Font by Mehr Nastaliq Web

Quotation न होते तब हम क्या करते!

एक

“गोयम मुश्किल वगरना गोयम मुश्किल”

हम रहस्य की नाभि पर हर रोज़ तीर मार रहे हैं। हम अनंत से खिलवाड़ करके थक गए हैं। हम उत्तरों से घिरे हुए हैं और अब उनसे ऊबे हुए भी। हमारी जुगतें और अटकलें भी एक जैसी हैं। हमारे पास हर एक स्थिति के लिए दूसरी स्थिति की बानगी है। हमें हर बात से एक पुरानी बात याद आती है। हमें फ़ैज़ पढ़ते हुए नाज़िम हिकमत याद आते हैं और नाज़िम हिकमत पढ़ते हुए मायकोव्स्की।

कई लेखकों के नाम पर यह दावा है कि वह एक किताब लिखना चाहते थे, जिसमें सिर्फ़ उद्धरण हों। ख़ालिद जावेद की पुस्तक ‘एक ख़ंजर पानी में’ उपन्यास के शुरू होने से पहले लगभग छह पन्नों तक बस उद्धरण हैं। कई पश्चिमी उपन्यासों में हर अध्याय एक उद्धरण से शुरू होता है। कई दफ़ा उद्धरण-योग्य होना ही रचना तथा पुस्तक को प्रतिष्ठित कर देता है कि उनमें बस बात ही बोलती रहती है, लेखक चुप रहता है।

दूसरी तरफ़ जीवन के बेतुकेपन का इस क़दर दबाव है कि हर उद्धरण जीवन को क्षण भर की प्रासंगिकता तो देता ही है, इसमें वह क़ाबिलियत भी मिलती है कि दुख या सुख में डूबे हुए नायक की बात इतनी गहरी लगे कि कभी दुखी होने को जी चाहे और कभी सुख के लिए लड़ने का। सभी के अंदर एक लंबा मोनोलॉग तैयार है, सभी उन स्थितियों की तलाश में है; जब वह कुछ सटीक कहकर संपूर्ण दृश्य के नायक हो जाएँगे।

हालाँकि बात बस इतनी नहीं है, क्योंकि Quotation एक उपकरण भी है। इस उपकरण के सटीक या शातिर इस्तेमाल से प्रभुत्व भी स्थापित किया जा सकता है, लेकिन चलिए वह बात फिर कभी।  

दो

देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है

मिर्ज़ा ग़ालिब

दफ़्तर से लौटकर जुराब पहने सो जाने वाले को रॉबर्ट फ़्रॉस्ट की बात ख़र्च करते देखना थोड़ा पीड़ादायी था। वैसे एक दिन में उसकी नींद की तीन क़िश्तें होती थीं, लेकिन रविवार को सुबह जल्दी आँख खुल गई थी। शहर में रविवारीय चुप्पी पसरी हुई थी। 

अख़बार वाले अख़बारों के बीच विज्ञापन पैम्फलेट निकालकर अलग रख रहे थे। सुबह का शऊर था। सड़क, दरख़्तों से टपकती पिछली बारिश की बूँदों में भीगी थी। चाय, उगता सूरज, भीगी सड़क, सुबह की गंध, गीले पत्ते और क्या नहीं; उसके पास हर दृश्य पर किसी न किसी की कही हुई एक बात थी। बस ख़ुद की नहीं थी। उसने सबकी ही तरह सारे दृश्य देखे। उद्धरण, जीवन और जीने के फ़ासले को सुविधाजनक और सौंदर्यपूर्ण ढंग से बढ़ाते हैं।

The woods are lovely, dark and deep,   
But I have promises to keep,   
And miles to go before I sleep,   
And miles to go before I sleep.

जब उसके पास स्वयं कुछ देखने का समय आया तो कैमरे से फ़ोटो ली और कहा, ‘‘हम अपने सामने की दुनिया को तब तक ढंग से नहीं देख सकते जब तक वह एक फ़्रेम में न हो...’’

“अब्बास किआरोस्तमी?” मैंने पूछा।

तीन

“ना मैं अरबी, ना लाहौरी; ना मैं हिन्दी, शहर नागौरी”

मौलाना रूमी बल्ख़ से कोन्या गए, शम्स तबरेज़ की विरह में रहे। फिर भी ग़म-ए-दुनिया में डूबे हुए सभी लोग, उदास प्रेमी और प्रेमिकाएँ, स्कूल की बेंच तथा दीवारें, शराबख़ाने में बैठे लोग जिस दुख में तर रहे, मौलाना का दुख उसके सामने कहीं नहीं ठहरता। इन सभी की टैटू से गुदी हुई बाँहों में एक ही बात थी :

“पता है, यहाँ से बहुत दूर, 
ग़लत और सही के परे एक मैदान है, 
मैं वहाँ मिलूँगा तुम्हें”

क़यामत तब हुई, जब यह पता चला कि रूमी ने ऐसा कुछ नहीं कहा और ‘रूमी’ नाम नहीं, नगरीय संबोधन है; और यह भी कि रूमी की असली किताब ‘मसनवी-ए-मअनवी’ है, जिसमें लगभग पचास हज़ार पंक्तियाँ हैं। किसी में ऐसा फूहड़ रुआँसापन नहीं है जो तलछटीय उदासी को अभिव्यक्त करने के काम आए। जो डिलीट हो सकता था, वह हुआ, लेकिन गुदे हुए टैटू गुदे ही रह गए। 

अब बहुत सारी बाँहों में मुंबई के किसी संवाद-लेखक की पंक्तियाँ उन्हें चिढ़ाती हैं, और अपनी बाँह में लिखी हुई बात के लिए आप नहीं लड़ेंगे तो कौन लड़ेगा?

मेरी बाँह में भी इश्क़ लिखा है, बस मुझे उर्दू नहीं आती थी इसीलिए एन (ع) की जगह अलिफ़ (ا ) से लिखा गया।

चार

“हम बुलबुलें हैं किसकी उर्फ़ हम हैं कि हम नहीं?”

चाय पीने के मग, तकिया, शर्ट और डायरी का पहला पन्ना। सभी पर किसी न किसी की बात लिखी हुई है। अभी सारा समय वह होते रहने का प्रयास है जो इन कथनों, पंक्तियों और अश्आर के अनुरूप लगे।

“मैं निहिलिस्ट हूँ...”—मुझे यह बताते हुए उसकी आँखों में सुने और समझे जाने की अपेक्षा थी।

“मैं अज्ञेयवादी हूँ...”—नीली शर्टवाला बोला।

“तुम अज्ञेय (लेखक) की पूजा करते हो?” मैं हैरान हुआ।

“कौन अज्ञेय?”

“अच्छा-अच्छा! अज्ञात कहना चाह रहे हो?”

“नहीं, अज्ञात नहीं, अज्ञेय! Agnostic.”

“हाँ, तो Agnostic बोलो भाई, अज्ञेयवादी नहीं। इस देश में Rationalist को बुद्धिवादी या तर्कवादी नहीं कहते।”

मैं भी आख़िर में बग़ैर नाम लिए यह बताना चाहता था कि जौन एलिया और बुकोव्स्की दोनों से ऊब चुका हूँ, लेकिन जैसे एक कवि के झोला झटकारने से अनंत झोले से कुछ बाहर झर जाता है; वैसे ही जब सही-सही न पता हो कि क्या हो आप तो बहुत कुछ हो जाने की इच्छा इधर से उधर दौड़ाती है। लेकिन सही-सही किसको पता? सही-सही पता करके करना ही क्या है?

मुझे डर है कि जो मैंने अभी-अभी कहा, वह भी उद्धरण ही है।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

26 मई 2025

प्रेम जब अपराध नहीं, सौंदर्य की तरह देखा जाएगा

पिछले बरस एक ख़बर पढ़ी थी। मुंगेर के टेटिया बंबर में, ऊँचेश्वर नाथ महादेव की पूजा करने पहुँचे प्रेमी युगल को गाँव वालों ने पकड़कर मंदिर में ही शादी करा दी। ख़बर सार्वजनिक होते ही स्क्रीनशॉट, कलात्मक-कैप

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

31 मई 2025

बीएड वाली लड़कियाँ

ट्रेन की खिड़कियों से आ रही चीनी मिल की बदबू हमें रोमांचित कर रही थी। आधुनिक दुनिया की आधुनिक वनस्पतियों की कृत्रिम सुगंध से हम ऊब चुके थे। हमारी प्रतिभा स्पष्ट नहीं थी—ग़लतफ़हमियों और कामचलाऊ समझदारियो

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

30 मई 2025

मास्टर की अरथी नहीं थी, आशिक़ का जनाज़ा था

जीवन मुश्किल चीज़ है—तिस पर हिंदी-लेखक की ज़िंदगी—जिसके माथे पर रचना की राह चलकर शहीद हुए पुरखे लेखक की चिता की राख लगी हुई है। यों, आने वाले लेखक का मस्तक राख से साँवला है। पानी, पसीने या ख़ून से धुलकर

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

30 मई 2025

एक कमरे का सपना

एक कमरे का सपना देखते हुए हमें कितना कुछ छोड़ना पड़ता है! मेरी दादी अक्सर उदास मन से ये बातें कहा करती थीं। मैं तब छोटी थी। बच्चों के मन में कमरे की अवधारणा इतनी स्पष्ट नहीं होती। लेकिन फिर भी हर

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक

बहुत पहले जब विनोद कुमार शुक्ल (विकुशु) नाम के एक कवि-लेखक का नाम सुना, और पहले-पहल उनकी ‘प्रतिनिधि कविताएँ’ हाथ लगी, तो उसकी भूमिका का शीर्षक था—विनोद कुमार शुक्ल का आश्चर्यलोक। आश्चर्यलोक—विकुशु के

बेला लेटेस्ट