पेरिस में

peris mein

राहुल सांकृत्यायन

और अधिकराहुल सांकृत्यायन

    चौदह नवंबर को ग्यारह बजे लंदन से विदाई ले मैं पेरिस को रवाना हुआ। उस दिन चारों ओर कुहरा फैला हुआ था। आज मेरा टिकट द्वितीय श्रेणी का था। कितने ही मित्र स्टेशन तक पहुँचाने आए थे। आज डोवर और केलेके रास्ते जाना था। कुछ दूर चलने के बाद कुहरा कम होने लगा। डोवर के पास पहुँचने से पूर्व ही बाईं ओर पथरीली पहाड़ियाँ दिखाई पड़ी। इंग्लैंड के गाँव फ़्रांस और जर्मनी की भाँति सुंदर नहीं है। बारह बजे के बाद जहाज़ पर पहुँचे। आज समुद्र उतना ख़राब था। दूसरे पार केलेमें जा रेल पर सवार हुए। 6 बजे अँधेरा हो जाने के बाद पेरिस की गार-द-नोह (उत्तरी स्टेशन) पर उतरे। प्लेटफ़ार्म पर आते ही, मेरे पीले कपड़ों से मिस लून्जबरी (सभापति) और मदाम लाफ्वॉ मंत्री ने पहचान लिया। मैं अपने साथ तिब्बती चित्रपटों की पेटी भी लाया था। उसे अभी कस्टम में दिखलाना था। उस दिन समय होने से कस्टम वालों ने दूसरे दिन के लिए रख छोड़ा।

    मदम् लाफ्वाँ मोटर में रु-मदाम के तेल द-ल आवे सीर में पहुँचा। यहीं मेरे ठहरने का प्रबंध किया गया था।

    सर्दी का मौसम था, किंतु गर्म मकानों में प्रविष्ट होना सर्दी के मान की बात थी। कमरा स्वच्छ और प्रशस्त था, कमरे के साथ ही स्नानागार भी था। नहाने का इतना आनंद देखकर मैंने अन्तरिया की जगह नित्य स्नान करने का नियम कर लिया। होटल का किराया मेरे मेज़बानों को देना था, इस लिए पूछ सका, तो भी 30, 35 फ्रांक 5, 6 रुपए रोज़ से क्या कम होगा। सबेरे का जलपान होटल की ओर से था, मध्यान्ह भोजन मिस लून्जबरी के घर पर होता था, जो एक मिनट के रास्ते ही पर लुसमबुर्ग प्रासाद के पास था।

    15 नवंबर को 3 बजे मिस लून्जबरी और मदाम् लाफवॉ के साथ मुजी-ग्विमे गया। भारत, हिन्दू-चीन आदि पूर्व के देशों की पुरानी चीज़ें यहीं रखी हुई हैं। यहाँ तिब्बतीय चित्रपटो का अच्छा संग्रह है और यूरोप में यह संग्रह सर्वोत्तम है। यहाँ आचार्य पेलियो द्वारा लाए मध्य एशिया के चित्रों का भी संग्रह है। बर्लिन के ला कॉक संग्रह के बाद यह सबसे अच्छा है। सबसे तो अधिक चित्त तब प्रसन्न हुआ जब शाह अमानुल्ला के शासन काल की खुदाई में हड्डा बामियाँ आदि से निकली चूने आदि की मूर्तियों और चेहरे को देखा। इनकी खोदाई आचार्य फूशे ने कराई थी। यह संग्रह सारे भूमंडल में अपने ढंग का अद्वितीय है। इनमें उस समय गंधार देश में आनेवाली नाना जाति के पुरुषों—उनकी नाक, ओठ, चेहरा, केश आदि को सजीवता के साथ मिट्टी चूने पर उतारा गया है। आचार्य फूशे कह रहे थे खुदाई में जब यह चीज़ें निकल आईं तो हमारे आनंद की सीमा थी। हम छोटी-छोटी उठाने लायक़ चीज़ों को अपने डेरे में रखते जा रहे थे। फिर उन्होंने ठंडी साँस भरकर कहा—किंतु, मौलवियों ने इन मूर्तियों के ख़िलाफ़ ऐसी उत्तेजना पैदा कर दी थी कि रात को आस-पासवाले सैकड़ों मनुष्य चढ़ आए और अफ़सोस! कला के उन अनुपम नमूनों को क्रूरता के साथ तोड़ने लगे! हम आह भरी आँखों से उनके इस दानवी लीला को देखते रहे। कोई भी धर्म जो मनुष्य के हृदय में ऐसा भाव पैदा कर सकता है, वह मानवजाति के लिए अभिशाप है!

    16 नवंबर को आचार्य सिल्वे लेवी से मिलने का निश्चय था। दो बजे हम उनके मकान (9. Rue Guyede la Bruma) पर पहुँचे। सीढ़ी पर चढ़ते-चढ़ते तरह-तरह के भाव पैदा हो रहे थे। पैदा होने ही चाहिए; क्योंकि हम प्राचीन भारत के विषय में भूमंडल के सबसे बड़े विद्वान के पास जा रहे थे। देवी लेवी के दर्शन पहले हुए। उन्होंने आचार्य श्री को सूचित किया। थोड़ी ही देर में आचार्य के साथ हम उनके कमरे में थे। अस्सी वर्ष के क़रीब का, पतला किंतु स्वस्थ्य शरीर था। सारे बाल सन की तरह सफ़ेद थे। यहूदी जाति के नर-नारियों की भाँति आप शुकनास थे। स्मित मुख, विकसित ललाट, चमकती ऑखों से स्नेह की किरणे चारों ओर फैल रही थीं। शिष्टाचारकी बातें, जो और जगह भी साधारण है, उसे लिखकर मैं वास्तविकता के महत्त्व को कम करना नहीं चाहता। मैं वक्स से एक पुस्तक निकालकर खड़ा हो दिखा रहा था, उस समय आपके मुख से जो शब्द निकले—Please be seated (कृपया, बैठिए) वह अपने स्वर, विराम, उच्चारण आदि में अपार स्नेह के भावों को रखता था। आचार्य लेवी वस्तुत मोह लेने में जादूगर (=यातुधान वैदिक अर्थ में) हैं। इन ज्ञान वयोवृद्ध महापुरुष के दर्शन फिर होंगे या नहीं यह नहीं कह सकता; किंतु पेरिस में उनकी मुलाक़ात की स्मृति आजन्म भूलेगी। दो बजेसे छः बजे शाम तक पूरे चार घंटे अतृप्त हो हमारा वार्तालाप होता रहा। वहाँ ज्ञान का पारावार हमारे सामने तरंगित हो रहा था। एक बार प्रकरणवश मैंने कहा—और हृदय से कहा—आरंभ से ही विद्या के पथ पर अग्रसर होते वक़्त, आप ही मेरे आदर्श थे। उन्हों ने कहा—क्या कहते हो, मैं तो इतना ही जानता हूँ कि, मैं कुछ नहीं जानता। यह ध्रुव सत्य था। आदमी की विद्या क्या है—जितना हो वह अधिक पढ़ता है, उतना ही उसे यह स्पष्ट अनुभव होने लगता है कि, वह क्या-क्या नहीं जानता। विद्या होने पर पुरुष वैसे ही है, जैसे कोई आदमी आस-पास मीलों गहरे खड्डों वाली एक छोटी-सी टिब्बीपर बैठा है। अँधेरे में उसे अपनी स्थिति का ज्ञान कुछ नहीं होता, किंतु जैसे ही प्रकाश आता है वह अपने आस-पास के उन खड्डों को अनुभव करने लगता है; लेकिन हमें यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि विद्या का पढ़ना ही निरर्थक है। हमें यह समझकर कि कोई सर्वज्ञ नहीं है, अपने ज्ञान के क्षेत्र को बढ़ाते हुए भी; हमें एक दूसरे की सहायता को सत्कारपूर्वक लेने के लिए तैयार रहना चाहिए। सामूहिक ज्ञान से हम अपनी बहुत-सी कमियों को पूरा कर सकते हैं।

    आचार्य श्री के साथ जिन विषयों पर वार्तालाप हुआ, उसे यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं। यद्यपि वह हम दोनों के लिए बहुत ही सरस और आनंदकर थे, तो भी हमारे पाठकों में से अधिकांश के लिए वह नीरस ही होंगे। आचार्य, संस्कृत, पाली, प्राकृत, भारत की अनेक आधुनिक भाषाओं, तिब्बतीय, चीनी तथा यूरोप की बहुत-सी भाषाओं के आचार्य हैं। चीनी, तिब्बती, पाली संस्कृत ही नहीं, बल्कि मध्य एशिया की लुप्त भाषाओं में भी प्राप्त बौद्ध साहित्य के आप सर्वतोमुखी पंडित है। भारतमें आप कई बार चुके हैं और कितने ही भारतीय आपके शिष्य हैं। प्राचीन भारत के इतिहास के कितने ही भव्य और शताब्दियों से विस्मृत अंश को सभ्य दुनिया के सामने लाने में आपने वह काम किया है जिसे भारतीय और भारत प्रेमी कभी भुला सकेंगे।

    गिल्गित में निकले प्राचीन हस्तलिखित संस्कृत ग्रंथों—जिनके बारे में आक्सफ़ोर्ड के प्रकरण में लिख चुका हूँ—के बारे में प्राप्त पृष्ठों के सहारे आप जूर्नाल-आसियातिक में एक सचित्र गवेषणा पूर्ण लेख लिख चुके हैं। और उन पुस्तकों के बारे में वह मुझसे भी अधिक उत्सुक थे। पेरिस में भी उनकी खोज लेनेके लिए मुझे प्रेरित किया था और पीछे भारत लौटने पर पत्र द्वारा भी प्रेरित किया। मैं कश्मीर आया, वहाँ जो हुआ, उसे मैं संक्षेप में लिख चुका हूँ। उसे पढ़कर आचार्य को क्षोभ अवश्य होगा। उन्होंने उन ग्रंथों की रक्षा और प्रकाश में लाने के लिए मालवीय जी को एक पत्र मेरे द्वारा भिजवाया था। बड़े आदमियों से डरने वाला मे स्वयं तो नहीं गया; किंतु डाकद्वारा पत्र को मालवीय जी के पास भेज दिया, जिसका उत्तर मुझे कुछ नहीं मिला। गंगा के पुरातत्त्वांक के लिए 'महायानकी उत्पत्ति', 'मंत्रयान, वज्रयान चौरासी सिद्ध' पर दो लेख लिखे थे। मैंने अँग्रेज़ी में अनुवाद कर पहले लेख को तो लंदन से ही भेजा था, जिसे आचार्य ने अपने जूर्नाल-आसियातिक में प्रकाशित करने की इच्छा प्रकट की थी। दूसरा अब साथ लाया था, दोनों को उन्होंने ले लिया। हमारे वार्तालाप के बीच में एक बार देवी लेवी भी आई थी। वह 1921-22 में अपने पति देव के साथ भारत आई थीं। उस वक़्त उन्होंने फ़ेंच में 'सीलोन से नेपाल' नामक अपनी यात्रा लिखी थी। उसे मैं पढ़ चुका था, इसलिए उनके सहानुभूतिपूर्ण हृदय से पूर्णतया परिचित था। बीच में आचार्य के बड़े पुत्र आए, पिता द्वारा पुत्र का ललाट-चुंबन बड़ा ही मधुर दृश्य था। दूसरे दिन सोरवोन आने का वचन देकर मैंने विदाई ली।

    हमारे वार्तालाप कें समय ही गोवानिवासी श्री बर्गन्सा वहाँ गए। उन्होंने मुझे अपने स्थान तक पहुँचाने का कष्ट उठाया। आपको यूरोप आए 16, 17 साल हो गए। मगठी आपकी मातृ-भाषा है। आपका वंश आंध्रसम्राट शातकर्णि या शातवाहनों से संबंध रखता है। पोर्तुगीजों के गोवापर अधिकार जमाने के बाद आपका वंश भी औरों की भाँति ईसाई हो गया। अँग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, इटालियन आदि यूरोप की भाषाओं को आप अप्रयास सुंदर रीति से बोलते हैं। पिछले छः-सात वर्ष आप रूस में ही रहे। निडर भविष्यचेता होते भी आप भारतीय संस्कृति का बड़ा सम्मान रखते हैं। भारत की कई आर्य भाषाओं के अतिरिक्त आप संस्कृत और पाली भी जानते हैं। इस वक़्त आप भारतीय नृत्यकला पर एक सुंदर ग्रंथ फ्रेंच भाषा में लिख रहे हैं। 'भारत नाट्यशास्त्र' और 'संगीत-रत्नाकर' नामक संस्कृत ग्रंथों में भारतीय नाट्यपर काफ़ी लिखा गया है। भारत नाट्य शास्त्र में तो चार-पाँच सौ श्लोकों में नाट्य का सविस्तार वर्णन है। इससे पहले भी मैं उन ग्रंथों को देख चुका था; किंतु मालूम होता है, उन प्रकरणों को विषय के परिचय होने से छोड़ दिया था। कितनी ही बार श्री बर्गन्सासे मिला, किंतु पहले शायद संकोचवश उन्होंने कुछ नहीं कहा। परी छोड़ने से चार-पाँच दिन पूर्व 24 नवंबर को कहा, ''इन ग्रंथों के कुछ अंशां के अर्थ जानने में मैं आपकी सहायता चाहता हूँ।'' मैंने सहर्ष स्वीकृति देते कहा ''मैं तो सिर्फ शब्दार्थ में ही सहायता कर सकूँगा।'' ''हाँ, हो सकता है, आपके नाट्यज्ञान के मिलने से भाव स्पष्ट हो जाएँ।'' हाँ तो, श्री बर्गन्सा पाश्चात्य नाट्यकला के अच्छे अभिज्ञ हैं; और आपकी पत्नी तो मास्को की एक निपुण नटी हैं। 26 से 28 नवंबर तक हम दोनों मिलकर उक्त दोनों ग्रंथों के अभिलषित अंशों को पढ़ते रहे। उस समय उनके मुखसे यह भी पता लगा कि, यूरोप के उच्च कोटि के नृत्त्यों में भी वे यही 'करण' (=हाथ-पैर की विशेष गति से नृत्य प्रदर्शन की मूल इकाई) आदि है और पंद्रहवीं सोलहवी शताब्दियों में यूरोप ने पूर्व से इस विषय की बहुत-सी बातें सीखी हैं। श्री वर्गन्सा की पुस्तक, जिस समय (31 जुलाई 1633 ई०) में इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ, इस वक़्त तक छप गई होगी। उनसे मैंने कहा था कि, उसका मराठी में भी अनुवाद कर डाले। मराठी अनुवाद छप जाने पर किसी को उसका हिंदी अनुवाद ज़रूर करना चाहिए।

    आज 9 बजे रात को बौद्ध मित्र मंडल (L Amis dn Buddhisma) में मेरा व्याख्यान हुआ। विषय था 'पूर्व में बौद्धधर्म की जागृति', साथ-साथ फ़्रेंच अनुवाद भी होता जाता था। मित्र मंडली में सभी शिक्षित तथा ऊपरी श्रेणी के नर-नारी है। आज यह भी निश्चय हुआ कि, चित्रपटों की प्रदर्शनी मुजी-ग्विमे में की जाय। तैयारी में कुछ समय भी लगेगा, इसलिए 28 नवंबर तक यही रहना निश्चय हुआ।

    17 नवंबर को बर्गन्सा महाशय के साथ पेरिस के सबसे बड़े पुस्तकागार विब्लियोथिक-नाश्नाल (Bibliothic Nationale) में गए। अपने बज्रयानवाले लेखकों वहाँ कुछ पुस्तकों से मिलाना था। बिना विशेष सिफ़ारिश के इस पुस्तकालय में प्रवेश मुश्किल है। लेकिन वह काम आचार्य लेवी ने कर दिया था। एक कई तलोंवाले विशाल भवन में संसार के तीन महान पुस्तकालयों में से एक यह पुस्तकागार स्थापित है। फ्रेंच जाति के विद्या प्रेम का यह ज्वलंत उदाहरण है। वहाँ मुझे तिब्बती स्तन-ग्युर की एक पोथी से काम था। देखा, पुस्तक पैकिन के लकड़ी के छापे की है और लंबे चौकोर बक्सों में अलग-अलग सुरक्षित रखी हुई हैं।

    वहाँ से तीन बजे सोरबोन (परिस् विश्वविद्यालय) गए। आचार्य लेवी, प्राचार्य फूशे, और उनके शिष्य वहाँ मौजूद थे। वहाँ चौरासी सिद्धों के बारे में ही मैंने कुछ कहा। वहीं श्वेत केशश्मश्रुधारी एक वृद्ध पुरुष के दर्शन का सौभाग्य हुआ। आचार्य लेवी ने मज़ाक़ करते हुए कहा—आप काम शास्त्र के विशेषज्ञ है! पीछे मुझे सर्दार उमरावसिंह से बातचीत करने का मौक़ा मिला। आप पंजाब के रहने वाले हैं। 4 वर्ष से इधर ही रह रहे है। आपके साथ सर्दारिनी भी आई थीं, किंतु अब यह भारत लौट गई थी। उनकी कन्या यहीं शिक्षा ग्रहण कर रही है, इसलिए सर्दार साहेब यहीं ठहरे हुए हैं।

    18 नवंबर को लूत्रे प्रासाद में फ़्रांस के महान संग्राहालय को देखने गया। सिर्फ़ ग्रीस (यवन) मूर्तियों को ही देखने के लिए महीनों चाहिए। यवन-कला के इन भव्य नमूनों को देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता है। नाना प्रकार के चीनी बर्तनों को भी कई बड़े-बड़े कमरों में प्रदर्शित किया गया है। फ़्रांस सरस्वती की आराधना में यूरोप की सब जातियों में ज्येष्ठ है और उन्नति में किन्हीं विषयों में जर्मनी इस से श्रेष्ठ है और किन्हीं मे यह जर्मनी से। इंग्लैण्ड हर बात में तीसरे ही नंबर पर रहेगा। इस संग्रहालय मे आपको ईरान, असुर, मिश्र आदि देशों की अनेक पुरातन चीज़ें और कला के नमूने मिलेंगे। यहीं मूर्तियों की प्रतिकृति बनाने का भी प्रबंध है। आप जिस मूर्ति की प्रतिकृति लेने चाहे, वहाँ से बनवा सकते है।

    प्रोफ़ेसर दुर (Durr) 'वद्-दो-थोस्-ग्रोल' नामक तिब्बती पुस्तक का फ़्रेंच अनुवाद कर रहे थे। यूरोप के लोग विद्या के काम में एक दूसरे की सहायता के महत्त्व को समझते हैं। चाहे स्वयं अच्छा जानते हों, तो भी दूसरे की सहायता से लाभ उठाने के लिए उत्कंठित रहते हैं। प्रोफ़ेसर दुर ने मुझसे कुछ सहायता चाही; मैंने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया। वह बराबर उसके लिए आते रहे। पेरिस में मैंने देखा, तिबत्ती जैसी अपरिचित भाषा के भी दर्जनों जानकार हैं। कुमारी लालू, जो बिब्लियोथिक नाश्नाल में काम करती हैं, तिब्बती चित्रों के एक संग्रह का एक सचित्र सुंदर सूचीपत्र बनाया है, जिसकी एक प्रति उन्होंने कृपाकर मुझे भी प्रदान की। मुजी-ग्विमे के आचार्य वको ने एक तिब्बती-संस्कृत कोश को प्रकाशित कराया है। नवयुवकों और नवयुवतियों के विद्या प्रेम को देखकर आश्चर्य होता था। 21 नवंबर को मेरे पास एक 18 वर्ष का तरुण आया। वह इस वर्ष बी० ए० के अंतिम वर्ष में था। उसका पिता पेरिस के श्वेत-रूसी समुदाय से संबंध रखता है। रूसी और फ़्रेंच के अतिरिक्त यह अँग्रेज़ी, जर्मन, इटालियन, स्पेनिश, पोर्तुगीज भाषाओं को जानता था। कुछ अरबी और फ़ारसी को भी समझता था। इस वक़्त पाली पढ़ रहा था। उसका पिता पेरिस का एक अच्छा गंधी (सुगन्धियों का व्यापारी) था। एक दूसरी आफ़त की परकाला लड़की कुमारी सेलवर्न सोरबोन में मिली, यह संस्कृत की छात्रा है और कालेज के अंतिम वर्षो में बौद्ध दर्शन उसका विषय है। दिंनाग की बड़ी भक्त है। योगाचार दर्शन पर मुझसे बातचीत कर रही थी। वहीं एक दूसरे विद्यार्थी ने बौद्धदर्शन पर चर्चा करते हुए कहा—कार्य-कारण के नियम को अचल मानने पर कर्ता स्वतंत्र कैसे रहेगा?

    मैंने कहा : ''चेतना का अर्थ ही है विचारों की स्वतंत्रता।''

    22 नवंबर को मेरे चित्रपटों की प्रदर्शिनी का उद्घाटन हुआ। उसी दिन सोरोन के पास मुझे एक मिश्रदेशीय तरुण महाशय गलाल (जलाल) मिले। बड़े प्रेम से मुझे अपने निवास-स्थान पर ले गए। वह बड़े ही साधारण तौर से रहते थे। मैंने उनसे पूछा कि आपका खाना मकान आदि पर महीने में कुल कितना ख़र्च आता है। हिसाब करने पर मालूम हुआ 600 फ्रांक। 600 फ्रांक का मतलब है, जब रुपया और काग़ज़ी पौण्ड का गंठजोड़ा नहीं हुआ था, उस वक़्त के हिसाब से 60 रुपए से भी कम। आजकल के हिसाब से 100) मासिक के क़रीब। मुझे आश्चर्य होता है कि, भारतीय विद्यार्थी, जिन विषयों को फ़्रांस और जर्मनी में इंग्लैण्ड की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह पढ़ सकते हैं, वह इसके लिए इंग्लैण्ड क्यों जाते हैं?

    रूस में बौद्ध इतिहास और संस्कृत संबंधी बहुत-सी वस्तुओं का उत्तम संग्रह है। आचार्य चिखास की, आचार्य ओल्डन वर्ग, ओवर मिलर जैसे बौद्ध साहित्य और दर्शन के चोटी के पंडित भी वहाँ रहते है, इसलिए मेरी बड़ी इच्छा थी कि वहाँ जाऊँ। पासपोर्ट तो ख़ैर मिल गया। अब रूसी बीसे की आवश्यकता थी। सोवियत दूतावास में जाने पर मालूम हुआ कि, इसमें एक मास लग जाएगा। तिसपर भी मिलना सन्दिग्ध था। रूसी यात्रा प्रबंधक संस्था के पास गया। उन्होंने कहा—एक सप्ताह में हम प्रबंध कर देंगे, किंतु रूस में रहते वक़्त द्वितीय श्रेणी के प्रबंध के लिए आपको 10 डालर रोज़ देने होंगे। यद्यपि 10 डालर में जो सुविधा (होटल ख़र्च, खाना-ख़र्च, म्युज़ियम सिनेमा थियेटर के टिकटों का ख़र्च, एक टैक्सी और एक दुभाषिया का ख़र्च आदि) मिलती थी, उसके सामने यह मूल्य कुछ नहीं था। किंतु मैं तो महीने दो महीने के लिए जानेवाला था, फिर इतना रुपया ला कहाँ से सकता था? मैंने रूस जाने की इच्छा से बड़े उत्साह-पूर्वक रूसी भाषा सीखनी शुरू की थी। मुझे यूरोप की सभी भाषाओं में यह सरल मालूम हुई। रूसी भाषा संस्कृत से बहुत समीप भी है। उदाहरणार्थ एतत् = एतोत् , तत् =तोत् , द्वे=द्वे, द्वा, चत्वारि=चेत्वेर। संस्कृत की भाँति ओस्ति भवतिक्रिया इसमें भी छोड़ दी जाती है। इसमें अँग्रेज़ी के आर्टिकलों का ही झगड़ा नहीं है, बल्कि इसकी वर्णमाला नागरीकी भाँति पूर्ण, और जैसे लिखी जाती है, वैसे ही बोली जाती है। मदाम् लाको तीस...से बड़े उत्साह से मुझे रूसी पढ़ाती थीं।

    27 नवंबर को चित्रपटों की प्रदर्शिनी समाप्त हुई। यहाँ अभिज्ञो ने ख़ूब प्रशंसा की। इस बार भी श्री हेरमान से कितनी ही बार कथा-समागम का मौक़ा मिला। उन्होंने बड़ी सहायता की।

    26 नवंबर को तीन बजे मदाम् लाफ्वाँ परी के उपनगर और दीहात को दिखलाने के लिए मुझे अपनी मोटर पर ले चलीं। फ़्राँस, जर्मनी आदि देशों में सड़क पर दाहिनी ओर से चलना होता है, और इसलिए ड्राइवर मोटर में बाईं ओर बैठता है। शहर से निकलते वक़्त अभी तीन ही बजा था, सूर्य इंगुर की भाँति लाल था। उपवनों, और वनों, पुलों और नदियों, कितने ही गाँवों को देखते हम बर्साइ (वर्सेलिस) प्रासाद तक गए। मदाम् लाफ्वाँ एक बड़े ही सम्भ्रांत कुल की महिला हैं। बुद्ध धर्म की बड़ी अनुरागिणी हैं। उन्होंने एक तिब्बती पुस्तक का अँग्रेज़ी से फ्रेंच में अनुवाद किया है। भगवान बुद्ध के 153 उपदेशों वाले मज्झिम निकाय का भी वह अनुवाद कर रही थीं। वह और कुमारी लेंजवरी फ़रवरी में लंका में आकर कितने ही मासों रही थीं। बौद्ध धर्म के प्रचार में बड़ा ही उत्साह रखती हैं।

    कुमारी लेंजवरी अमेरिकन हैं, किंतु बहुत वर्षों से पेरिस में ही रह गई हैं, बड़ी ही सुसंस्कृत और भगवान बुद्ध में असीम प्रेम रखने वाली हैं। वह बुद्ध धर्मके प्रचार में सतत् परिश्रम करती रहती हैं। उनका विचार है कि, एक एकांत शांत स्थान में, एक बौद्ध आश्रम क़ायम किया जाए, जहाँ फ़्राँस के बौद्ध समय-समय पर एकांत चिंतन कर सकें। इनकी सहचरी, एक अँग्रेज़ महिला, जो अब फ़्रांस देशवासिनी हो गई है, बड़ी ही मधुर स्वभाववाली हैं। उनका भाई भारत में फ़ौजी अफ़सर था। उस समय वह भारत में आकर बहुत दिनों तक रही। इस वृद्धावस्था में भी उन्हें भारत की बहुत-सी बातें याद हैं, और, बुद्ध और उनकी मातृभूमि से बहुत प्रेम करती है। मेरे पेरिस में रहते मेरे भोजन आदि का बहुत ख़याल इसी देवी से रहता था।

    इस प्रकार दो सप्ताह से अधिक पेरिस नगर में रहकर अनेक मित्रों की मधुर स्मृति लिए 26 नवंबर को रात्रि सवा नौ बजे वहाँ से जर्मनी के लिए रवाना हुआ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मेरी यूरोप यात्रा (पृष्ठ 128)
    • रचनाकार : राहुल सांकृत्यायन
    • प्रकाशन : साहित्य-सेवक-संघ, छपरा
    • संस्करण : 1935

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