दफ़्तर की दास्तान
                                                    
                                                         दीपांकर शिवमूर्ति
                                                                                                    11 जुलाई 2024
                                            
                                        
                                        पांचाली और नगरवधू
हमारे काडर में दफ़्तरों की दो कोटियाँ थीं। छोटे दफ़्तर-आईएसओ, जिनमें अनुवादकों की संख्या कम होती थी। उसके बरअक्स मुख्यालय जहाँ अनुवादक इफ़रात में रहते थे।
 
एक बार बातों-बातों में आईएसओ में काम करने वाले एक सीनियर अनुवादक ने दुखी स्वर में कहा, “तुम्हें पता है, यहाँ रिपोर्टिंग ऑफ़िसर से लेकर डीजी तक पूरे चैनल में पाँच बॉस हैं। मेरी हालत तो पांचाली जैसी हो जाती है!”
“अगर आपकी हालत पांचाली जैसी है, तो मुख्यालय में काम करने वाले हम जैसे लोग तो नगरवधू हैं।”—मैंने हँसते हुए कहा। 
शरारती शिकायत
आकर्षक व्यक्तित्व वाली मेरी बॉस अपने कथित अफ़ेयर्स के इर्द-गिर्द होने वाली गॉसिप से तंग रहती थीं। इस चक्कर में उनको अक्सर बिना किसी संदर्भ-प्रसंग के सफ़ाइयाँ पेश करनी पड़ती थीं। 
“मेरे साथ काम करने वाले हर आदमी का नाम मेरे साथ जोड़ दिया जाता है, जैसे फ़्लर्ट करने के अलावा मेरे पास कोई काम ही ना हो। वर्क प्लेस पर मैं मर्दों के साथ डील करने से भाग थोड़े न सकती हूँ।”—यह कहते-कहते उन्होंने कई पुरुषों के नाम ऐसे गिनाए जैसे पाँच का पहाड़ा पढ़ रही हों। 
मुझे ताज्जुब हो रहा था कि कहीं यह एक क़िस्म का क़बूलनामा तो नहीं, फिर भी स्वतःस्फूर्त कहा—“अरुंधति रॉय ने अपने ख़िलाफ़ बार-बार लगने वाले देशद्रोह के आरोपों की धार को कुंद करने, बल्कि उसका मज़ाक़ उड़ाने की ग़रज़ से ‘माई सेडिशियस हार्ट’ नाम से किताब लिख दी थी। आप क्यों नहीं आज़मातीं—‘माई फ़्लर्टेशियस हार्ट’!”
लंच के बाद का सत्र
एक महिला अधिकारी जिन्हें बहुत ही ग़ुस्सैल और तुनुक-मिज़ाज माना जाता था, वह अपने पुरुष सहकर्मियों और मातहतों को अपनी हील से पीटने के लिए कुख्यात थीं। लोग—ख़ासतौर पर पुरुष—उनसे ख़ौफ़ खाते थे। बेशक, मैं भी कोई अपवाद नहीं था। चुनाँचे जब वह अच्छे मूड में होती थीं, तो मैं थोड़ी छूट ले लिया करता था।
  
लंच के बाद की बातचीत में, जब सेक्शन वाले साथ में बैठे होते थे तो वो कहतीं—“जब मुझे बहुत बेचैनी होती है, तो मैं सफ़दरजंग अस्पताल चली जाती हूँ। वहाँ भयंकर दर्द और जानलेवा बीमारियों से पीड़ित मरीज़ों को देखकर मैं दुनियादारी से विमुख हो जाती हूँ। आख़िर दुनिया में रखा ही क्या है? उसके बाद, मैं कम से कम तीन-चार सप्ताह तक शांत और विरक्त हो जाती हूँ।”
“मैडम, आप वहाँ ज़्यादा फ़्रीक्वेंटली क्यों नहीं जातीं?”
जब लोग जोर-जोर से हँसने लगे, तभी उन्हें मेरा मज़ाक़ समझ में आया। वह आहिस्ते से उदारतापूर्वक मुस्कुराई, लेकिन मुझे अपनी सीट छोड़कर वहाँ से भागना पड़ा।
पूर्ण चक्र
जैसे ही मैंने उस आदमी का ज़िक्र किया, वह अपना आपा खो बैठीं। नहीं तो, मेरी पूर्व बॉस एक प्रतिष्ठित अधिकारी और एक मर्यादित महिला थीं। 
गोपेश, जिस व्यक्ति से मेरी ऑफ़िस ज़्वॉइन करने के एक हफ़्ते के भीतर दोस्ती हुई थी, वह पड़ोस के एक दफ़्तर में काम करते थे। पहली मुलाक़ात में ही मुझे पता चल गया था कि हमारी एक-दूसरे के साथ अच्छी निभेगी। कथित तौर पर मेरी पूर्व बॉस का नाम उनके साथ जोड़ा जाता था।
 
हालाँकि उन्होंने मुझे कभी सीधे तौर पर नहीं कहा, लेकिन ज़ाहिर है, वह नहीं चाहती थीं कि मैं गोपेश मिलूँ। उन्हें डर था कि वह नवागंतुक लड़के का दिमाग़ ख़राब कर सकते हैं। जबकि दफ़्तर के लिए उनकी प्रतिबद्धता का मैं क़ायल था। मैं उन्हें भरोसा दिलाता रहता कि आप फ़िक्र मत करिए—मैं सँभाल लूँगा। लेकिन उन्हें मेरी श्रद्धा पर हरगिज़ एतबार न आता। 
कुछ हफ़्ते बाद ही, मेरी बॉस ने मुझे एक बातचीत के बारे में बताया—जिसके बारे में मैं पहले से ही जानता था।
“तुम्हें पता है, गोपेश का अपने बॉस मिस ढींगरा से भयंकर झगड़ा हुआ! बहस के दौरान मिस ढींगरा ने आरोप लगाया कि गोपेश दफ़्तर के बाहर जाकर एक नए लड़के से मिलता है, जो इसको उल्टी-पुल्टी पट्टी पढ़ाता रहता है!”
“देखिए, एक चक्र पूरा हो गया। इसे कहते हैं पोएटिक जस्टिस और आप डर रही थीं कि लोग मुझे मैनिप्यूलेट कर सकते हैं!”—मैंने संजीदा सूरत बनाकर उनके बयान में दख़ल देते हुए कहा। 
कहत कबीर-कबीर
मेरी बॉस की दिलचस्पी लगातार सांसारिक मामलों से हटकर आध्यात्मिक गतिविधियों में बढ़ती जा रही थी। मुझे यह देखकर विस्मय होता कि वह ख़ुद की शिनाख़्त—राधा, मीरा और राबिया सदृश फ़क़ीर महिलाओं से करतीं। हम अक्सर आत्मा, ईश्वरत्व, कर्म, पुनर्जन्म जैसे गहन विषयों पर चर्चा करते। 
हालाँकि इन विषयों पर मैं हमेशा चेतावनी जारी करता कि इस बाबत मेरा कोई व्यक्तिगत तजुर्बा नहीं है। जो बातें मैं कह रहा हूँ वो सुनी-पढ़ी हैं, न कि जानी गई। लेकिन वो हमेशा अध्यात्म की बात छेड़तीं, मैं ठहरा मुलाज़िम, बातचीत को आगे बढ़ाता। 
ऐसी ही एक चर्चा में मैंने एक बार कहा—“अध्यात्म के सफ़र में  में एक मरहला ऐसा भी आता है, जब भगवान स्वयं भक्त के पीछे-पीछे फिरते हैं।” 
इस अवधारणा को और स्पष्ट करने के लिए मैंने कबीर का पद सुनाया :
पीछे पीछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर
“तुम यकीन नहीं करोगे, ऐसा मेरे साथ अक्सर होता है!”—उन्होंने बहुत मासूमियत और साफ़गोई से कहा। 
मैं अवाक् था...
                                    
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