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पश्चिम के उस देश में जो सदा कलाकारों को प्रिय रहा है

paschim ke us desh mei jo sada kalakaro ko priye raha hai

सेठ गौविंददास

अन्य

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सेठ गौविंददास

पश्चिम के उस देश में जो सदा कलाकारों को प्रिय रहा है

सेठ गौविंददास

और अधिकसेठ गौविंददास

    जब हमने इस यात्रा का कार्यक्रम बनाया था तभी कनाडा और अमेरिका को छोड़ सबसे अधिक समय लंदन और इटली देश को देने का निश्चय किया था। लंदन को इसलिए कि ग्रेट ब्रिटेन से हमारा युगों तक संबंध रहा था, स्वतंत्र होने के पश्चात आज भी अपने देश के बाहर हमारा संबंध ग्रेट ब्रिटेन से ही सबसे अधिक है और इटली को इसलिए कि प्राकृतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से यूरोपीय देशों में इटली का अपना एक विशेष स्थान है। इसीलिए दुनिया के जाने कितने प्रकृति और संस्कृति प्रेमी वहाँ केवल जाते ही थे, पर अनेकों ने अपनी जन्मभूमि होते हुए भी इटली को ही अपना निवास स्थान बना लिया था। अँग्रेज़ी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से बायरन, शैली, कीट्स आदि इटली में ही अधिकतर रहते थे और मृत्यु भी इटली में ही हुई थी।

    इटली को प्रकृति ने असीम सौंदर्य दिया है। वहाँ की पर्वत-श्रेणियाँ, वन, झीलें, नदियों के तट आदि सभी स्थलों पर प्रकृति के भिन्न-भिन्न प्रकार के सुंदर स्वरूप अपनी अद्भुत छटा दिखाते हैं। यूनान के बाद वहाँ की सारी संस्कृति का केंद्र रोम हो गया था और सिकंदर के बाद रोमन साम्राज्य के सीज़रों ने अपने राज्य-विस्तार के साथ-साथ संस्कृति का विस्तार भी प्रचुर परिमाण में किया था। रोम नगर शताब्दियों तक पश्चिमी संसार का हर दृष्टि में प्रधान नगर रह चुका था। संगमरमर की खानों के बाहुल्य तथा उन खानों से निकलने वाले अत्यधिक शुभ्र साथ ही भिन्न-भिन्न रंग के पत्थरों ने वहाँ की स्थापत्य और मूर्तिकला के उत्कर्ष में कितना योग दिया था। माइकिल एंगलो, राफेल आदि चित्रकारों ने दीवारों पर तथा कैनवास पर जैसे महान और सजीव चित्र बनाए है वैसे चित्र संसार के अन्य किसी देश में किसी ज़माने में भी निर्मित नहीं हुए। यद्यपि सिसरों के समान दार्शनिक और दांते के समान महाकवि भी उस भूमि पर जन्म ले चुके थे, फिर भी इतना कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि स्थापत्य, मूर्तिकला और चित्रकला का वहाँ जितना विकास हुआ था दर्शन तथा साहित्य का नहीं। दर्शन में भारत एवं साहित्य में अन्य अनेक देश इटली से कहीं आगे रह चुके थे और आज भी हैं।

    इटली दक्षिण यूरोप के मध्य भाग में एक प्रायद्वीप है। इसके पूर्व में एड्रियाटिक सागर है, दक्षिण में आयोनियम सागर और पश्चिम में टाइरनियन सागर। दूसरी बड़ी लड़ाई के बाद इटली के चार ज़िले फ़्रांस के पास चले गए और कुछ भाग यूगोस्लाविया, यूनान, अल्बानिया आदि के पास चला गया। इसी प्रकार इटली के उपनिवेशों पर भी उसका नियंत्रण नहीं रहा।

    यूरोप का नक़्शा देखने से इटली की प्रकृति एक बूट की-सी है, जिसके पंजे के सामने सिसली एक ऐसा तिकोना पत्थर प्रतीत होता है, जिसमें वह ठोकर मारने ही वाला हो। समूचे इटली की लंबाई 760 मील है, चौड़ाई उसकी डेढ़ सौ मील से किसी भी स्थान पर अधिक नहीं है, अधिकतर तो सौ मील ही है। इटली का क्षेत्रफल हैं 1,31,000 वर्ग मील वहाँ की आबादी है चार करोड़ सत्तर लाख से कुछ अधिक। रोम अभी भी इटली का प्रधान नगर एवं वहाँ की राजधानी है। वहाँ की आबहवा मातदिल है। जाड़ों में बहुत कम स्थानों पर बर्फ़ गिरती है और गर्मियों में सख़्त गर्मी नहीं होती। आजकल वहाँ गर्मी का मौसम चल रहा था।

    हमारा हवाई जहाज़ जिस समय रोम पहुँचा उस समय रोम के तीसरे पहर के 2 बजे थे। रोम का समय एथेंस से एक घंटे पीछे था। हमारी पहुँच का तार यहाँ ठीक समय पहुँच गया था अतः भारतीय दूतावास के प्रथम सचिव श्री उमाशंकर वाजपई और श्री बालकृष्णन हवाई अड्डे पर मौजूद थे। श्री उमाशंकर श्री गिरजाशंकर वाजपेई के पुत्र है और मैं दिल्ली से ही उन्हें भलीभाँति जानता था। भारतीय दूतावास के लोगों के हवाई अड्डे पर रहने के कारण हमारे पासपोर्ट तथा अन्य जाँचों में बहुत अधिक समय लगा। हमारे ठहरने की व्यवस्था भारतीय दूतावास ने ही रिअले (अँग्रेज़ी में रायल) होटल में की थी। हवाई अड्डे से हम होटल आए। रास्ते में हमें रोम नगर का कुछ भान हो गया। काहरा और एथेंस के सदृश रोम भी एक आधुनिक नगर है, पर कई जगह दिल्ली के पुराने फाटकों और शहर पनाह के सदृश यहाँ भी प्राचीन रोम के कुछ फाटक तथा यहाँ-वहाँ से टूटी हुई चाहर-दीवारी के कुछ हिस्से दीख पड़ते हैं। कुछ संगमरमर के प्राचीन मकान भी हैं ओर उन पर कुछ मूर्तियाँ। रोम में काहरा और एथेंस के सदृश स्वच्छता हमें दृष्टिगोचर हुई। यहाँ के निवासियों में हमें गेहुएँ वर्ण की झाँई और अधिक दिखाई दो स्त्री-पुरुष सभी की वेशभूषा यूरोपीय थी।

    जब हम होटल पहुँचे तब हमने देखा कि हमारा होटल नया होकर पुराना है और पुराना होने के कारण पुराने मकानों में जैसी ऊँची छत और बड़े दरवाज़ों के बड़े-बड़े कमरे होते हैं उस प्रकार के इस होटल के कमरे हैं। हमें तो यह होटल, अब तक हम जिन होटलों में ठहरे थे, उन सबसे अच्छा जान पड़ा। होटल में अपना सामान आदि रख हमने इटली घूमने का कार्यक्रम बनाया। आरंभिक कार्यक्रम में हमने इटली को पाँच दिन दिए थे, पर इतने थोड़े समय में इटली किसी प्रकार भी देखा जा सकता था। हमने एक दिन इटली के लिए और बढ़ाया, पर इतने पर भी हम इटली के सभी प्रधान स्थानों को अपने कार्यक्रम में शामिल कर सके। रोम, फ़्लोरेंस और वेनिस ये तीन ही स्थान हमारे कार्यक्रम में रखे जा सके। हमें इस बात का खेद रहा कि नेपिल्स और उसी के सन्निकट पुराने पांपिआई के खोदे हुए खंडहर हमारे कार्यक्रम में शामिल हो सके; पर कोई उपाय था, छः दिन से अधिक समय हम किसी प्रकार भी इटली को दे सकते थे क्योंकि लंदन से कनाडा हमें एक निश्चित तारीख़ को रवाना होना था। एक बात हमें और निर्णय करनी पड़ी। रोम से जिनीवा तक की यात्रा हमें रेल से करने का निर्णय करना पड़ा अन्यथा हम फ़्लोरेंस और वेनिस जा सकते थे।

    होटल से हम सीधे भारतीय दूतावास को गए और वहीं भारतीय राजदूत श्री प्रेमकिशन से मिल दूतावास के अन्य कर्मचारियों से मिले तथा वहाँ का काम देखा। यहाँ का दूतावास एक किराए के मकान में है।

    दूतावास से हम फिर होटल लोटे ओर भोजन से निवृत हो रात को एक मार्ग-प्रदर्शक की पर्यटक बस में अन्य अनेक यात्रियों के साथ रात्रि के रोम को देखने चले। रोम सचमुच बड़ा सुंदर जान पड़ा। बिजली के भिन्न-भिन्न रंगों के ट्यूबों से बने बाज़ारों की दुकानों के साइनबोडों तथा अन्य प्रकार के बिजली के प्रकाश से सारा नगर जगमगा रहा था। दुपहर को हवाई अड्डे से होटल जाते हुए हमें रोम में स्वच्छता की जो कमी दृष्टिगोचर हुई थी रात्रि को वह भी छिप गई थी। पर्यटक बस चलती जाती और मार्ग-प्रदर्शक लाउड स्पीकर द्वारा स्थानों का वर्णन करता जाता अँग्रेज़ी और फ़्रांसीसी दो भाषाओं में।

    सबसे पहले हमें एक फ़व्वारा दिलाया गया। इसकी पानी की धाराएँ नीचे लगे बिजली के बल्बों के कारण रंग-बिरंगी हो गई थीं। इस फ़व्वारे को देख मुझे सन् 1911 को इलाहाबाद प्रदर्शनी का ठीक ऐसा ही फ़व्वारा याद आया। मैं समझता हूँ इसी फ़व्वारे को ध्यान में रख इलाहाबाद की उस प्रदर्शनी का वह फ़व्वारा बनाया गया होगा। इलाहाबाद प्रदर्शनी के उस फ़व्वारे के अतिरिक्त हमें मैसूर के वृंदावन के फ़व्वारे भी याद आए। यद्यपि उन फ़व्वारों की जलधाराएँ भी इसी प्रकार बिजली के भिन्न-भिन्न रंगों के बल्बों से चमकती है पर इसके सिवा इस फ़व्वारे की बनावट और मैसूर के वृंदावन के फ़व्वारों की बनावट में कोई साम्य नहीं है, वह तो इलाहाबाद की प्रदर्शनी के फ़व्वारे में ही था। इलाहाबाद की उस प्रदर्शनी के चालीस वर्ष बीत चुके थे। इन चालीस वर्षों में मैंने इस फ़व्वारे के सदृश अन्य को फ़व्वारा देखा था, पर चालीस वर्ष बीत जाने पर भी इस फ़व्वारे को देखते ही चालीस वर्ष पुरानी चीज़ मुझे याद आएगी। कितना स्मरण रहता है मानव के मस्तिष्क को। हर चीज़ उसे याद रहती है, ऐसा नहीं, पर जिस वस्तु का मन पर गहरा प्रभाव पड़ जाता है वह शायद नहीं भूलती। मुझे याद है कि इलाहाबाद-प्रदर्शनी के उस फ़व्वारे का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था अतः चालीस वर्ष बीत जाने पर भी उसी के सदृश एक चीज़ देख मुझे उस फ़व्वारे का स्मरण हो आया।

    फ़व्वारे को भली-भाँति देखते हुए हम रोम की संगमरमर की प्रसिद्ध इमारत, विक्टर इमैनुअल मेमोरियल पहुँचे। बस यहाँ खड़ी हो गई और हम सब यात्रियों ने बस से उतर इस इमारत का निकट से परीक्षण किया। मार्ग प्रदर्शक ने इस इमारत का पूरा विवरण बताया जो इस प्रकार है—

    सम्राट् इमैनुल द्वितीय के स्मारक के रूप में इस इमारत का निर्माण सन् 1885 से 1911 के बीच हुआ था। यह स्मारक इटली की एकता और स्वतंत्रता का प्रतीक माना जाता है। इसका यह काम सम्राट विक्टर द्वितीय के शासन काल में सम्पन्न हुआ था। इसका मानचित्र सकोनी नामक कलाकार ने तैयार किया था। यह सफ़ेद पत्थर का बना हुआ है। एक स्तंभ पर सम्राट इमैनुअल की कांसे की मूर्ति है। इस इमारत को देखने के पश्चात हम रोम के कुछ पुराने स्थानों को देखने चले। इसके बाद हम पहुँचे रोम के एक पुराने कुएँ पर जहाँ आजकल एक रेस्तराँ है।

    रेस्तराँ में बाक़ी के यात्रियों में से अधिकांश ने तो रोम की प्रसिद्ध शेम्पीन मदिरा पी, पर हम तीनों ने संतरे का शर्बत। कहा जाता है कि रोम की मदिरा संसार में सबसे अच्छी होती है और इतने पर भी इतनी सस्ती कि पानी से भी उसकी क़ीमत कम।

    रेस्तराँ से हम गए रोम के एक प्रसिद्ध रात्रि-क्लब में। रात्रि-क्लब की लीला जीवन में हमने सर्वप्रथम रोम में ही देखी। यह रात्रि-क्लब हमें तो कामवासनाओं के उभारने तथा व्यभिचार करने का जीता-जागता स्थल दृष्टिगोचर हुआ। एक विशाल मंडप में सैकड़ों कुर्सियों पड़ी हुई थीं। एक ओर था रंगमंच, जिस पर पियानो, वायलन आदि सारे पश्चिमी वाद्य यंत्रों का एक अच्छा आरचेस्ट्रा बज रहा था। मंडप की कुर्सियाँ भरी हुई थीं नर और नारियों से, जो खा रहे थे, पी रहे थे, धीरे-धीरे वार्तालाप भी करते हुए मुस्करा रहे थे और हँस रहे थे। सबसे अधिक पी जा रही थी वारुणी। आरचेस्ट्रा के सामने कभी होता था नृत्य और कभी गान। इटली की भाषा तो हम जानते थे, अतः जब गान होता तब गायकों की स्वर-लहरी ही हम सुन पाते तथा उन स्वरों के साथ देख पाते गायकों के हावभाव; हाँ, नृत्य हम उसी तरह देख सकते जिस तरह अन्य लोग। नृत्य की अपनी एक भाषा होती है जिसे कहा जाता है मुद्राएँ और जो मुद्रा-शास्त्र में पारंगत नहीं होते वे इन मुद्राओं का एक-सा ही अर्थ लगाते हैं। फिर इस रात्रि क्लब के नृत्यों की मुद्राओं का अर्थ समझ सकना तो बड़ा ही सरल था। उनमें भारतीय नृत्य पद्धतियों में भारत नाट्य, कथाकली, गरभा, मैनपुरी और कथक पाँचों में से किसी की भी गूढ़ता थी। रूस की प्रसिद्ध नृतकी मैडम पवलवा की इस घोषणा को, कि भारत ने ही नृत्यकला और वैज्ञानिक नृत्यकला का सर्वप्रथम आविष्कार किया है और भारत की नृत्यकला ही सर्वोत्कृष्ट नृत्यकला है, यद्यपि अनेक वर्ष बीत चुके थे तथा भारत के प्रसिद्ध नर्तक श्री उदयशंकर और रामगोपाल आदि की पश्चिम सराहना भी काफ़ी कर चुका था, परंतु इस रात्रि-क्लब के इस नृत्य में उन मुद्राओं का कोई स्थान था। यहाँ के नृत्य की तो सारी मुद्राओं का एक ही अभीष्ट या कामुकता। ये नृत्य कर रही थीं रोम की कुछ तरुणियाँ जिनके शरीर केवल दो स्थानों पर ही ढके हुए ये वक्षस्थल कोई चार-चार इंच डायमेटर की चोलियों से और जाँघों के बीच कोई तीन-तीन इंच चौड़ी पट्टियों से। शेष सारे अंग खुले हुए थे। एथेंस में जल-विहार करने वाली सुंदरियों के शरीर पर भी हम वस्त्रों की कमी देख चुके थे, पर यह रात्रि-अब तो इस दृष्टि से एथेंस के समुद्र तट से कहीं आगे बड़ा हुआ था।

    जब हम लोग यहाँ पहुँचे तो यह पौने सोलह आना तक नग्न शरीरों वाला कामुक नृत्य वहाँ की छः तरुणियाँ कर रही थीं। इसके बाद हुआ एक गान और फिर एक पुरुष और स्त्री का नृत्य। यह पुरुष स्त्री का नृत्य क्या एक बलशाली कामुक कुश्ती थी। कामलीला में बल की पराकाष्ठा तक प्रयोग का प्रदर्शन इस नृत्य का उद्देश्य था। और इस नृत्य के बाद रंगमंच दे दिया गया दर्शकों को नाचने के लिए। नृत्यों के दर्शन से दर्शकों भावनाएँ उत्तेजित हो ही चुकी थीं, उन्हें और भी सहायता पहुँचाई होगी मदिरा ने। अब दर्शकों की एक-एक जोड़ी ख़ूब नाची। हमारे साथ के दो यात्री भी उन छः नृत्य करने वाली छोकरियों में से दो को लेकर नाचने लगे।

    जब दर्शकों का यह नृत्य जी भरकर हो चुका तब फिर से पहले वाले नृत्यों को ही द्वितीय आवृत्ति हुई और सारा कार्यक्रम समाप्त हुआ कोई सवा बजे रात्रि को।

    यहाँ हमारा आज रात्रि को पर्यटन समाप्त हुआ और हम लोग होटल लौटे। जब हम होटल लौट रहे थे तब मुझे याद आया सन् 1920 के पहले का वह ज़माना जब हमारे यहाँ अनेक गार्डन पार्टियाँ होती थीं और उनमें से भी इस यूरोपीय ढंग का नाच-नाचा करता था। यूरोपीय सभ्यता में इस प्रकार के नर-नारियों के सम्मिलित सामूहिक नृत्य का अपना एक स्थान है, पर उनमें तथा रात्रि क्लब में कामुक-नृत्यों के पश्चात जो ऐसे नृत्य होते हैं इसमें अंतर महान अंतर है। नर-नारियों के सम्मिलित सामूहिक नृत्यों की प्रथा तो यूरोप के सिवा भी कई देशों और समुदायों में है। भारत में भी वनवासी समुदायों में से अधिकांश में ऐसे नृत्यों का बहुत अधिक प्रचार है और मेरा तो मत है कि पुराणों में कृष्ण के जिस महारास का वर्णन है एवं जिसके संबंध में यह कहा गया है कि कृष्ण के इतने अधिक रूप हो गए थे कि दो-दो गोपियों में के बीच एक-एक कृष्ण नृत्य करते थे वह महारास भी ऐसा ही सामूहिक नृत्य होगा जिसमें ऐसा समा बँधा होगा कि उस रास में नृत्य करने वाले समस्त गोप कृष्ण समान दिखते होंगे। जो कुछ हो, स्त्री-पुरुषों के ऐसे सम्मिलित सामूहिक नृत्यों के मैं विरुद्ध नहीं हूँ, पर रात्रि-क्लब की जिस पृष्ठभूमि में ये नृत्य होते हैं वे मेरे मतानुसार सर्वथा वर्जित होने चाहिए। मैं नहीं जानता कि भारतवर्ष में भी रात्रि-क्लब हैं या नहीं और यह सब कहीं होता है या नहीं, यदि होता हो तो सरकार को हमारे देश में तो इन रात्रि क्लबों को तत्काल बंद कर देना चाहिए।

    दूसरे दिन प्रातःकाल 6 बजे हम फिर पर्यटक बस द्वारा रोम के प्रधान स्थानों को देखने चले। आज के पर्यटन में पहले तो हमें वही संगमरमर की विक्टर इमेनुअल मिमोरियल इमारत दिखाई गई और इसके बाद हम गए ईसाई रोमन कैथलिक के सबसे बड़े पादरी पोप जहाँ रहते हैं उस प्रसिद्ध वैटिकन का अजायबघर तथा वैटिकन देखने। कहा जाता है कि वैटिकन का यह अजायबघर दुनिया का सबसे बड़ा अजायबघर है। सचमुच ही हमने इसका संग्रह जितना बड़ा देखा उतना अब तक कहीं के अजायबघरों में नहीं देखा था। कितनी मूर्तियाँ, कितने चित्र, कितना विविध प्रकार का सामान यहाँ संग्रहीत था। खेद की एक ही बात थी कि आज हमें जो मार्ग प्रदर्शक मिला था, वह बहुत ही ख़राब था। वह इतनी जल्दी चलता तथा इतनी जल्दी संग्रहीत वस्तुओं का परिचय देता कि उसका अधिकांश कथन हमारी समझ में ही आता। फिर अधिकांश चीज़ों को वह बतलाता तक नहीं, अरे बताना दूर रहा उन संग्रहों के मार्ग ही छोड़ देता। मैं यह मानता हूँ कि यह अजायबघर इतना बड़ा है और संग्रह इतना अधिक कि जितना समय हमारे पास या उस समय के भीतर उस सारे संग्रह को कोई भी मार्ग-प्रदर्शक हमें बता सकता था, पर यदि थोड़ा समय भी वह अधिक देता, थोड़ा धीरे चलता तथा अपनी भाषण-गति भी थोड़ी मंद रखता और उसने अपना कार्य जो 12 बजे समाप्त कर दिया वह पूर्व-निश्चय के अनुसार 1 बजे समाप्त करता तो कम से कम हम संग्रह के सारे मार्गों में घूम लेते। फिर भीड़ भी हमारे साथ इतनी अधिक थी कि सबको इकट्ठा रखना भी एक समस्या था। हमारे समुदाय के अतिरिक्त इसी प्रकार के अन्य भी अनेक समुदाय थे। मैं समझता हूँ कि वैटिकन के उस अजायबघर में एक ही समय में कोई पाँच हज़ार स्त्री पुरुष घूम रहे होंगे।

    मैंने सुना है कि यह वहाँ का नित्य का हाल है। कितने लोग आते यात्रियों के रूप में और कितना पैसा मिल जाता है यहाँ के व्यवस्थापकों को इनकी टिकटों से इन संस्थाओं की सारी सुव्यवस्था का शायद यही प्रधान कारण है। वैटिकन का अजायबघर देखने के बाद हमने वैटिकन के शेष स्थल भी सरसरी दृष्टि से देखे, अनेक तो दूर से ही, और वैटिकन का कुछ हाल भी समझने का यत्न किया।

    वैटिकन राज्य पोप की प्रभुसत्ता के अधीन एक स्वतंत्र राज्य है। यह संसार का सबसे छोटा राज्य है। इसका क्षेत्रफल सौ एकड़ से कुछ अधिक है और जनसंख्या भी एक हज़ार से बहुत अधिक नहीं है। पुलिस व्यवस्था इटली की पुलिस के पास है।

    1870 में इटली के एकता स्थापित होने के बाद 11 फ़रवरी, 1929 में लाटेरान की संधि द्वारा वैटिकन नगर की स्थापना हुई।

    वैटिकन के अधिकतर भाग को वैटिकन प्रसाद और सैंट पीटर गिरजाघर घेरे हुए हैं। वैटिकन प्रसाद चीन की राजधानी पीकिंग में वहाँ के सम्राट के महल के बाद संसार का सबसे बड़ा प्रसाद है। यह पचपन हज़ार वर्ग मीटर में बना हुआ है, इसमें बीस आँगन है और लगभग डेढ़ हज़ार आलय और कमरे आदि हैं। केवल अपने आकार के कारण बल्कि ऐतिहासिक धौर कलात्मक दृष्टि से भी यह महल अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 1950 में निकोलस पंचम के बाद के सभी पोपों ने इसको अधिकाधिक समृद्ध बनाया है।

    सैंट पीटर गिरजाघर के सम्मुख 260 फुट लंबा और 215 फुट चौड़ा एक चौक है। इसमें अंडकार चार-चार की क़तार में स्तंभ खड़े हुए हैं जिन पर छत है। स्तंभों की संख्या 284 है और ऊपर महात्माओं की 140 मूर्तियाँ हैं। गिरजाघर के लिए सीढ़ियों पर चढ़ने से पहले ही सैंट पीटर की मूर्ति के दर्शन होते हैं। कितनी भव्य है वह मूर्ति, कितना सौम्य है सारा दृश्य।

    वर्तमान गिरजाघर उस स्थल पर बना हुआ है जहाँ सैंट पीटर की क़ब्र के पास सम्राट कान्स्टैनटाइन का प्रसाद था।

    सैंट पीटर गिरजाघर के भीतरी भाग में प्रवेश करने के लिए पाँच द्वार हैं। दाईं ओर का पहला द्वार पवित्र द्वार अथवा जयंती द्वार कहलाता है। यह पच्चीस वर्ष में केवल उसी समय खोला जाता है जबकि जयंती समारोह होते हैं।

    सैंट पीटर गिरजाघर में रोमन कला की झलक स्पष्ट है। जल्दी के कारण हम सैंट पीटर गिरजाघर को उतनी अच्छी तरह देख सके जितनी अच्छी तरह हमने बाद में इटली में दूसरे प्रसिद्ध गिरजाघर सैंट पाल को देखा।

    वैटिकन से लौटकर हमने दुपहर का भोजन किया। तीसरे पहर तीन बजे इसी प्रकार की एक पर्यटक बस से हमने फिर घूमने का निश्चय किया था, परंतु आज प्रातःकाल की इस प्रकार की पर्यटक बस का कुछ ऐसा बुरा अनुभव हुआ हमने पर्यटक बस के अपने रिजर्वेशन को मंसूख़ करा एक अलग मार्ग प्रदर्शक के साथ एक टैक्सी में जाना तय किया। हम लोग तीन व्यक्ति थे। कनाडा के एक तथा फ़्रांस के एक इस प्रकार दो सज्जन और हमारे साथी के रूप में मिल गए। इस प्रकार हम पाँच ने मिलकर एक मार्ग प्रदर्शक और एक टैक्सी का प्रबंध किया। मार्ग प्रदर्शक ऐसा था जो अँग्रेज़ी तथा फ़्रांसीसी दो भाषाएँ जानता था।

    अब हम सबसे पहले रोम के प्रसिद्ध सैंट पाल गिरजाघर को देखने गए। कितना विशाल, भव्य और सुंदर यह गिरजाघर है। बनावट तथा उसकी सामग्री में तो नहीं, परंतु विशालता, भव्यता और सौंदर्य में इसका पूरा मिलान काहरा की मुहम्मद अली की मस्जिद से हो सकता है। जैसा विशाल, भव्य और सुंदर यह गिरजाघर है वैसी ही काहरा की वह मस्जिद और दोनों है उस जगदाधार जगदीश्वर की वंदना के स्थान। मुझे एकाएक दक्षिण भारत के ऐसे ही विशाल, भव्य और सुंदर श्री रंग, रामेश्वर एवं मीनाक्षी देवी मंदिरों का स्मरण हो आया। उन मंदिरों के गोपुरों, मंडपों आदि में भी ऐसी ही विशालता, भव्यता और सौंदर्य दिखता है, चाहे बनावट सर्वथा दूसरे प्रकार की ही क्यों हो। तो स्थापत्यकला की भिन्न-भिन्न प्रणालियों से इन वस्तुओं का मन पर जो प्रभाव पड़ता है, उस प्रभाव का कोई संबंध नहीं है। चाहे स्थापत्यकला भिन्न-भिन्न प्रकार की हो, पर यदि निर्मित वस्तु में विशालता है, भव्यता है और सौंदर्य है तो मन पर उस वस्तु का प्रभाव एक-सा ही पड़ेगा। हाँ, इस दर्शन से आनंद प्राप्त करने के लिए मन को उदार होने की आवश्यकता अवश्य है। यदि मन में संकीर्णता है और धर्मांधता कि इस प्रकार की भावना कि चाहे हाथी के पैर के नीचे कुचल जाओ पर जैन मंदिर में पैर रखो तो फिर मन को कोई आनंद प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए गाँधी जी की प्रार्थना के समय ‘रघुपति राघव राजा राम’ के साथ ‘ईश्वर अल्लाह तेरे नाम’ भी गाया जाता था। मेरे मन में काहरा की मुहम्मद अली को मस्जिद और रोम के सैंट पाल गिरजाघर के दर्शन से कुछ वैसे ही आनंद की उत्पत्ति जैसे भारत में दक्खिन के विशाल मंदिरों के दर्शन के समय हुई थी और इस आनंद में मुझे उस परमपिता परमात्मा की भी याद आई जिसकी महानता के स्मरण के लिए ही इन महान वस्तुओं का निर्माण हुआ था। हाँ, काहरा की मस्जिद और रोम के इस गिरजाघर की क़ब्रें मुझे ज़रा भी अच्छी लगीं। नित्य के उस दर्शन की मन में अभिलाषा उत्पन्न कराने के लिए जिन ऐसी वस्तुओं का निर्माण होता है उनमें इस क्षणभंगुर अनित्य शरीर की कल क्यों बनाई जाएँ।

    सैंट पीटर गिरजाघर के बाद सैंट पाल रोम का सबसे बड़ा गिरजाघर है। 1823 के अग्निकांड में जल जाने के बाद लगभग समूचा गिरजाघर ही फिर से बनाया गया है। यह गिरजाघर कान्स्टेन्टाइन ने बनवाया था। इसी स्थल पर सैंट पाल का सिर उतारा गया था। पाँचवीं शताब्दी में इस गिरजाघर को बड़ा बनाया गया। समय-समय पर गिरजाघर में और भी सजावट होती रही। अंत में इसकी गणना सर्वोत्तम गिरजाघरों में होने लगी। प्रोटेस्टेंट मतानुयायियों के सुधार-आंदोलन से पहले यह गिरजाघर इंग्लैंड के बादशाह के संरक्षण में रहता था।

    यह गिरजाघर कालडेरिनी के डिज़ाइन के आधार पर तैयार किया गया है। इसमें 146 स्तंभ है। मध्य में सैंट पाल की मूर्ति है। पीछे गुलाबी ग्रेनाइट के दस स्तंभ हैं।

    इस गिरजाघर से हम गए उस स्थान पर जहाँ किसी ज़माने में मानव से सिंह की कुश्ती कराई जाती थी और उसे देखने चारों ओर नर-नारी एकत्रित होते थे।

    वह स्थान फ्लैवियन (Flavian) वंश के सम्राट् वैस्पेसियन ने बनवाया था। इसी स्थल पर नीरो के उद्यान की अप्राकृतिक झील थी। इस इमारत को सम्राट वैस्पेसियन के पुत्र टीटस ने 80 ईसवी में पूरा किया। इसका उद्घाटन समारोह सौ दिन तक चलता रहा और इस बीच कोई पाँच हज़ार वन्य पशुओं का वध किया गया। भूचाल, मरम्मत होने और नागरिकों के दुरुपयोग के कारण यह इमारत बहुत कुछ नष्ट हो गई। इसे कोलोसियम कहा जाता है जो रोमन सम्राटों का क्रीड़ास्थल था और बर्बरता का केंद्र भी। कोलोसियम नाम पड़ने का कारण या तो यह हो सकता है कि यह इमारत ही अत्यंत विशाल है अथवा यह कि पास ही में नीरो की जो मूर्ति है वह अत्यंत विशाल है। यह इमारत अंडाकार है। इसका घेरा 576 गज है, लंबाई 205 गज है और चौड़ाई 170 गज है। इसकी ऊँचाई 157 फुट है। इमारत चौमंजिली है। अंदर अखाड़े के चारों ओर 50 हज़ार दर्शकों के बैठने लायक स्थान है। अखाड़े में मसीहियों पर किए गए अनेक अत्याचारों के स्मारक के रूप में क्रॉस रखा हुआ है। इमारत की चार मंज़िलों में से पहली तीन में स्तंभ हैं जो क्रमश: डौरिक, आयोनिक और कोरिथियन क़िस्म के हैं। चौथे मंजिल पर दीवार है जिसमें चौकोर खिड़कियाँ हैं।

    इसके अंदर के अखाड़े की लंबाई 94 और चौड़ाई 59 गज है। अखाड़े के मैदान के चारों और पाँच गज ऊँचा चबूतरा-सा हैं। यह स्थान सम्राट के बैठने के लिए होता था। बड़े-बड़े अधिकारी —सेनेट के सदस्य, मजिस्ट्रेट, राजदूत, पुरोहित आदि और देवदासी कुमारियों को भी यहाँ स्थान दिया जाता था।

    पहली मंज़िल बहादुर जवानों और सरदारों के लिए होती थी। बीज की मंज़िल नागरिकों के लिए होती थी और इसके उपरांत दीन जनों के लिए देखने का प्रबंध था। महिलाओं के लिए अलग गैलरी निश्चत थी।

    प्राचीनकाल में यह कहा जाता था कि जब तक रोम में कोलोसियम है तब तक रोम भी है, इसके पतन के साथ-साथ रोम का पतन हो जाएगा और रोम के पतन के साथ-साथ संसार का पतन हो जाएगा।

    रोमन जब किसी देश को जीतते थे तो वहाँ के निवासी ग़ुलाम बना दिए जाते थे। विजेता पैट्रीशियन कह जाते और विजित प्लेबियन। ग़ुलामों पर उनके मालिकों का वैसा ही अधिकार रहता जैसा पशुओं पर, वरन निर्जीव संपत्ति पर, और मालिक ग़ुलाम के साथ जैसा चाहे वैसा बर्ताव करने के लिए आज़ाद रहता, जहाँ तक कि यदि उसे अपने ग़ुलाम को सिंह की इन कुश्तियों का आम परिणाम सिंह द्वारा मानव का खाया जाना ही तो होता और इस भीषण लीला को देखने के लिए इस मकान में उस ज़माने में रोम का सारा सभ्य पैट्रीशियन समाज एकत्रित होता।

    रोम के प्राचीतम इतिहास से विदित है कि जनता दो भागों मे विभक्त थी पैट्रीशियम और प्लेबियन। पैट्रीशियन लोगों के वर्ग को सब प्रकार के राजनीतिक अधिकार प्राप्त थे। प्लेबियन वर्ग को नागरिकता के भी अधिकार थे।

    पर धीरे-धीरे प्लेबियनों की संख्या बढ़ने लगी। व्यापार आदि की सहायता से इनमें से बहुत से धनी भी हो गए और फिर अनेक कारणों से प्लेबियनों का पक्ष जनता का पक्ष के नाम से संगठित हो गया।

    बाद में जब वे अपनी सबल स्थिति के कारण अधिकार और महत्वपूर्ण स्थान पाने लगे तो पैट्रीशियनों को ईर्ष्या होने लगी। यह ईर्ष्या निरंतर उग्र से उग्रतर रूप धारण करने लगी। अंत में इन दोनों वर्गों के बीच सत्ता प्राप्त करने के लिए भयंकर संघर्ष हुआ। ईसा से 494 वर्ष पूर्व प्लेबियनों ने एक अलग व्यवस्था क़ायम की जिसके लिए प्रतिवर्ष अधिकारी चुने जाते थे। उन्होंने एक असेंबली भी बनाई और धीरे-धीरे वे इतने शक्तिशाली हो गए कि पैट्रीशियनों के साथ उनके विवाह आदि होने लगे। इसके बाद सेनेट में भी उनके सदस्य लिए जाने लगे और राजनैतिक अधिकारों में समानता हो गई। कुछ समय बाद तो यहाँ तक हो गया कि पैट्रीशियनों के लिए कुछ बाधाएँ पैदा हो गईं। उदाहरण के लिए, प्लेबियनों की परिषद में उन्हें सम्मिलित नहीं किया जाता था। पर इन बाधाओं के कारण किसी प्रकार का क्षोभ समाज में रह गया और बाद में सीज़र तथा आगस्टस के शासन काल में सम्मान के लिए पैट्रीशियन पद से लोगों को उसी प्रकार विभूषित किया जाने लगा जैसा कि इंग्लैंड के इतिहास में लोगों को बैरन अर्ल आदि पदवियों से सुशोभित किया जाता रहा है। इस तरह इस शब्द का अर्थ ही बिलकुल बदल गया और जिस रूप में पहले कभी प्रयोग किया जाता था उससे बिलकुल भिन्न रूप में प्रयोग किया जाने लगा। कॉन्स्टेंटाइन शासन काल में पैट्रीशियन शब्द का बोध स्पष्ट रूप से पद विशेष के लिए होने लगा था। छठी और सातवीं शताब्दी में इस शब्द से जिसे संबोधित किया जाता था उसे एक प्रकार का रक्षक माना जाता था। यह पैट्रीशियन शब्द की धार्मिक परिभाषा थी।

    मानव समाज के इस पैट्रीशियन और प्लेबियन के भेद मिटने में कितना समय लगा और कितनी कठिनाई से यह भेद मिट सका। जो लोग कहते हैं कि मनुष्य जहाँ का तहाँ है, उसकी उन्नति नहीं हो रही हैं वे इस पैट्रीशियन और प्लेबियन के भेद निवारण तथा ग़ुलामी प्रथा की समाप्ति के इतिहास को देखें। अभी भी अधिकांश जगत में मुट्ठी भर लोगों के हाथ में ही सब कुछ है और मुट्ठी भर लोगों द्वारा अधिक में संख्या के शोषण की पूरी समाप्ति नहीं हुई है, परंतु पैट्रीशियन और प्लेबियन के ज़माने, तथा जब ग़ुलामी प्रथा प्रचलित थी उस ज़माने एवं आज के समय में थोड़ा अंतर नहीं हुआ है। अतः यह कथन कि मनुष्य जहाँ का तहाँ है एक सर्वथा मिथ्या कथन है।

    इस इमारत को देख हम प्रसिद्ध 'रोमन फोरम' नामक स्थान को गए। रोमन फोरम के स्थल पर किसी समय एक दलदल वाली घाटी थी। रोमन और सैवाइंस में आपसी संघर्ष होने के बाद जब वे मिलकर एक हो गए तो धीरे-धीरे फोरम ने शहर के राजनीतिक और व्यापारिक केंद्र का रूप धारण कर लिया। रोम का महत्त्व बढ़ने के साथ-साथ इसका भी महत्त्व बढ़ा। रिपब्लिकन युग में बाज़ार आदि को यहाँ से हटाकर आसपास की बस्तियों में ले जाया गया और उनकी जगह सभा भवन और न्यायालयों की स्थापना की गई। बाद में सीज़र की योजना के अनुसार, जिसे कुछ काल पश्चात आगस्टस ने पूरा किया, फोरम के दक्षिण भाग का निर्माण किया गया। तीसरी शताब्दी के अंतिम काल में अग्निकांड में यह बहुत कुछ नष्ट हो गया। बर्बरों के आक्रमणों से भूचाल आने से, और ठीक-ठीक देखभाल होने से धीरे-धीरे इसको क्षति ही पहुँचती गई।

    रोमन फोरम से चलकर हमने रोम की कुछ प्रधान मूर्तियों को देखा और अंत में हम पहुँचे रोम के उस पुराने क़ब्रिस्तान में जहाँ ईसाई मत के आरंभ होने के बाद सर्वप्रथम मुरदों का गाड़ना आरंभ हुआ था। ईसाई मत के प्रारंभ होने के पहले रोम निवासी मुरदों को जलाते थे, गाड़ते नहीं थे। जब ईसाई धर्म के अनुसार को गाड़ना ईसाई धर्म मानने वालों आरंभ किया तब जो ईसाई धर्म के अनुयायी नहीं थी उन्होंने इसका विरोध किया और यह सवाल एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बना गया। ईसाइयों एक ऐसे स्थान की खोज की जहाँ छिपे-छिपे वे अपने मुरदों को गाड़ सकें। यह स्थान वही स्थान था और सुना कि यहाँ ईसाइयों के कोई एक लाख मुरदे गड़े है।

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    हमारे साथ के मार्ग-प्रदर्शक ने इस स्थान को दिखाने के लिए वहीं के एक मार्ग-प्रदर्शक का प्रबंध किया और बड़े चाव से इस मार्ग-प्रदर्शक ने हमें यह स्थान दिखाना शुरू किया। पर कुछ ही देर में प्रदर्शक के भाषण से हम तो ऐसे ऊबे कि उसका वर्णन करना कठिन है। जगमोहनदास हर क्षण घूम-घूमाकर पूछते कि क्या अब बाहर जाने का रास्ता गया, पर वह रास्ता ही आता। एक लाख मुरदों के क़ब्रिस्तान का बड़ी कठिनाई से यह पर्यटन समाप्त हुआ। बार-बार हमारे मन में उठता कि आख़िर आज हम कहाँ गए और बार-बार हमारे मन में यह भी उठता कि मुरदों को गाड़ने की इस प्रथा से जला देने की प्रथा कितनी अच्छी है।

    इसके बाद हम वहाँ के एक दूसरे क़ब्रिस्तान को देखने गए जो प्रोटेस्टेंट लोगों का क़ब्रिस्तान है। यह अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में प्रोटेस्टेंट लोगों को दफ़नाने के लिए बनाया गया था। प्राचीन और नवीन इसके दो भाग है। प्राचीन भाग में ही अँग्रेज़ कवि जान कीट्स की बीमारी में उसकी सहायता की थी नया भाग 1822 में बना। इसमें अँग्रेज़, फ़्रांसीसियों, जर्मनवासियों और अमेरीकिनों आदि कई विदेशियों की क़ब्रें है। इसी स्थान पर अँग्रेज़ कवि शैली की क़ब्र है जिसकी 1822 में डूबने से मृत्यु हो गई थी।

    तीसरे दिन रोम में देखने को कुछ शेष रहा था। जगमोहनदास कुछ खेती के फार्मों को देखने गए और घनश्यामदास कुछ व्यापारियों से मिलने मैं। आज घर ही पर रह इस पुस्तक के कुछ भाग लिखता रहा। आज के इस लेखन में से इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि रोम इटली की राजधानी तो है ही, वैसे भी इटली में उसका सर्वप्रथम ही स्थान है, एक तरह से वह अंतर्राष्ट्रीय नगर है, क्योंकि अपनी तीन हज़ार वर्ष पुरानी कला और इतिहास से उसने सभ्य संसार को बहुत कुछ दिया है, लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि रोम संसार की आध्यात्मिक राजधानी है, पर इसे कम से कम हम भारतीय और पूर्वीय देशों के रहने वाले मानने को तैयार नहीं हैं।

    चौथे दिन प्रातःकाल हमारी जिनेवा तक रेल यात्रा आरंभ होती थी। रोम से हमारी गाड़ी 7 बजे प्रातःकाल चल 10 बजे फ़्लॉरेंस पहुँचने वाली थी। 4 बजे प्रातःकाल उठ, नित्य-कर्मों से निवृत्त हो हम रोम स्टेशन पहुँचे। बड़ा भारी स्टेशन था। रोम के स्टेशन के बाहर एक स्क्वायर है जो पाँच सो इटालियन सैनिकों की यादगार में बनाया गया है। इस स्मारक के सामने ही स्टेशन है। इस स्टेशन का मूल डिज़ाइन मेजोनी ने तैयार किया था। बाद में अन्य स्थापत्य विशेषज्ञों ने इसमें परिवर्तन किए।

    यूरोप में रेल से हमारी यह पहली यात्रा थी। हमें तो रोम की यह रेल कुछ बहुत अच्छी जान पड़ी। बैठने और सोने के डब्बे इस रेल में अलग थे, यह ठीक ही था, पर बैठने और सामान रखने की व्यवस्था अच्छी थी। भारत की रेलों के समान यहाँ की बैठने की सीटों के नीचे सामान रखने का प्रबंध किया जा सकता है, पर यह कर सीटों के ऊपर लंबे-लंबे ब्रेकिट बनाए गए हैं। इन पर संदूक़ों का एक तो रखना ही कठिन है फिर यदि किसी तरह रख भी दिए जाए तो डर लगा रहता है कि रेल की चाल में ये संदूक़ें किसी के सिर पर गिर पड़े। रेल के डब्बे तीन दर्जे के थे; पहला, दूसरा और तीसरा। पहले और दूसरे दर्जे की सीटों पर गद्दी है, तीसरे दर्जे की सीटों पर नहीं बैठने की सीटें कुछ बहुत सुविधाजनक नहीं। सोने के डब्बे अलग हैं और सोने के लिए अलग किराया देना पड़ता है। एक सिरे से दूसरे सिरे तक हर डब्बे से पूरी ट्रेन में जाने का वैसा ही रास्ता रहता है जैसा बंबई और पूना के बीच चलने वाली भारत की ट्रेनों में रहता है। डब्बों की चौड़ाई भी भारत की ट्रेनों से कम दीख पड़ी। यात्रियों लिए कोई ख़ास सुविधाएँ भी नहीं दिखाई दीं। तीसरे दर्जे में भीड़ भी काफ़ी होती है। अनेक यात्री खड़े-खड़े यात्रा कर रहे थे। किराया भी हमारे यहाँ से बहुत अधिक था। मुझे तो यहाँ की रेलों से भारतीय रेल कहीं अधिक सुविधाजनक और सस्ती जान पड़ीं। फ़्लोरेंस हमारी ट्रेन ठीक समय पहुँची। फ़्लोरेंस स्टेशन भी काफ़ी बड़ा था। बनावट भी रोम स्टेशन के समान आज हमारा कर्यक्रम दिन-भर घूमकर रात की एक बजे की गाड़ी से वेनिस के लिए रवाना होने का था, अतः किसी होटल में ठहरने की आवश्यकता थी। स्टेशन पर सामान रख उसकी रसीद देने की प्रथा है। अतः स्टेशन पर ही हमने अपना सामान रख ख़ुद ही अपने मार्ग प्रदर्शक का काम करने का निश्चय कर फ़्लोरेंस के संबंध में अँग्रेज़ी भाषा की एक पुस्तक ख़रीदी। जगमोहनदास ने इस पुस्तक में से पहले यहाँ के महत्त्वपूर्ण स्थानों को छाँटा और फिर एक टैक्सी ले हम लोग रवाना हुए।

    फ़्लोरेंस देखने के लिए रवाना होते ही हमें मालूम हो गया कि फ़्लोरेंस सचमुच बड़ा ही सुंदर स्थान है। पहाड़ियों से घिरा हुआ यह स्थान बड़ा हरा-भरा है। कुदरती हरीतिमा के सिवा हज़ारों दरख़्त लगाए गए हैं। चीड़ और देवदारू के वृक्षों की भरमार है। सड़कों के दोनों ओर ऐसे घने और सीधे वृक्षों की पंक्तियाँ हैं कि सड़कें कुंज बन गई है। स्थान-स्थान पर छोटे-छोटे पार्क, उनमें रंग-बिरंगे पुष्पों में इस हरियाली को और भी सुंदर बना दिया है। इमारतें सर्वथा आधुनिक। सफ़ाई उत्कृष्ट से उत्कृष्ट। नगर और उसके आस-पास के स्थानों को देखते-देखते हमारी मोटर उस स्थान को चढ़ने लगी जहाँ से सारा नगर उसी प्रकार दिखाई देता है जैसा बालकेश्वर पहाड़ से बंबई। इस पहाड़ी पर जो सड़क जाती है उसके दोनों ओर के वृक्ष देखते ही बन पड़ते हैं। पहाड़ी पर चढ़ने पर एक सुंदर मैदान मिलता है और यहाँ से पहाड़ियों की गोद में बसा हुआ फ़्लोरेंस नगर दीख पड़ता है। सारा दृश्य अत्यंत रमणीय है। इस स्थल को माइकिल एंग्लो हिल कहते हैं। माइकिल एंग्लो रोम के विश्वविख्यात चित्रकार थे। उन्हीं के नाम पर इस पहाड़ी का निर्माण किया गया है। मैदान में माइकिल एंग्लो की एक ब्रांज की सुंदर मूर्ति है और इस मूर्ति के चारों ओर रंग-बिरंगे पुष्पों से भरा हुआ एक छोटा-सा पार्क। एक रेस्तरां की सुंदर छोटी-सी इमारत भी बनी हुई है। सारा स्थल इतना मनोहारी था कि हमने तय किया कि फ़्लोरेंस के अन्य स्थानों को देखने के पश्चात फिर हम यहीं आएँगे और आज संध्या का भोजन इसी रेस्तराँ में करेंगे।

    यहाँ से हम लोग फ़्लोरेंस के दो चित्रों के विशाल चित्र-संग्रहों को देखने गए, उनमें एक का नाम था पिट्टी गैलरी और दूसरे का उफिज़ी गैलरी। उफिज़ी गैलरी में तो कोई विशेष बात थी, पर पिट्टी गैलरी के सदृश चित्र संग्रह कदाचित संसार में कहीं होगा। माइकेल एंग्लो और रैफिल रोम के दोनों विश्व-विख्यात चित्रकारों एवं अनेक प्राचीन और पूर्वाचीन चित्रकारों के मूल चित्र यहाँ संग्रहित हैं। अनेक चित्रों की विशालता, भव्यता और सौंदर्य देखते ही बनता है। यद्यपि चित्र एक सतह पर बने हैं पर चित्रों की चित्रकारी कुछ इस प्रकार की गई है कि उनमें गहराई तक दृष्टिगोचर होती है।

    इन चित्रों को देख हमने चित्रशालाओं के भवन के बाहरी भाग में मूर्तियों का अवलोकन किया।

    इसके बाद कुछ चित्र एवं मूर्तियों के फ़ोटों ख़रीद हम एक पार्क को गए। हम भारतीय थे यह हमारा ड्राइवर जान गया था अतः वह हमें इस बग़ीचे के उस हिस्से में ले गया जहाँ कोल्हापुर महाराज की समाधि पर उनकी मूर्ति बनी हुई थी। कोल्हापुर इन महाराजा का देहांत फ़्लोरेंस में हुआ था। फिर यहाँ से हम माइकिल एंग्लो हिल पर गए और वहाँ हमने अपना संध्या का भोजन किया। इन पाँच-छः दिनों में अनेक शाकाहारी खाद्य वस्तुओं का प्रयोग करने के बाद अब हमने अपने भोजन की एक निश्चित सूची बना ली थी और हम हर जगह उन्हीं चीज़ों का आर्डर दे देते थे। वे चीज़े शुद्धता से बन सहज में भी जाती थीं। ये थीं आरंभ में किसी फल का रस, बाद में मक्खन और मुरब्बे के साथ डबल रोटी और शाकाहारी सूप, फिर उबले शाक और अंत में फल तथा क्रीम। हरा नीबू, नमक और काली मिर्च, सूप और शाक-भाजी में मिलाने को अलग जाते। भोजन का यह कम हमारे सारे दौरे में चलता रहा। लंच (दुपहर का भोजन) तथा डिनर (रात्रि के भोजन) में हम ये चीज़ें खाते और प्रातःकाल मक्खन तथा मुरब्बे के साथ डबल रोटी, दूध और फल। जो लोग कहते हैं कि विदेशों में शाकाहारी भोजन नहीं चलता और शराब के बिना चल ही नहीं सकता। वे बड़ी ग़लत बात कहते हैं। हमने इस दौरे में और इसके पहले के किसी विदेशी दौरे में निरामिष भोजन के सिवा अन्य किसी भोजन को हाथ नहीं लगाया और किसी तरह की शराब का ही कभी स्पर्श किया। हाँ, भोजन के मामले में विदेशों में छुआछूत नहीं चल सकती; छुआछूत को तो मैं भारत में भी नहीं मानता।

    जब हम माइकिल एंग्लो हिल से स्टेशन लौटे तब रात्रि के 6 बज चुके थे। गर्मी इतनी अधिक थी कि पसीना रहा था। कंरो, एथेंस, रोम, फ़्लोरेंस सभी जगह हमें अब तक गर्मी ही गर्मी मिली थी और गर्मी का कष्ट इसलिए घर अधिक हो गया था कि होटल, स्टेशन के वेटिंगरूम में कहीं भी बिजली के पंखे थे। सुना गया कि यहाँ गर्मी वर्ष भर में इतने कम दिन पड़ती है कि कहीं भी पंखे लगाने का रिवाज़ ही नहीं है। जो कुछ हो, हम तो ठंडे देशों में ऐसे दिनों आएँ जब यहाँ गर्मी का प्रखर रूप था और पंखे रहने के कारण यह गर्मी गर्म देश भारत की गर्मी से भी हमारे लिए अधिक कष्टधारी हो गई। फिर हमें इस गर्मी में कुछ और कष्ट इसलिए हुआ कि हम ठंडे देशों को जा रहे हैं इस विचार के कारण हम अपने सारे कपड़े ऊनी बनाकर ले गए थे, जिनका उन दिनों बर्दाश्त होना एक समस्या हो गई थी। और आश्चर्य हमें यह देखकर हुआ कि यहाँ के निवासियों में अधिकांश ऊनी कपड़े ही पहनते हैं। शायद इसका कारण यह था कि थोड़े अरसे के लिए ठंड़े कपड़े क्यों बनाए जाएँ। आज फ़्लोरेंस स्टेशन के वेटिंग रूम में हमें गर्मी का सबसे अधिक कष्ट हुआ।

    फ़्लोरेंस से वेनिस गाड़ी 1 बजे रात के लगभग जाती थी। गाड़ी जाने तक का समय हमने स्टेशन के वेटिंग रूम में जिस कष्ट से काटा वह हम कभी भूलें। ठीक समय पर गाड़ी फ़्लोरेंस आई, पर गाड़ी में इतनी भीड़ थी कि हमारे सैकिंड क्लास के टिकट हमें फर्स्ट क्लास के कराने पड़े 6 बजे प्रातःकाल हम वेनिस पहुँच गए।

    जब हम वेनिस पहुँचे तब मुझे अपने एक अँग्रेज़ शिक्षक मि० डिगबिट की याद आई। मुझे यद्यपि कभी स्कूल या कॉलेज में पढ़ने के लिए नहीं भेजा गया परंतु इस बात का सदा ध्यान रखा गया कि मेरे शिक्षक बड़ी उच्चकोटि के हों। मेरे विद्यार्थी जीवन के समय अँग्रेज़ी भाषा का हमारे देश में बड़ा दौर-दौरा था और ऊपर के तबके के लोग अपनी संतान को अँग्रेज़ी भाषा की ऐसी शिक्षा देने का प्रयत्न करते थे कि उनकी अँग्रेज़ी अँग्रेज़ों के समान हो। मेरा अँग्रेज़ी उच्चारण भी जो के सदृश बनाने के लिए मुझे पढ़ाने मि० डिगबिट नामक एक अँग्रेज़ शिक्षक रखे गए थे। मि. डिगबिट वेनिस नगर के बड़े भक्त थे। उनके पास वेनिस के चित्रों का एक बहुत बड़ा संग्रह था। कुछ बड़े-बड़े चित्र मढ़वाकर उन्होंने अपने कमरे में लगाए थे और छोटे-छोटे चित्रों के कई एलबम बनाए थे। जब कभी किसी प्राकृतिक दृश्य अथवा किसी नगर के सौंदर्य की बात निकलती तो मि० डिगबिट वेनिस की बात अवश्य करते और कहते कि वेनिस पृथ्वी का स्वर्ग है।

    स्टेशन के बाहर आते ही हमें वेनिस का सौंदर्य दीख पड़ने लगा। समृद्ध वेनिस एक विचित्र नगर है और उसकी सबसे बड़ी विचित्रता है उसकी पानी की सड़क तथा गलियें। वेनिस का सारा यातायात डोंगों और मोटर बोटों द्वारा होता है।

    वेनिस उन अनेक नगरों की तरह नहीं है जिन्हें प्राकृतिक वरदान प्राप्त होता है। उसको जो कुछ प्रदान किया है मानव ने ही अपने श्रम से प्रदान किया है। विपरीत परिस्थितियों का सामना करके भी मनुष्य जो कुछ कर सकता है, वेनिस इसका ज्वलंत उदाहरण है।

    वेनिस नगर बड़े अनियमित ढंग से बसाया गया है। वह साढ़े इक्कीस मील लंबा है और सवा तेरह मील चौड़ा।

    हम एक डोंगे पर बैठ, उसी पर अपना सामान रख, किसी होटल की खोज में रवाना हुए। हमारा डोंगा अनेक पानी की सड़कों और गलियों को पार करता हुआ पानी के ही उस मैदान में पहुँचा जिसके चारों ओर वेनिस की प्रधान इमारतें बनी हुई है। जिन पानी की सड़कों और गलियों को पार करता हुआ हमारा यह डोंगा इस पानी के मैदान मे पहुँचा था, उनमें से अनेक सड़कों और गलियों का पानी बहुत गंदा हो गया था और कई स्थानों पर तो बदबू भी रही थी। वर्षों तक पानी के एकत्रित रहने का ही यह परिणाम था और यह नहीं सफ़ाई की कोई व्यवस्था हो, यदि सफ़ाई की कोई व्यवस्था होती तो मानवों का यहाँ रह सकना ही कठिन हो जाता।

    वेनिस के पानी के इस मैदान की इमारतों में से अनेक में होटल भी है। बड़ी कठिनाई से हमें 'रैजीना' नामक होटल में जगह मिली।

    नित्यकर्म से निवृत्त हो हम मार्ग-प्रदर्शक के एक समुदाय के साथ वेनिस देखने रवाना हुए। इस मार्ग-प्रदर्शक की व्यवस्था और अन्य मार्ग-प्रदर्शकों में यही अंतर था कि अन्य मार्ग-प्रदर्शक मोटर बोट में दर्शकों को ले जाते थे और यह मार्ग-प्रदर्शक दर्शकों को डोंगों में लेकर चला।

    वेनिस में हम सैंट मार्क का गिरजाघर, डोगेज का प्रसाद, ललित कला का अकादमी और सार्वजनिक बाग़ देखने गए। सैंट मार्क के गिरजाघर जैसी सुंदर इमारत तो मसीही धर्म वाले क्षेत्र में इनीगिनी मिलेंगी, और जिस प्रकार धार्मिक क्षेत्र में सैंट मार्क की इमारत भव्य और सुंदर है उसी प्रकार डोगेज का प्रसाद गौरव और ऐश्वर्य का केंद्र है।

    संध्या को अपने होटल के पीछे के कुछ भागों को हमने पैदल ही घूमकर देखा। जब हम होटल में रात्रि का भोजन कर रहे थे तब बिजली की बत्तियों से सजी हुई एक नाव हमारे सामने से निकली। इस नाव में एक सुरीला आरचेस्ट्रा बज रहा था और एक युवती गा रही थी। सुना कि इस पानी के मैदान में हर दिन-रात्रि को यह नाव नाना प्रकार के वाद्य यंत्र बजाती और गाती हुई निकलती है।

    दूसरे दिन तीसरे पहर की गाड़ी से हम स्विट्ज़रलैंड जाने वाले थे, परंतु रास्ते में इटली देश का एक प्रधान व्यापारी केंद्र मिलान नामक नगर पड़ता था। घनश्याम दास और जगमोहनदास दोनों इस नगर में ठहरना चाहते थे, प्रातः हमने तारीख़ 10 अगस्त का दिन मिलान को देना तय कर लिया था। दुपहर को 3 बजे हमारी गाड़ी वेनिस से रवाना होकर 5 बजे के लगभग मिलान पहुँची। मिलान में हम लोग पैलिस नामक होटल में ठहरे। होटल एकदम नया बना था और हर प्रकार की नवीन सुविधाएँ होटल में मौजूद थीं। मिलान में कोई विशेष बात थी, पर व्यापारी केंद्र होने तथा एक नवीन शहर होने के कारण अब तक देखे हुए इटली के सब शहरों की अपेक्षा मिलान हमें अधिक सम्पन्न दिखाई दिया। बड़े-बड़े नए मकान और साफ़-सुथरी सड़कें रात्रि को हम एक इटेलियन सिनेमा देखने गए। फ़िल्म में इटेलियन भाषा के सिवा और कोई नई बात थी।

    दूसरे दिन घनश्यामदास और जगमोहनदास शहर में घूमने गए। मैंने फिर अपना समय इस पुस्तक में लगाया।

    मिलान से हमारी गाड़ी 3 बजे के लगभग रवाना होती थी और जिनेवा पहुँचती थी रात को 9 बजे के क़रीब। रास्ते में हम आल्प्स पर्वत श्रेणी को पार करने वाले थे और इस आशा से कि स्विट्ज़रलैंड के रमणीय दृश्य देखने को मिलेंगे हमारे मन अत्यंत उत्साहित थे।

    अपना सामान ले हम स्टेशन पहुँचे और ठीक समय हमने इटली देश से स्विट्ज़रलैंड को प्रस्थान किया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पृथ्वी परिक्रमा (पृष्ठ 55)
    • रचनाकार : सेठ गोविंददास
    • प्रकाशन : हिंदी प्रिंटिंग प्रेस
    • संस्करण : 1954

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