व्यक्तित्व-निर्माण की सीढ़ियाँ : प्लेज़र, कंफ़र्ट जोन, बिस्तरों और कुर्सियों में फँसे लोग
हर्ष कुमार
23 अक्तूबर 2024

आज मानव जिस धरातल पर अपने जीवित होने के हस्ताक्षर—हर क्षण साँसों के द्वारा—जिस तरह कर रहा है, उसे मद्द-ए-नज़र रखते हुए यह सवाल पूछना ज़रूरी हो गया है कि क्या वह वाक़ई जी रहा है? या बस पलायन करना चाहता है, जैसे कल के आगमन को रोकना चाहता है?
आदिमकाल से तुलना की जाए तो मानव की आरामतलब ज़िंदगी ख़ून की आवश्यक रीडिंग में आ गई हो तो कोई बड़ी बात नहीं, हाथ में यंत्र, जिससे कुछ नहीं तो निज-आराम खोज कर उसमें डूबे रह सके—उतनी खोजें आज तक के वैज्ञानिक अध्यन से हो चुकी। अब चूँकि हम—एक आरामपसंद जीव हो चुके हैं, घंटों मगरमच्छों की तरह एक स्थान पर पड़े रह सकने के अभ्यस्त हो गए हैं, तो जिस काम को कल पर टाले जा सकने की संभावना हो तो उसे टाल दिया जाता है। फिर आज मगरमच्छनुमा आकृति बन बिस्तर पर लेटे रहने में क्या हर्ज?
बात स्वाभाविक है। मानव-मस्तिष्क—न्यारा और बेहद तेज़ है कि आदमी अपने उत्पादकता के रोकथाम का इंतिज़ाम ख़ुद किए बैठा है। आराम के लिए अपने ही आप को मना लेता है कि काम कल भी किया जा सकता है। अब यह मस्तिष्क तेज़ है या बाक़ी देह आरामतलब या मस्तिष्क को ही आदत पड़ गई है—यह गणना वैयक्तिक हो तो बेहतर। कोई संशय नहीं की कुछ दशकों बाद साँस लेने का भी एक रिमाइंडर लगाया जाए, साँस लेना जितना नैसर्गिक आज है उतना ना रहे।
आज तक विदेशी ज़मीन से जितने फ़ायदे भारत ने लिए (और लेता है), उससे कई गुना ज़्यादा नुकसान वर्तमान में वह झेल रहा है। वह भी इतने मज़े से कि औसत भारतीय को यह एहसास होना बंद हो चुका है, कि हर दिन कितना कुछ विदेशी और देसी सामग्री के रूप में ग्रहण करता है—जिसका रोज़ की ज़िंदगी में कोई इस्तेमाल नहीं, वह ग़ैर ज़रूरी सामग्री जो हमें मानसिक रूप से ठप कर रही है।
अस्थाई सुख (प्लेज़र) हमारे दिमाग़ की नसों में भरा जा रहा है और हम बिना किसी आपत्ति के अपनी नसों में उसे भरवाने को पड़े रहते हैं, कई महानुभाव इसे अपना कंफ़र्ट ज़ोन कह, इस प्रोसेस का आनंद बिस्तरों और कुर्सियों पर पड़े-पड़े लेते हैं। मनुष्य की विडंबना देखिए—अलग-अलग सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपनी मानसिक स्थिति को सुधारने के पैंतरों को खोजते हैं, अगर कुछ अच्छा मिले तो उस पर भी अमल करना ज़ुल्म हो जाता है।
स्थिति इतनी विकट हो चुकी है कि मनुष्य अम्बिवेलंस (दुविधा) की स्थिति में ज़्यादा-से-ज़्यादा होता जा रहा है। किसी बात पर धैर्य से सोचने से भी उसकी खोपड़ी दर्द करने लगती है। उसे साइकेट्रिस्ट के पास जाना पड़ जाता है। मैं यहाँ किसी के बिज़नेस का विरोधी पक्ष नहीं हूँ, बस बताना चाहता हूँ कि एक मनुष्य के तौर पर हम क्या हुए थे और आज मानसिक स्थिति क्या हो चुकी है!
कहा जाता है कि मनुष्य का दिमाग़ बेहद शक्तिशाली है, चाहे तो कुछ भी कर सकता है। मानव अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल कुछ प्रतिशत ही कर पाता है, पूरी तरह नहीं, मेरी निजी राय है कि अब शायद कर ही नहीं पाएगा! क्योंकि वह ऐसा भोजन और इल्म लेता है जो बहुत ही घटिया क़िस्म का है, जिसका सेवन किसी भी सूरत में मानव-जीवन में लाभदायक नहीं हो सकता।
किसी भी प्रसंग पर ख़ाली दिमाग़ ही है, जो छटपटाकर बोल उठता है। चाहे-अनचाहे यह उसकी नैसर्गिक प्रवृत्ति के रूप में बाहर आता है और आज कल (इक्कीसवीं सदी) की त्रासदी यही महसूस होती है कि निज को सुने जाना चाहिए। सुने जाने की छटपटाहट! एक शब्द भी मन में रह गया तो शायद बैचेनी हो, मन-ही-मन सड़कों पर ऐसे गुंडलाते माँस के लोथड़े बहुतायत में नज़र आने लगे हैं। इक्कीसवीं सदी का दिमाग़ सिकुड़कर काला पड़ चुका है। मगर यह पूरी बात नहीं हुई, भारतीय उत्पादकता का आज भी कोई जोड़ नहीं। यह बात मुझे सिद्ध करने की आवश्यकता क़तई नहीं। यह बात भारतीय चिकित्सा, विज्ञान और कला आदि से सिद्ध हैं। हम सदियों से विश्व भर में प्रसिद्ध हैं और मैं इकाई रूप से बहुत ही संतुष्ट हूँ कि सभी का खोपड़ीभंजन अभी ठप नहीं है।
भारत की जनसंख्या इतनी है कि यहाँ बहुतायत की ओर इशारा करें तो भी बहुतायत बच जाते हैं। यह वे लोग हैं जो अपने आप को मानसिक रूप से स्वस्थ रखने में जूझ ज़रूर रहे हैं, पर यह क्रिया इसी तरह की है। स्वस्थ शरीर के लिए लगातार पौष्टिक खाना खाते रहना होता है।
नए-नए सॉफ़्टवेयर्स, पीडीएफ़ आदि से किताबों पर ख़र्च होने वाला पैसा बच रहा है। समय बच रहा है। लेकिन ये दोनों बचकर जाते कहाँ है! यह अलग विषय है। इस पर विस्तार से चर्चा की जानी चाहिए। मेरा ज़ोर इस वाक्य पर है कि पढ़ा जाना चाहिए—स्क्रीन पर पढ़ते हो, चाहे किताबों से अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण होना आवश्यक है। मानव शरीर से पैदा होने के बाद दूसरा बड़ा काम यही है, पहला आज भी उत्तरजीविता है।
आगे क्रम बढ़ते हुए तीसरे, चौथे, पाँचवें इत्यादि पर अन्य-अन्य क्रिया हैं, जिन्हें क्रमशः ही किया जाए तो अच्छा। जैसे अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा, अगर आप मर्द जात से हैं, तो यह माना जाता है कि आप अपने परिवार की सुरक्षा के ज़िम्मेदार हैं। यह ज़िम्मेदारी आपकी है कि कोई दूसरा व्यक्ति आपके परिवार को किसी भी प्रकार की हानि ना पहुँचाने पाए, हालाँकि आप भी वह दूसरे व्यक्ति हो सकते हैं। ग़ौर कीजिए—इसीलिए मेरा मानना है कि अच्छा व्यक्तित्व निर्माण आपके जीवन का प्रथम लक्ष्य होना चाहिए।
स्त्री के आज तक के इतिहास को देखकर अगर मैं कहूँ कि उनकी पैदाइश फूलों के गर्भ से है तो कोई ख़ासी समस्या उत्पन्न नहीं होगी, क्योंकि वे जैसे-जैसे उम्र में ऊपर आती हैं—उनकी त्वचा, लहज़ा, शारीरिक बनावट इत्यादि इस बात को मानने पर ज़ोर देती है कि वह समाज में एक सामंजस्य बैठाने के लिए जन्मी हैं। रसोई घर के काम बेशक कोई भी कर सकता है, वहीं ज़्यादातर मर्द अपने समाज में संप्रेक्षण करने का सामर्थ्य नहीं रखते, यह उसकी बनावट में कम दिखाई देता है। मुझे स्त्रियों की घेराबंदी में कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन एक घर में संप्रेषण होता रहे तो वहाँ की हवा बासी नहीं रहती, वह घर उजाड़ नहीं होता, फिर कहूँ की मुझे उनके बाहर जाकर काम करने में किसी प्रकार की निजी समस्या नहीं है।
अब-जब समाज विकास की ओर बढ़ रहा है और नए तरीक़े के काम हैं, जिन्हें स्त्री-पुरुष के भेदभाव से दूर रखा गया है तो क्यों नहीं करें वे काम? लेकिन महिलाओं के लिए अपने बच्चे का लालन-पालन भी करना ज़रूरी है। यह मर्द कर सकते हैं, लेकिन वह कोमल बग़ीचों के नहीं, रेत के थप्पड़ों के लिए बने हैं तो परवरिश में बच्चे का जीवन शुष्क पड़ने की संभावनाएँ रहेंगी। यहाँ भी व्यक्तित्व निर्माण होगा मगर किसी बच्ची का जीवन शुष्क हो तो वह अपने बच्चों को कैसे कोमलता से पाल सकेगी, जो उसे कभी मिली ही नहीं!
मेरा मानना है कि ठीक चरित्र, ठीक समाज की बनावट का ज़िम्मा पूरे परिवार को उठाना चाहिए, सिर्फ़ एक व्यक्ति से वह कैसे होगा? वह होगा—किताबें और समाज को पढ़ने से। जिस समाज में, कुटुंब में—आप अपने जीवित रहने के लिए चैन की साँसें लेते हों, वहाँ के समाज को जानना होगा, उसे अपनी मस्तिष्क की कोशिकाओं में दर्ज करना होगा। उस पर विचार करना होगा कि आता हुआ समाज क्या सीख रहा है। अपने घर से चाहे-अनचाहे बच्चों को ऐसे सबक़ सिखाए जाते रहे हैं, ऐसी लकीरें उनके आगे खिंची जाती हैं, बक़ायदा अपनी रूढ़िवादी सोच का हथौड़ा नए और गर्म मांस पर उस समाज और घर द्वारा जड़ा जाता है और फिर उस ही समझ के साथ उन बच्चों का आगे का जीवन व्यतीत होता है, जिसे अव्वल तो वह जानते नहीं थे और जाना तो उसी राग को अलापने लगे, इसके बाद उम्मीद यह होती है—हमारा बच्चा इस समाज से, गंदे समाज से हमें ऊपर उठाएगा।
यह असर है संकुचित दिमाग़ का, एक घर की ग़लत शिक्षा पूरे समाज को ग़लत राह देने का दम रखती है, इसलिए सही बात का सुना जाना सही विषय को पढ़ा जाना, कल के समाज की दिशा निर्धारित करता है। खेद है कि अधिकतर नए ज़माने के माँ-बाप इतने पर नहीं रुकते। वह अपने बच्चों को किस तरह पालते हैं कि छोटी उम्र से उनके चश्मे लग रहे हैं, सिवाए इसके की अपनी ज़िम्मेदारी से वह डरते हैं, उसे टालते हैं और क्या कारण हो सकता है कि वह अपने कल के पैदा बच्चों के हाथों में फोन थमाते है, जिसके बिना वह खाना खाना भी गवारा नहीं समझते। खाना, खाया जाना कोई आज की क्रिया नहीं है, हम सभी जानते हैं व्यक्ति को भूख लगती है तो वह खाता है। नहीं मिला तो ढूँढ़ के खाएगा, मनुष्य या किसी भी जीव का यह नियम है, वह इसे चाहकर भी तोड़ नहीं सकता। अगर यह टूटेगा तो वह स्वाभाविक रूप से मर जाएगा।
यह वही बच्चे हैं जो आगे अकेलापन, अवसाद जैसी बड़ी-बड़ी समस्याओं से जूझते हैं। केवल इसलिए की जिस यंत्र के साथ खाने को शुरुआत हुई, अब उसके बग़ैर इस्तेमाल किए काम करना असहज हो गया। जिसका परिणाम मगरमच्छनुमा आकृतियाँ, ख़राब मानसिक और शारीरिक स्थिति के साथ ही ऐसी त्रासदी बन कर खड़ी हो जाती है, जिसे जेन-ज़ी के स्लैंग में अलग-अलग बेढंगे शब्दों से परिभाषित किया जाता है। कैसी विडंबना दिखाई पड़ती है—आप पीड़ित हैं, आप उसका सोशल मीडिया उसका बखान करते हैं और आप उस बीमारी का नाम भी रखते हैं, उसे समाज में सामान्य बनाते हैं ताकि आपकी बीमारी, बीमारी ना लगे, इतनी रचनात्मकता और इतनी एनर्जी है लेकिन किस काम की?
जब एक काम की बात करने से दिमाग़ हैंग कर जाता हो तो उस दिमाग़ का कबाड़ी वाला कचरी भी न दे! अपने मन-मस्तिष्क की देख-रेख व्यक्तिगत तौर पर की जाती है। इसका बेड़ा हर व्यक्ति ख़ुद उठाए, अपने परिवार के सदस्यों को भी इससे छेड़छाड़ का मौक़ा न दे। निजी रूप से इसकी तोड़-फोड़ आजीवन सहज ही चलती है और चलती ही रहनी चाहिए। यह पूर्ण बनने के लिए ज़रूरी है कि उस ओर निरंतर क़दम उठते रहें।
निजता एक अमूल्य चीज़ है जिसके इस्तेमाल से व्यक्तित्व निर्मित होता है, लेकिन किस तरह यह निर्भर करता है आपकी दिनचर्या पर, यथार्थ से पलायन की क्रियाओं में लिप्त व्यक्ति केवल एक संभावित अच्छे व्यक्तित्व का ख़ूनी हो सकता है, ना इससे कम न ज़्यादा।
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