भरा हो सकता है, लेकिन शायद आपको उससे सुकून न मिले...

मुझे कई बार एम.ए. की क्लास में भी बहुत सुकून मिला है, क्योंकि इससे मुझे कई नई-नई चीज़ें जानने के लिए मिलीं। इससे मेरे अध्ययन का विस्तार हुआ। कुछ अलग तरह के लोगों को देखने और उनसे जुड़ने का अवसर मिला।

इस सिलसिले में पहले सेमेस्टर में मैंने एक पेपर पढ़ा, जिसका नाम था हिंदी साहित्य का इतिहास (आदिकाल से रीतिकाल तक)। इसकी पहली ही क्लास में हमें यह बताया गया कि हिंदी साहित्य को समझने के लिए हमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखी गई उनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ को पढ़ना होगा।

आचार्य शुक्ल हिंदी के अप्रतिम आलोचक, निबंधकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि हैं। शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य को जिस तरह प्रस्तुत किया, उस तरह आज तक शायद ही कोई दूसरा कर पाया।

हाँ, शुक्ल जी से पहले और बाद में दूसरे बहुत से आलोचक और साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य के इतिहास पर काफ़ी किताबें लिखीं, लेकिन जिस तरह का योगदान आचार्य शुक्ल का हिंदी साहित्य के इतिहास को लिखने में रहा; शायद ही वैसा किसी और साहित्यकार का रहा होगा।

आचार्य शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ दरअस्ल ‘हिंदी शब्द सागर’ की भूमिका के रूप में लिखा था। यही भूमिका बाद में स्वतंत्र पुस्तक की तरह वर्ष 1929 में ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ के रूप में प्रकाशित हुई।

‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ का संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण वर्ष 1940 में निकला। यह संस्करण प्रथम संस्करण से भिन्न था। इस संस्करण में अन्य चीज़ों के अलावा 1940 तक के हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक विवरण भी दे दिया गया था। इस तरह साहित्येतिहास की यह पुस्तक अब एक मुकम्मल और महत्त्वपूर्ण पुस्तक का रूप ले चुकी थी।

इस ग्रंथ में आदिकाल (वीरगाथा काल) का अपभ्रंश काव्य एवं देशभाषा काव्य के विवरण के बाद भक्तिकाल की ज्ञानमार्गी, प्रेममार्गी, रामभक्ति शाखा, कृष्णभक्ति शाखा और इस काल की अन्य रचनाओं को अध्ययन के केंद्र में रखा गया है।

इसके बाद रीतिकाल के सभी लेखक-कवियों के साहित्य को इसमें समाहित किया गया है और आधुनिक काल के गद्य साहित्य, उसकी परंपरा तथा उत्थान के साथ काव्य को विवेचित किया गया है।

शुक्ल जी ने अपनी इस पुस्तक में लगभग 1,000 रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व का विवेचन किया है और कवियों की संख्या की अपेक्षा उन्होंने उनके साहित्यिक मूल्यांकन को महत्त्व दिया है। हिंदी साहित्य के विकास में विशेष योगदान देने वाले रचनाकारों को ही शुक्ल जी ने इस पुस्तक में शामिल किया है और कम महत्त्व वाले रचनाकारों को इसमें जगह नहीं दी है या दी है तो कम जगह दी है।

शुक्ल जी द्वारा इस पुस्तक में कवियों एवं लेखकों की रचना-शैली का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। इसमें प्रत्येक काल या शाखा की सामान्य प्रवृत्तियों का वर्णन कर लेने के बाद, उससे संबद्ध प्रमुख कवियों का वर्णन किया गया है। उस युग में आने वाले अन्य कवियों का विवरण उसके बाद के फुटकल भाग में दिया गया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संपूर्ण हिंदी साहित्य को अच्छी तरह से समझने के लिए 900 वर्षों के इतिहास को चार कालों में विभक्त किया है :

● आदिकाल (वीरगाथा, काल संवत् 1050-1375)

1. सामान्य परिचय
2. अपभ्रंश काव्य
3. देशभाषा काव्य
4. फुटकल रचनाएँ

● पूर्व-मध्यकाल (भक्तिकाल, संवत् 1375-1700)

1. सामान्य परिचय
2. ज्ञानाश्रयी शाखा
3. प्रेममार्गी (सूफ़ी) शाखा
4. रामभक्ति शाखा
5. कृष्णभक्ति शाखा
6. भक्तिकाल की फुटकल रचनाएँ

● उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, संवत् 1700-1900)

1. सामान्य परिचय
2. रीति ग्रंथकार कवि
3. रीतिकाल के अन्य कवि

● आधुनिक काल (गद्यकाल, संवत् 1900-1984)

1. सामान्य परिचय : गद्य का विकास
2. गद्य साहित्य का आविर्भाव
3. आधुनिक गद्य साहित्य परंपरा का प्रवर्तन प्रथम उत्थान (संवत् 1925-1950)
4. गद्य साहित्य परम्परा का प्रवर्तन : प्रथम उत्थान
5. गद्य साहित्य का प्रसार द्वितीय उत्थान (संवत् 1950-1975)
6. गद्य साहित्य का प्रसार
7. गद्य साहित्य की वर्तमान गति तृतीय उत्थान (संवत् 1975 से)

आचार्य शुक्ल ने यह काल-विभाजन और नामकरण साहित्य की प्रवृत्ति और विशेषताओं को आधार मानकर किया है। शुक्ल जी द्वारा किए गए नामकरण से अधिकतर साहित्यकार और आलोचक सहमत थे, लेकिन जिन आलोचकों को उनके द्वारा दिए गए नामकरण से दिक़्क़त थी; उन्होंने तर्क देते हुए प्रवृत्ति के आधार पर ही अन्य अलग नामकरण किए।

शुक्ल जी ने इस पुस्तक में हिंदी साहित्य के पहले काल को वीरगाथाकाल कहा, लेकिन आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने शुक्ल जी के वीरगाथाकाल को आदिकाल नाम दिया। इसी तरह अन्य आलोचकों ने भी अपने-अपने तर्कों के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार के नामकरण किए।

शुक्ल जी द्वारा रचित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ बहुत गहन शोध का नतीजा है। कहना न होगा कि यह शोध सिर्फ़ शुक्ल जी का नहीं; बल्कि उन सभी साहित्यकारों का भी है जिन्होंने शुक्ल जी से पहले हिंदी साहित्य के इतिहास पर शोध किया, सारी साहित्यिक सामग्री को ढूँढ़ा और एक जगह इकट्ठा किया। इस सरोकारमय श्रम की वजह से ही आज हमें ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ उल्लेखनीय समग्रता और पूरी प्रामाणिकता के साथ व्यवस्थित रूप में उपलब्ध है।

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