मानवीय हसरतों की अनचीन्ही दुनिया
ख़ुशबू सिंह
20 फरवरी 2025
साहित्य के किसी भी सामान्य पाठक के लिए महाश्वेता देवी (1926-2016) का नाम सुपरिचित और सम्मानित है। उनकी लिखी हुई कहानियाँ और उपन्यास भारतीय सभ्यता की समानार्थी हैं। उसके अंदर जो कुछ सुंदर-असुंदर है, उसे उन्होंने लिखा है। उसके अंदर जो सच और झूठ है, उसे भी उन्होंने लिखा है। उनके द्वारा बयान किए गए क़िस्से भारतीय मनुष्यों की अंदरूनी और बाहरी दुनिया से पाठकों को रूबरू कराते हैं। उनके द्वारा रचा गया कोई क़िस्सा भारतीय समाज की निर्मम पड़ताल के बिना पूरा नहीं होता है; लेकिन वाल्मीकि, व्यास या मालिक मुहम्मद जायसी की तरह उनकी क़लम सबसे नाज़ुक और सताए हुए लोगों के पक्ष में झुकी होती है। मुक्तिकामी नौजवानों, प्रतिरोधी आदिवासी और मज़बूत स्त्रियों की दुनिया उनके कथा-संसार में बार-बार आती रही है, लेकिन 1986 में प्रकाशित ‘सत्य-असत्य’ की दुनिया सीमित पात्रों और सीमित दायरों से बनी थी जहाँ पर महाश्वेता देवी ने एक हाउसिंग सोसाइटी की एक बहुमंज़िला इमारत को केंद्र में रखकर अपना कथा-संसार रचा था। इसे 2023 में सीगल ने अंजुम कात्याल के अनुवाद के साथ ‘ट्रुथ-अनट्रुथ’ के नाम से प्रस्तुत किया है।
उनका यह उपन्यास कलकत्ता के शहरी दायरे में स्थित फ़्लैटों के अंदर की दुनिया को दिखाता है और ख़ास बात यह है कि यह रचना किसी सामाजिक उपलब्धि, असफलता या आंदोलन को सेलिब्रेट नहीं करती है; बल्कि यह हत्या के बाद एक शव की खोजबीन पर आधारित है। यह कलकत्ता के भद्र लोक में शामिल होने को आकुल अर्जुन चक्रवर्ती, उसके एक गुरु और नौकरानी जमुना के बारे में है (आजकल लोग नौकरानी शब्द को अफ़ेंसिव मानते हैं, इसलिए उन्हें ‘हाउस हेल्पर’ कहते हैं और नाम बदलने के सिवाय उन्हें कुछ अतिरिक्त नहीं देते हैं—न तो थोड़ा-सा अधिक वेतन और न ही गरिमा के अवसर)। अर्जुन की पत्नी जो उच्चतम न्यायालय के एक रिटायर्ड जज की बेटी है, वह अपने मायके चली जाती है। उधर अपनी ‘हीन उत्पत्ति’ से परेशान अर्जुन अपनी नौकरानी के साथ सोता है और जब वह गर्भवती हो जाती है तो अर्जुन उसका गर्भपात करवाना चाहता है। यह जो कुछ हो रहा है, उसकी जानकारी जमुना को भी है—किसी आदर्श प्रेमकथा की नायिका बनने के बजाय वह अर्जुन द्वारा पेश की गई ‘वित्तीय सहायता’ को स्वीकार कर लेना चाहती है। लेकिन इसी के ठीक बाद उसकी हत्या हो जाती है। उसका शव ‘बर्णमाला अपार्टमेंट’ में छिपाया जाता है। यह थ्रिलर इसी की कहानी है।
अर्जुन यह तो स्वीकार करता है कि जमुना के पेट में उसका बच्चा है, लेकिन वह हत्यारा नहीं है। हत्या किसने की है? यह रहस्य है। इस प्रकार यह उपन्यास उस अपार्टमेंट की कहानी बन जाता है जिसके बनने में अपराध और नया आया हुआ धन शामिल है। ध्यान दें कि यह कहानी 1990 के पहले के भारत के शहरों की कहानी है जिसमें एक नया शहरी धनाढ्य वर्ग उभर रहा था जिसमें बाबा, अपराधी और कॉर्पोरेट शामिल थे। अब यह कहानी एक परिघटना में बदल चुकी है। इस प्रकार यह उपन्यास 2020 के बाद के भारत के किसी शहर की कहानी हो सकती है। इसे पढ़ते हुए तनिक भी भान नहीं होता है कि यह कहानी चार दशक पुरानी है। अँग्रेज़ी अनुवाद के साथ इस उपन्यास की दुबारा लोकप्रियता का एक कारण शायद यह भी हो।
आजकल अँग्रेज़ी में एक शब्द बहुत चलता है—सरकेज़म। इसका एक चलता-फिरता अनुवाद व्यंग्योक्ति किया जा सकता है। ‘ट्रुथ-अनट्रुथ’ में महाश्वेता देवी जबरदस्त व्यंग्योक्ति करती चलती हैं। वास्तव में, कथा-साहित्य से संबंधित गद्य के प्रत्येक झुकाव में एक निश्चित; लेकिन सांकेतिक भाषा की आवश्यकता होती है। अब इस शुरुआती परिच्छेद को देखें : “बराभोयानंद तक पहुँचना बहुत मुश्किल है। अगर वह आज यहाँ है, तो कल वह इटली में है। गर्मियों में वह फ़्रांस में रहते हैं, सर्दियों में ग्रीस में। अगर आप उनके कोलकाता कार्यालय जाते हैं, तो वह केवल टेलेक्स संदेश के माध्यम से संवाद करता है, जो उसके भक्तों के लिए एकमात्र सहारा है। उसका ‘कार्यालय’ उसके एक शिष्य की इमारत की ग्यारहवीं मंज़िल पर एक विशाल, काँच की दीवारों वाला फ़्लैट है। हर मंज़िल पर छह फ़्लैट हैं। ग्यारहवीं मंज़िल पर केवल एक ही फ़्लैट है। और एक बग़ीचा। एक छोटा स्विमिंग पूल, एक झूला, सब कुछ है। बराभोयानंद की मदद से और चिट फंड के कारण लगभग डूब चुके और दिल्ली में कुछ रसूख़दार लोगों की लल्लोचप्पो से आयात-निर्यात का व्यापार स्थापित करके उसके एक शिष्य ने किसी तरह से इस घर को सर्कुलर रोड पर बनाने में सफलता पाई है। दिल्ली में एक घर। दार्जिलिंग में एक होटल। इस प्रकार वह किसी तरह से अपनी आजीविका चला रहा है।”
इसे पढ़ते हुए मानवीय हसरतों की अनचीन्ही दुनिया हमारे सामने खुलती है। समृद्धि के द्वीपों के बीच झुग्गी बस्तियों में रहने वाली स्त्रियाँ, मज़दूर और अभागे पॉश इलाक़ों में काम करने जाते हैं। काम के बाद वे वापस अपनी दुनिया में लौट आते हैं। एक ही दिन में वे चरम ग़रीबी से समृद्धि के दायरों को बस छूकर निकल आते हैं। एक जगह महाश्वेता जी लिखती हैं : “मोहिनी और बहादुर उस घर में अंशकालिक रूप से काम करते हैं। जमुना उन दोनों को जानती है। जब बाबू (घर का मालिक) चला जाता है, वे सभी मछली, गोश्त, मक्खन और ब्रेड खाते हैं। मोहिनी अपने घर तेल, घी, चावल, दाल और चीनी ले जाती है। बहादुर दारू की बोतलें ले जाता है और उन्हें बेच देता है। जमुना यह सब कुछ नहीं करती। वह ग़ुसलख़ाने में जाती है, जी भरकर अपने बाल में साबुन और शैम्पू लगाती है। इत्र छिड़कती है।”
एक क्राइम थ्रिलर के बीच ‘सबाल्टर्न लाइफ़’ का ऐसा चित्रण उपन्यास को मार्मिकता देता है। महाश्वेता देवी ने आजीवन दबे-कुचले लोगों के जीवन को अपने साहित्य की विषयवस्तु बनाया। उसमें एक संघर्षी तत्त्व के रूप में समाज का ऊपरी वर्ग, अधिकारी, ठेकेदार और सबसे बढ़कर बंगाल का भद्रलोक उपस्थित रहता था। 1084 की माँ को भला कौन भूल सकता है जहाँ बंगाली भद्रलोक की एक माँ अपने लाडले को उसके एनकाउंटर के बाद पहचान पाती है। वहाँ बंगाली भद्रलोक के प्रति एक आस्था दिखती है—महीन-सी, ममतालु। इस उपन्यास में वह आस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। ताक़तवर को लगता है कि वही सही है—वह इसका मख़ौल उड़ा देती हैं : ‘‘उसकी सास हमेशा भाषण देती हैं, कभी बातचीत नहीं करतीं। ऐसा लगता है कि जैसे वह संयुक्त राष्ट्र में हो और अफ़्रीका पर व्याख्यान दे रही हो।’’ इस तरह के ही अंदाज़ में अब वह कहती हैं : “पैंतीस साल की उम्र में पहली बार माँ बनना बहुत गंभीर बात है। हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि उसका शरीर किस दौर से गुज़र रहा है, लेकिन हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उसके दिमाग़ पर कोई तनाव न आए। पुरुष तो महिलाओं के प्रति इतने लापरवाह होते ही हैं! यह सिर्फ़ भारत में ही हो सकता है।”
यह उपन्यास पाठक को अपने इतने क़रीब आने देता है तो निश्चित ही इसमें महाश्वेता देवी के शिल्प और भाषा का योगदान है, लेकिन उससे कम योगदान इसकी अनुवादक अंजुम कात्याल का नहीं है। उन्होंने भाषा को इस तरह से बरता है कि कहीं से नहीं लगता है कि आप बांग्ला से अँग्रेज़ी अनुवाद पढ़ रहे हैं। वह मौलिक उपन्यास का आनंद देता है। उन्होंने उलझाऊ और सजे-धजे वाक्य न प्रयोग करके एक सुंदर और पारदर्शी अँग्रेज़ी में इसका अनुवाद किया है। महाश्वेता-साहित्य के सुधीजनों के लिए यह उपन्यास एक उपहार है।
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