तक्षशिला

takshashila

भगवतशरण उपाध्याय

और अधिकभगवतशरण उपाध्याय

    कयामत के दिन रुहों के उठने की बात कहीं जाती हैं। उसकी सच्चाई अब तक किसी ने देखा पर आज जो मैं वगैर कयामत के इस बीसवीं सदी में सर जॉन मार्शल की कुदाल से अपनी कब्र से निकल पड़ी हूँ, यह सच है।

    मेरा इतिहास ईसा पूर्व उन्नीसवीं सदी के शुरु होकर ईसा पश्चात् छठीं सदी में समाप्त होता है। ढाई हज़ार वर्षो के इस दौरान में मैं सात बार बसी और उजड़ी और अंत में छठी सदी ईसवी में जो मैं उजड़ी तो फिर बसी। ग्रीको का ट्रौप नगर भी छः बार उजड़ी और बसा था और जब पुलीमान ने उसके स्तर एक के बाद एक उलट कर नींव डाली और तब से अनवरत उस पर नई परतें जमती-उखड़ती गई।

    गंधर्वो का उत्तर-पश्चिमी भारत के इतिहास के निर्माण में विशेष हाथ रहा हैं। अनेक बार उन्होंने इस भू-खांड का नेतृत्व किया है। अनेक बार मेरे केंद्र से काबुल और हिंदूकुश तक की भूमि शासित की हैं। अनेक बार सिंधु देश से काश्मीर तक का भ-खंड मेरी और आदेश और आज्ञा के लिए ताकता रहा है। उन्ही गंधर्वो ने रामायण काल में आर्य नेताओ के सामने आसाधारण कठिनाइयाँ उपस्थित कर दी थीं। राघव साम्राज्यवाद के विरुद्ध बग़ावत का पहला झंडा इसी देश ने खड़ा किया। इसी देश ने पिछले समय में चंद्रगुप्त मौर्य के मरते ही आज़ादी का नारा बुकंद किया और सुशीम को मेरे नगर से बाहर निकाल दिया। फिर अशोक के बेटे कणाल के शासन में भी इसने उस साम्राज्य से निकल जाने की कोशिश की जिस पर “देषा नामकीय पियदसी राजा अशोक” का ‘पितृबत’ शासन था। फिर उसके बिखरते साम्राज्य से अलग होने वाला सूबा भी गंधारों ही का था। बार बार साम्राज्यों की सत्ता ने इस नगर पर अपना आतंक जमाना चाहा, बार-बार इस नगर ने अपनी सीमाओं के अंदर गणतंत्र की स्थापना की।

    सो गंधर्वों का क्रियामाण कर्मठ कठोर जीवन अपने अरमानों और स्वतंत्रता की आकांक्षाओं के साथ जिंदा राघवों की नज़रो में खटका राम ने भरत के नेतृत्व में अपनी संहत्री चोट की। जिस महामानव ने अयोध्या के आधार से उठकर देश पर देश लाँघ समुद्र पार लंका के त्रिकूट के शिखर पर अपने डेरे डाले थे, उसकी महत्ता के समक्ष इस गरीब देश का मजाल कि क्षण भर ठहर सकता! उसे अपनी स्वतंत्रता खोनी ही पड़ी और तब भरत के पुत्र तक्षशील ने मेरी नींव में पहले पत्थर डालें।

    रामायण काल का इतिहास सुदूर का होने के कारण मेरी बूढ़ी आँखो से अस्पष्ट दिख पड़ता है। उसके अनेक कालक्रम सर्वथा अँधेरे में पड़ गए हैं और उनको देख पाना मेरी फूटी आँखों की सामर्थ्य के बाहर हैं। परंतु महाभारत काल की घटनाएँ अपनी शक्ति और क्रूरता से आज फिर मेरे सामने मूर्तिमान हो आई हैं। गंधर्वों का मेरा केंद्र एक बार फिर सजग हो चला था। राम के पाँच सौ वर्ष बाद ईसा-पूर्व पंद्रहवी शताब्दी में फिर मेरे नागरिकों ने इस भू-भाग में अपने शक्ति का साका चलाया और यद्यपि अर्जुन की दिग्विजय ने उनके टखने भी तोड़ दिए थे, निःसंदेह उनके हाथों से अभी कमान छूटी थी। रघुकुल के नष्ट हो जाने के बाद सदियों मेरे नगर में आज़ादी के गाने गाए थे। राघव साम्राज्य के टूट जाने के बाद मैंने खुली हवा में साँस ली थी, परंतु कुरुओं के नए उठते साम्राज्य ने फिर एक बार मेरी आज़ादी का गला दबा दिया। परंतु मेरी शक्ति का अनुमान उन्हें था और जब महाभारत का युद्ध छिड़ा तब कौरव-पांडव दोनों पक्षों ने मुझे अपनी ओर से लड़ने के लिए आमंत्रित किया। मेरे लड़कों ने उस युद्ध में भाग लिया भी परंतु निःसंदेह वह मेरी लड़ाई थी, गंधर्वो की लड़ाई थी बल्कि साम्राज्यवादी दो कुलों की थीं और उनमें से किसी की विजय में मेरी अभिरुचि थी। अनेक बार चित्ररथ और उसके सहकारियों ने अपने हस्तलाघव से महाभारत के आर्य-वीरों को चकित कर दिया परंतु आभग्यवस अंतिम विजय फिर उनके हाथ रहीं और मेरी नगरी पर उनकी सेनाएँ फिर धमकी।

    हस्तिनापुर के इस पारिवारिक युद्द ने सारे भारत को कुचल डाला। सारे भारत का रक्त इस युद्ध में बहा और कुछ तक के लिए यह समुद्र धरा कंगाल हो गई। रक्त पिपासु दिग्विजय और अश्वमेघ द्वारा जन स्वतंत्रता कुचलने वाले पंडावों ने फिर एक बार उत्तर-पश्चिम की ओर रुक किया। इधर मेरी नगरी में एक बार फिर आज़ादी के लड़ाकों ने ताल ठोकी थी। गंधर्वों ने अपने पिछले अनुभवों से जाना था कि उनका अकेले साम्राज्यो के विरुद्ध खड़ा होना कठिन ही नही, असंभव है। इस कारण उन्होंने अन्य सीमा प्रांतीय दुर्द्धर्ष जातियों का एक प्रबल संघ बनाने का निश्चय किया। संघ बना भी और नाग उसमें प्रमुख हुए। गंधर्वो के इस केंद्र, मेरी नगरी में जो नागों का प्रावल्य हुआ। उसमें मुझे कोई ग्लानि नहीं, कोई लाज नहीं क्योंकि मैं जानती थी कि आजादी की लड़ाई में नागों से अग्रणी कोई नहीं। उन्ही नागों ने अर्जुन के पौत्र चक्रवती परीक्षित को एक बार परंतु अर्जुन द्वारा प्रतिष्ठित कुरु वंश के विशाल साम्राज्य पर जो यह कलंक लगा, परीक्षित का बेटा जन्मेज्य उसे स्वीकार कर सका। उसे धोने के लिए वह ककटिबद्ध हुआ, साम्राज्य की सारी शक्तियाँ लिए वह तक्षशिला पहुँचा और मेरे ही केंद्र से उसने दो अश्वमेघ किए।

    उसके अश्वमेघों का भी एक राज था। काफी अर्सें से ब्राह्मण-क्षत्रिय भारत की जमीन पर लड़ते, मिटते और संघर्ष करते आए थे। वरिष्ठ और विश्वमित्र की वह संघर्ष परंपरा परीक्षित के इस बेटे के समय और घनता प्राप्त कर गई। जन्मेज्य और उसके पुरोहित तुरकावेषय में जो संघर्ष चला, वह बर्बरता और नीचता की सीमाएँ नहीं जानता दोनों निम्नतम, निकृष्टतम साधनों का प्रयोग करते रहें और जन्मेज्य के अश्वमेघ के ऋत्विज की हैसियत से पुरोहित तुरकावेषय ने जो आचरण किया वह कितना पतित था, यह मेरे कहने की बात नहीं। राजमहिषी और मृताप्राय अश्व की एकत्र कलुषित भावना मनुष्य के मस्तिष्क में प्रवेश कर उसको भी गला देगी। मैं उसका कथन नहीं कर पाऊँगी। बस इतना जानें कि उससे यज्ञ भ्रष्ट हो गया और उसकी अपावनता से क्षुब्ध जन्मेजय के भाइयों उग्रसेन और शुतसेन ने साठ हज़ार ब्राह्मणों को तलवार के घाट उतार दिया। शेष ब्राह्मण निर्वासित हो गए और उसके प्रायश्चित रक्त यह आर्यो की बर्बर मेघा ही सोच सकती। रक्त और लूट, दिग्विजय और अश्वमेघ के स्वप्ननों को चरितार्थ करने वाले इन आर्यों के प्रतिनिधि जन्मेज्य और तुराकावषेय ने जो मेरी भूमि पर किया, वह मेरी लज्जा की बात होते हुए भी अकथ्य है।

    परंतु जन्मेज्य मेरी नगरी में अश्वमेघ करने आया था। उस गंधर्वों के गणों मे अग्रणी उन नागों का सर्वनाश करना था जिन्होंने उसके पिता परीक्षित का निधन किया था। जिस प्रकार उसमें नरमेघ की भी रीति थी और वस्तुतः नर संहार तो उनके युद्धों की प्रमुक प्रक्रिया ही थी। जन्मेजय भी नरमेघ के लिए मेरी नगरी में पड़ा हुआ था। नाग यज्ञ के मनसूबे उसन हस्तिनापुर से ही बाँद रखे थे और अब अश्वमेघों से छुट्टो पा, पास की भूमि पर अश्वमेघ के आतंक की छाया डाल, उसने नागयज्ञ का अशुभ आरंभ किया। एक एक नाग बाल, युवा, वृद्ध, नारी पकड़ पकड़ यज्ञ की प्रज्वलित अभि में डाल दी गई। उन आकाशचुम्बी लाल लपटों से कोई नाग बचा। अगर कोई बचा तो वे नयनाभिराम नारियाँ जिनके विपुल परिमाण ने आर्य राजन्यो और ब्राह्मण पुरोहितो के घरो को प्रसन्न किया। मेरा यह पहला बलिदान था। भारत मे उन्नत नगरो की कमी नहीं। उनके गौरवमय कृत्यों की कमी नहीं, उनके बलिदानों की सीमा नहीं। परंतु जो बलिदान मैने अपनी नगरी में किए, जिस परिमाण मे मैने अपने बाँके जवानो की आज़ादी के यज्ञ मे आहुति दी, उसका दूसरी दृष्टांत भारत के तो क्या संसार के किसी देश के इतिहास में नहीं।

    महाभारत काल का अंत हुआ। कुरु साम्राज्य की श्रृंखला टूटी और पंजाब फिर स्वतंत्र हो, अनेक गण-तंत्रों मे बँट गया। मैं भी आज़ाद हुई। मैंने भी अपनी नई शक्ति नए सिरे से हासिल की। जिस शक्ति और सीमा को मैंने इस काल स्वायत किया, उसकी तुलना पिछले काल में सदियों बाद इटली का बेनिस नगर ही कर सकता हैं। ऐसा नहीं कि स्वतंत्रता-प्रिय मेरे नागरिकों ने निष्किय हो, उसे चुपचाप देखा हो और उसे निगला हो। बार-बार मैंने एककतंत्री शासन की काया पलट की। बार-बार उसे उलटकर मैंने जनतंत्र की स्थापना की। उपनिषद् काल में देश में जब क्षत्रियों ने ब्राहम्णों के हाथ से सांस्कृतिक और दर्शनिक नैतृत्व छीन लिया , जब अश्वपति कैकेय, प्रवाहरण, जैबलि, अजातशत्रु, काशेय और जनक विदेह, कैकेय,पंचाल, काशी और विदेह में अपने परिषदों का वितन्वन करने लगे और आत्मा परमात्मा के चक्कर में उन्होंने अपनी प्रजा के उन्मुख नेताओ को डाल दिया तब मैं चुपचाप इस दिशा से उनको देखती, उनके पेंच के मुहावरे सुनती और मुस्कराती रही। शब्दाडम्बर कितना महनीय हो सकता है, बाग्जाल कितना प्रलोभक और सांस्कृतिक साम्राज्य कितना भयंकर, यह मैं अपने दूर की स्थिति से देख सकती थी। मैं उन केंद्रो से दूर थी। कैकय यद्यपि मेरा पड़ोसी था, फिर भी मैं उसके कुचकों से स्वतंत्र थी और बार-बार मैंने यह कहा कि आडम्बर उतनी ही सीमा तक सफ़ल हो सकता है, जितनी सीमा तक वहाअ अनमिज्ञों का प्रभुत्व हो। मेरे नागरिक तर्क सम्मत व्यवस्था का प्रतिपादक थे। वाग्जाल का उन पर प्रभुत्व पाना तो दूर रहा, वे उनका सक्रिय स्पर्श भी कर सकता थे।

    मेरा गणतंत्र सजग था। पास ही ईरान साम्राज्य समुद्र की तरह लहरा रहा था, जिसने एक ओर चीन और बाख्त्री की सीमाएँ छू तो थीं, दूसरी ओर भूमध्यसागर और ग्रीस की, परंतु मैं फिर भी आज़ाद थी। ऐसा नही कि मुझे उस महासाम्राज्य सागर से डर लगता हो, विशेषकर जब यूनान के नगर एक के बाद एक उसके सामने गिरते गए मैं सजग, सतर्क अपनी सीमाओं पर रक्षा की मशाल लिए बलिदान के सोपानमार्ग पर खड़ा पश्चिम की ओर देखता रहा। उन दिनों यद्यपि मेरे गणतंत्र की सीमाएँ छोटी थी परंतु निश्चय मेरी नगरी की ख्याति विश्वव्यापी थी। विद्या का जो केंद्र ईसा से सात सौ वर्ष पहले अपने यहाँ स्थापित किया था। वह सदियों चलता रहा। ईसा पूर्व छठी सदी में तो मैंने वह ख्याति अर्जित की जो किसी विश्वविद्यालय ने कभी की, शायद आज भी नहीं। दूर देशों के विद्यार्थी मेरे यहाँ आते, भारत के कोने-कोने के और विदेश के। चीन का राजकुमार जब अपनी प्रज्ञाचक्षु लिए संसार के सारे चिकित्सा केंद्रो में घूम आया, तब मेरे ही कुशल जर्राह ने सफ़ल आपरेशन से उसको दृष्टि दी। मगध के जीवक और कोशल के प्रसेनजित ने मेरे ही विद्यापीठ में अपना ज्ञानार्जन किया था। पाणिनी और चाणक्य ने मेरी ही नगरी विश्व की मेघा थी। और यह मेघा निश्चय जनक विदेह अथवा प्रवाहण जैबलि नहीं सँभाल सकते थे। उसका सृजन आज़ाद गणतंत्र द्वारा और उसी ने मेरी धरा पर उसे संभव किया था। संसार के तीन महापुरुषों के सहचर अपने अपने काल में मेरी सड़को और डिऔजेनीज का शिष्य ओनेसीक्रीतस और ईसा का शिष्य सेंट टौमस। पर इस समय नहीं, उचित प्रसंग में ओनेसीकीतस और सेंट टौमस की कथा कहूँगी।

    ईरानी साम्राज्य जिसकी ओर अभी अभी संकेत कर चुकी हूँ, आर्यो का था और साम्राज्य प्रकृतितः बुरे और कर होते हैं। फिर यह आर्यो का या, आधार से ही तृशंस, आरंभ से ही रक्त पिपासु। अश्व जिनकी शक्ति राष्ट्र का द्योतक ही मनुष्य जिनके हस्तलाघव का प्रमाण हो, कुत्ते जिनकी बर्बरता के अभिशाप हों, उन आक्रमण विजेताओं की शक्ति का उपहास मुझे नही करना है। मैं केवल इतिहास घटित उनके ख़ूनी पराक्रम के हवाले दूँगी। असुरों का रक्त सम्भार स्वंय कभी अपना आग्रि झाँड़ उलट दिया। था और जब हम्मुराबी के धनुष के टंकार नील से सिंधु तक सुन पड़ने लगी थी, तब मैं स्वंय दहल उठी थी। परंतु उन असुरों के विजित पर भी आर्यो की इस ईरानी शाखा ने मरणान्तक चोट की। आसुरी साम्राज्य के ऊपर ईरानी साम्राज्य का बिताना तना। साम्राज्यवाद कभी अपनों-परायों को नही सोचता, नही समझता। पड़ोसी उसका पहला शत्रु होता है चाहे वह पड़ोसी सगोत्रीय हो, चाहे मित्र। ईरानी आर्यों के सम्राट क्षर्याष,कुरुष और दारयवौष (दारा) ने जब अपनी सीमाएँ पश्चिम की ओर बढ़ानी शुरु की तो डोरियन ग्रीकों के नगराधार हिल गए और उनके अवशेष जिनकी ख्याति, जन बल, स्वार्तव्य-प्रियता और दर्शनिकता चोटी तक पहुँच चुकी थी, अब उनके सामने क्षण भर खड़े रह सके। ईरानियों ने आर्य-अनार्य का विचार ताक पर रख दिया और वे उन्हें कुचल बैठें। उनसे छुट्टी या छठी सदी ईसा पूर्व के मध्य दारा ने अपनी कठोर दृष्टि पूर्व-दक्खिन की ओर भी डाली और मैं तिलमिला उठी।

    आख़िर एक दिन वही हुआ, जिसका मुझे डर था। ईरानी रिसालों की अटूट पंक्तियाँ हिंदूकुश लाँघती खैबर की राह मेरे द्वार पर खड़ी हुई। जहाँ तक बन पड़ा, मैंने उनका अवरोध किया। परंतु कहाँ तो संसार के सब से बड़े साम्राज्य के खूनी साधन और कहाँ मुझ सांस्कृतिक केंद्र की सीमित शक्ति, उखड़ गई। पंजाब और सिंध ईरानी साम्राज्य की बीसवीं क्षत्रयी (सूबा) में गिनें जाने लगे। मेरी नगरी को भी सोने की धूल की एक तौल ईरानी वार्षिक आय के रुप में देनी पड़ती थी। परंतु साम्राज्य स्वंय जो एक संगठित विरोधाभास हैं, उससे उसका अपने आप टूट जाना भी स्वाभाविक है और ईरानी साम्राज्य की चूलें भी धीरे-धीरे हिल गई। इधर उस पकड़ के कमज़ोर पड़ते ही, मैंने फिर बग़ावत का झंडा अपने हाथ में लिया और केवल मैं आज़ाद हुई बल्कि साथ ही मैंने सिंधु को भी आज़ाद किया।

    मानती हूँ, यह आज़ादी बहुत दिनों कायम रह सकी। इस अवसर पर इसी प्रसंग मे तबारीख नबीसों के लिए भी एक बात कह देनी मुनासिब समझती हूँ और यह बात मेरे इतिहासकार मज़ाक मे लें इससे मै उन्हें होशियार किए देती हूँ। कारण यह है कि जो झूठ-सच घटनाएँ वे अपनी सूझ और कल्पना से बनाते रहे है, उनको और केवल सच्चाइयों को मैंने खुद देखा और भोगा है, सो मैं कहती हूँ कि एक देशीय इतिहास लिखने वाले इस बात को सर्वथा भूल जाए कि अपने देश की सीमाओं में घटने वाली घटनाओं को लिखकर वे इतिहास लिखने के श्रेय को अंकगत कर रहे हैं। घटनाएँ आंशिक और प्रदेशिक कम होती है, अंतर्देशिक अधिक। कौन कह सकता था, भला किसे गुमान भी था कि इजिंयन तक के स्वतंत्र नगर श्रृंखला के उत्तर में मकदूनिया के से नितांत लघु, पहाड़ी और बर्बर भ-खंड से जो आँधी उठेगी वह संसार के सारे प्राचीन साम्राज्य आधारो को हिला देगी, उन्हें बेकाबू कर जीत लेगी? कौन जानता था कि वह आँधी बारी-बारी से मिश्र और ईरान पर चोट करेगी और उनके प्रांत देखते-देखते बिख़र जाएँगे पर हुआ ऐसा ही। फिलिप के उस तपस्वी वंशधर ने जिसने अरस्तू के दर्शन को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया था, जिसने पिता की प्रसार नीति को क्षुद्र नगरो के सामने जब तक कुणठित होते देख अपने तेवर बदल दिए थे, जिसने मकदूनिया के सीमित साधनों को अपने लिए रख, उसके नवर्जित वैभव को मित्रों में बाँट दिया था, दूरी को असंगत कर सम्राज्यों का अंत कर दिया। मकदूनिया से निकल मिश्र और सीरिया होता, ईरानी साम्राज्य को अपनी ठोकरों से गिरता, पसेंपोलिस को अपनी प्रेयसी ताया के इशारे से भस्म-भस्म सात करता, हिंदूकुश की ऊँचाइयों को भी एकाएक लाँघ गया। क्षण भर के लिए सीरियक शासक की कन्या रुक्षाना और ईरानी सम्राट की कन्या आर्तकाया के मोह में भूल जब तक उसने आपान के रस लिए तब तक ईरानी रणनेताओं ने भाग कर बाख्त्री को अपना गढ़ बना लिया, परंतु सिकंदर लौटा। हिंदूकुश लाँघ वक्षु के तट पर उसने एक बार प्रलय लीला मचा दी और फिर हिंदूकुश लाँघ प्राचीन आर्यों के सतसिंधु की पश्चिमी चोटी पर खड़ो होकर उसने पूरब की और मार के नाम पर दौड़ पड़ने वाली जातियों के भयानक साहसिकों को लिए पूर्व की ओर उस उँगली की सीध में चल पड़ी।

    ईरान का टूट जाना कुछ आसान था। उसकी ख़बर जादू की तरह दुनिया में फैल गई थी। पंजाब के प्राचीन गणतंत्र शंकित हो उठे थे। प्राचीन मगद का पाटलिपुत्र दम साधे पश्चिम की ओर रुख किए देख रहा था। मैंने भी दो सदियों बाद ईसी पूर्व चौथी सदी की इस आँधी को झेलने के लिए कमर कसी। परंतु वह मेरे बस की बात थी। जन बल मेरा था। मेरे गणतंत्र हाल ही में ध्वस्त हो गया था। तक्षशिला ने उसके नेताओ को कुचल कर, एकतंत्रीय शासन का फिर से आरंभ किय था और उसका पुत्र आम्भी इस समय मेरा प्रभु था। सिकंदर आया और मेरे स्वामी ने हथियार डाल दिए। उसके दूतों ने सिंधु पार जाकर उसका स्वागत किया। पराजित मैं पहले भी हुई थी, पीछे भी हुई। परंतु अपनी पराजयों के लिए मुझे कभी ग्लानि हुई, जो चढ़ता है वही गिरता है, बिना चढ़े कोई क्य गिरेगा। घुटनों के बल चलने वाला निश्चय कभी मैदानेजंग में नहीं गिरता। हार जीत लड़ाई के दो पहलू है, जिनको अंगीकार कर ही लड़ाका मैदान में उतरता है। मैं अपनी हार-जीत से दुःखी या सुखी नहीं हूँ। परंतु जिस संघर्ष मे प्रयत्न का अभाव हो; जहाँ मैदान में उतरने की नौबत आए बगैर ही भाग्य का निपटारा हो जाए, वहाँ मैं अपने लिए स्थान माँगूँगी; इतिहास की पंक्तियों में इस प्रसंग में नाम आने पर मैं भरसक उसे काट भी देने का प्रयत्न करुँगी। परंतु अभाग्य! वही हुआ जिससे मुझे घृणा थी। राजा तक्षशिला का बेटा आम्भी आख़िर वह घिनौना आचरण कर ही बैठा, जिससे मेरे मुँह स्याही पुत गई—एक बार फकत एक बार, सिकंदर आया। अटक के पास ओहिंद को लाँघ तीन दिन की यात्रा कर वह मेरे नगर में पहुँचा, जहाँ चाँदी और सोने की राशि, भेड़ो और सुंदर बैलो की अनंत संख्या, विज्ञेता को प्रदान की गई और जब तक अपनी नारियों और सुबासित शराब के विलास में सिकंदर मन बहलाता रहा; जब तक ग्रीक सैनिक खेल-कूद मे; विश्राम और ग्रीक देवताओं की पूजा में अपना व्यसन करते रहे, आम्भी पर-दिकस को लिए मेरे चतुर्वेदिक जनपद को जीतने निकल पड़ा। जब मनुष्य गिरता है तब गिरता ही जाता हैं। परंतु सम्भवतः उसका कोई तल होता ही है। पर जब राजा गिरता है जो शायद मनुष्य से इतर हैं तो उसके पतन का कोई अनुबंध नहीं होता; उसे शायद कोई तल नहीं मिलता। आम्भी के लिए इतना बस था कि वह स्वंय आत्मसमर्पण कर देता वरन् उसने अपने देश को विदेशी झंडे के छाए में जीतने का भी बीड़ा उठाया। यह राजा द्वारा ही सम्भव था। कुछ ही समय बाद मैने कठों को मालवों और क्षुदकों को शिवियौधेय को पग-पग पर विदेशी विजेता की राह रोकते देखा। इस इस की जमीन अपने रक्त से सींचते देखा और मैं तमक उठी की मुझे इतने का भी श्रेय मिला। मैं कह रही थी कि राजा जब गिरता है, गिरता ही जाता है। आज यादि मेरा गणतंत्र जीवित होता तो मैं भी वही करती जो मालव क्षुद्रको ने किया, कठ, यौधेयों ने किया, पर मेरे ऊपर अंकुश लिए जो आम्भी बैठा था, उसने मेरे अरमानों का गला घोंट दिया। मेरे पाँच हज़ार चुने जवानों ने आम्भी के नेतृत्व में राजा पौरव को हराने में सिकंदर की मदद की। राजा पौरव स्वंय उसी राजनीति का शिकार और पोषक था, जिसमें राजा अपने राष्ट्र को व्यक्तिगत रुप से भोगने की वस्तु मानता हैं और उसने भी वही आचरण किया जो आम्भी ने किय था। कठों के अध्यवसाय ने ग्रीको को प्रायः जोत लिया था कि पौरव ने अपने चुने जवानों के साथ उन पर आक्रमण कर उन्हें कुचल डाला था।

    आँधी आई और गई। मैं यद्यपि कुचल गई थी, पर उस ओर से उदासीन थी। बुद्धकालीन भारत के गणतंत्रो मे पूर्व की ओर वज्जी लिच्छवियों ने जिस आज़ादी की रक्षा का भार अपने हाथ में लिया था उसी का रक्षा भार उत्तर-पश्चिम में मैंने लिया था। समय समय पर मेरी छाती पर निःसंदेह राजतंत्र सवार होता गया, परंतु फिर भी मैने उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया जारी रखी और फिर-फिर मैने उसके विरुद्ध हथियार उठाया। आम्भी का व्यवहार मेरे लिए मेरी अटूट ग्लानि का कारण सिद्ध हुआ और मैं पहले अवसर का ताक मे सजग हो बैठी। अवसर मिला, सिकंदर लौटा और लौटने के पहले उसने मुझको सिंध और झेलम के बीच के देश की राजनीतिक का केंद्र बना दिय और मेरे राजा आम्भी को उसका रक्षक। तीन वर्ष बाद सिकंदर के बाबुल में मरने की ख़बर आई और उस ख़बर ने केवल मृत्यु का संदेश ही नहीं बहन किया बल्कि पंजाब के गण राज्यों में एक नई स्फूर्ति भर दी। पहले से ही सिकंदर के पीठ फेरते ही विप्लव होने लगे थे। उसके कई क्षत्रपों की हत्या भी पंजाब और उसके समीपवर्ती प्रदेश में हो चुकी थी। परंतु अब तो ग्रीको का निष्काशन नए सिरे से शुरु हो गया। इसी बीच, मैंने भी आम्भी और उसके राजकुल को उखाड़ फेंका।

    अब मैं फिर गणतंत्र थी। फिर आजादी का एक नया अंकुर मेरी जमीन मे लगा। परंतु मैं यह साफ़ बता देना चाहती हूँ कि जितना अपकार विदेशी मेरी राजनीति का कर सके थे, उतना मेरे स्वदेशी राजाओं ने किया। असल बात तो यह हैं जैसा कि पहले कह चुकी हूँ, साम्राज्यवाद अपना पराया नहीं देखता। मैं भी, कोई कारण था कि भारतीय उठते हुए साम्राज्य का प्रिय पात्र बन सकती। चंद्रगुप्त मौर्य ने मगध में एक नए कुल का आरंभ किया था। नंदो के राजकुल को समूल नष्ट कर उसकी गद्दी पर कठोर मानस ब्राह्मण चाणक्य ने चंद्रगुप्त को प्रतिष्ठित किया था। चाणाक्य अप्रतिम साम्राज्यवादी था और अपने अर्थशास्त्र में उसने एक सर्वथा मारक, विध्वंसक एकछत्र साम्राज्य का प्रणायन किया। उसकी मेघा की दो भुजाएँ थीं, चंद्रगुप्त के रुप में अनुप्रणित और उनके योग पाटलिपुत्र में बैठा हुआ ही उसने भारत के प्रांत के प्रांत खींच लिए। पंजाब ने उनकी सहायता के लिए धन-जन, साधन सभी कुछ दिए थे। उससे बढ़कर उसने उन्हें मगध साम्राज्य की गद्दी दी थी। परंतु उसका उन्होंने उल्टा प्रयोग किया। हमारी नेकी का बदला उन्होंने बद से दिया और एक के बाद एक पश्चिमी भ-खंड मगध की बढ़ती सीमाओं में समाते गए। इस काल पंजाब में अनंत गण-तंत्रो की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। प्रत्येक गर्ण-तंत्र अपनी सीमाओं में स्वतंत्र और संतुष्ट था। मैं भी अपनी हाल की रुग्णता से लौट कर स्वास्थय लाभ कर रही थी, परंतु मगध की संहत्री चोट ने मुझे फिर धूल चटा दी।

    अन्य गण-तंत्रो की ही भाँति मैं भी मर्माहत हुई। मैं भी पंजाब के अन्य प्रदेशों के साथ ही, मगध साम्राज्य का एक प्रांत बनी। मेरी नगरी में उत्तर-पश्चिम का शासन केंद्र प्रतिष्ठित हुआ। सिकंदर ने संतान छोड़ी थी। उसका विशाल साम्राज्य उसके मरते ही उसके सेनापतियों मे बँट गया। गागामेला के युद्ध के बाद सेल्यूकस अपने स्वामी के जीते भारतीय प्रांतो की ओर जब बढ़ा तब मुझे ऐसा लगा कि मगध और सीरिया के इस कशमकश में, मैं निश्चय स्वतंत्र हो जाउँगी। पर स्वतंत्र हो सकी मै, क्योंकि सेल्यूकस को यह चढ़ाई महँगी पड़ी और मगध सम्राट ने उसके प्रयास की रीढ तोड़ दी। उसके हिंदूकुश के पूर्व के चारों प्रांतो के शासन का उत्तरदायित्व भी मेरे ही कंधो पर पड़ा।

    यह भूलना चाहिए कि मैं इस समय भारत के एक विशाल भ-खंड की स्वामिंनी थी। एक समृद्ध प्रदेश की, जिसमें नितांत सभ्य और असभ्य बर्बर एक साथ बसते थे। सारा पंजाब, सिंध, काश्मीर, औऱ अब काबुल-कंधार बलुचिस्तान और हैरात भी मेरे शासन में गए। इन पिछले चार सूबों में बसने वाली जातियों पर कभी कोई शासन कर सका था। उन भयानक जातियों पर अब मुझे शासन करना पड़ा।

    मैं समझती हूँ, मेरे पतन का एक विशेष कारण भी था। इसमें संदेह नहीं, मेरी राजनीति कुछ काल से छिन्न-भिन्न हो गई थी, विशेषकर सब से अधिक उस पर राजसत्ता का प्रादुर्भाव हुआ था। परंतु इसमें भी संदेह नहीं कि राजनीति सदा सामाजिक परिस्थतियों का परिणाम हुआ करती है, और मेरा समाज नितांत कलुषित हो गया था। सिकंदर ने स्वंय मेरे बाज़ारो में कंगाल पिताओं द्वारा कन्याओं को बेचते देखा था। मेरे मृत नागरिको के शव जहाँ तहाँ डाल दिए जाते थे, जिन पर गिद्ध और चीलें मँडराती थी, बहु विवाह ने नारियों की इज्ज़त ख़ाक में मिला दी थी। पुरुष का शौर्य अपनी मान रक्षा से हट कर वीर की सेवा में जा लगा था। पहले सैनिक वीर का पार्श्ववतीं समान अधिकारी था, अब वह उसका अनुचर हुआ। इनके अतिरिक्त अनेक सामाजिक दुर्व्ववस्था मेरे जन-बल को और उससे कहीं बढ़ कर उसकी मानसिक आजादी को खाने लगी थी। यह सम्भव था कि दुर्व्वस्था के बावजूद भी मेरी राजनीति पूर्ववत् आजादी की रक्षा में संलग्र रहती हैं। जो भी हो, आजादी के छिन जाने से मेरा सर्वस्व छिन गया और मैं मगध साम्राज्य की चेरी बन गई।

    मैं ऊपर कह आई हूँ कि जिन जातियों का नियंत्रण मेरे जिम्मे पड़ा था, उनका नियंत्रण कुछ आसान था। जीवन में नियंत्रण में रहना उन्होंने सीखा ही था। दाँत और आँख के बदले आँख—यही सदा से उनकी नीति रही थी। और यही नव साम्राज्य के नव वीधान नहीं रहने देना चाहते थे। फिर संघर्ष शुरु हो गया और उत्तर-पश्चिमी सीमा पर युसुफजई और काफिस्तान की संधि पर क्षोभ के काले बादल मँडराने लगे। चंद्रगुप्त मर चुका था। चाणक्य की राजनीति भी पेच मे पड गई थी। बिंदुसार तलवार उठाने में यद्यपि पिता कुछ कम प्रवीण था, परंतु उसमे तो चंद्रगुप्त की महत्वाकांक्षा थी और उसे चाणक्य का मंत्र ही उपलब्ध था। यद्यपि उसने अपने को ‘अभिन्नघात’ कहा, पर वह दरबार सेवी था। सिकंदर की सेनाओं ने भारत के लिए पश्चिम की राह खोल दी थी। पश्चिमा राजाओं के साथ राजनीतिक दौत संबध स्थापित हो गया था। बिंदुसार पश्चिमी राजाओं से अंजीर मदिरा और दर्शनिक माँगता था। सिकंदर के साथ जो अनेक दर्शनिक आए थे, उन्होंने मेरी नगरी की सड़कों पर भी दर्शन के कोलाहल सुने और अनेक तर्क से द्रवित हुए। ओनेसीक्रीतस तो सुकरात और डिऔजनीज का शिष्य ही था, अफ़लातून का गुरुभाई और उसने भारतीय दार्शनिकों के चमत्कार की बात पश्चिमी विदेशों में फैलाई थी। परंतु दर्शन इस एकाकी निष्फल दार्शनिक का चिंतन में मेरी आज़ादी का गला घोट दिया। उदासीनता इस दर्शनिकता का प्राणा है और जो इसका प्राण है, वही राजनीति के लिए भी है। सो यद्यपि मुझे इसकी कम ख़ुशी नहीं कि ओनेसीक्रीतस का सा दर्शनिक मेरी सड़को पर घूमा मेरे दर्शनिको से उसने शास्त्रार्थ किए विजित और चमत्कृत हुआ, यह बात मुझे कुछ कम नही ख़लती कि इस दर्शनिकता के पुट ने मेरा कमी सर्वस्व छीन लिया था। परंतु उसी दार्शनिकता को धुन की तरह मगध केंद्र में लगते लगते देख मैं भीतर ही भीतर कुछ प्रसन्न भी हुई। दूरस्थ प्रांतो में उदासीन बिंदुसार अपनी पकड़ मुझ पर भी कमजोर कर देगा, इससे आश्वस्त होकर मैं उन दुर्द्धर्ष जातियों की ओर रुख़ कर बैठी, जिनका बर्बर आज़ादी के प्रति माह मुझ अंधे का सहारा हुआ और रुख़ करना सचमुच व्यर्थ भी सिद्ध हुआ। तुरंत विद्रोह की आग भड़की।

    सुसीम मगध के सम्राट का प्रतिनिधि था और वह अपने मंत्रिमंडल के साथ मेरे ही नगरी में निवास करता था। यहीं से वह पंजाब सीमाप्रांत, सिंध और काश्मीर के प्रदेशों पर शासन करता था। यहीं से वह उन दुर्दान्त जातियों को नियंत्रित रखता था जो हिंदूकुश के साये में उठती गिरती रहती थीं। उन्हीं जातियों ने विद्रोह की आग भड़काई जो सिंध से काश्मीर तक लगातार भड़कती चली गई। मगध की स्थानीय सेनाओं ने सारे प्रयत्न किए। प्रयत्न कर कर वह थक गई, पर विद्रोह शांत हुआ। कुछ समय के लिए सुसीम और मंत्रिमंडल को मेरा नगर छोड़ कर भागना तक पड़ गया और साम्राज्य का उत्तर पश्चिमी सीमाप्रांत संकट में पड़ गया। अंत में लाचार सम्राट बिंदुसार को, उज्जैनी के शासक अपने दूसरे पुत्र अशोक को मेरे दमनार्थ भेजना पड़ा। अशोक अपने पितामह की ही भाँति ही उदात्त और शत्रुनाशक था। उसने झट विद्रोहियों को कुचल डाला। मेरी प्राचीरों के पीछे जो एक नए स्वतंत्र संघ ने जन्म लिया था, जिसकी आज़ादी की आकांक्षाओं ने पठानों के विद्रोह को शाक्ति दी थी, छिन्न-भिन्न हो गया। अशोक कुछ काल तक वहीं जमा रहा फिर जब विद्रोह सर्वथा शांत हो गया, तब वह यहाँ का य़थोचित प्रबंध कर पाटलिपुत्र लौटा।

    किस प्रकार पिता के मरने के बाद भाइयों में संघर्ष छिड़ा, किस प्रकार उनके रक्त से होली खेल अशोक ने सिंहासन की ओर अपने कदम बढ़ाए, किस प्रकार दिग्वजय की कामना से कलिंग को कुचलकर अशोक ने अपने साम्राज्य में मिला लिया, किस प्रकार उसने लाखों का नाश कर अपनी शक्ति का सबूत दिया, किस प्रकार उसने लाखों का नाश कर अपनी शाक्ति का सबूत दिया, किस प्रकार फिर उसकी प्रतिक्रिय के वशीभूत हो उसने बौद्ध धर्म में दीक्षा ली और किस प्रकार देवा नामकीय के पियद्सी बन इसने उस धर्म का प्रकार किया, प्रजा की नई सेवा की वह वास्तव में मगध और पाटलिपुत्र की कहानी हैं, मेरी नहीं और मैं उसे कहूँगी। इतना ज़रुर कहूँगी कि यद्यपि उस महान् नृपति में अनेक गुण थे, दया और औदार्य था परंतु जहाँ तक स्वतंत्रता की बात थी, उसने भी उस दिशा और औदार्य था परंतु जहाँ तक स्वतंत्रता की बात थी, उसने भी उस दिशा में कोई प्रयास किया। जीते जी प्रांतो के ऊपर उसने अपनी पकड़ ढीली होने दी और यद्यपि उसके उपदेशों से मुझे कुछ राहत मिली थी। मैंने सोचा था कि सम्भवतः विभिन्न जातियों को वह आजादी बख़्श दे परंतु आस-पास खड़े उसके उपदेश स्तम्भों के बावजूद भी मैंने उस दिशा में कोई गाति देखी और चित्त मार बैठा रहा।

    अशोक देवताओं का प्रिय, प्रजा का प्रियदर्शी अशोक निश्चय महान था। पितामह की कठोर राजनीति को बदला भी उसने बहुत कुछ, परंतु वह स्वंय अंततोगास्वा अपनी कमज़ोरियों का शिकार हो गया। अब भी मैं उसके उत्तर-पश्चिमी सीमांत की राजधानी थी; अब भी सम्राट का प्रतिनिधि शासक अपने मंत्रिमंडल के साथ मेरे केंद्र से इधर के प्रांतो पर शासन करता था। अशोक ने सम्राट होने के बाद अपने पुत्र कुणाल को मेरे नगर में अपना प्रतिनिधि शासक बनाकर भेजा। कुणाल शिष्ट और सुंदर था, वीर और आचारबान, परंतु यही गुण उसके सर्वनाश के भी कारण हुए। वृद्धावस्था में अशोक ने तिष्यरक्षिता से विवाह कर लिया था तिष्यरक्षिता तरुण थी, सुंदरी थी, आकर्षक थी, कामुकी थे। उसका घटा सा उठता यौवन राजा के वृद्ध पौरुप पर व्यंग का अट्टहास था। तिष्यरक्षिता को सम्भालना अशोक के लिए सम्भव था, और अपने काम की अभितृप्ति के साधनों से वह नित्य पाटलिपुत्र के प्रसादों में अपना अभिरंजन करने लगी। मंत्रण के लिए आए हुए सौत के बेटे कुणाल को जो उसने प्रसाद में पिता के साथ देखा तो दोनों के असमान सौंदर्य, विषम पौरुष को देख वह कुणाल पर लट्टू हो गई। कुणाल के औचित्य ने उसे घिक्कार कर ठुकरा दिया, परंतु गार्विणी चोट खाए नाग की भाँति फुफकार उठी और उसे डसने के अवसर ढूँढने लगी। एक दिन उसने अपनी दुरभि-संधि चरितार्थ भी कर ली। वृद्ध प्रणय में विवेक की मात्रा कम प्रेयसी के प्रति उत्तरोत्तर कम होती जाती हूँ। अशोक ने उस कल्पित कथा को सत्य माना तिष्यरक्षिता ने कुणाल के विरुद्ध उसके कान में डाली और उसने अपनी मुद्रा उस शासन पत्र पर अंकित कर दी, जिसमें कुणाल के सौंदर्य के प्राण उसके खंजन नेत्रों को निकाल लेने का आदेश था। मेरी ही नगरी में, मेरे ही प्रासाद में, मेरे देखते ही देखते उस कर्मठ वीर्यवान् आचारधूत कुमार के नेत्र कोटरों से निकाल लिए गए। तिष्यरक्षिता ने उनको देखा और अभितृप्ति लाभ की।

    अशोक के मरते ही साम्राज्य के प्रांत बिखर चले। फिर मैंने आजादी के सपने सत्य किए और शीघ्र काबुल तक के भू-खंड के साथ मैं स्वतंत्र हो गई। फिर मैंने अपनी प्रचीरों के भीतर गणतंत्र कायम किया। यद्यपि काबुल के राजा की शक्ति का लोहा मुझे जब तब मानना पड़ा। इसी बीच मध्य ऐशिया में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी और यद्यपि सींरियक सम्राट पर्थिया और बैक्ट्रिया दोनों पर निरंतर चोटें करता रहा, उसके खोए हुए प्रांत फिर साम्राज्य को लौटे। बख़्शी में तो वह महीनों अपनी सेना लिए उछल-कूद मचाता रहा, परंतु यूथिदेमों के सामने उसकी चली एक नही। मज़बूर होकर उस नए राजकुल के साथ संधि करनी पड़ी और यूथिदेमों के पुत्र कुशल राजनीतिज्ञ दिमित्रिय को उसे अपनी कन्या देनी पड़ी। फिर अपनी हार की झँप मिटाने के लिए वह हिंदू-कुश लाभ भारत की ओर चला। भारत का उत्तर-पश्चिमी प्रांत मेरे केंद्र के साथ ही मगध से बाहर निकल गया था और अब उसका शासन सुभागसेन नामक एक भारतीय पठान करता था। सुभागसेन आक्रमण को रोक सका। और उसकी सेनाएँ मेरे मैदान में सहसा धमकीं। इस देश का सिंहद्वार होने के कारण मुझे विजेता से लोहा लेना पड़ा और मेरी सेनाओं ने जो सिंधु लाँघ सेल्यूकस के उस वंशधर को अपने शौर्य का सबूत दिया तो उसे उलटे पाँव स्वदेश लौटना पड़ा।

    हाँ, बाख़्त्री के दिमित्रिय के सामने मेरी एक चली। मेरे ही मैदानों में उसने भारत जीतने के उपक्रम किए। यहीं उसने अपनी सेना के दो भाग किए। एक उसने अपने जामाता मेनामदर को दे पूरब की राह से पाटलिपुत्र भेजा, दूसरा स्वंय लेकर सिंध और राजपुताने की राह मगध की राजधानी में जा धमका। परंतु वह कहानी पाटलिपुत्र की है, मेरी नही। मैं उसे कहूँगी।

    जिस शासन में जनता का हाथ नहीं होता उसकी स्थिति कितनी डावाँ-डोल होती है, इसका प्रमाण बाख़्त्री का विपन्न राजकुल ही देगा।

    दिमित्रिय प्रबल था, महान था, नीतिज्ञ था, प्रजावत्सल और प्रजाप्रिय था, परंतु उसके पीठ फिरते ही, उसकी राजधानी में जो घटना घटी वह मेरे वक्तव्य के सत्यता की साक्षी हैं। दिमित्रिय के प्रिय पात्र युकेतिद ने केवल उसकी गद्दी, राजधानी और राज्य ही हड़प लिय वरन् उसकी रानी भी स्वायत्त कर ली। और अब जब इस गृह वंचकता का संदेह पा दिमित्रिय पाटलिपुत्र से स्वदेश की ओर वायुवेग ले लौटा तब युकेतिद मेरे ही नगर में उसकी राह रोकने खड़ा हुआ। चुने हुए मठ्ठी भर जवानों से छः महीने तक मेरे ही प्राचीरों के पीछे युकेतिद जमा रहा परंतु दिमित्रिय उसका बाल बाँका कर सका और उसे अपना प्रयास छोड़ देना पड़ा। सिंध और पूर्वी पंजाब का राज्य दिमित्रिय और उसके जामाता को मिला। बैक्ट्रिया और पश्चिमी पंजाब का युकेतिद और उसके वंशधरो को।

    युकेतिद के वंशधर—जो वंचकता युकेतिद ने अपने स्वामी के विरुद्ध की थी उसका फल उसको हाथों हाथ भोगना पड़ा। उसके पूर्वी शासन की मैं राजधानी थी। दिमित्रिय के कुचको का उत्तर देने के लिए युकेतिद एक बार भारत आया। मेरे महलों में उसने डेरा डाला, पर जब शत्रुओं से प्रचुर प्रतिशोध ले, वह बिजली लौटा तब मेरे ही मैदानों में वह कृत्य हुआ जो इतिहास के पन्नो में अनोखा हैं। थैलिऔकल्स युकेतिद का पुत्र था। उसने पिता को मार कर उसके शव और रक्त पर अपना रथ दौड़ाया और गद्दी हड़प बैठा।

    मेरे नगर में अब ग्रीकों का राज्य था। ग्रीकों के कुछ नगर और थे—युथिदेमो, दत्तामित्रिय, पत्तल और शाकल। परतु जो वैभव मुझे मिला वह उनको कभी मिला। बाख़्त्रीं की राजधानी को छोड़ पूर्व में ग्रीकों का सबसे प्रसिद्ध केंद्र मैं ही थी। ग्रीक शांति के दिनों में निश्चय नितांत कलाप्रिय जाति थे। व्यायाम, ओजस्वी खेल और शस्त्र संचालन उनको जितने प्रिय थे, उतने ही दार्शनिक चिंतन और काव्य प्रणयन। मेरी नगरी में उन्होंने अनेक अखाड़े, अनेक खेल के मैदान, अनेक विद्यापीठ और नाटकीय रंगमंच खड़े किए। उनके दार्शनिकों के चिंतन पर अन्वेषण और विचार विनिमय निरंतर होने लगे थे। होंमर की इलियड के गान-अध्यन से मेरा वातावरण गूँजने लगा था। एटिक सिक्को से मेरा भंडार भर चला था। ग्रीक स्थापत्य और वास्तु के नए नमून नित्य मेरे नगर में खड़े होने लगे। नित्य नए मंदिर और भवनों का विदेशी शैली में निर्माण होने लगा। मैं अब चौथी बार नए सिरे से बस रही थी और मेरा नया से प्रसिद्ध रहा है। इसी अपने नए आधार से मैं भारत को एक नया संस्कृतिक जीवन देने लगी। दर्शन और चिंतन में नया दृष्टिकोण, साहित्य की रचना से नवीन प्रयोग कला के कक्षण में नवीन अभिप्राय मैंने भारत को दिया। ग्रीको का प्रभुत्व राजनीतिक क्षेत्र में कुछ काल तक और प्रबल बना रहा। यद्यपि बाख़्त्री के अनेक प्रदेश अब धीरे-धीरे शकों की चोट से उनके हाथ से निकलते जा रहे थे, अंतलिखित वीर और उदार नृपति था जिसने शकों की बढ़ती शक्ति के विरुद्ध मगध की मैत्री चाही। मगध में काशीपुत्र भागाभद्र राज करता था। उसको अपनी ओर करने के लिए उसने राजपूत दयिपुत्र हेलिओदोर को भेजा। हेलिओदोर परम वैष्णव था और उसने सफ़ल दौत्य के बाद बेस नगर में विष्णु का स्तम्भ खड़ा किया। अंतलिखित स्वंय भागवत धर्म में अभिरुचि रखता था। अंतलिखित का राज्य विशेष दूर तक था परंतु प्रभुता उसकी बड़ी थी और पंजाब में उसका प्रभुत्व प्रायः अप्रतिरथ था। कुछ और काल तक उन ग्रीकों की राजधानी मेरे प्रचीरों के पीछे जीवित रही। परंतु शीघ्र शकों का चोट ने हरभियस के शासनकाल में केवल बाख़्त्री को वरन् उसके पूर्वी केंद्र और राजधानी, मुझ तक्षशिला को भी स्वायत्त कर लिया। ग्रीक शासन के भारत से उठ गया, यद्यपि उसने जो अपने साँस्कृतिक चिह्न छोड़े, उनकी छाप अनेक दिशाओं में सादियों जीवित रही।

    शक आँधी की तरह उठे थे और उन्होंने प्रायः सारे देश पर अपनी शाक्ति और क्रूरता की छाया डाली। यद्यपि वे पहले पहल सिंध में उतरे थे। सिंध में ही उन्होंने अपना वह आधार कायम किया जो विरोधी जनता के बीच द्वीप का भाँति लगा। और फलस्वरुप वह शक द्वीप कहलाया भी परंतु उसकी सीमाएँ वही सीमित रह सकीं और धीरे-धीरे शकों ने अपने अनेक केंद्र इस देश में स्थपित किए—मथुरा, उज्जैन और महाराष्ट्र और सिंध के अतिरिक्त सबसे विशिष्ट मैं, स्वंय तक्षशिला। भारत में शक यद्यपि विजेता थे परंतु वे अपने को ईरानी सम्राटो के ही प्रतिनिधि मानते थे। इसी कारण इस देश में उन्होंने केवल महाक्षत्रय अथवा प्रांतीयशासकों की ही उपाधि धारण कीं।

    शकों के आक्रमण ने मेरा एक बार फिर विध्वन्स किया और मैं नए सिरे से सिरकप के चातुर्दिक बसाई गई। महाक्षत्रप राजा मय सिंध के मुझ पर शासन करता था और उसने महाक्षत्रप लियक कुसुमलक तथा उसके बेटे क्षत्रप पतिक के अधीन मुझे केंद्र बना अपने पूर्वी इलाकों पर हूकूमत की। मय के बाद अय ने मुझ पर शासन किया। मेरी प्रभुता फिर एक बार बढ़ चली थी। फिर मैं पंजाब की राजधानी घोषित हो चुकी थी। बात यह हैं कि मेरा विध्वंस चाहे कोई भले ही कर दे, वह यदि पंजाब और काबुल पर शासन करना चाहता तो यह अवश्य था कि वह मुझे अपना राजनीतिक केंद्र बनाए। मैं केवल राजनैतिक दृष्टि से आवश्यक और महत्वपूर्ण थी बल्कि मध्य एशिया से दक्षिण भारत की ओर जाने वाले स्थल के व्यापार मार्ग पर मेरी स्थिति थी। दोनों मार्ग मेरे ही बाज़ारों मे मिलते थे और इसी कारण किसी प्रकार मेरी उपेक्षा नहीं हो सकती थी।

    शक विदेशी थे। असभ्य और बर्बर थे। उनका कोई दर्शन नहीं था। कोई सांस्कृतिक जीवन था। इसी से वे इस देश की जनता में घुल मिल भी गए, परंतु ऐसा भी नहीं कि उन्होंने अपने चिन्ह भारत की संस्कृति पर छोंड़े हों। मूर्त सूर्य की पूजा उन्होंने ही इस देश में प्रचलित की। पुराणों का कथन हैं कि शाम्भ ने इस देश में सूर्य का पहला मंदिर सिंध में बनाया। परंतु जब वह मंदिर बन चुका तब आवश्यकता हुई उस देवता के पुजारी ब्राहम्णा की और भारत के ब्राहम्ण को सूर्य की पूजा का ज्ञान था। विवश होकर शाम्ब को विदेश से शक ब्राह्म्ण बुलाने पड़े जो सूर्य की पूजा कर सके। शाम्ब का सिंध में ही सूर्य का मंदिर बनवाना और पूजा के निमित ब्राह्म्ण पा सकने पर शक पुरोहित बुलाना एक राज़ रखता है जिसे पुराणों के पढ़ने वाले आज के भारतीय समझ सकेंगे। पर जब पुराणकार उस सत्य की लीपा पोती कर रहा था, तब मैं मन ही मन मुस्कुरा रही थी क्योंकि वह रहस्य मेरा जाना था। शकद्वीप के ब्राह्म्ण जो आज तक देशी ब्राह्म्णों में मिल सकें, जिनका छुआ जल तक पुराण पंथी ब्राह्म्ण नहीं पीता, उन्होंने केवल अपने म्लेच्छत्य से भारतीय ब्राह्म्णों का विरोध किया बल्कि उनके व्यापार में भी उनकी रोज़ी तक में उन्होंने हिस्सा बटाया और रोजी में हिस्सा बटाने वालो के साथ ही यह भी अर्थ रखता है कि सूर्य की प्राचीन भारतीय मूर्तियाँ अपनी वेशभूषा में सर्वथा अभारतीय हैं। सिर पर उनके पगड़ी है, बदन में लम्बा चोंगा, कमर में तलवार और पैरों में घुटनों तक ऊँचे बूट और बगल में कटार जो अधिकतर शक और कुपाण सैनिक का बेप था। इस वेषभूषा में सूर्य को पूजते हुए भारतीयों ने कभी आपत्ति की।

    शकों के बाद धीरे-धीरे मेरी हस्ती फिर मिट चली और एक अल्पायु शाक्ति ने आकर मेरे प्रासादो में डेरा डाला वह शाक्ति पहलवों की थी। छोटे मोटे अनेक राजा मेरी धरा पर राज करते रहे, परंतु नितांत अशक्य होने के कारण उनकी स्मृति मुझे मिट चुकी हैं। हाँ, उनके प्रबलतम नरेश गोंदोफर की याद मुझे निश्चय बनी हैं।

    इस याद का एक कारण और हैं। इस काल हाल ही जेरुसलेम में वह दर्याद्र तेज उत्पन्न हुआ था, जिसने घर- घर गरीबों की शक्ति की चेतना जगाई। उनमें उसने नए प्राण फूँके और वह उचित ही मसीहा कहलाने लगा। वह ईसा था, जिसके बनाए मार्ग पर चलने का कम से कम सारा योरोप और अमेरिका दम भरते हैं। श्रीमानों के वैभव को उत्पन्न करने वाली और उनकी समृद्धि की पाथा दरिद्र जनता उनके भार से पीसी जा रही थी, जब इस महात्मा ने झूठे देवताओं और श्रीमानों के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई श्रीमानों को विहिश्त के राज्य में प्रवेश पाने की हैं। विहिश्त का राज्य तो केवल गरीबों के लिए हैं। इस पृथ्वी पर ही उस राज्य का विस्तार होगा। जब स्वंय खुदा का बेटा ईसा इस दुनिया के राज्य पर शासन करेगा। इसलिए जन-जन में प्रेम हो, दय और सौहार्द का प्रचार हो। काश बिहिश्त के उस भावी राज्य की आशा दिला कर उस माहात्मा ने इस धरा पर ही परिस्थति बदलने का प्रयत्न किया होता। जो भी अत्यंत प्रेम हो, दया और सौहार्द का प्रचार हो। काश बिहिश्त के उस भावो राज्य की आशा दिला कर उस महात्मा ने इस धरा पर परिस्थति बदलने का प्रयत्न किया होता। जो भी हो अत्यंत प्रेम और निर्भीकता से उसने अपने नए साम्राज्य की घोषणा की, नई चेतना का प्रचार किया, और फलस्वरुप वह सूली पर चढ़ा दिया गया। मरते दम उसने प्रार्थना का—“खुदा इन्हें क्षमा कर, यह अज्ञानी हैं।” अहिंसा और प्रेम का दूसरा प्रचारक उस देश के इतिहास में कभी सुना गया था और उसके मरते ही अनेक शिष्य उसके संदेश लेकर विदेशों को चल पड़े थे।

    इन्हीं धर्म प्रतिनिधियों में संत टौमस भी था जो उस संदेश को लिए दरिद्रो में उसका प्रचार करता, उन्हें भावी विहिश्त के राज्य की आशा दिलाता, श्रीमानों को कोसता, धिक्कारता गोन्दोफर की राजधानी मेरे नगर में पहुँचा। गोंदोफर उसकी तेजस्विता और बचन का अटूट क्षृंखला से सर्वथा मुग्ध हो गया। संत टौमस का मेरी सड़को पर अपने नए धर्म की घोषणा करते मैं आज भी जैसे सुन रही हूँ। राजा से उसने कहा-राजन् मुझे लाख रुपये दों, मैं तुम्हारे लिए महल बनावऊँगा। राजा ने उसे लाख रुपये दिए उसने उन्हें गरीबों को बाँट दिया। राजा ने उससे कुछ दिन बाद पूछा कहाँ है तुम्हारा बनाया। मेरा वह अनुपम महल। संत ने कहा विहिश्त में जहाँ निश्चय तुम्हें सद्गति मिलेगी और उस प्रसाद में तुम्हारा निवास होगा जिसके पाए दरिद्रों के उस आशीर्वाद पर खड़े हैं जो उन्होंने मेरा घन वितरण पर दिए थे।

    गोंदोफर चकित रह गया था। उसे घन का इस प्रकार फेंकना उपयुक्त किसी प्रकार जँचा था और उसने उस महामना संत को कारगार में डलवा दिया था। परंतु निश्चय स्वंय उसका वैभव चिरकालित हो सका। शीघ्र कुषाणों की बढ़ती हुई सीमाओं ने उसको आप्लवित कर लिया और एक नए मार काट की आवाज़ अपनी प्रचीरों के आर पार सुनने लगी। नए सिरे से चोटें मेरी टूटू हड्डियों पर टूटने लगी नए सिर के पुरुष ऊँचे तगडे दानब से मेरी धरा पर उत्तर आए। सिर पर कुलह और पगड़ी, बदन में चोंगा, कमर में तलवार, पैरो में ऊँचे घुटनो तक जूते पहने, थे मल्लधारी जीव पहले देखे गए थे सुने।

    ये ऋषीको थे, जिन्हें इतिहासकारों ने यूदची संज्ञा प्रदान की है। ऋषीको ने पश्चिमी चीन से उठकर मध्य एशिया होते बाख़्त्री में डेरा डाला था। वक्षु नद के उस तीर पर जहाँ पहले कभी ग्रीकों का निवास था, फिर शकों का और अब उस आधार से उठकर अपने पंचजनों को एकत्र कर केदार कुषाणों के नेतृत्व में वे काबुल जीत सिंध लाँघ आए थे। उनके नेता कुजुल ने पहले काबुल पर अधिकार किया फिर मुझ पर। मेरे सारे आधार बंद कुछ काल के लिए छिन्न-भिन्न हो गए। मेरी सारी ग्रीक संस्कृति तार-तार बिख़र पड़ी। मेरी बस्ती फिर वीरान हुई परंतु वीम के उत्तराधिकारी कनिष्क ने फिर मुझे जीवनदान दिया। और सिरसुक के चतुर्दिक एक बार फिर मैं ने अलंकारों से सज कर खड़ी हुई।

    कनिष्क ने अपनी राजधानी पुष्करावती में रखी आधुनिक चारसद्दा में परंतु मेरे गौरव की रीति की भी कुछ अवमानता हुई और कनिष्क निरंतर अपने नए जीते वैभव से मेरा मंडन करता रहा। मुझे आज भी याद हैं कि पाटलिपुत्र से छीन कर लाए प्रख्यात बौद्ध दार्शनिक और काव्यकार अश्वघोष ने पहले मेरे ही नगर में डेरा डाला था। मेरे ही नगर में उसने अपने अनेक प्रवचन किए थे। साथ ही पार्श्व और वसुमित्र ने भी। चख्य ने भी। चख्य ने भी इसी समय अपनी रसायनशाला मेरे ही नगर में काव्य की थी। नागर्जुन ने यहीं अपने नवीन सम्प्रदाय महायान के प्रवचन किए थे और जब काश्मीर के चौथे महासंघ का अधिवेशन समाप्त हुआ, तब यहीं वहाँ के जगत विख्यात दार्शनिकों का समारोह हुआ। उस नई धर्मिक चेतना से आश्वस्त होकर कनिष्क ने अपने उत्साह का प्रमाण इसी नगर में अशोक द्वारा बनवाए। धर्मराजिक स्तूप की भग्न स्थिति को सुदृढ़ कराई।

    मैं कनिष्क के औदार्य, उसके पौरुष अथवा विजयों को बात विशेष कहूँगी। अब मैं केवल उस नई सँस्कृति की बात कहूँगी, जिसका विस्तार कनिष्क ने किया। यद्यपि जिसका आरंभ कुषाणों की मेघा के परे था। भारत का आज का राष्ट्रीय वेश, अचकन और पाजामा—कुषाणों का ही दिया हुआ हैं। उनका चोगा मुगलों ने शेरवानी के रुप में संभाला जिसे अवध के नवाब ने आज की अचकन बनाया उन्हीं का सलवार ढीला और चुस्त पाजामा बनाए और ग्रीकों का टयूनिक भारतीयों का कुर्ता।

    परंतु इस दिशा में इससे कहीं विशिष्ट बात कला संबंध की है। मूर्तिकला की, जिसमे ग्रीको के सर्म्पक ने नए प्राण फूँके थे, एक नई शैली चलाई थी। जिस शैली का विस्तार विशेषतः कुषाणों ने किया। इस ग्रीक शैली को भारतीय कला में गंधार संज्ञा दी गई। गंधार शैली का केंद्र मैं ही थी। मेरे ही आधार से उठ उठ कर सैकड़ो कलाविज्ञ और आचार्य देश के इतर प्रांतो में बिखरे, पेशावर और काबुल शाकल और मथुरा सर्वत्र। ग्रीकों का सर्म्पक पंजाब से और विशेषकर मेरी नगरों से प्रायः दो सौ वर्ष रहा था और उनकी सेवा में मेरे दरबार में एक से एक कला कुशल ग्रीक के नगरों से कर संरक्षित हुए थे। अपनी कला के माप उन्होंने भारतीय अभिप्रायों में रखे थे। भारतीय दार्शनिकों की मूर्ति बनाते अपनी अभिसृष्ट काया में वे सुकरात और अरस्तू का आकार कोरते, दाढ़ी और परिवेष्ठन विशेष प्रकार उन मूर्तियों पर तक्षित होते।

    जिस नार्गाजुन ने हीनयांन व्यापी बौद्ध धर्म की कठोर प्रवृति में महायान की एक नवीन भक्तिधारा का उदघोष किया था, उसी ने बुद्ध के मूर्ति निर्माण की बात भी चलाई थी। बुद्ध का कला में प्रदर्शन तब तक केवल उनके उष्णीश धर्म-चक्र, छत्र पद, बोधिवृक्ष आदि के लक्षणों से किया जाता था। परंतु अब साक्षात मूर्ति का कला क्षेत्र में अवतरण हुआ और बुद्ध की पहली मूर्ति मेरे ही नगर में कोरी गई, यह मेरे लिए कुछ कम गर्व की बात नही। फिर धीरे-धीरे कुषाणों के ही मध्य काल में बल्कि कनिष्क के ही शासन काल में गांधार शैली का एक पूर्वी केंद्र मथुरा में भी प्रतिष्ठित हुआ। इसमे संदेह नहीं कि उसी आधार से गांधार शैली में जन्में ग्रीक लक्षणों का भारतीयकरण भी आरंभ हुआ जो गुप्त काल तक सर्वथा स्वदेशी कर लिया गया। परंतु मेरी शैली बहुत काल तक भारत में चलती रही और किसी किसी रुप में वह जब तब विकसित होती रहीं।

    यूँ तो भारतीय संस्कृति में मैंने अनेक विदेशी क्षणों और प्रक्रियाओं को बहा कर संस्कृति का बहुस्त्रोतिक रुप दिया। जितना भी संस्कृतिक मिश्रण भारतीय संस्कृति में हुआ है अधिकतर उसकी धाराएँ मेरे ही आधार मे मिलीं। तब की दुनिया में संस्कृतियों का अभूतपूर्व संगम थी।

    कुषाणो का साम्राज्य पूर्व में काशी तक जा पहुँचा था। परंतु वाकटकों और विशेषकर नागों की चोट से उसे पीछे हटना पड़ा। यूँ तो पाटिलपुत्र की चोट मेरी सर्वथा अनजानी थी पुषपमित्र शुंग के पौत्र वसुमित्र ने ग्रीको को देश से निकलते हुए सिंधु तट के अपने महासमर के पहले गणों द्वारा हुआ। समुद्रगुप्त के काफ़ी पहले जब कुषाणों को पंजाब से भाग काबुल में शरण लेनी पड़ी थी तभी मैं एक फिर स्वतंत्र हो गई थी। परंतु समुद्रगुप्त के सामने मुझे भी झुकना पड़ा समुद्रगुप्त अपने प्रतिद्वंदी की रुह कभी बर्दाशत कर सकता था। और उसकी दिग्विजय के सम्बंध मे मैंने अनेक राज्यों का मूलोच्छन सुना था। पंजाब के अनेक गण राजाओं ने चुप चाप उसकी महत्ता स्वीकार कर ली थी। दूर के शक मुणड़ों ने भी उसे भेंट भेजे थे। मैने भी चुपचाप उसके सामने सिर झुका दिया। परंतु मेरा विशेष पराभव उसके पुत्र चंद्रगुप्त विकमादित्य ने किया। शकों को मालवा से निकाल उसने शर्काय विरुद धरणा किया था और बंगाल के शत्रुसंघ को तोड़ जब वह वायुवेग से पंजाब के नदीं को लाँघता कोजक अरमान पहाड़ो की छाया से निकल ईरानियों की द्राक्षावलय से लदी दक्षिण-पूर्वी भूमि को रौदता पामीरी पठार के वक्षु नद के तीर जा खड़ा हुआ तब मैं स्ताम्भित रह गई। इतने लंबे भू-प्रसार पर इतने लंबे डग भरते किसी विजेता को मैंने देखा था। चंद्रगुप्त नष्ट हुए मैं भी विनष्ट हो गई। परंतु मैं औरों की भाँति मिट्टी में देर तक पड़ो रह सकी। चंद्रगुप्त के लौटते ही मैंने फिर एक बार अपनी शक्ति आर्जित की। फिर मैं उत्तरापथ के राजमार्ग की प्रहरी बनी।

    परंतु अब मेरा अवसान और विनाश क्रमशःपास आते जा रहे थे आगे जो चोट पड़ने वाली थी उसने सदा के लिए मुझको भूमिसात कर दिया। चीन के उत्तर-पश्चिम में काँसु नामक एक प्रांत है जहाँ कभी हिंगनू नाम की वह भयंकर जाति रहती थी जो पश्चात् काल में हुण नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुई। नंगे, विकराल, बर्बर, हुण रक्त और लूट में मज़ा लेते थे। लहू और आग उनका साक्ष्य करती थीं। वे ही हुण अकाल के समय जो अपने आधार से बिचले तो पड़ोसी ऋषको पर जा टूटे। ऋषीक जो अपने स्थान से बिखरे तो शकों से जा कटारए और शकों ने स्वंय अपना दजला और फरात का काँठा छोड़ बाख़्त्री और हिंदुस्तान की राह ली। हुणों ने जाना कि उनकी गति ने कितना दूरव्यापी संकट डाला हैं। उनके क़बीले के क़बीले आग लगाते, गाँव के गाँव जलाते, सड़के लाशो से पाटते जिस दिशा में निकल पड़ते उधर हाहकार मच जाता। उनके नेता अत्तिला ने जो योरोप की ओर रुख़ किया तो रोम साम्राज्य की कमर टूट गई और वह फिर दूसरी बार खड़ा हुआ। उन्ही हुणों की एक धारा भारत सीमा प्रांत यद्यपि उसका था परंतु अनागत भूत की आशंका से सुदृढ़ होकर वह भागा-भागा मेरे नगर में पहुँचा और हूणों के बढ़ते हुए घोड़ो की बाग उसने सहसा रोक ली।

    उस काल तो निश्चय हूणों की गति कुछ वर्षो के लिए रुक गई परंतु उनकी बाढ़ की धारा एक थीं, अनेक थीं और धीरे-धीरे सारा उत्तर भारत उनके पदो से अक्रांत हो गया। स्वंय स्कन्दगुप्त उनके साथ लड़ता हुआ जूझ गया परंतु उसका तप और दृढ़ता स्वदेश की उनसे रक्षा कर सकी। और जब इतना बड़ा राष्ट्र उस महाप्रर्लयकारी धारा को रोक सका तो मेरी क्या बिसात थी। धीरे-धीरे काबुल और पंजाब, मथुरा और मध्यप्रदेश, गुजरात और मालबा खुत्तन और काश्मीर हूणों के राज्य में हो गए। चौदह हज़ार ऊँची बर्फ़ीले चोटियों को लाँघते ये वित्ते भर के जवान जो मैदानों में उत्तर आते तो पठान और पंजाबी डर से उनका पानी भरते।

    मैं भी उनके सामने खड़ी रह सकी और लड़खड़ा कर जो अब की गिरी तो फिर उठ सकी। वह प्रायः पाँच सौ ईसवी की बात है आज से करीब डेढ़ हज़ार वर्ष पहले। फिर तो जो खोई तो भूमि में ऐसी समाई, ऐसी सोई कि इन डेढ़ हज़ार वर्षों तक किसी ने मुझे जाना, मेरे अवशिष्टट की समाधिस्वरुप टीलो पर गाँव बसे। सेनाओं ने इस्लाम का झंडा लिए अनेक बार कूच किया पर उन्होंने जाना कि इन टीलों के नीचे मेरी प्राचीन विभूतियाँ सोई हैं। चौदह सौ वर्ष बाद अब मेरी नींद खुली है परंतु जोड़-जोड़ अलग हैं प्राण बिखर गए हैं। जो देखा था, वह अब नहीं, जो अब है, वह तब था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मैंने देखा (पृष्ठ 80)
    • रचनाकार : भगवत शरण उपाध्याय

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