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काम से बचना सिर्फ़ अनिच्छा का मामला नहीं है

...प्रतिवर्ष चौदह हज़ार से पचीस हज़ार मज़दूर काम के दौरान मारे जाते हैं। बीस लाख से ज़्यादा काम के अयोग्य हो जाते हैं। दो से ढाई करोड़ हर साल ज़ख्मी होते हैं। काम से जुड़ी दुर्घटनाओं के ये आँकड़े, एक संकीर्ण अनुमान पर आधारित हैं। हर साल पेशाजनित बीमारी से पीड़ित पाँच लाख लोगों की गिनती तो की ही नहीं जाती। 

मैंने पेशाजनित बीमारियों के बारे में चिकित्सा-जगत की एक किताब पढ़ी, जो बारह सौ पन्नों की है, फिर भी यह समस्या को सतही तौर पर ही छू पाती है। उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार साफ़तौर पर एक लाख खदान-मज़दूरों को काले-फेफड़े की बीमारी है, जिसमें से चार हज़ार हर साल मरते हैं। 

यह मौत-दर एड्स की मृत्युदर से कहीं ज़्यादा है। हमें पता है एड्स पर कितना ध्यान खींचा जाता है, काले-फेफड़े की बीमारी की तो कोई बात ही नहीं करता। मतलब, अनकही मान्यता यह है कि एड्स एक चरित्रहीनता की बीमारी है, जिसे अपनी गंदी हरकतों पर काबू कर रोका जा सकता है, पर कोयले की खुदाई तो सवालों से परे एक पवित्र काम है। 

आँकड़े यह नहीं दिखा पाते कि किस तरह काम करोड़ों लोगों के जीवनकाल को छोटा बनाता जा रहा है, यह आख़िरकार मानव-हत्या नहीं तो क्या है? उन चिकित्सकों के बारे में सोचिए, जो काम करते-करते 50 की आयु में ही मर जाते हैं। काम-ही-काम के शिकार दूसरे लोगों के बारे में सोचिए।

अगर काम के दौरान आप नहीं भी मारे जाते या विकलांग नहीं होते, तो संभव है काम पर जाते समय, वापस आते समय, काम ढूँढ़ते समय, या फिर काम को भूलने की कोशिश करते समय आप मारे जाएँ। सड़क पर होने वाली दुर्घटनाओं में ज़्यादातर लोग या तो ख़ुद के काम से संबंधित इन गतिविधियों का शिकार होते हैं या फिर दूसरों के। 

इन आँकड़ों में औद्योगिक प्रदूषण, काम के कारण शराब और नशे की लत के शिकार लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए। कैंसर और दिल की बीमारी आधुनिक बीमारियाँ हैं, जो सामान्यतया प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से काम की ही पैदाइश हैं।

काम इस तरह से मानव-हत्या को जीवन-शैली के रूप में स्थापित करता है। लोग सोचते हैं कि कम्बोडिया के लोग पागल थे, जिन्होंने अपने आप को ख़त्म कर लिया, पर क्या हम कुछ अलग हैं? 

पॉल पॉट शासन के पास कम से कम, चाहे कितनी भी धुंधली क्‍यों न हो, एक सोच थी भविष्य की, एक समतावादी समाज की। हम लाखों की संख्या में लोगों को मारते हैं ताकि बचे हुए लोगों को बिग मैक्स या कॅडिलक बेची (उपलब्ध कराई) जा सके। हर साल हाईवे की दुर्घटनाओं में मरने वाले चालीस से पचास हज़ार लोग शहीद नहीं, काम के शिकार हैं।

उदारवादियों के लिए बुरी ख़बर—इस ज़िंदगी और मौत के मामले में नियमों के उलटफेर से कोई फ़ायदा नहीं। अमेरीकी सरकार ने समस्या के केंद्र, काम की जगह पर सुरक्षा इंतजाम को कसने और निगरानी रखने के लिए ‘पेशागत सुरक्षा एवं स्वास्थ्य प्रशासन’ नामक संस्था खड़ी करने की कोशिश की। हालाँकि रीगन और उच्चतम न्यायालय ने इसे रफा-दफा कर दिया, पर यह वैसे भी किसी काम की नहीं थी। 

पहले और अभी के मुक़ाबले धन मुहैय्या कराने में ज़्यादा उदार कार्टर-युग के अनुदान स्‍तर के हिसाब से अगर देखें तो अपेक्षित होगा कि हर छियालीस वर्षों में एक बार ‘पेशागत सुरक्षा और स्वास्थ्य प्रशासन’ का निरीक्षक काम की जगह का औचक निरीक्षण कर पाए।

अर्थव्यवस्था पर सरकारी दखल समस्या का कोई समाधान नहीं। सच कहा जाए तो अमेरीका की अपेक्षा राज्य-पोषित समाजवादी देशों में काम ज़्यादा ख़तरनाक है। मास्को में ज़मीन के नीचे रास्ता बनाते समय हज़ारों की संख्या में रूसी मज़दूर मारे गए या घायल हुए। सोवियत रूस में हुई न्यूक्लियर दुर्घटना में बर्बादी को दबा-छुपा दिया गया था, पर उसकी देखी-सुनी कहानियों के मुक़ाबले टाइम्स-बीच तथा थ्री-माईल आइलैंड; स्‍कूलों में सिखाए जाने वाले हवाई हमले के अभ्यास की जगह लगते हैं। 

दूसरी तरफ़ दख़ल वाले नियमों को हटा देने (जो कि आजकल का रिवाज़ बन गया है) से भी कोई फ़ायदा नहीं, शायद नुक़सान ही हो। दूसरे नज़रियों के अलावा, स्वास्थ्य और सुरक्षा तब सबसे ख़तरनाक हुआ करता था, जब हमारी अर्थव्यवस्था मुक्त-बाज़ार के आसपास हुआ करती थी।

यूजेन जेनोवेज़ जैसे इतिहासकार ने विस्तार से इस बात को साबित करने की कोशिश की है—जैसा कि अमेरीकन घरेलू युद्ध के पहले ग़ुलामी प्रथा के समर्थक भी मानते हैं कि दक्षिण अमेरीका के बाग़ानों के ग़ुलामों के मुक़ाबले उत्तरी अमेरीका तथा यूरोप के कारखानों में भत्ता-मज़दूरों की हालत ज़्यादा ख़राब थी। अफ़सरों तथा व्यवसायियों के बीच संबंधों में किसी भी उलट-फेर से उत्पादन केंद्र पर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता है। 

अस्पष्ट सुरक्षा नियमों के भी गंभीरता से पालन करने से (जो सिद्धांत रूप में ‘पेशागत सुरक्षा और स्वास्थ्य प्रशासन’ कर सकती है) पूरी अर्थ व्यवस्था ठप पड़ जाएगी। नियम लागू करने वाले इसे समझते हैं, इसीलिए कभी वे ऐसी कोशिश नहीं करते।

अभी तक जो मैंने कहा है, वह विवादास्पद नहीं होना चाहिए। कई मज़दूर काम से ऊब चुके हैं। काम से ग़ायब होना, काम छोड़ना, चोरी, तोड़-फोड़, मामला बिगाड़ना, अचानक हड़ताल और आमतौर पर काम से जी चुराना; ये सब काफ़ी तेज़ी से बढ़ रहा है। काम से बचना सिर्फ़ अनिच्छा का मामला नहीं है, बल्कि सचेत रूप से भी काम के विरुद्ध आंदोलन खड़े हो रहे हैं। फिर भी आम सोच यही है कि काम ज़रूरी है, यह तो होना ही है। यह सोच मालिकों में पूरी तरह व्याप्त है, तो मज़दूरों के बीच भी कम नहीं।

अनुवाद : मनोज कुमार झा, विनय रंजन और रूपम कुमारी

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