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एक बाल नाटक लिखते हुए

मैं अक्सर सोचती हूँ कि हम सब कितनी सारी चीज़ों से घिरे हैं। एक वयस्क के रूप में जीवन और दुनिया को देखते हुए ऊब गए हैं। अक्सर अपनी ऊब, अपनी चालाकियाँ और कुंठाएँ जाने-अनजाने हम बच्चों तक प्रेषित कर देते हैं। हम उन्हें अपने अनुभवों के हिसाब से संपादित और नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि उनके लिए दुनिया अभी नई और ताज़ा है। वे तो अभी संभावनाएँ तलाश रहे हैं, बग़ैर यह जाने कि संभावनाएँ क्या हैं? हमें बहुत सारी चीज़ों से मुक्त होना बाक़ी है अभी। वह तो भला हो किताबों का कि जिन चीज़ों को अपना परिवार, समाज सामान्य कहता रहा, ये किताबें ही थीं जिन्होंने सारी पोल-पट्टी खोल दी और बताया कि चीज़ें इतनी सामान्य नहीं हैं। घर नैतिक शिक्षा की खान हैं। बच्चे के कुछ दिन बड़ों की नक़ल करते बीतते हैं। जब समझ आती है, तब बच्चा उपदेश और आचरण का अंतर समझने लगता है। मुझे लगता है कि किताबें मुझ तक देर से पहुँचीं। एक बच्चा रहे होने के क्रम में यदि अच्छी किताबें मिली होतीं तो बहुत-सी कुंठाओं और नक़लीपन से मैं अपेक्षाकृत जल्द आज़ाद हो पाती। मेरी जो अतिरिक्त ऊर्जा इनसे मुक्त होने में लगी, वह कुछ रचनात्मक करने की कोशिश करती। इनसे आज़ादी एक सरल-सहज प्रक्रिया हो सकती थी, बशर्ते बच्चों तक सही किताबें पहुँचाई जाएँ। 

बच्चों के लिए लिखना मेरे लिए अनायास नहीं था। यह मेरी आंतरिक इच्छा है कि बच्चों के लिए लिखूँ। हालाँकि बच्चों का साहित्य और बड़ों का साहित्य यह विभाजन ही कुछ दिल तोड़ने वाला लगता है। फिर भी मैं कहूँगी कि बड़ों की दुनिया का सब कुछ मैं बच्चों पर नहीं थोप सकती। मेरे लिए किसी सर्वसिद्ध तथ्य के पक्ष में तर्क देकर प्रमाणित करना कठिन है। मैं तर्क को समझते हुए एक-एक पायदान चढ़कर तथ्य तक पहुँचने में सहज हूँ। जैसे कि मैंने एक छोटा आलेख लिखने की कोशिश की, ‘बच्चों का साहित्य बनाम बड़ों का साहित्य उर्फ़ सार्वभौम साहित्य’। शुरुआत में मैं इस अवधारणा के प्रति किंचित आश्वस्त थी कि साहित्य सार्वभौमिक होता है। इसे बच्चों और बड़ों के साहित्य में नहीं बाँटना चाहिए। मैंने लेख लिखने की कोशिश की तो मेरे तर्क मुझे किसी और ही दिशा में ले जा रहे थे। वहाँ अभी भी मेरे लिए बहुत कुछ अपरिचित है। मैंने शुरुआत में जो सोचा था और जो अब समझ रही हूँ. वह एक दूसरे के विपरीत हैं। पर यह गणित का कोई प्रामाणिक प्रमेय नहीं कि मैं ग़लत की जगह सही तर्क बिठाऊँ और अंतिम सही उत्तर तक पहुँचकर प्रमेय सिद्ध हुआ लिख दूँ। बेशक साहित्य और कला में भी एक गणितीय अनुशासन है, पर वह बिल्कुल भिन्न प्रकार का है। गणित संशय का समाधान करता है। साहित्य में संशय, सत्य की ओर बढ़ने का एक रास्ता है। परंतु अंतिम सत्य जैसा साहित्य में कुछ नहीं है, गणित में है। गणित में जहाँ नहीं है वहाँ, अनंत (∞) है। एकमात्र धरातल है, जहाँ साहित्य और गणित एक होते हैं। बहरहाल जिसे हम बाल साहित्य कहते हैं, क्या उसे बड़ों के साहित्य से भिन्न होना चाहिए? एक प्रश्न एक दुधारी तलवार की भाँति है। यद्यपि बच्चे के लिए जो नया, अनूठा, आश्चर्यजनक है। वयस्क के लिए वे रोज़मर्रा की आम घटनाएँ हैं। तथापि वयस्क के लिए जो शब्द, अनुभव रूढ हो चुके हैं, देर-सवेर वे भी बच्चे के दायरे में सम्मिलित होने वाले हैं। यहाँ एक ध्यान देने वाली बात है कि दुनिया की सारी क्लासिक और अच्छी कहानियाँ बड़ों के लिए समान रूप से रोचक, सरस और पठनीय हैं। किंतु बड़ों का सब कुछ बच्चों के लिए नहीं है, हो भी नहीं सकता। यह एक बड़ा अंतर है। यह अंतर ही बताता है कि बच्चों के लिए लिखने से पूर्व अपनी समझ तथा अनुभवों को तटस्थ भाव से देखने तथा उन्हें लगातार संशोधित करते रहने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं है कि आप सोचकर लिखते हैं कि बच्चों के लिए लिख रहे हैं। लेकिन कुछ तो ऐसा है जो बच्चों के लिए सटीक होता है। बच्चों की दुनिया में वह सब कुछ है तो एक वयस्क की दुनिया में होता है—कुंठाएँ, हिंसा, ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, प्रेम। बस वयस्कों की महत्त्वकांक्षा को बच्चों की उम्मीद से बदल देना चाहिए। 

पिछले साल तैरती हुई एक ख़बर मुझ तक आई थी। कोलकाता की संस्था ‘थिंक आर्ट्स’ का (पराग-टाटा ट्रस्ट के सौजन्य से) ‘राइटर इन रेजिडेंट’ का कार्यक्रम था। जिसके अंतर्गत बच्चों के नाटक तैयार करना था। पहले-पहल मैंने इस ख़बर को टाल दिया। अचानक अंतिम दिन याद आया कि ग्रेजुएशन के दिनों में बच्चियों को लेकर नुक्कड़ नाटकनुमा कुछ किया था। बाल नाटक तो उसे क्या ही कहेंगे, बस वह बड़ों के नाटक का अपरिपक्व बाल्य रूपांतरण भर था। यह ख़याल आया और ठीक 11:59 PM पर मेरी एंट्री जमा हुई। 

हम चार रेजिडेंट थे। दो हिंदी एवं दो अँग्रेज़ी से। पहले दिन का सेशन आस्ट्रेलिया के बाल नाटककार फिनेगन क्रुकमेयर ने लिया था। शैली सथ्यू पूरे नाटक रेजिडेंट के दौरान हमारी मेन्टर रहीं। उनसे नाटक, ख़ासकर बाल नाटकों को लेकर बहुत कुछ सीखने को मिला। पहले दिन फिनेगन क्रुकमेयर ने बहुत से टास्क दिए थे। पहला टास्क था—‘‘बचपन की ऐसी चीज़ जो आपको सबसे अधिक याद आती हो, उसका चित्र बनाएँ। चाहें जैसा बनाएँ। वह चीज़ कुछ भी हो सकती है। बस जो दिमाग़ में सबसे पहले कौंधे उसे बनाना है।‘’ मैंने सबसे पहला चित्र साइकिल का बनाया। साइकिल मेरे बचपन का अभिन्न हिस्सा रही है, क्योंकि आज़ादी का स्वाद मैंने साइकिल की हैंडल थामने के बाद ही चखा। दूसरा चित्र अरविंदो इंस्टीट्यूट का था—ऐसी जगह—जहाँ नाटकों का प्रदर्शन होता था। प्रदर्शन से पूर्व बहुत दिनों तक पूर्वाभ्यास होते थे। हॉल के एक कमरे में लाइब्रेरी बनी थी। रविवार की सूनी दुपहरों में हम कुछ बच्चे रंगों के साथ हॉल में उपस्थित रहते। यह कुछ अजीब था। अच्छा-सा अजीब... ऐसी जगह जहाँ रंग, किताबें और संवाद एक साथ जुड़ते थे। ख़ैर! पेंटिंग टीचर के इंतिज़ार के ख़ाली समय में हम बच्चे उन अभ्यासियों को डायलॉग पढ़ते, बोलते सुना करते। बड़ा-सा मंच, मंच के नीचे हॉल में बिछी धूल सनी दरियाँ। दरियों पर बैठे नाटक पढ़ते कुछ लोग। बुझे सिगरेट के ठूँठ। राख, चाय की खाली प्यालियाँ। उनके संवादों का अभ्यास करना, मंच पर संवाद बोलने से अलग था। जैसे वे पात्र के संवाद कहकर, पात्र को समझने की कोशिश कर रहे हों। हम बच्चों के लिए यह सब बहुत आकर्षक और रोचक था। कई बार पेंटिंग क्लास नहीं होने के दिनों में भी हम खिड़कियों की सलाख़ों से अंदर झाँकते। उन्हें नाटक पढ़ते, संवाद के अभ्यास करते, सुधारते देर तक देखा करते। 

फिनेगन के दिए टास्क को पूरा करने के दौरान नाटक से संबंधित मेरी सारी छोटी-छोटी स्मृतियाँ जो सुप्तावस्था में थीं, सहसा जाग उठीं। पहले सेशन का दूसरा टास्क स्मृतियों को किसी आकार में अरेंज करना था... किन्हीं भी आकृतियों के रूप में। 

तीसरा टास्क लिखने से संबंधित था। उदाहरण के लिए, तुम मान लो कि जंगल में खो गई हो। सारे लोग तुम्हें ढूँढ़ रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि तुमने जंगल में घूमते हुए जगह-जगह अपने निशान छोड़े हैं। कोई एक व्यक्ति निशानों के सहारे तुम्हें ढूँढ़ने निकल पड़ा है। इस कहानी को यहाँ से आगे बढ़ाओ। ऐसे ही कुछ और टास्क भी रहे। इसके बाद अगले सत्रों में नाटक पढ़ने, उन्हें समझने, फिर चरित्रों का ख़ाका खींचने की बारी आई। शैली जो हमारी मेंटर थीं, उन्होंने तरतीबवार चीज़ों को समझाया। एक नाटक जो बच्चों के लिए लिखा जा रहा है, उसे किस प्रकार अधिक संप्रेषणीय बनाया जा सकता है। ऑडियंस ग्राफ, किरदारों का टकराव, चरित्रों का सामाजिक, शारीरिक तथा मानसिक चित्रण। ये सारे पायदान एक-एक कर चढ़ते हुए मुकम्मल नाटक तक पहुँचना था। 

नाटक लिखने से पहले समझ साफ़ करनी थी। कुछ प्रश्नों की सीरीज़ का अभ्यास था। उन प्रश्नों के उत्तर तलाशना बाल साहित्य और उसमें भी बाल नाटक लिखने की ज़िम्मेदारी को समझने जैसा था। उदाहरण के तौर पर एक प्रश्न—यह जो नाटक आप लिखने जा रही हैं, उसके माध्यम से क्या सवाल पूछना चाहती हैं? या दर्शकों को क्या सवाल पूछने के लिए उकसाना चाहती हैं? ...मेरा उत्तर—मैं नाटक के माध्यम से दर्शकों को यह सवाल पूछने के लिए उकसाना चाहती हूँ कि (वे यदि वयस्क हैं) क्या उन्होंने अपने आस-पास के बच्चों को यथोचित स्पेस दिया है? उनके निर्णय तथा विचारों का सम्मान किया है? क्या उन्हें बच्चों के प्रति अपने व्यवहार पर पुनर्विचार की ज़रूरत महसूस होती है? बाल-किशोर दर्शकों से मैं यह पूछना चाहती हूँ कि वे अपनी बात कैसे रखते हैं? और जब उनकी बातें नहीं सुनी या समझी जातीं, तब अपना पक्ष रखने के उनके क्या प्रयास होते हैं। बातचीत के इसी क्रम में आगे एक विचार यह भी रहा कि कोई भी चीज़ जो हम बच्चों के लिए रचते हैं, कोशिश होनी चाहिए कि कुछ रूढ़ अवधारणाएँ टूटें। उदाहरण के तौर पर माँ का चरित्र रचते हुए यह ध्यान रखें कि लैंगिक आसमानताएँ आखिरकार घर से ही शुरू होती हैं। अगर बच्चों के अनुभव में माँओं की छवि एक स्वतंत्र, स्वावलंबी, मज़बूत महिला की है; जो तय किए गए पारंपरिक मानकों में बँधी नहीं हैं, तब हमारा यानी लिखने वालों का काम बच्चे के साथ-साथ चलता है। पर अपने अनुभव से मैंने जाना है कि बहुत बार गाँव और छोटे क़स्बों के बच्चे (जहाँ अभी भी लैंगिक आसमानताएँ  चरम पर हैं) फ़िक्शन में भी इन बदलावों के प्रति सहज नहीं होते। रचनाओं को कई बार उनका हाथ पकड़कर थोड़ा खींचना पड़ता है। पर यह तय है कि बार-बार यदि ऐसी चीज़ें उनसे कही जाएँ, उनके सामने रखी जाएँ तो जकड़बंदियाँ टूटेंगी। अक्सर कहा जाता है कि बड़ों के तर्क से बच्चों का साहित्य नहीं लिखा जा सकता है। कुछ हद तक यह सही भी है। किंतु एक सचेतन प्रयास तो होता है कि हम क्या लिख रहे हैं? और बच्चों तक क्या पहुँचा रहे हैं। बच्चों से अक्सर कहा जाता है कि बच्चे हो, बच्चे की तरह रहो। बड़ों की तरह मत बोलो। तथाकथित बड़ों की तरह बोलने से आप एकबारगी बच्चे को रोक भी दें, किंतु उसे सोचने से कैसे रोक सकते हैं। यह बच्चों का एक मीठा रहस्य है कि वे कहाँ-कहाँ से क्या-क्या (अनुभव और मौखिक अभ्यास के क्षेत्र में) लेकर आते हैं। बेशक उनके पास आप जैसी सुसंस्कृत शब्दों की मानसिक डिक्शनरी न हो, लेकिन उनके पास ऐसे ढेरों शब्द होते हैं; जो आपके लिए अर्थहीन हो तो हों, बच्चों के लिए वे असंख्य अर्थों से भरे हैं।

मेरी तीन साल की बच्ची दीवार पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींचती है और मुझसे पूछती है, ‘‘ये क्या है?’’ मुझे वह बेतुका-सा लगता है। पर मैं जानती हूँ, उसके लिए ‘यह’ कुछ है। मैं कहती हूँ, ‘‘तुम बताओ क्या है?’’ वह कहती है, ‘‘बाँ-बाँ शिप है।‘’ फिर उसने कुछ नई ध्वनियाँ ईजाद कीं। वह मुझसे अक्सर कहती, ‘‘ममा, पितकु-पितकु।‘’ पहले-पहल मैंने इसे नजरंदाज़ किया। फिर उसे समझने की कोशिश में उसकी वे ध्वनियाँ मैंने दुहरा दी : 

बच्ची : ममा, पितकु-पितकु! 
माँ : आ, पितकु-पितकु-पितकु। 
बच्ची : डॉगी भाग गया। 
माँ : कहाँ भाग गया भई! 
बच्ची : चारवी को देखकर डर गया। 

यह उसका पसंदीदा संवाद है। वह इसके टोन और इसके लहजे को हू-ब-हू याद रखती है। अक्सर मेरे व्यस्त रहने या आस-पास न होने पर वह अकेली अपनी और माँ के हिस्से के संवादों की भी अदायगी करती है। दरअस्ल, बच्चों में ड्रामेबाज़ी जन्मजात होती है। यह बच्चे का पसंदीदा शग़ल है। बस इसे जरा नियमित करने और इनका प्रबंधन करने की आवश्यकता है। बच्चा रोता है। रोने पर अमूमन उसकी बात सुन ली जाती है। उसे बहलाने की कोशिश की जाती है। आगे जब कोई काम बच्चे के मन लायक़ न हो पाए, तब रोना न आने की स्थिति में भी वह रोने का अभिनय करता है। उसकी आवाज़ का आरोह-अवरोह चेहरे के भाव रोने का-सा माहौल बनाते हैं। यह पहली बार है, जब वह बिना नाटक को जाने नाटक करता है। बड़ों की भूमिका इतनी है कि बच्चे के सहज-स्वाभाविक कौशल का इस्तेमाल कर उसके अनुभव और संवेदना के दायरे को फैलाएँ। इस कौशल का बख़ूबी उपयोग उसके स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास हेतु टूल के रूप में क्या जा सकता है। 

आमतौर यह माना जाता है कि नाटक सामाजिक विधा है, क्योंकि बच्चे ही नहीं अभिभावक भी उसके दर्शक होते हैं। नाटक एक बिल्कुल सामाजिक विधा है, लेकिन यह सिर्फ़ एक सामाजिक विधा नहीं है। नाटक जितना सामाजिक होता है, उतना एकांतिक भी। एकांत में पढ़ा जा रहा नाटक भी बच्चे को उतना ही समृद्ध कर सकता है, जितना मंच पर खेला जा रहा नाटक। वस्तुतः नाटक संवादों में चल रही कहानी ही तो है। ऐसी कहानी जिसे बच्चा अकेले में संवादों को बोल-बोलकर पढ़ रहा हो। यहाँ थोड़े मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। फिर बच्चा ख़ुद-ब-ख़ुद लहजा और सुर पकड़ लेता है। संवादों को बोल-बोलकर पढ़ते हुए वह कल्पना के मंच पर होता है। दृश्य उसकी कल्पना में सजीव हो उठते हैं। मेरी अपनी स्मृति में काले जिल्द वाली इंटरमीडिएट की एक किताब है। दूसरी कक्षा में पढ़ने वाली बच्ची के हाथ ग्यारहवीं की हिंदी की पाठ्य-पुस्तिका लगी थी। पुस्तक में दहेज़ -प्रथा पर कोई नाटक था। नाटक तो याद नहीं, किंतु नाटक की नायिका का एक संवाद हू-ब-हू याद रह गया, ‘‘नहीं पिताजी, मैं पढ़ना चाहती हूँ। अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूँ।‘’ बेशक आठ साल की बच्ची के लिए यह कुछ बोझिल था, पर न समझने योग्य नहीं था। वह आनंद जो उसे बोल-बोलकर पढ़ते हुए आया, जस का तस स्मृति में दर्ज हो गया। नाटक पढ़ना, नाटक करने या नाटक देखने जितना ही मनोरंजक है। संवाद नाटक का प्राणतत्त्व हैं। बाल नाटकों में यह विशेषतौर पर ध्यान देने योग्य है कि संवाद छोटे होने चाहिए। छोटे, किंतु रोचक और मज़ेदार। व्याकरण के गणित को फ़िलहाल किनारे रखकर संवादों की रचना करनी चाहिए। ऐसे संवाद जिनसे बात पूरी हो। वे बेढंगे से हों, लेकिन ज़ुबान पर चढ़ जाने लायक़ हों। संवादों में इतना स्पेस होना चाहिए कि बच्चे अपनी कल्पनाएँ, अपने शब्द, अपने मुहावरे उनमें जोड़ सकें। अमूमन तुकांत और लयबद्ध संवाद बच्चों को जल्द आकर्षित करते हैं। उलजुलूल शब्द और कविताएँ नाटक को रोचक बनाती हैं। नाटक को एक कहानी की भाँति पढ़ते हुए बच्चा, पाठक होता है और एकमात्र अभिनेता भी। अलग-अलग किरदारों के संवाद बोलते हुए भिन्न-भिन्न चरित्रों का आस्वाद उसकी संवेदना तक पहुँचता है। अपनी देह भाषा, अपने भावों को वह चरित्रों के अनुरूप ढालने की कोशिश करता है। ऐसे में नाटक के प्रत्येक पात्र से बच्चे की निजी तारतम्यता स्थापित होती है। यह प्रक्रिया बच्चे को निरपेक्ष भाव से चीज़ों को देखने, परखने और चिंतन करने की ओर प्रवृत्त करती है। बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ता है। लेकिन एक लेखक के तौर पर नाटक लिखना कहानी लिखने से बिल्कुल भिन्न है। कहानी भूतकाल की स्थिति का वर्णन होती है, वहाँ सब कुछ था है। वहीं नाटक में तत्काल घटित होता हुआ वर्तमान है। इसलिए वहाँ सारे संवाद और दृश्य ‘हैं’ में होते हैं। मेरे लिए यह चुनौतीपूर्ण रहा। यह समझना कि कहानी लिखते हुए मनचाही छूट लेने का अवसर नाटक में नहीं है। वर्तमान को लिखते हुए, उसके परिवेश और किरदारों का मेल-जोल सहज बनाए रखना होता है। इस नाटक को लिखते हुए मैंने एक लेखक और मनुष्य के तौर पर थोड़ी और समृद्ध हुई। नई चीजें सीखीं और कुछ भी नया सीखना (यदि वह आपकी रुचि का है तो) एक अद्भुत अनुभव है।      

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