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जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से-2

जेएनयू क्लासरूम के क़िस्सों की यह दूसरी कड़ी है। पहली कड़ी में हमने प्रोफ़ेसर के नाम को यथावत् रखा था और छात्रों के नाम बदल दिए थे। इस कड़ी में प्रोफ़ेसर्स और छात्र दोनों पक्षों के नाम बदले हुए हैं। मैं पुनः याद दिला दूँ कि इसका उद्देश्य न तो किसी का स्तुतिगान करना है और न ही किसी के चरित्र को गिराना है, बल्कि क़िस्सों की यह शृंखला विश्वविद्यालय-जीवन के सुंदर दिनों को स्मृत करने का एक प्रयास भर है। 

एक

एक प्रोफ़ेसर भाषा केंद्र की शान थे। उनसे पढ़ चुके विद्यार्थी उन्हें ‘कविता पढ़ाने वाले अंतिम अध्यापक’ के रूप में याद करते हैं। वह पैसों को दाँत से पकड़ने के लिए जितने कुख्यात रहे, पढ़ाने में उतने ही दरियादिल रहे। जो उन्हें आता था, उसे बाँटने में उन्होंने कभी कंजूसी नहीं की। वह पहले अध्यापक थे, जिनकी क्लास की कोई निश्चित जगह नहीं थी। अपने चैंबर, कैंटीन, रिंग रोड... वह कहीं भी पढ़ा सकते थे। वह छात्रों के सामने परम ज्ञानी नहीं बनते थे। जो कविता उन्हें समझ में नहीं आती थी, उसे सहज मन से स्वीकार करते थे और संबंधित किताबें सुझा देते थे।

मुझे याद है उनकी वह क्लास, जिसमें मुक्तिबोध की कविता ‘अँधेरे में’ पढ़ाई जा रही थी। कविता में एक स्थान पर मुक्तिबोध मध्यवर्ग के बहाने से आत्मालोचन करते हुए ख़ुद को धिक्कारते हैं—

“ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन
अब तक क्या किया, जीवन क्या जीया?”

अपने स्वार्थों के वशीभूत होकर आदमी के पत्थर बनने, व्यभिचारी के बिस्तर बनने और माता-पिता को घर से हकालने के ब्योरों के बाद आती है वह स्थिति; जब कवि का आत्म कह उठता है— 

‘‘लिया बहुत-बहुत ज़्यादा, दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश! अरे जीवित रह गए तुम।’’

मेरा क्लासमेट सुहास ज़ार-ज़ार रोए जा रहा था। बाद में सुहास ने बताया कि सूखी और दबी-घुटी आवाज़ में कविता अपने ही कंठ से फूटती प्रतीत हो रही थी। मुझे लग रहा था जैसे मैं आत्मग्लानि से भरा अपने अपराध स्वीकार कर रहा हूँ।

समय बदला। अब जेएनयू की प्रवेश-परीक्षा लिखित न होकर टिक मारने वाली (ऑब्जेक्टिव) हो गई थी। क्लासरूम का मिज़ाज भी बदला। साल 2016 में समकालीन कविता का पेपर कथा-साहित्य में एक्सपर्ट अध्यापक को पढ़ाने के लिए मिला। दो घंटे की क्लास लेकर ख़ाली मन लौटता एक छात्र विनय भाषा केंद्र से नाराज़ रहने लगा। संबंधित अध्यापक उदार और मित्रवत् व्यवहार के रहे हैं, इसलिए उन्होंने एक दिन विनय से कहा—“तुम हमेशा विभाग से नाराज़ क्यों रहते हो?”

विनय—“सर, मैं नाराज़ नहीं हूँ। मेरी शक्ल ही ऐसी है। मेरी सिर्फ़ एक शिकायत है। हम सुबह नौ बजे ही नहाकर विभाग इसलिए भागते हैं कि आज कुछ सीखने को मिलेगा। लेकिन दो घंटे क्लास की असंगत बातों की गठरी लादकर अपने पैर घिसटते हुए अपने हॉस्टल लौटते हैं। यह अन्याय है सर।”

सर—“आपको कौन-सी कविता समझ में नहीं आई, मुझे बताइए।”

विनय—“छोड़िए सर, बहुत-सी कविताएँ हैं। एक नाम किसका लूँ!”

सर के बार-बार आग्रह करने पर उसने शमशेर बहादुर सिंह की कविता ‘शिला का ख़ून पीती थी’ का टेक्स्ट सामने रख दिया। सर ने ज़ोर से पढ़ा ‘सीला का खून पीती थी वो जड़, जो कि पत्थर थी स्वें’। सर की भंगिमा बदली, ऊपर देखा, नीचे देखा, आँखें बंद कीं, विचार किया और विनय से पूछा—“सीला का खून जड़ कैसे पी सकती है?”

विनय—“पी सकती है सर। इसी विभाग के प्रोफ़ेसर पिला देते थे। लेकिन अब आपसे नहीं पिलाया जा रहा। यही मेरी शिकायत है।”

दो

हमारी क्लास में सब विद्यार्थी अपनी प्रवृत्ति, परिवेश और स्वभाव में अलग थे। किसी की आदत किसी से नहीं मिलती थी। हमारे एक क्लासमेट का नाम राय बहादुर साही था। वह सही मायने में अर्थशास्त्री थे। जेएनयू से नज़दीकी शराब की दुकान तक आने-जाने का ऑटो किराया साठ रुपए हुआ करता था, साठ रुपए में ही देसी शराब ‘बाहुबली’ का एक क्वार्टर आ जाया करता था। साही साहब भरी-पूरी देह के मालिक थे, सेहत को ठीक रखने के लिए उन्होंने दो किलोमीटर पैदल चलने का नियम बना लिया था। वह मुनिरका के ठेके तक पैदल जाते और पैदल ही वापस आते। वह जो आने-जाने के साठ रुपयों की बचत होती, उससे एक ‘बाहुबली’ का क्वार्टर ले आते।

रात पौने दस बजे का समय था। वाइन शॉप बंद होने वाली थी। भारी भीड़ के बीच भाषा विभाग के एक गुरुजी ठीक काउंटर के सामने खड़े होकर ख़रीदी गई स्कॉच का पेमेंट कर रहे थे। गुरुजी के कंधे को लगभग छीलते हुए साही जी भी एक ‘बाहुबली’ ख़रीदने में कामयाब हो गए। साही के एक हाथ में छुट्टे रुपए और दूसरे में एक क्वार्टर था। सर के हाथ में भी छुट्टे रुपए और बोतल थी। वह काउंटर से मुड़े, गुरु-शिष्य की आँखें मिलीं। राय साहब ने पौव्वे को दोनों हाथों के बीच में लेकर सिर झुकाते हुए कहा—“प्रणाम सर!”

गुरुजी ने जिस हाथ में बोतल पकड़ रखी थी, उसे ऊपर उठाते हुए कहा—“ख़ुश रहो!”

अगले दिन एक लंबी कविता पढ़ाई जा रही थी। क्लास ख़त्म हुई तो कविता का इतना पाठ बच गया कि न तो एक क्लास पूरी हो और न ही पंद्रह मिनट में पढ़ाई जाए। सर ने सबकी ओर देखा और पूछा—“आज इसे ख़त्म करें, हूँ, बोलो ख़त्म करें?”

राय बहादुर ने माथा पकड़ते हुए कहा—“सर, थोड़ा ज़्यादा ही हो जाएगा। अभी से माथा कचकचा रहा है।”

सर ने होंठ दबाकर हँसी के हल्के बुलबुले छोड़ते हुए कहा—“समझता हूँ, थोड़ी महँगी पीया करो। उससे नहीं अचकचाएगा।”

तीन

हमारे एक अध्यापक ने मूल्यांकन का यह पैमाना बना रखा था कि जिस विद्यार्थी के बोलने और लिखने में अधिकतम विदेशी लेखकों के उद्धरण होंगे, उसे नंबर अधिक दिए जाएँगे।

राय बहादुर का किताबों से संबंध दूर का था। संगोष्ठी-पत्र में उत्तर लिखने, उसे प्रस्तुत करने और प्रश्न पूछने के आधार पर नंबर दिए जाते थे। उस दिन वह मुश्किल में थे। लिखने और प्रस्तुत करने के लिए पढ़ने की आवश्यकता थी और पढ़ाई से उन्हें थोड़ा परहेज़-सा था। प्रश्न पूछना उनके लिए अलबत्ता आसान था।

प्रदीप संगोष्ठी-पत्र पढ़ रहा था। राय बहादुर ने प्रदीप की ओर प्रश्न उछाला—“मैनेजर पांडे ने जो बातें दादावाद को लेकर कही हैं, वही बातें जॉन हरक्यूलिस ने उनसे ठीक पैंतालीस वर्ष पहले कह दी थीं। आप बताइए, इन विचारों को पांडेजी के विचार क्यों मानें?”

किसी ने जॉन हरक्यूलिस का नाम भी नहीं सुना था। सर ने मुग्ध भाव से राय बहादुर को देखा और प्रदीप से कहा कि इनके प्रश्न का उत्तर दीजिए। प्रदीप ने सॉरी कहकर अपने नंबर कटवाए और राय बहादुर ने अपनी इज़्ज़त बचाई।

सब हैरान थे कि जिस आदमी का हिंदी से कोई लेना-देना नहीं, उसने अँग्रेज़ी आलोचना कब पढ़ ली। बाद में चाय पिलाने की शर्त पर राय बहादुर ने खुलासा किया—“हमने कुछ नहीं पढ़ा था। हम जब स्कूल आ रहे थे तो पेपर को लेकर परेशान थे। रास्ते में एक साइकिल दिखी। साइकिल पर ‘हरक्यूलिस’ लिखा था, हमने ‘हरक्यूलिस’ से पहले ‘जॉन’ लगाया और एक आलोचक ‘जॉन हरक्यूलिस’ पैदा किया, इसके बाद सवाल बन ही गया।”

सबने राय बहादुर को इस फ़रेब के लिए धिक्कारा तो उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा—“अपने सर के लिए भी दो शब्द कह दीजिए, जो अँग्रेज़ी नाम के भार से इतने दब गए कि एक बार भी विचार नहीं किया कि बीस साल से अध्यापन के पेशे में रहते हुए जिस विद्वान् का नाम नहीं सुना, वह है भी या नहीं?”

मुझे पिछले बारह वर्ष तक की जानकारी है, राय बहादुर जी यूजीसी नेट की परीक्षा नहीं निकाल पाए। अगर उनका नेट पास हो जाता, तो डीयू से प्रोफ़ेसर की नौकरी ख़ुद उन्हें ढूँढ़ती हुई आती और अपनाने का निवेदन करती।

चार

लिंग्विस्टिक्स के प्रोफ़ेसर मिस्टर दुबे ने एक बार क्लासरूम में जानकारी दी कि चार वेद पढ़ने वाले चतुर्वेदी, तीन वेदों के ज्ञाता त्रिवेदी और दो वेदों के ज्ञाता द्विवेदी कहलाए। अगली पंक्ति में बैठी एक छात्रा ने चापलूसी करते हुए पूछा—‘‘सर, आपने कितने वेद पढ़े हैं?’’

सर—“मैंने एक भी वेद नहीं पढ़ा।”

पीछे से एक बुलंद आवाज़ आई—“इसीलिए तो आप दुबे हैं! वेद पढ़ते तो द्विवेदी होते।” यह आशुतोष सिंह की आवाज़ थी। आजकल आशुतोष यूपी में अध्यापक हैं।

पाँच

एक अध्यापक आलोचना के बड़े विद्वान् और अपने विषय के ज्ञाता थे। कोई विद्यार्थी उनकी क्लास बंक नहीं करता था। अगर कोई ऐसा करता तो ज्ञान से वंचित तो रहता ही; उसका पेपर भी आसानी से सबमिट नहीं हो पाता था। एक धीरज नामक विद्यार्थी रहा, जो जितना सीधा था, उतना ही मुँहफट भी था। एक बार वह बीमार होने के कारण टर्म पेपर समय से नहीं दे पाया। बुधवार को सर फ़ैकल्टी मीटिंग के लिए जा रहे थे, धीरज ने पेपर जमा करने का आग्रह किया।

सर—“बताइए, कितने लापरवाह हैं आप। पेपर से भी ज़रूरी कुछ होता है क्या?”

धीरज ने कहा—“होता है सर। हर काम से भी कोई न कोई बड़ा काम होता ही है।”

सर ने कहा कि मैं मानने को तैयार नहीं।

धीरज ने प्रत्युत्तर दिया—“अभी आप फ़ैकल्टी मीटिंग के लिए जा रहे हैं। मान लीजिए, अभी आपको ज़ोर के दस्त लग जाएँ, तो आप पहले फ़ैकल्टी मीटिंग लेंगे या बाथरूम की ओर भागेंगे!”

सर ने कहा—“आप ठीक कह रहे हैं, मैं ही ग़लत था। आप पर इतना भारी संकट आन पड़ा, इस संकट पर हज़ारों परीक्षाएँ क़ुर्बान! आज शाम में अपना पेपर जमा कर दीजिए।” 

अंततः धीरज का पेपर जमा हुआ।

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अगली बेला में जारी...

पहली कड़ी यहाँ पढ़िए : जेएनयू क्लासरूम के क़िस्से

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