देवदासी प्रथा : धर्म का नशा और दासी स्त्रियों का जीवन
प्रमोद प्रखर
14 अक्तूबर 2024

यह सुदूर दक्षिण का उत्तरी इलाक़ा है। प्रकृति इतनी मेहरबान कि आँखों के आगे से पल भर के लिए भी हरियाली नहीं हटती। मुझे देश को समझने की तड़प और भटकन ने यहाँ लाकर पटका है। किताबों में जब पहली बार गाँव के परिवेश, रूमानियत और इंसानों पर इसकी तासीर के असर के बारे में पढ़ा तो समझ आया कि किताबों का समाजशास्त्र और समाज का समाजशास्त्र सिर्फ़ अलग-अलग नहीं, बल्कि वह एक रेखा के विपरीत धुव्र जैसा है; जिन्हें एक रेखा पर बताकर एक-दूसरे के लिए आवश्यक बताया तो जा सकता है, पर इनके मिलन-बिंदु की खोज के सिलसिले में कुछ नहीं सोचा जा सकता।
मैंने ‘बुक व्यू और फ़ील्ड व्यू’ के विवाद का हिस्सा बनने से बेहतर, कुछ दिनों के लिए दक्षिण भारत के किसी गाँव का हिस्सा होना चुना। अब तक न जाने कितने भ्रम टूटे हैं, उम्मीदें बँधी हैं और समाज के आईने पर जमी धूल हटी है।
जातिवाद के नंगे नाच से लेकर संस्थानों में थिरकते भ्रष्टाचार को अकादमिक दृष्टि से समेटते-समेटते आज का विशेष दिन आ पहुँचा। आज किसी विशेष व्यक्ति से मुलाक़ात होनी थी। संभवतः इतना भाव-मिश्रित और गंभीर कभी नहीं हुआ, जितना आज हो रहा हूँ। आज मॉर्निंग वॉक में क़दम कम और चिंतन अधिक चल रहा है।
नीम की दातुन दाँतों को जितना रगड़ रही है और उससे कहीं ज़्यादा अंदरख़ाने में विचार आत्मा को। आज बस के कुछ किलोमीटर के सफ़र में इतिहास, धर्म, समाजशास्त्र और लोक ने शायद बस से ज़्यादा दूरी तय कर ली। दक्षिण भारत के इस गाँव में मुख्य गलियों से गुज़रते हुए, आख़िर में हम उस घर के बाहर आ खड़े हुए, जहाँ हमारा इंतिज़ार हो रहा था।
एक अधेड़ उम्र की महिला—जिनके माथे पर सिंदूर, माथे पर बिंदिया और गले में एक तालेनुमा मंगलसूत्र लटका है—ने हमारा स्वागत किया। यह माँझी देवदासी महिला हैं, जिनकी तीन पीढ़ियों ने देवदासी-प्रथा का अनुसरण किया।
देवदासी—एक ऐसी प्रथा, जिसमें बच्चियों को ताउम्र के लिए किसी देवता/देवी को दासी के रूप में समर्पित कर दिया जाता है।
बातचीत शुरू हुई, यह बातचीत इस प्रथा और प्रथा की बलि-वेदी पर कम उम्र में दासी के रूप में समर्पित कर दी गईं स्त्रियों की ज़िंदगी की परतों को दिखाने-बताने के लिए काफ़ी थी। जिस देश में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः’ के उद्घोष के साथ नारियों को देवी बताकर तमाम तरह की सामाजिक हिंसाओं का शिकार बनाया जा सकता है; उस देश में वह स्त्री जो देव की ‘दासी’ घोषित कर दी गई है, उसकी स्थिति क्या होगी, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं होना चाहिए।
देवदासी प्रथा—दक्षिण भारत की विभिन्न परंपराओं और मान्यताओं से जुड़ती है और जिस एक अंतिम सत्य पर ठहरती है, वह है—किसी महिला को सामाजिक सम्मान और शोषण का घूँट एक साथ पिलाते रहना।
देवदासी बनी महिलाएँ, कहने को तो देव और देवियों से संरक्षित और सामाजिक रूप से सम्माननीय होती हैं, लेकिन उनके गर्भ से पैदा होने वाले बच्चों के पिता के नाम का सरकारी कॉलम कभी नहीं भरा जा सका? भरा गया तो बस माँग में सिंदूर—किसी मूर्ति के नाम का, जिसकी पूजा के लोभ में कितनी ही अछूत समझी जाने वाली जातियों ने अपनी बच्चियों को एक विशेष वर्ग के निजी-महत्त्वकांक्षाओं की झोली में डाल दिया। इन झोलियों पर कितने सिंदूरी दाग़ लगे हैं—गिनना मुश्किल है।
इन दाग़ों के दर्द के गुज़री हुई एक स्त्री जब बताती है कि कैसे दस साल की उम्र उसे मंदिर पर चढ़ा दिया गया और क्योंकि उन्होंने भी एक लड़की को जन्म दिया—जो फिर देवदासी बना दी गई। इस तरह चलती आ रही इस मानवीय, कुछ हद तक परा-मानवीय और लगभग अमानवीय हो चुकी प्रथा को सरकार ने 1982 में रोकने का फ़ैसला किया। साथ ही प्रथाओं में और मंदिरों के मंडप-प्रांगणों में घुट-घुटकर जीवन काटती महिलाओं ने ऑक्सीजन भरे वातावरण में सही तरीक़े से दुबारा साँस ली।
पेंशन और ज़मीनी मदद के साथ, मेहनत करती हुई मांझी देवदासी महिला मुस्कुराती हुई बताती हैं कि उनकी सभी नातिन स्कूल गई हुई हैं, तो ख़ुशी होती है कि चलो! कोई हसीं नज़ारा तो है नज़र के लिए... लेकिन जब वह अगले क्षण यह बताती हैं कि आज उनका सोमवार का व्रत है, वह भी उसी मंदिर और देव के लिए जिसको वह समर्पित कर दी गई थीं। तब ख़याल आता है कि धर्म अफ़ीम से ज़्यादा ताक़तवर है और धर्म के नाम पर रची गई व्यवस्थाओं ने उसे और ज़्यादा नशीला बनाया है।
'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए
कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें
आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद
हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे
बेला पॉपुलर
सबसे ज़्यादा पढ़े और पसंद किए गए पोस्ट
07 अगस्त 2025
अंतिम शय्या पर रवींद्रनाथ
श्रावण-मास! बारिश की झरझर में मानो मन का रुदन मिला हो। शाल-पत्तों के बीच से टपक रही हैं—आकाश-अश्रुओं की बूँदें। उनका मन उदास है। शरीर धीरे-धीरे कमज़ोर होता जा रहा है। शांतिनिकेतन का शांत वातावरण अशांत
10 अगस्त 2025
क़ाहिरा का शहरज़ाद : नजीब महफ़ूज़
Husayn remarked ironically, “A nation whose most notable manifestations are tombs and corpses!” Pointing to one of the pyramids, he continued: “Look at all that wasted effort.” Kamal replied enthusi
08 अगस्त 2025
धड़क 2 : ‘यह पुराना कंटेंट है... अब ऐसा कहाँ होता है?’
यह वाक्य महज़ धड़क 2 के बारे में नहीं कहा जा रहा है। यह ज्योतिबा फुले, भीमराव आम्बेडकर, प्रेमचंद और ज़िंदगी के बारे में भी कहा जा रहा है। कितनी ही बार स्कूलों में, युवाओं के बीच में या फिर कह लें कि तथा
17 अगस्त 2025
बिंदुघाटी : ‘सून मंदिर मोर...’ यह टीस अर्थ-बाधा से ही निकलती है
• विद्यापति तमाम अलंकरणों से विभूषित होने के साथ ही, तमाम विवादों का विषय भी रहे हैं। उनका प्रभाव और प्रसार है ही इतना बड़ा कि अपने समय से लेकर आज तक वे कई कला-विधाओं के माध्यम से जनमानस के बीच रहे है
22 अगस्त 2025
वॉन गॉग ने कहा था : जानवरों का जीवन ही मेरा जीवन है
प्रिय भाई, मुझे एहसास है कि माता-पिता स्वाभाविक रूप से (सोच-समझकर न सही) मेरे बारे में क्या सोचते हैं। वे मुझे घर में रखने से भी झिझकते हैं, जैसे कि मैं कोई बेढब कुत्ता हूँ; जो उनके घर में गंदे पं