Font by Mehr Nastaliq Web

यह दांते का घर है!

ye dante ka ghar hai!

रामवृक्ष बेनीपुरी

रामवृक्ष बेनीपुरी

यह दांते का घर है!

रामवृक्ष बेनीपुरी

और अधिकरामवृक्ष बेनीपुरी

    फ्लौरेंस

    16/6/52

    आज बाज़ार में दांते और ब्रिटिश की जो सम्मिलित मूर्ति ख़रीदी है उसे सामने रखकर आज की यह डायरी लिखने जा रहा हूँ।

    जब-जब यह कल्पना करता हूँ इस शहर में दांते और माइकेल-ऐंजेलो का जन्म हुआ, तब कितनी मुग्धता जाती है। दाँते और ब्रिटिश का वह स्वर्गिक प्रेम जिसने डिवाइन कॉमेडी को जन्म दिया था और माइकेल ऐंजेलो की वह कला जिसने पत्थर को की सजीव बना डाला।

    स्नान, जलपान से निवृत्त होकर आज दस बजे उफ़ीज़ी की गैलरी देखने गए। पता चला सोमवार के कारण आज तीन बजे खुलेगी। मन में बड़ी खिन्नता आई, किंतु उसी भवन की दूसरी ओर राज्य के काग़ज़ात का म्यूज़ियम है, यह गाइड-बुक में पढ़ चुका था। इसलिए इसके दरवाज़े के भीतर घुसे, किंतु वहाँ पहुँचने पर जब बातें शुरू की तो कोई समझने वाला नहीं। योरोप में फ़्रांसीसी ही एक भाषा है, जिससे किसी तरह काम चल सकता है। अँग्रेज़ी क़दम-क़दम पर बेकार साबित हो जाती है।

    किंतु संजोग से एक अमेरिकन विद्यार्थी गया, जो यहाँ अनुसंधान का काम कर रहा है। उसने बातें की और जब हमने अपनी इच्छा बताई तो वह म्यूज़ियम के सुपरिटेंडेंट के पास गया। थोड़ी देर में ही वह अधिकारी ख़ुद गए बूढ़े से सजन, इतिहास के डॉक्टर, बड़ी ही आवभगत की और स्वयं अपने साथ ले जाकर उस विद्यार्थी के माध्यम से कुछ चीज़ें दिखलाई। किंतु कितना दिखलाते? सातवीं सदी से आज तक के सारे प्रमुख काग़ज़ात यहाँ सँवार कर रखे हुए हैं। इस विशाल भवन में 300 बड़े-बड़े कमरे हैं। चार लाख मोटी-मोटी जिल्दों में ये काग़ज़ात रखे गए हैं, जिनकी संख्या एक करोड़ बीस लाख है। ताल-पत्र, काट-पत्र, भोज पत्र, सभी ढंग के काग़ज़ों पर ये लिखे गए हैं। जो सबसे पुराने काग़ज़ात हैं। वे 726 ई० के हैं। दूसरे देशों के काग़ज़ात भी हैं। उनमें दो भारतीय हस्तलिपियाँ हैं। एक बंगला की, दूसरी तामिल या तेलगू की, यद्यपि वह समझते है वह भी बंगला ही है। हमने उनका भ्रम दूर किया।

    दांते संबंधी काग़ज़ात हमने देखना पसंद किया। हमने उन काग़ज़ों को देखा, जिनमें दांते पर चलाए गए मुक़दमें की मिसिलें हैं। मुद्दालहों के कई नाम हैं जिनमें दांते का नाम अंतिम हिस्से में है। दांते को देश-निष्काशन की सजा मिली थी। इधर-उधर भटकते अपनी जन्म भूमि से दूर हो मरे—“1321 ई० में। इसके बाद वह काग़ज़ दिखाया गया जिसकी रजिस्ट्री बेट्रिश के पिता ने वसीयत के रूप में कराई थी। वसीयत में दांते की भी चर्चा है। दांते की मृत्यु के दो सौ वर्ष के बाद 1519 में फ्लौरेंस के नागरिकों ने सरकार के पास दरख़ास्त दी कि उनकी हड्डियाँ लाकर फ्लौरेंस में दफ़नाने की आज्ञा दी जाए। कहना नहीं होगा कि यह दरख़ास्त मंज़ूर की गई। ये काग़ज़ात भी यहाँ-यहाँ सुरक्षित हैं। इसके बाद और भी कई कमरे दिखलाए गए, देख-देखकर हम मुग्ध होते रहे। बूढ़े डॉक्टर की शराफ़त का क्या कहना? यह भवन फ्लौरेंस के ऊँचे-से ऊँचे भवनों में है। अतः उन्होंने ऊपर ले जाकर सारे शहर का विस्तृत दृश्य दिखलाया और वहीं से कितने ऐतिहासिक स्थान भवनों का निर्देश किया।

    वहीं हमें पता लगा कि दांते का घर इसके निकट ही है। शहर का नक़्शा लेकर उन लोगों ने रास्ता भी समझा दिया। उन्हें भारतीय ढंग से नमस्कार करके चले। नीचे आए तो, सामने ही वह भवन दिखाई पड़ता था जो यहाँ का सबसे प्राचीन राजभवन है। उसे हम कल संध्या को अलग से ही देख चुके थे। इस भवन का द्वार खुला हुआ था। सोचा, जरा भीतर चल कर देखें। भीतर जाने पर पता चला, यहाँ चित्रों की प्रदर्शनी हो रही है। जब जर्मनों का पिछले महायुद्ध के समय यहाँ क़ब्ज़ा हुआ तो वे यहाँ से बहुत चित्र अपने देश उठाकर ले गए। हाल ही में वे चित्र वहाँ से मँगवा लिए गए हैं और कल से ही उनकी प्रदर्शनी हो रही थी। वह गिल्ड हॉल कहलाता है। इसका दूसरा नाम “पाँच सौ आदमियों का भवन भी है। यहीं फ्लौरेंस की गिल्ड के पाँच सो सदस्य बैठते और अपनी नगर की व्यवस्था पर विचार-विमर्श करते। हॉल के चारों ओर मूर्तियाँ, चित्र, प्राचीर चित्र, और क़सीदे की चित्रावली। एक चित्रावली में बताया गया है कि एक ईसाई संत को कितना कष्ट दिया गया था। उसके अंग-अंग में काँटे चुभाए गए हैं। ख़ून बह रहा है। किंतु उसका चेहरा वैसा ही धीर-गंभीर। इस चित्र को देखकर मुझे बड़ी करुणा आई—आह! हर समय हर देश में साधुओं को कट ही कष्ट दिए गए।

    जब हम प्रदर्शनी से निकल रहे थे, फिर उस युवक से भेंट हो गई। वह अपनी परीक्षा देकर गया था और हमें खोज रहा था। विदेशियों के प्रति यह स्नेह भाव हमारे युवकों में भी पाता। उसी के साथ हम अब दांते का घर देखने चले। रास्ते में एक घंटा घर दिखाई पड़ा। उस युवक ने बताया, यह घंटा तभी बजाया जाता है जब संसार में कहीं युद्ध शुरू हो। मैंने मन ही मन कामना की, यह फिर कभी बजे। योरोप में युद्ध के कारण जो विभीषिका हुई है उसे देखते हुए हर समझदार की यही कामना हो सकती है।

    दांते का घर छोटा, बहुत ही छोटा है। घर के सामने दांते संबंधी चित्र, मूर्तियाँ, पुस्तकें आदि बिक रही थीं। घर के भीतर गया तो देखा, वहाँ एक आधुनिक इटालियन चित्रकार के चित्रों को प्रदर्शनी चल रही है। यह चित्रकार पिछले महायुद्ध में युद्धबंदी बनकर भारत भेजा गया था। अतः उसने कई चित्र भारत के संबंध में बनाए हैं। कश्मीर घाटी, गाँव, पनघट आदि उसके चित्र बहुत ही सुंदर थे। वे चित्र बिक भी रहे थे किंतु इतने पैसे नही थे कि एक भी ख़रीद लेता।

    दांते के घर से उस गिरिजा घर की ओर चला जो फ्लौरेंस का पैंथियन है। एक विशाल इमारत जिसमें फ्लौरेंस के सुप्रसिद्ध सपूतों की अस्थियाँ सुंदर-सुंदर समाधियों के भीतर संगीत है। भवन के सामने एक बड़ा मैदान, जिसके बीच में एक ऊँचे स्तंभ पर दांते की एक बड़ी मूर्ति है। बड़ी ही सुंदर मूर्ति। किंतु युवक विद्यार्थी का कहना था, यह मूर्ति कला की दृष्टि से वैसी उत्तम नहीं है। उस विद्यार्थी ने ही बताया, उस की बग़ल में जो इमारत है, वह कला की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि उसकी दीवालों पर जिमोमानी ने जो भीत्त चित्र बनाए हैं, वे बहुत कलापूर्ण है। सबसे बढ़कर सत्ताइस दिनों के अंदर अपने बारह सहयोगियों को लेकर उसने पूरी चित्रावली बना डाली है।

    समाधियों वाला यह विशाल भवन शान्ताक्रोचे के नाम से मशहूर है। यह भवन तेरहवीं सदीं में एक गिरिजाघर के रूप में बना था, यह तीन सौ फीट लंबा और डेढ़ सौ फीट चौड़ा। इसका गुम्बज दो सौ तेइस फीट ऊँचा है। इसके अंदर छहत्तर समाधियाँ हैं, इसके भीतर माइकेल ऐंजेलो की समाधि है। पहली समाधि को बसारी और दूसरी समाधि को ऋषि नाम कलाकार ने बनाया। मेकियावेली का स्मारक लार्ड कुफ्र ने बनवाया था। गैलेलिया की समाधि भी यहीं है। समूचे भवन में बड़े-बड़े कलाकारों द्वारा निर्मित मूर्तियाँ और समाधियों आँखों में चकाचौंध पैदा कर देती हैं। जियोत्तो की बहुत-सी कला कृतियाँ देखने लायक़ है। एक दुःखांत नाटककार की समाधि भी देखी, जिसके सामने एक नारी मूर्ति रो रही है। इस नाटककार की बड़ी तारीफ़ वह युवक कर रहा था—धनी का लड़का, बड़ा व्यापारी, किंतु व्यापार से मन ऊब गया और वह दिन रात लिखने-पढ़ने लगा। उसके घर के लोग नाराज़, किंतु सरस्वती जब सिर पर सवार होती है तो लक्ष्मी की चिंता आदमी को कहाँ रह जाती है! धीरे-धीरे उसकी साहित्यिक कृतियाँ प्रसिद्धि पाने लगीं और अब फ्लौरेंस का सबसे बड़ा नाटककार समझा जाता है।

    हम देख ही रहे थे कि भवन के बंद होने का समय हो गया—हम खाने चलें। युवक से फिर खाने को आग्रह किया, किंतु यह कहाँ मानने वाला! वादे के अनुसार वह फिर तीन बजे हमारे होटल में हाज़िर हुआ। युवक के ही आग्रह पर हम सबसे पहले मेडिसी चैपेल देखने गए। फ्लौरेंस के इतिहास के साथ मेडिसी परिवार का नाम जुड़ा हुआ है। इस परिवार ने फ्लौरेंस की कला और कारीगरी के विकास में बहुत बड़ा प्रोत्साहन दिया। फ्लौरेंस का कोई हिस्सा नहीं जहाँ इस परिवार की कृतिकथा किसी रूप में अंकित हो। इस चैंपेल में मेडिस परिवार के सभा प्रसिद्ध पुरुष दफ़नाए गए हैं। यह योरोप के सर्वोत्तम स्मारकों में गिना जाता है। संगमरमर, मोजाइक, सजावट सबसे इसकी गरिमा चूई पड़ता थी। यहाँ माइकेल ऐंजेला की कुछ सुप्रसिद्ध मूर्तियाँ है, उसकी बनाई उषा और संध्या तथा दिन-रात भी देखने लायक़ है। उषा ओर रात को स्त्री के रूप में मूर्तिमान किया गया है और दिन को पुरुष की मूर्ति में। उषा की कुमारी माना गया है और रात को माता। सात वर्षों तक इन मूर्तियों के बनाने में वह लगा रहा, किंतु पूरी नहीं कर पाया। कहा जाता है, मूर्तियाँ उनकी प्रारंभिक कृतियाँ हैं। तभी कितनी सुंदर, कितनी जानदार!

    वहाँ से हम सीधे उफ़ीज़ी आए। क़रीब चार बज रहे थे। समय कम था इसलिए हम इस चित्रशाला को उतना समय दे सके, जितने की वह हकदार। बरामदों पर मूर्तियाँ, घरों में चित्रावली। कुछ प्रसिद्ध मूर्तियाँ घरों में भी। यों तो लुब्र की महानता का हूँ, किंतु मूर्तियों और चित्रों का संकलन और उसकी सजावट देखकर मैं इसे उससे भी ख़ूबसूरत म्यूज़ियम मानूँगा ही। इसके कमरे इतने सुंदर हैं, चित्रों को फ़्रेमों में ऐसी कारीगरी है कि इन चित्रों का हृदय पर लुब्र से भी अधिक पड़ता है।

    इसका भवन सोलहवीं सदी में वसारी ने बनाया था। पहले सरकार ने मंत्रालय के रूप में बनाया था। नीचे के हिस्से में अब भी सरकारी काग़ज़ात हैं और ऊपर चित्रशाला है। बड़े-बड़े एकतीस हॉलों में कला की उत्तमोत्तम कृतियाँ संग्रहित हैं। संदियों के अनुसार क्रमशः हॉलों को सजाया गया है। कुछ हॉल विशेष कलाकारों के नाम पर भी हैं। बोनी शैली नाम पर एक ख़ास हॉल है। पंद्रहवीं सदी के हॉल में लिओनार्दो दा विंची के दो चित्र हैं। जातकर्म नामक उसके उस सुप्रसिद्ध चित्र की मूल प्रति यहीं है। रैफेल और माइकेल ऐंजेलो के लिए जो विशेष हॉल है, उसमें रैफेल के चार सुप्रसिद्ध बड़े-बड़े चित्र हैं। माइकेल ऐंजेलो का सुप्रसिद्ध चित्र 'पवित्र परिवार' इसी हॉल को सुशोभित करता है। इसका फ़्रेम भी उसने स्वयं बनाया था। प्रारंभ के 17 हॉलों में फ्लौरेंस के स्कूल तथा टस्कन, अम्व्रियन, वोलोन, लुम्बार्का और ऐलिलियन कालों के चित्र है। शेष हॉल में यूरोप के बड़े-बड़े कलाकारों को मूर्तियाँ सजाई गई हैं। टीसियन, रूबेन, वानटाइक, हालविन, वोरोसियो, आदि की कला कृतियाँ को मोह लेती है। वरामदों में ग्रीक मूर्तियाँ की भरमार हैं। यहीं बनैले सुअर की मूर्ति है, जिसकी काँसे की प्राप्त मूर्ति यहाँ के बाज़ार के बैठक खाने में है। कहा जाता है जो इस सूअर के थूथने को मल देगा वह फिर फ्लौरेंस आवेगा, फल बाज़ार में इस काँसे के सूअर का थूथना ख़ूब छू चुका था, आज यहाँ भी इसके थूथने को छू दिया। हाथी दाँत तस्वीरें और क़सीदें की चित्रकारियाँ भी देखने लायक़ हैं। ग्रीक मूर्तियों का ऐसा संकलन कम मिलेगा। मेडिस परिवार के प्राय: सभी प्रमुख पुरुषों की मूर्तियाँ यहाँ हैं। एक बरामदे में उन सभी चित्रकारों और मूर्तिकार की तस्वीरें भी उस्तादों के हाथ की ही बनाई हुई हैं। बरामदों की छतों पर अलग-अलग चित्र समुहों में संसार के सुप्रसिद्ध चित्रकारों, संगीतकारों, ज्योतिषियों राजनीतिज्ञों, वक्ताओं, कथाकारों आदि के अंकित किए गए हैं।

    उफ़ीज़ी से ही संलग्न पिलि पैलेंस की चित्रशाला है। इसकी इतिहास विचित्र है। उस युवक ने बताया, इस कला संग्रह के निर्माण का इतिहास विचित्र है। मेडिसी परिवार को कलासंग्रह में पराजित करने के लिए चित्रशाला की आयोजना की गई। किंतु कलाक्रम में वह चित्रशाला भी मेडिसी परिवार के ही हाथ में गई और उफ़ीज़ी का ही एक भाग बन गई। इसके विशाल भवन के निर्माण में बुलेनेसी और बसारी ऐसे स्थापत्य विशारदों का हाथ रहा है। भवन बहुत ही विशाल और शानदार है। बिल्कुल राजमहल-सा लगता है। इसके नीचे के हिस्से में चीनी बर्तन, हाथी दाँत के काम जवाहरात, वस्त्र और गहनों का ऐसा संग्रह है कि संसार में इसकी जोड़ नहीं। ऊपर चित्रशाला है।

    इसके सभी हॉलों की छतों में बड़े-बड़े चित्रकारों द्वारा चित्रमालाएँ अंकित हैं और उन चित्रमालाओं के नाम पर उन हॉलों के नाम रखे गए हैं। जैसे बृहस्पति का हॉल मंगल का हॉल, इलियद का हॉल, हरकुलीज का हॉल, कामदेव का हॉल, कला का हॉल आदि। सभी हॉलों में योरोप के बड़े-बड़े चित्रकारों के चित्र जगमग कर रहें हैं। इसके सबसे ऊपर के तले में आधुनिक इटालियन कला परिषद का कला संग्रह है, जिसमें उन्नीसवी सदी के और बीसवी सदी के चित्रकारों की कृत्तियाँ बजाकर रखी गई हैं। उफ़ीजी में ही इतना समय लग गया था कि इस अद्भुत कला-शाला को हम अच्छी तरह देख सके! किंतु जितना देख लिया था, क्या वही कुछ कम था?

    इन दो महान चित्रशालओं के अतिरिक्त भी फ्लौरेंस चित्र शालाओं, संग्रहालयों, स्मारकों और संस्थाओं की भरमार है। इनमें चौबीस का प्रबंध सरकार की ओर से और सात का प्रबंध म्यूनिसिपैलिटी की ओर से होता है। दस व्यक्तिगत चित्रशालाएँ हैं और बारह संग्रहालय हैं। आठ बड़े-बड़े थियेटर घर हैं। इनमें जो घर म्यूनिसिपैलिटी द्वारा संचालित होता है, उसमें साढ़े चार हज़ार आदमी एक साथ बैठकर नाटक देख सकते हैं। सिनेमा घरों की भी भरमार है, जिनमें तीन सिनेमा घर तो ऐसे हैं, जिनमें पहली बार ही किसी फ़िल्म का उद्घाटन होता है। पित्ति महल से लौटते समय संध्या हो चली थी। लौटते समय हमने कुछ सौदे ख़रीदे। फ्लौरेंस में चमड़े और शीशे के काम बहुत अच्छे होते हैं। एक छोटा सा चमड़े का पर्स ख़रीदा, जिस पर फ्लौरेंस की लीली की छाप थी। कुछ छोटी-छोटी शीशे की प्यालियाँ ली। कुछ मिठाइयाँ भी ली। सौदे जितने सुंदर थे उन्हें बेचने वाली लड़की उनसे भी सुंदर थी! गोरा भभूका चेहरा, सुनहले बाल जिन पर खेलवाड़ कर रहे थे। जब वह बोलती तो लगता सितार का तार छू गया। मैंने कहा—तुम बहुत ख़ूबसूरत हो उसने कहा क्या सच? फिर पूछा—क्या भारत चलोगी? फिर उसी तरह मुस्कुराते कहा—मैं भारत को प्यार करती हूँ। किंतु मैं ग़रीब हूँ पैसे कहाँ है? मैंने कहा चलो, हमारे साथ! अब वह खिलखिला पड़ी। ओहो, आप मज़ाक कर रहें हैं। मैं सच कहती हूँ। आपका देश मुझे बहुत ही प्रिय लगता है। चलते समय पूछा तुम्हारा नाम? उसने कहा—कोजा।

    कोजा की, उस युवक की जिसका नाम रोगाई मारशेली था और उस बूढ़े सुपरिन्टेन्डेन्ट की, जिनका नाम में पूछ सका, इन तीन जीवित व्यक्तियों तथा फ्लौरेंस के उन मृत महापुरुषों की मधुर स्मृति लिए अब सोने की तैयारी कर रहा हूँ। कल ही रोम के लिए चल देना है। बार-बार उस वाराहदेक से मनाता हूँ, जिनके थूथने कल मल दिए थे कि—हे भगवान के तीसरे अवतार, फिर कोई ऐसी लग्गी लगाना कि एक बार फिर दांते के इस नगर में आने का सुअवसर प्राप्त हो, कि दो-तीन महीने यहाँ रहकर अपने जीवन को और कलामय बना सकूँ!

    स्रोत :
    • पुस्तक : उड़ते चलो : उड़ते चलो (पृष्ठ 259)
    • रचनाकार : रामवृक्ष बेनीपुरी
    • प्रकाशन : प्रभात प्रेस लिमिटेड, पटना
    • संस्करण : 1954

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY