नाटककार 'अश्क'

natakkar ashk

जगदीशचंद्र माथुर

जगदीशचंद्र माथुर

नाटककार 'अश्क'

जगदीशचंद्र माथुर

और अधिकजगदीशचंद्र माथुर

    उपेंद्रनाथ ‘अश्क’ के नाटकों का रचना-काल सन् 1938 से प्रारंभ होता है, जब द्विजेंद्र लाल राय और प्रसाद की शैली में जय-पराजय की रचना हई। 1938 में उनके एकांकी ‘लक्ष्मी का स्वागत’ और ‘अधिकार का रक्षक’ छपे। ‘पापी’ और ‘वेश्या’ इनसे पहले लिखे गए थे, पर छपे बाद में। इन सोलह वर्षों में उनके चार एकांकी संग्रह प्रकाशित हुए हैं—'देवताओं की छाया में’, ‘पक्का गाना’, ‘चरवाहे’ और ‘पर्दा उठाओ पर्दा गिराओ’, स्वतंत्र बड़े नाटक—'जय-पराजय’, ‘स्वर्ग की झलक’, ‘क़ैद उड़ान’, ‘छठा बेटा’ और ‘भंवर’ और तीन ऐसे नाटक जिनका आकार एकांकी से बड़ा होते हुए भी मूल प्रेरणा एकांकी की ही हैआदि मांगे, अजो दीदी और पैतरे। 16 वर्ष के इस दौरान में अश्क ने तीन बड़े उन्यास भी लिखे, कई कहानी-संग्रह, दो मार्मिक खंड-काव्य, फुटकर निबंध, संस्मरण इत्यादि और इसी दौरान में उन्होंने तपेदिक के रोगी के रूप में जीवन की उन्मुक्त धरती के सुई की नोक भर अंश के लिए मृत्यु से महाभारत लड़ा, जिसकी झलक ‘दीप जलेगी’ की चुनौती भरी पंक्तियों में मिलती है। ऐसे साहित्य-साधक की प्रतिभा और अज्ञेय लगन अभिनंदनीय है।

    किंतु रचनाओं की संख्या अथवा कलेवर एवं व्यक्तिगत कठिनाइयों और संघर्ष के होते हुए भी साहित्य-साधन—इन दोनों के बल पर ही कोई लेखक युग का सफल और समर्थ नाटककार नहीं कहा जा सकता। जिन दिनों जयशंकर ‘प्रसाद’ की महान रचनाएँ काव्य में छायावाद की प्रतिध्वनि-स्वरूप हिंदी नाट्य-साहित्य का कलाकार हो रही थी, उन्हीं दिनों दो प्रवृत्तियाँ चुपचाप हमारी नाट्य-परंपरा की कायापलट कर रही थी। एक तो हमारे विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्र और अन्यापरांगत पाश्चात्य देशों के आधुनिक यथातथ्यवादी नाटककारों से परिचित होने लगे थे। उससे पूर्व प्रधानत: शेक्सपियर की कृतियों ही का प्रभाव व्यापक रूप से दृष्टिगत होना था। लेकिन इब्सन, शॉ, काल्सवर्दी इत्यादि लेखकों की रचनाओं से बारतीय शिक्षित-समाज को सहसा नए क्षितिज का आभास हुआ। इस कृतियों के सिद्धांत पक्ष की अवधारणा लक्ष्मीनारायण मिश्र के समस्या-नाटकों में हुई, यद्यपि यह स्पष्ट था कि रंगमंच-संबंधी ज्ञान का अभाव उन्हें एक सिद्धांतवादी के स्तर से ऊपर उठने दे सका। दूसरी तत्कालीन प्रवृत्ति थी कॉलिजों के रंगमंचों पर लघु-नाटकों की माँग। सन् 32, 33 के आसपास आकर मानो शिक्षित-समाज के दर्शकगण नाटकों की ख़ातिर रतजगा करने के विचार से ऊब चले और रंगमंच के आग्रह के फलस्वरूप एकांकियों का लिखा जाना प्रारंभ हुआ। भुवनेश्वर प्रसाद और गणेशप्रसाद द्विवेदी ने इस क्षेत्र में क़दम बढ़ाया।

    यो एक ओर तो पाश्चात्य समस्यामूलक नाट्य-साहित्य से किताबी परिचय प्राप्त लेखकों की रचना और दूसरी ओर अव्यावसायिक रंगमंच के लिए लघु नाटकों का प्रणयन, इन दो धाराओं का विकास सन् 36-38 तक हो चला था और उपेंद्रनाथ अश्क के नाटकों का महत्व यही है कि उनमें आगे चलकर इन दोनों धाराओं का समन्वय हुआ। पाश्चात्य नाट्य-साहित्य के किताबी ज्ञान को उन्होंने निजी अनुभव और पर्यवेक्षण के खरल में कूट-पीसकर सामाजिक दिग्दर्शन का नवीन और तथ्यपरक रसायन तैयार किया। एकांकियों से उन्होंने रंगमंच के संकेतों और शिल्प को अपनाया और इस तरह हमारे समकालीन नाटककारों में शायद अश्क ही ने स्पष्ट रूप से प्रसाद के बाद रंगमंच और साहित्य दोनों के मानदंड पर सही उतरने वाले नाट्य-साहित्य को प्रस्तुत किया। सफल एकांकीकार तो दूसरे भी हैं। सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं का प्रधानत सुपाठ्य संवादों (जिन्हें नाटकों की संज्ञा भी दी जाती है) के रूप में निरूपण भी अन्य चिंतनशील और शब्दों के चितेरे लेकर करते हैं। लेकिन दोनों प्रवृत्तियों का ऐसा सम्मिश्रण कि नाटकों की एक नवीन शैली का ही प्रस्फुटन हो जाए, अश्क ही ने किया है। पक्के इरादे और प्रयोजन के साथ उन्होंने अपने प्रथम नाटक 'जय-पराजय' के बाद प्रसाद-पद्धति को तिलांजलि दी और जो नूतन प्रेरणा, पृथक् दृष्टिकोण एवं आधुनिक शिल्पविधान इस युग में लोकप्रिय हो चले थे, उन्हें एक ढाँचे में ढालकर हिंदी नाटक को जो निजत्व और सुस्पष्ट रूपरेखा प्रदान की। हो सकता है कि जिस पद्धति का सृजन वे करते हैं, वह हिंदी में जड़ ही पकड़ सके। भारतीय प्रकृति, रुचि और परंपरा शुद्ध यथातथ्यवादी साहित्य अथवा कला से मेल ही नहीं खाती। पाश्चात्य देशों में नाटक समाज के आगे दर्पण के तुल्य माना जाता रहा है। भारतीय वाङ्मय में नाटक दृश्य काव्य है—यानी कल्पना, अनुभूत रस और अलंकार की वह सामजस्यपूर्ण अभिव्यंजना जिसका आनंद सुनकर या पढ़कर ही नहीं रंगमंच पर देखकर उठाया जा सके। इस दृष्टि से तो अश्क के नाटक भारतीय परंपरा में एक असंगति के रूप में प्रतीत होते हैं। उन्होंने जो हिंदी नाटक को नया मोड़ दिया है, क्या वह स्थायी रह सकेगा? अभी इस प्रश्न का समुचित उत्तर नहीं दिया जा सकता। लेकिन इतना स्पष्ट है कि प्रसाद के बाद हिंदी नाटक का जो नई दिशा में उस्थान हुआ है, उपेंद्रनाथ अश्क उसके प्रमुख प्रतीक और स्तंभ माने जाएँगे। कारण कि शायद ही अन्य किसी नाटककार ने नई पद्धति को इतनी लगन के साथ अस्वीकार किया है और इतने परिश्रम और निश्चय के साथ सँवारा है।

    यह चर्चा तो रही अश्क के ऐतिहासिक महत्व के बारे में, पर उनकी कला की महत्ता आभ्यतरिक गुण-दोषों पर भी आश्रित है। उनकी रचनाओं का एक पहलू प्रथम परिचय में ही सामने जाता है। ‘जय-पराजय’ को छोड़कर शायद कोई भी नाटक अश्क के निजी अनुभवों के दायरे के बाहर नहीं है। ‘उड़ान’ में कुछ कुलाचें अवश्य ली हैं और उस नाटक में संकर के चरित्र-चित्रण के लिए उनकी तूलिका को कल्पना के गहरे रंगों का प्रयोग करना पड़ा है। माया की उत्तेजनापूर्ण अनुभूति, उसकी और मदन की प्रथम रूमानी मुलाक़ात और नाटक का सामान्य वातावरण सभी यथार्थवादी स्वर से भिन्न स्वर की याद दिलाते हैं। किंतु ‘उड़ान’ की भी प्रेरणा हमारे समाज की दैनिक उलझनों में से ही मिली है। जिस विद्रोह का वहाँ अद्धेयन है, वह असंभ्य नारियों के मौन पीड़ित दृदयों का प्रवक्त्ता है। अश्क मध्य-वर्ग के दाम्पत्य जीवन को गहराई से पैठकर देख चुके हैं और पढ़ी-लिखी कुमारियों के विवाह की समस्या का उन्होंने उसी संवेदनशीलता और सांकेतिकता से विवेचन किया है जिसके कारण पाश्चात्य नाटकों का परकीया नायिकाओं और परस्त्री-प्रेम का चित्रण भी मर्मस्पर्शी जान पड़ता है। ‘भेंवर’ की नायिका प्रतिभा बुद्धिवादी आवरण के नीचे एक त्रस्त, एकांकी, सतन अभिलाषी आत्मा को छिपाए फिरती है—न पाई जाने वाली सांत्वना की खोज में। ‘स्वर्ग की झलक’ के रघु की तरह सैकड़ों समयुवक आज के दिन अपने स्तर से ऊपर फ़ैशनेबल समाज की लड़कियों पर मशां और निकट पहुँचने पर विरक्त होते रहे हैं। ‘आदि मार्ग’ और ‘विवाह के दिन’ नामक नाटकों में भी इसी समस्या का दैनिक जीवन के अनुभव की सीमाओं में, प्रदर्शन किया गया है। इसके अतिरिक्त ‘पापी’ और ‘लक्ष्मी का स्वागत’ के विधुर पति के दृदयदायक अंत संघर्ष में तो मानो अश्क के निजी अनुभवों की ताज़ी छाप है। जान पड़ता है, अश्क नाटक लिखते समय जब एक आधारभूत भावना के लिए आँखें दौड़ाते हैं तो वे कल्पना की आँखें नहीं, स्मृति के नेत्र होते हैं। इसलिए मध्य-वर्ग की आर्थिक और मनोवैज्ञानिक परिस्थिति के विश्लेषण में उन्हें लंबे भाषणों का सहारा नहीं लेना पड़ता, वे केवल परिस्थिति-विशेष के ऊपर से पर्दा उतारकर रख देते हैं। ‘झूठा बेटा’ में नई और पुरानी पीढ़ी की ज्वलंत झाँकी हमें मिलती है। उसमें कहीं पक्षपात नहीं, किंतु फिर भी उत्तेजना, कामुक, जलन, निराशा की किसस् क्रमवीरे, जीवन में ज्यों की त्यों फड़ान कर उस दी गी है। अश्क का समधने का व्यंग्य इसलइ और भी महान है सकी जड़ है एक विषम अस्थिर समस्या।

    अश्क गरीब और शोषितों के जीवन से या तो अपने नाटकों के लिए सामग्री लेते ही नहीं और या लेते हैं तो बहुत ठोक-बजाकर, यह सोच-समझकर कि वह सामग्री उनके निजी अनुभव की कसौटी पर खरी उतर चुकी है या नहीं। 'तूफ़ान' और 'देवताओं की छाया में'—यही दो नाटक शोषित जीवन की झाँकियाँ देते हैं और यद्यपि घीसू में प्रेमचंद के सूरदास के आदर्शवाद को गंध मिलती है, तथापि सन् 46 के दिनों का स्मरण करते हुए उसका चरित्र अस्वाभाविक नहीं जान पड़ता। 'देवताओं की छाया में' में तो किसी प्रकार की अस्वाभाविकता का आभास नहीं। साधारण मुसलमान मज़दूर के जीवन की मर्मस्पर्शनी ट्रेजिडी के पीछे अश्क की पारदर्शक दृष्टि की शक्ति है। पिछले दिनों अश्क ने बंबई के सिनेमा जगत् के कृत्रिम, मानवीय-भावनाओं से शून्य, चापलूसी की दुर्गंध में बसे जीवन का भी नग्न और यथातथ्य वर्णन कुछ नाटकों में किया है। 'पक्का गाना' में यह आक्षेप चुटकी मात्र था, 'मस्केबाज़ो का स्वर्ग' में अट्टहास हो जाता है और 'पैतरे' में विपाक्त वाण। अतिरजना तो है, लेकिन फ़िल्मी जीवन जितना विकारग्रस्त है, उसके सुधार के लिए शायद कुछ ऐसी गहरी चोटें ही चाहिए। सामाजिक समस्याओं पर आश्रित इन नाटकों के अतिरिक्त अश्क जहाँ जीवन के सबसे अधिक सन्निकट आए हैं, वे हैं उनके नाटक जिनकी आधारभूत भावना उन्हें चारित्रिक विशेषताओं की सनक या धुन में मिली है। 'जौंक', 'तोलिए' और 'अजो दीदी' को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। 'तौलिए' की मधु और 'अजो दीदी' की अजो में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही नाटकों में बड़े कौशल के साथ नियमबद्ध जीवन को सनक बनाने वाले चरित्र का मखौल उड़ाया गया है। 'जौंक' में अनचाहे मेहमान का गुदगुदाने वाला चित्रण है। पर्दा उठाओ पर्दा गिराओ' नामक संग्रह के लगभग सभी नाटकों में परिस्थितियों का अनूठा चुनाव है। परिस्थिति चरित्र के अनुकूल ही जान पड़ती है, बल्कि पात्रों में व्यक्तित्व का अनिवार्य प्रस्फुटन प्रतीत होता है। जैसे मैने अन्यत्र लिखा है जीवन की सतत प्रवाहशील धारा का क्षणिक ठहराव ही मानो अश्क के एकांकियों में मूर्तिमान होकर उतरता है। बतसिया में ठहराव ने भँवर का रूप ले लिया है। शेष नाटकों में घटना-चक्र की गुत्थियाँ नहीं है, जीवन की शोभा यात्रा के कुछ दृश्य सामने ठहरकर फिर गतिशील हो जाते हैं। लेकिन इस अनायास प्रदर्शन के पीछे कितनी तैयारियाँ, कितनी तराश, कितनी नापजोख है, इसका अंदाज़ मननशील पाठक और दर्शक लगा सकते हैं।

    असल में अश्क की प्रमुख विशेषताएँ हैं श्रमसाध्य और जानदार पात्रों का सृजन। उनका प्रत्येक पात्र अपनी भाव-भंगिमा और वाणी के द्वारा पहचाना जा सकता है। लेखक पात्रों के मुख से अपनी प्रवृत्तियों, अपनी भावनाओं का परिचय नहीं देता। लेखक का निजी व्यक्तित्व तो परिस्थितियों की प्रगति और नाटक के सामान्य प्रवाह और आधारभूत भावना में अंतर्हित रहता है। किंतु पात्र जो कुछ बोलते या करते हैं, वह उनका अपना है, वे लेखक के ही भिन्न-भिन्न समच नहीं है। इस दिशा में अश्क हिंदी के अनूठे नाटककार हैं। इस गुण की सिद्धि के लिए आवश्यकता है भीषण आत्म-संवरण की, पैनी समदर्शी दृष्टि की और भिन्न-भिन्न भाँति के चरित्रों के दृदय में बैठकर उनसे समरन होने की क्षमता की।

    एक बात और, संवाद और कार्य-संपादन पात्रों के विकास के माध्यम से आज हिंदी में चुस्त और तीखे संवाद-लेखकों की कमी नहीं। हाज़िर-जवाबी के लिए शब्दों पर जिस भाँति के अधिकार और त्वरित एवं उर्वरा कल्पना-शक्ति की भावव्यक्ता होती है, उसका भी आज दिन अभाव नहीं। किंतु अश्क के संवाद इसलिए असाधारण हैं कि उनमें नदी की धारा की भाँति, परिस्थितियों के धरातल के ढलाव के अनुकूल ही उत्तर-प्रत्युत्तर चलते हैं। दरबारी तृग का वाहवाही वाला संवाद यहाँ नहीं है, उनकी नायिकाएँ शास्त्रीय पंडितों की भाँति सूत्र-गुम्फन नहीं करती। अश्क के पात्र असाधारण इसलिए हैं कि साधारण व्यक्तियों की तरह वे तकिया-कलामों का प्रयोग करते हैं, बातचीत करते-करते उलझन में पड़ जाते हैं, खंडित वात्वावलियाँ उनके मुख से झरती हैं, अधसुनी भंगिमाएँ उनके संवादों में बिखरी पड़ी रहती हैं और गंभीर बातचीत के बीच में वे एक छोटी-सी चर्चा छेड़ देते हैं।

    कथानक के निरावरण (यानी प्लॉट) और कार्य-संपादन (यानी एक्शन) के प्रदर्शन में अश्क कहाँ तक सफल हुए हैं, इसपर दो राय हो सकती हैं। एक प्रसिद्ध अंग्रेज़ी उपन्यासकार ने एक स्थल पर लिखा है कि उसे खेद उसी बात का है कि उसे अपने उपन्यासों की प्रवृत्ति के लिए एक कथानक का सहारा लेना पड़ता है। कभी-कभी ऐसा लगता है मानों अश्क भी नाटक में कथानक को इतनी ही उलझन दी, कुछ बेकार की-सी वस्तु सामग्री है। चरित्र के प्रदर्शन से ही उन्हें इतनी गति की प्रतीति होती है कि घटना-गुम्फन व्यर्थ-सा जान पड़ता है। किंतु मेरे विचार में एकांकीकार का यह दृष्टिकोण उनके तीन-अंकी नाटकों में उन्हें पथभ्रष्ट कर देता है। सांकेतिकता उनकी सबल है, लेकिन नाटककार के लिए सांकेतिकता एक साधन मात्र होनी चाहिए, कहानी से पल्ला छुड़ाकर भागना दर्शक को ऐसे जवाब में फाँसने के तुल्य है जो उसे नाटक से भिन्न कर सकता है। लेकिन लेकिन लेख यह कथन अश्क के बड़े नाटकों पर ही साध्य होता है, एकांकियों पर नहीं।

    वस्तुतः अश्क के बड़े नाटकों पर कवि-सुलभ सांकेतिक एक शीशे की तरह आवृत रहतची है। उसकी तह में उनकी नियमित भावुकता है है अनुपम सौंदर्य-दृष्टि। इस टैकनीक का सबसे सुंदर नमूना है उनका नाटक ‘कैद’ जिसमें उनके लगभग सभी गुण उभरे हैं—बड़ी संतुलित गति से, बढ़े मर्मस्पर्शी रूप में। ‘कैद’ को निश्चय ही आधुनिक भारतीय साहित्य के प्रमुख नाटकों की श्रेणी में रखा जा सकता है।

    सुप्रसिद्ध अँग्रेज़ी नाटककार गाल्सवर्दी ने एक बार अपने आप ही प्रश्न किया—उन्नतिशील नाट्य-कला की बुनियाद क्या है? उत्तर भी गाल्सवर्दी ने स्वयं इन शब्दों दिया कि “उन्नतिशील नाटक के चिह्न हैं—सच्चाई और खरापन और लेखक की वफ़ादारी—अपनी अनुभूति के प्रति, अपने पर्यवेक्षण के प्रति और अपने व्यक्तित्व के प्रति! जिसकी कल्पना अनुभवगत और दृष्टिगत जीवन को ही ग्रहण करती है और जो इस भाँति गृहीत वस्तु-विशेष को रंगमंच पर इस तरह प्रस्तुत करता है कि दर्शकगण भी उसी मौलिक अनुमति से अभिभूत हो जाएँ, वही उच्च कोटि का नाटककार है।” हिंदी में बहुत कम नाटककार ही इस परिभाषा के दायरे में पाते हैं, अश्क उन्हीं विरलों में से एक हैं और कुछ मानी में तो अनूठे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय नाट्य साहित्य, (पृष्ठ 369)
    • संपादक : नगेन्द्र
    • रचनाकार : जगदीशचंद्र माथुर
    • प्रकाशन : सेठ गोविंददास हीरक जयंती समारोह समिति नई दिल्ली

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

    पास यहाँ से प्राप्त कीजिए