प्रेम तुम्हारे लिए नहीं है
वियोगिनी ठाकुर
12 सितम्बर 2025

पेट में कई रोज़ से पीर उठती है। उठती क्या है बंद ही नहीं है। जितनी देर आँख लगी रहे, उतनी ही देर पता नहीं चलता। नहीं तो हर पल छोटी-छोटी सुइयाँ चुभती हुई महसूस होती हैं।
कभी लगता है बहुत सारे कीड़े हैं, जो एक-दूसरे के ऊपर चढ़कर नोंच रहे हैं मुझको, पर मैंने किसी को यह बात नहीं बताई। ख़ुद से भी ठीक अभी इसी पल कहा है, जो हुआ होने दिया है।
कुछ ग़लत हुआ तो सोचा, हो ले। कितना होगा और कब तक होगा? जानती हूँ यह सिर्फ़ शरीर की पीड़ा नहीं है। मन की भी है। कई बार शरीर के कई हिस्सों में दर्द का कारण दिमाग़ होता है, शरीर का वह हिस्सा नहीं होता। मेरे साथ इन दिनों ठीक यही तो हुआ है। कल सारी रात नहीं सोई। पूरी रात जागकर काट दी जबकि करने को कुछ नहीं था। जागने की कोई वजह नहीं थी। कोई कहानी नहीं पढ़ी। कुछ नया नहीं लिखा। कोई फ़िल्म नहीं देखी। किसी से बात नहीं की। बस सारी रात, कुछ पुराना लिखा हुआ और पुरानी तस्वीरें खँगालती रही।
सब देखती रही—बचपन से अब तक की। कितनी सुंदर और कितनी उदास तस्वीरें! ढेरों झूठी तस्वीरें, कुछ सच्ची तस्वीरें। अधिकतर बिल्लियों की तस्वीरें, जो अब इस संसार में भी नहीं हैं।
अपनी रोती हुई तस्वीरें, उन दिनों की जब दिल टूटा था। उन दिनों तीन दिन लगातार रोती रही। आँखें सुजा ली थीं रो-रोकर। तब चुप होना बेवफ़ाई लगता था। रोती थी तो कलेजे को ठंड पड़ती थी। उन दिनों लगता था कि उसने न सही, पर मैंने तो वफ़ा निभाई है। वे दिन, जिनमें छत पर बैठी रही देर रात तक। वे दिन जिनमें धूप पीठ से होकर गुज़रती रही हर शाम। वे दिन जिनमें सूरज के साथ-साथ दिल भी डूबता रहा।
ऐसी ही झींगुरों की गूँज से भरी एक शाम में दोस्त को फ़ोन किया। उसने कहा—“मुहब्बत में ऐसे रोने का मौक़ा रोज़-रोज़ नहीं आता है। जी भरकर रो लो। रो-रोकर ख़ाली हो जाओ। फिर जीवन में जो चाहो करती रहना।”
उसने चुप कराने के बजाए रोने का हौसला दिया, तो और हुड़क से रोती रही। फ़र्श पर पड़ी रही। उन दिनों जाने कैसा मन था कि मैंने कमबख़्त उन दिनों की तस्वीरें तक उतार कर रख लीं, जैसे वह भी यादगार चीज़ हो, जो आगे चलकर नहीं रहेगी, जैसे मैं उसे खो बैठूँगी, जो रिस रही थी कतरा-कतरा और जिसे सहेजा जाना ज़रूरी था, दुःख के दिनों की यादगार के तौर पर।
उन दिनों की वे रोती हुई तस्वीरें। गालों पर जिनमें सूखे हुए आँसू दिखते हैं। कैसा लगता है अब उनको देखकर! बस, कुछ अलग लगती हैं वे औरों से। इससे अधिक तो कुछ भी नहीं। उनकी कुल जमा इतनी-सी कहानी है।
मुझे उन्हें देखकर अब दुख नहीं उमड़ता। कुछ लगता ही नहीं है। समय का ही तो फेर है कि जिसे इतने मन से सहेजा अनन्य दुख में भी, उसे मैं अब महज एक दर्शक की तरह देख पाती हूँ।
कल रात अपने लिखे ढेरों ऐसे पन्ने पलटती रही, जिनको अगर सलीक़े से लिखा गया होता, तो उन्हें प्रेमपत्र भी कहा जा सकता था। है भी वह उन्हीं दिनों का एकतरफ़ा संवाद, मुहब्बत में हारी हुई एक लड़की का।
उन्हीं में कहीं एक जगह लिखा था कभी कि, “मन तो करता है ये सब सिर्फ़ तुमसे कहूँ, पर डर लगता है उस चुप्पी से, जो इतना सब सुनने के बाद भी नहीं टूटेगी।” मैंने पढ़ा तो इतने बरस बाद भी एक आँख का किनारा कहीं गीला-सा लगा। लगा वह लड़की कितना हारी पर हारी ही नहीं!
और लड़की के भीतर कमबख़्त इतनी मुहब्बत रही कि कई बार दीवार से सिर पटकने का मन करता रहा। लगता रहा कि लहू के रास्ते ही बहा दे कुछ। मुहब्बत न हुई, जी का जंजाल हो गई। पर उसने ऐसा कुछ नहीं किया। किया तो बस इतना ही कि सिर पर नाचते रहे कबूतर, प्रेम लीलाएँ रचते रहे और वह देखती रही धूप में गुँथी हुई उनकी परछाइयाँ। कितनी तो मोहक, कैसी तो मीठी! कलेजे पर दर्द की चलती रही आरियाँ। कितनी ही देर पेट उघाड़कर ठंडी दीवार से चिपक कर खड़ी रही घँटों। कितनी बार दीवारों ने मुझे सहारा दिया है। देती ही हैं। जिनको इंसानों का नहीं मिलता, उन्हें दीवारों का ज़रूर मिलता है।
मेरे जैसे इंसान का मन इतना विचलित रहा है कि घड़ी भर को भी कभी आराम आ जाता है, तो बहुत बड़ी बात लगती है जबकि मैं अस्थिर दिमाग़ की नहीं हूँ। ज़िद्दी ज़रूर हूँ, ठान लूँ कोई काम तो पूरा किए बग़ैर भागती नहीं हूँ। किसी से कुछ कह दूँ, तो कोशिश करती हूँ वह काम हर सूरत पूरा करूँ। याद रखती हूँ भूलती नहीं हैं।
फिर भी कुछ चीज़ों के प्रति ऐसा ख़ौफ़ बैठ गया है मन में कि जब-जब वैसी चीज़ें होती हुई दिखलाई पड़ती हैं, मेरी सब बहादुरी हवा हो जाती है। ख़ुद से अधिक कमज़ोर तब किसी को नहीं पाती। तब लगता है मुझे कोई नहीं समझता है। मैं भी ख़ुद को पूरी तरह कहाँ समझ पाई हूँ! इन दिनों घर से किसी ऐसी जगह चले जाने का मन करता है, जहाँ मनुष्यों की आवाजाही कम-से-कम हो। सबसे अधिक तो जंगल की ओर। जंगल मुझे जीवन से भरे लगते हैं, वे होते ही हैं इतने कि उनका घड़ी भर ध्यान करने से भी जी उठती हूँ।
चाहती हूँ इन दिनों किसी परिचित-अपरिचित व्यक्ति की सूरत न देखें। कोई भी ऐसी बात न सुनूँ, जिसे मैं नहीं सुनना चाहती, मगर शायद ही कोई ऐसा दिन होता होगा, जिस दिन मैं वैसी बातें न सुनूँ, जिन्हें सुनकर अपना समूचा अस्तित्व किसी भारी पाषाण सरीखा जान पड़ता है। कभी-कभी मन होता है कि किसी दिन तो कोई बख़्श दे, ख़ाली छोड़ दे कोई दिन।
कहना चाहती हूँ, मैं साँस लेना चाहती हूँ और मुझे नहीं आ रही है। तब कैसे न करे सब-कुछ छोड़ देने का मन। और छोड़कर भी जाए इंसान तो ख़ुद को छोड़कर कहाँ जाएगा? ऐसा तो संभव ही नहीं, हम ख़ुद को कहीं रखकर आगे बढ़ जाएँ। वह जहाँ जाएगा उसका अपना मन, अपना आप तो साथ-साथ ही जाएगा।
बीते दिन याद आते हैं। एक बार मुझसे किसी ने कहा था—“प्रेम तुम्हारे नहीं बना है। वह तुम्हारे हिस्से कभी नहीं आएगा।” यह बात सुनकर एक बार को काँटा-सा चुभा था मन में, पर मैंने उससे कहा, “न मिले तो भी क्या!” और मन में कहा—“जानती हूँ, शापित हूँ। कोई बात नहीं। जीवन तब भी गुज़रेगा ही। जिऊँगी भी, किसी दिन मृत्यु भी आएगी ही। यह दोनों चीज़ें तो किसी मुहब्बत की मोहताज नहीं होतीं। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है, मुहब्बत थोड़ी आसान बना देती है ज़िंदगी। और कई बार बहुत मुश्किल भी।”
मेरे साथ बड़ी अज़ीब चीज़ें होती रही हैं। सालों साल पुरानी कोई बात अचानक याद आ जाती है कभी। शायद ये सबके साथ ही होता होगा, ऐसा मुझे लगता है। कल किसी की प्रोफ़ाइल पर गई। उसकी तस्वीरें देखती रही। कभी वे बहुत अच्छी लगती थीं, अब सिर्फ़ तस्वीरें लगती हैं।
अच्छा लगना जाने कब और कैसे बंद हो गया। “मैं इसे प्रेम करती थी।” मैंने मन-ही-मन कहा— “अब नहीं है। अब कहाँ चला गया?” इस बात पर हैरान होती रही। अब वैसा कुछ नहीं रहा। कैसे नहीं रहा? क्या ठीक वैसे ही, जैसे आदमी नहीं रहता है दुनिया में!
हाँ, ठीक वैसे ही एक दिन सब ख़त्म हो जाता है। समय बड़ी ही ख़राब चीज़ है। समय सबसे सुंदर, समय सबसे क्रूर! मुहब्बत तक भुला देता है कमबख़्त!
कभी किसी के प्यार में सिर से पैर तक डूबा रहा इंसान बरसों बाद वैसी कोई बात सोचकर अंचभित हो सकता है कि वैसा कैसे था? क्या वैसा कर सकने वाला इंसान मैं ही रहा था? कई बार तो लगता है वह मैं नहीं, मेरे भीतर कोई और था। चौंकाती हैं चीज़ें। एक तस्वीर को देखा। वह एक बंदर के पास बैठा था हाथ में मूँगफलियाँ लिए। तस्वीर में बंदर उसका मुँह ताक रहा है भरोसे से। बंदर का हाथ उसके हाथ पर है और वह एक-एक कर चुन रहा है दाने। उसके चेहरे पर एक सुंदर मुस्कान उतर आई है।
मन में आया ज़रूर, मैंने कभी इसी आदमी से प्रेम किया होगा। उससे नहीं, जो वह बाद के दिनों में मेरे लिए बन गया था। जिसने मुझे तहस-नहस कर डाला, वो भी बग़ैर किसी मलाल और पछतावे के!
वह तस्वीर देखते हुए सोचती रही, क्या किसी को बहुत निकट से जानना क्रूरता के निकट पहुँच जाना होता है? मनुष्य अपने आदिम स्वरूप में बड़ा ही हिंसक है, इतना कि उसकी थाह नहीं है, इतना कि उसके क़रीब जाना उसकी पशुता को प्रेरित करना होता है।
मनुष्य के रूप में आदिकाल से लेकर अब तक की उसकी तमाम उन्नति उसके उस केंद्र में पहुँचने पर ध्वस्त होती हुई दिखलाई पड़ने लगती है, जबकि दूर से वही व्यक्ति कितना उजला, कितना भव्य मालूम पड़ता है। एक और तस्वीर देखती रही। वह किसी गाँव में ज़मीन पर बैठा है, उसकी गोद में एक बड़ी बेफ़िक्र-सी बिल्ली बैठी है और वो हाथ में पकड़े कैमरे में कुछ देख रहा है। तब लगा हाँ, इसी आदमी से कभी मैंने प्रेम किया होगा।
उससे नहीं जिससे कहा था—“मैं तुम्हारे साथ रहना, जीवन बिताना चाहती हूँ।” और उसने बड़ी ही लापरवाही से कह दिया था, “कैसे रहोगी ? मैं तो तुमसे प्रेम ही नहीं करता।”
मन में कितने ही प्रश्न उठे थे, तब तलवार की धार की भाँति कि अगर प्रेम नहीं तो यह क्यों और वह क्यों? लेकिन उस सब को दरकिनार कर मैंने तब महज़ उसकी कही बात दोहरा दी थी, “हाँ कैसे रहूँगी फिर! सही तो है। हम साथ रह ही नहीं सकते।”
तब जो हुआ उस दिन, उस क्षण उसके साथ रहने की उस ख़्वाहिश की आधी हत्या उसने की थी और उसकी ही कही बात दोहराकर उसे पूरा मैंने कर दिया था।
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यहाँ प्रस्तुत कथेतर गद्य लेखिका की पुस्तक 'नीम के झरते हुए फूल' (अनामिका प्रकाशन, संस्करण : 2025) से साभार है।
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