झुटपुटे का-सा समय था। डॉक्टर फिलिप्स ने झटके से घुमाकर झोला कंधे पर लादा और बाढ़ के पानी से भर जाने वाली पोखर जैसी जगह से चल पड़ा। पहले पत्थर के ढोके पर चढ़कर कुछ रास्ता पार किया और फिर रबर के बूटों से छप-छप करता सड़क पर निकल आया। मोंटेरी की मछलियों और दूसरी खाद्य सामग्री को टिन के डिब्बों में भरने वाली सड़क पर उसकी अपनी छोटी-सी पेशेवर प्रयोगशाला थी। वहाँ तक आते-आते सड़क की बत्तियाँ जल चुकी थीं। दबा-भिंचा-सा छोटा-सा मकान था—इसका कुछ हिस्सा खाड़ी के पानी के ऊपर लट्ठों के खंभे और पुल लगाकर बना था और कुछ ज़मीन पर था। बड़े-बड़े लहरदार, लोहे की चादरों के बने मछलीवाले, गंधाते गोदामों ने इसे दोनों ओर से बुरी तरह घेर और भींच रखा था।
काठ की सीढ़ियाँ चढ़कर डॉ० फिलिप्स ने दरवाज़ा खोला। सफ़ेद चूहे अपने पिंजरे में तार के ऊपर-नीचे ज़ोर-ज़ोर से उछल-कूद मचाने लगे और छोटे-छोटे बाड़ों में बंद क़ैदी बिल्लियाँ दूध के लिए म्याऊँ-म्याऊँ करने लगीं। डॉक्टर फिलिप्स ने अपनी चीर-फाड़ की मेज़ पर तेज़ चौंधिया देने वाली रोशनी जला दी और उस लिसलिसे झोले को धम्म से धरती पर पटक दिया। फिर वह खिड़की के पास रखे शीशे के पिंजरों के पास आया और झुककर भीतर देखने लगा। इसमें अमेरिकन साँप बंद थे।
साँप एक-दूसरे में गुँथे हुए कोनों में आराम कर रहे थे, लेकिन सबके सिर अलग-अलग साफ़ दिखाई देते थे। धूमिल आँखें किसी ओर भी देखती नहीं लगती थीं, लेकिन जैसे ही नौजवान डॉक्टर पिंजरे पर झुका कि सिरे पर काली और पीछे से सुर्ख़ दुहरी जीभें बाहर लपलपा उठीं और धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हिलने लगीं। जब साँपों ने उस व्यक्ति को पहचान लिया तो जीभें भीतर कर लीं।
डॉ० फिलिप्स ने चमड़े का कोट एक तरफ़ फेंका और टीन की अँगीठी पर पानी की केतली चढ़ाई, फिर गिलास-भर मटर उसमें छोड़ दी। अब वह फ़र्श पर पड़े उस झोले को खड़ा-खड़ा घूरता रहा। डॉक्टर दुबला-पतला नौजवान था। उसकी आँखें चुंधियायी, छोटी और खोई-खोई थीं, जैसा अकसर अन्वीक्षण-यंत्र के द्वारा बहुत अधिक देखते रहने वालों की हो जाती हैं। उसकी छोटी ख़ूबसूरत-सी दाढ़ी थी। गहरी-गहरी साँसों-सी सिसकारी भरती हुई भाप की धारी चिमनी में जा रही थी और अँगीठी से गरमाहट का भभका आ रहा था। मकान के नीचे छोटी-छोटी लहरें हौले-हौले खंभों को सहला रही थीं। कमरे में चारों ओर लकड़ी के ख़ानों में एक के ऊपर एक अजीबोग़रीब इमर्तबान सजे थे। इनमें समुद्री वस्तुओं और जीवों के नमूने ढके रखे थे। यह प्रयोगशाला भी थी इन्हीं सबके लिए।
डॉ० फिलिप्स ने बग़ल का दरवाज़ा खोलकर सोने वाले कमरे में प्रवेश किया। इसमें चारों ओर किताबों की लाइनें लगी थीं। एक फ़ौजी खाट पड़ी थी। पढ़ने के लिए रोशनी और एक ग़ैरआरामदेह क़िस्म की लकड़ी की कुर्सी रखी थी। उसने अपने रबर के बूट खींच-खींचकर उतारे और भेड़ की खालों के स्लीपर पहन लिए। जब वह बग़ल वाले कमरे में वापस लौटा तो केतली का पानी सनसनाने लगा था।
उसने झोला उठाकर मेज़ पर सफ़ेद रोशनी के नीचे रखा और उसमें से दो दर्ज़न साधारण तारक-मछलियाँ उलटकर बाहर निकालीं। इन्हें उसने मेज़ पर फैला दिया। फिर उसकी खोई-खोई आँखें पिंजरों में बंद उछलकूद मचाते चूहों की ओर मुड़ीं। क़ागज़ के एक थैले से अनाज के दाने निकालकर उसने खाने वाले तसलों में डाले। चूहे फ़ौरन ही एक-दूसरे को खूँदते तारों से नीचे की ओर दौड़े और खाने पर टूट पड़े। काँच की एक अलमारी पर केकड़े और जेली मछली के बीच दूध की बोतल रखी थी। डॉक्टर फिलिप्स ने झुककर दूध उठाया और बिल्लियों के पिंजरे की ओर बढ़ा। लेकिन डिब्बों को दूध से भरने से पहले ही उसने हाथ बढ़ाकर आहिस्ता से एक बड़ी, लंबे-लंबे हाथ-पाँवों वाली मरगिल्ली-सी चितकबरी बिल्ली को पकड़कर बाहर निकाल लिया। पल-भर उसे हाथ से थपथपाया और फिर उसे काले पुते हुए बक्से में डाल दिया। ढक्कन बंद करके कुंडी चढ़ा दी। इसके बाद एक हैंडिल घुमा दिया। अब उस मारने वाले डिब्बे में गैस भरने लगी। काले डिब्बे में हल्की-हल्की उछलकूद होती रही और वह तसलों को दूध से भरता रहा। एक बिल्ली उसके हाथ से सटकर कमान जैसी दुहरी हो गई तो वह मुस्करा पड़ा। उसने उसकी गर्दन प्यार से सहला दी।
डिब्बे में अब शांति हो गई थी। उसने हैंडिल को उलटा घुमा दिया। ज़रूर उस रंध्रहीन डिब्बे में डटकर गैस भरी होगी।
अँगीठी पर मटर से भरे गिलास के चारों ओर पानी बुरी तरह खौल रहा था। डॉ० फिलिप्स ने एक संडासी से पकड़कर गिलास बाहर निकाला और उसे खोलकर मटर काँच की एक तश्तरी में उलट दिए। खाते-खाते वह मेज़ पर रखी उन तारक मछलियों को देखता रहा। किरणों के बीच में दूधिया द्रव की छोटी-छोटी बूँदें पसीज-पसीजकर निकल आई थीं। उसने फटकने की तरह बची हुई मटर एक तरफ़ फेंक दी और जब सब फैल गईं तो तश्तरी धोने वाले नाँद में रखकर अपनी औजारों वाली अलमारी की ओर बढ़ा। यहाँ से उसने एक अन्वीक्षण-यंत्र और काँच की तश्तरियों की एक गड्डी निकाली। नल द्वारा एक-एक करके इन सारी तश्तरियों को समुद्री पानी से भरा और तारक-मछलियों के पास एक लाइन में उन्हें सजा दिया। अपनी घड़ी निकाली और घनी उमड़ती सफ़ेद रोशनी के नीचे मेज़ पर रख दिया। फ़र्श के नीचे लहरें उसमें भरती हुई-सी खंभों को सहला रही थीं। उसने एक दराज़ से आँख में दवा डालने वाली काँच की एक पिचकारी निकाली और एक तारक मछली के ऊपर झुक गया।
ठीक उसी समय लकड़ी की सीढ़ियों पर लपकती, दबे क़दमों की आवाज़ के साथ-साथ दरवाज़े पर एक तेज़ दस्तक सुनाई दी। दरवाज़ा खोलने जाते हुए नौजवान के चेहरे पर झुँझलाहट की हल्की तल्ख़ी झलक उठी। दरवाज़े में एक पतली-दुबली लंबी-सी स्त्री खड़ी थी। वह भँवर-काला सूट पहने थी। और उसके सीधे-सीधे बाल काले चपटे माथे पर नीचे तक उग आए थे। अब इस तरह अस्त-व्यस्त थे, मानो आँधी में उड़ते रहे हों। तेज़ रोशनी में उसकी काली काली आँखें चमक रही थीं।
उसने मुलायम, रुँधी-सी आवाज़ में पूछा, “मैं भीतर आ जाऊँ न? आपसे कुछ बातें करना चाहती हूँ।
इस समय तो मैं बहुत व्यस्त हूँ, उसने बेमन से कहा, मुझे तो सारे काम वक़्त पर ही करने पड़ते हैं। लेकिन वह दरवाज़े से हटकर खड़ा हो गया था। लंबी स्त्री तिरछी होकर भीतर आ गई।
“आपको जब तक मुझसे बात करने की फ़ुरसत नहीं मिलेगी, मैं चुपचाप बैठी रहूँगी।
उसने दरवाज़ा बंद कर लिया और सोने के कमरे से उस ग़ैर-आरामदेह कुर्सी को उठा लाया। “देखिए”, उसने माफ़ी माँगते हुए कहा, कार्य की प्रक्रिया शुरू हो गई है और मुझे उसमें लगना है। जाने कितने आदमी यों ही चले आते हैं और दुनिया भर के सवाल पूछते हैं। साधारण नासमझ लोगों को सारी कार्य-प्रणाली समझाने के लिए उसके पास अलग से कोई साधन या सुविधा नहीं है। उनसे तो वह बिना सोचे बोल देता है कि “आप यहाँ बैठिए, दो मिनट बाद मैं आपकी बातें सुनूँगा।
वह लंबी स्त्री मेज़ पर ऊपर झुक आई। आँख में दवा डालने की पिचकारी से डॉक्टर ने तारक मछलियों की किरणों के बीचोबीच में द्रव इकट्ठा किया और पिच्च से पानी के प्याले में छोड़ दिया। इसके बाद उसने कुछ दूधिया द्रव सूँता और फिर पिचकारी से पानी को धीरे-धीरे हिलाया। अब उसने अपना वही व्याख्यान-भाषण जल्दी-जल्दी बोलना शुरू किया :
“जब ये तारक मछलियाँ अपने पूर्ण विकसित यौवन पर आ चुकती हैं तो हल्के ज्वार का खुला विस्तार पाकर इनके शरीर से वीर्य-कीटाणु और डिंब निकलने लगते हैं। कुछ पूर्ण यौवन वाली तारक मछलियों के नमूने चुनकर और उन्हें पानी से बाहर निकालकर मैं उन्हें हलके ज्वर की सारी अवस्था और वातावरण में यहाँ रखता हूँ। अब मैंने वीर्य और डिंबों को मिला दिया है। इस घोल में से थोड़ा-थोड़ा लेकर अब मैं इन सब परीक्षण-गिलासों में रखूँगा। दस मिनट बाद पहले गिलास वालों को सफ़ेद कपूर डालकर मार डालूँगा, फिर बीस मिनट बाद दूसरे वर्ग को मारूँगा। और फिर इसी तरह हर बीस मिनट बाद नए वर्ग को मारता जाऊँगा। इससे मैं सारी प्रक्रिया को अलग-अलग अवस्थाओं में पकड़ सकूँगा और इस सारी प्रक्रिया-माला को माइक्रोस्कोप की काँच की स्लाइडों पर जमाकर जैविक अध्ययन के लिए तैयार कर लूँगा।” वह रुक गया, आप इस पहले वर्ग को अन्वीक्षण-यंत्र से देखेंगी?
नहीं, शुक्रिया।
तेज़ी से वह उसकी ओर घूमा। लोग तो हमेशा गिलासों में देखने को उधार खाए रहते हैं। वह मेज़ की तरफ़ बिलकुल न देखकर—देख रही थी, ख़ुद उसकी तरफ़। उसकी काली-काली आँखें थीं तो उसकी दिशा में, लेकिन लगता था, उसे देख नहीं रहीं। उसने महसूस किया, अरे! इस स्त्री की आँखों के तारे तो शेष पुतलियों की तरह ही काले-काले हैं—पुतलियों और तारों के बीच में किसी भी रंग की कोई लाइन नहीं है। डॉक्टर फिलिप्स उसके इस जवाब से झल्ला उठा। यों उसे सवालों का जवाब देने से बड़ी ऊब होती थी—क्योंकि इससे हाथ के काम में दिलचस्पी कम हो जाती थी और इसी से उसे हमेशा बड़ी कोफ़्त होती। अब उसके मन में हुआ कि किसी तरह इस स्त्री को उकसाया जाए।
पहले दस मिनट राह देखने के दौरान ही मुझे एक काम और भी करना है। कुछ लोग इसे देखना पसंद नहीं करते। अच्छा हो, जब तक मैं इसे ख़त्म करूँ, आप कुछ देर के लिए उस कमरे में चली जाएँ।
नहीं, उसने अपने उसी मुलायम और सपाट लहज़े में कहा, आपकी जो इच्छा हो सो कीजिए। मैंने कहा न, आपको मुझसे बात करने की फ़ुरसत होने तक मैं राह देखूँगी। उसके हाथ पास-पास उसकी गोद में रखे थे। वह बड़े आराम और इत्मीनान से बैठी थी। उसकी आँखें ज़रूर चमकीली थीं, लेकिन बाक़ी सब कुछ ऐसा था, मानो बेजान हो। डॉक्टर ने मन ही मन कहा, 'देखने से लगता है कि बहुत ही धीमी रफ़्तार से मांसपेशियाँ परिवर्तन की स्थिति में हैं-इतनी धीमी जितनी मेढक की होती है।' स्त्री को उसकी इस मुर्दनी से झँझोड़ने की प्रबल इच्छा ने उसे फिर आविष्ट कर लिया।
उसने लकड़ी का एक पालना-जैसा लाकर मेज़ पर रखा, चीर-फाड़ करने का चाकू और कैंची, पिचकने वाली नली में लगी पोली सुई सँवारकर रखी, फिर मारने वाले डिब्बे से उसने उस बेजान मुर्दा बिल्ली को निकाला और पालने पर रखकर उसकी टाँगों को इधर-उधर लगे हुकों से बाँध दिया। कनखियों से उसने स्त्री को देखा। उसमें क़तई कोई हरकत नहीं थी। वह उसी तरह अब भी आराम से बैठी थी।
रोशनी में बिल्ली मानो दाँत निकालकर चिढ़ा रही थी। उसकी सुर्ख़ जीभ नुकीले दाँतों के बीच दबी थी। सधे हुए कुशल हाथों से डॉक्टर फिलिप्स ने गले के पास से उसकी खाल काट डाली। चाकू से चीरफाड़ी करते हुए उसने हृदय से और भागों तक रक्त ले जाने वाली नली को बाहर निकाल लिया। अपने अचूक और बेझिझक हाथों से फुसफुस में सुई रखकर आँतों से कसकर बाँध दिया। यह मसालेदार है,” उसने समझाया, बाद में मैं इंजेक्शन की सहायता से इसके सारे स्नायुमंडल में पीला द्रव पहुँचाऊँगा, लाल द्रव हृदय की धमनियों में दूँगा। इससे रक्त प्रवाह का विश्लेषण किया जा सकेगा, जैसा कि प्राणिशास्त्र की कक्षाओं में...
उसने फिर उस स्त्री की तरफ़ घूमकर देखा। उसकी आँखों पर जैसे धूल की एक परत फैली थी। वह भावनाहीन निगाहों से बिल्ली के कटे हुए गले की तरफ़ देखे जा रही थी। ख़ून एक बूँद भी नहीं गिरा, कटाई बहुत ही साफ़ हुई थी। डॉक्टर फिलिप्स ने घड़ी देखी : 'पहले वर्ग का समय पूरा हो गया।’ उसने सफ़ेद कपूर के कुछ चौकोर चिकने टुकड़े पहले वाले परीक्षण-गिलास में डालकर हिलाए।
स्त्री की उपस्थिति उसके मन में तनाव पैदा कर रही थी। अपने पिंजरे में चूहे फिर तार पर जा चढ़े थे और धीरे-धीरे चूँ-चूँ कर रहे थे। मकान के नीचे की लहरें खंभों पर हलके-हलके थपेड़े मार रही थीं।
नौजवान डॉक्टर के शरीर में शीत की एक झुरझुरी-सी आई। उसने अँगीठी में कुछ कोयले डाले और आकर बैठ गया। उसने कहा, अब बीस मिनट तक मुझे कुछ नहीं करना।'' उसने देखा, स्त्री के निचले होंठ और चिबुक के सिरे के बीच की ठोड़ी कितनी ज़रा-सी है। लगा, जैसे वह धीरे-धीरे जागी हो—मानो चेतना के किसी गहरे कुएँ से निकलकर बाहर आ रही हो। सिर ऊँचा उठा, काली-काली धूसर आँखें एक बार कमरे में चारों ओर घूमीं, फिर डॉक्टर पर आकर टिक गईं।
“मैं तो राह देख रही थी,” वह बोली। हाथ यों ही गोद में पास-पास रखे रहे, आपके पास साँप होंगे?
“किसलिए? जी हाँ, हैं तो। उसने अपेक्षाकृत ऊँचे स्वर में कहा, मेरे पास क़रीब दो दर्जन अमेरिकन साँप हैं। उनका ज़हर सूँतकर मैं विषनाशक प्रयोगशालाओं में भेज देता हूँ।
वह लगातार उसे देखे जा रही थी; लेकिन उसकी आँखें जैसे उस पर केंद्रित नहीं हो पा रही थीं। लगता था, जैसे वे उसके चारों ओर एक बड़े दायरे में देख रही हैं—इस तरह उसे चारों ओर से घेरे हुए हैं, “आपके पास नर-साँप होगा? मेरा मतलब अमेरिकन नर-साँप?''
“देखिए, इत्तफाक ही है। मेरा ख़याल है मेरे पास होगा। एक दिन सुबह-सुबह आया तो देखा कि एक बड़ा-सा साँप एक छोटी नागिन के साथ ऊँ-ऊँ...के साथ सहवास कर रहा था। देखिए, मुझे ठीक पता है कि मेरे पास नर-साँप है।
है कहाँ वह?
देखिए, उस खिड़की के पास काँच के पिंजरे के ठीक नीचे।
उसका सिर धीमे से उधर घूम गया, लेकिन उसके दोनों शांत हाथ यों ही निश्चल पड़े रहे। वह फिर उसकी ओर घूमी, “देख सकती हूँ न?
उठकर वह खिड़की के पास रखे काँच के केस के पास आ गया। रेतीले तले पर एक-दूसरे में गुँथा साँपों का गुट्ठल पड़ा था, लेकिन उनके सिर अलग-अलग साफ़ दिखते थे। जीभें बाहर निकल आईं और एक क्षण लपलपाती रहीं। फिर कंपन के लिए हवा को टटोलती हुई-सी ऊपर-नीचे लहराती रहीं। डॉक्टर फिलिप्स ने घबराकर सिर घुमाया। स्त्री उसके पास ही खड़ी थी। वह कुर्सी से कब उठ आई, डॉक्टर को पता ही नहीं लगा। उसे तो सिर्फ़ खंभों के बीच में पानी की छपक्-छपक् सुनाई दी थी या तारों की जाली पर चूहों का दौड़ना सुनाई दिया था।
स्त्री ने धीरे से पूछा, जिस नर-साँप के बारे में आप बता रहे थे, वह कौन-सा है?
उसने एक पिंजरे के एक कोने में अकेले पड़े मोटे से भूरे-भूरे नाग की ओर इशारा किया, वो वाला। होगा क़रीब पाँच फीट लंबा। टैक्सास प्रांत का है। हमारे प्रशांत सागर के किनारों वाले साँप अकसर छोटे होते हैं। ये सारे चूहे हड़प जाते हैं। जब मुझे दूसरे साँपों को खिलाना होता है तो बाहर निकाल लेता हूँ।
स्त्री झुककर उस भोंडे सूखे-सूखे भोंथरे सिर को घूरती रही। दुहरी जीभ निकल आई और काफ़ी देर तक थरथराती हुई झूलती रही, अच्छा, आपको यक़ीन है कि यह साँप ही है, साँपिन नहीं?
ये अमेरिकन साँप होते बड़े मज़ेदार हैं,” वह स्निग्ध स्वर में बोला, इसके बारे में जो सामान्य सिद्धांत निकालिए ग़लत निकलता है। अमेरिकन साँपों के बारे में निश्चयपूर्वक तो मैं भी नहीं बता पाऊँगा, लेकिन, जी हाँ, यह विश्वास दिलाता हूँ कि है यह नर-साँप ही।
उसकी निगाहें उस चपटे-से सिर से नहीं हिलीं, आप इसे मेरे हाथ बेचेंगे?
बेचूँगा? वह चीख़-सा पड़ा, आपके हाथों बेचूँगा?
“आप तो नमूने की चीज़ बेचते हैं। क्यों, बेचते हैं न?”
ओह हाँ, जी हाँ बेचता हूँ, बेचता तो हूँ।
कितने का है? पाँच डालर का? दस?
अरे, पाँच से ज़्यादा का नहीं है। लेकिन—आपको क्या इन अमेरिकन साँपों के बारे में जानकारी है? कहीं आपको काट-वाट न ले!
पल-भर वह उसे देखती रही, मैं इसे साथ नहीं ले जाना चाहती, मैं तो इसे यहीं रहने दूँगी। लेकिन चाहती हूँ, यह मेरा होकर रहे। चाहती हूँ कि मैं यहाँ आकर इसे देखूँ, खिलाऊँ और मानूँ कि यह मेरा है। उसने एक छोटा-सा बटुआ खोलकर पाँच डालर का नोट निकाल लिया, लीजिए यह, अब यह मेरा हुआ।
डॉक्टर फिलिप्स को अब डर लगने लगा, उसे देखने तो आप बिना इसे ख़रीदे भी आ सकती हैं!
“मैं चाहती हूँ यह मेरा हो।
ओह गॉड! डॉक्टर चिल्ला उठा, बातों में मुझे तो समय का भी ख़याल नहीं रहा,” वह मेज़ की ओर लपका, “तीन मीनट पूरे हो चुके। ख़ैर, कोई ख़ास नुक़सान नहीं हुआ होगा।'' उसने सफ़ेद कपूर के टुकड़े दूसरे परीक्षण-गिलास में घोले और फिर जैसे वह ख़ुद-ब-ख़ुद वापस साँपों के पिंजरे के पास खिंच गया। स्त्री अभी भी उसी साँप को घूरे जा रही थी।
“स्त्री ने पूछा, “खाता क्या है यह?
मैं तो इसे सफ़ेद चूहे खिलाता हूँ। उस तरफ़ वाले पिंजरे के चूहे।
इसे आप दूसरे पिंजरे में रखेंगे? मैं इसे खिलाना चाहती हूँ।
लेकिन इस समय इसे खाने की ज़रूरत ही नहीं है। अपने इस हफ़्ते का चूहा यह हज़रत पहले ही खा चुके हैं। कभी-कभी तो ये लोग तीन-तीन, चार-चार महीनों तक कुछ नहीं खाते। मेरे पास एक साँप था, उसने एक साल से ऊपर तक कुछ भी नहीं खाया।
अपने उसी धीमे उतार-चढ़ावविहीन लहज़े में स्त्री ने पूछा, “आप मुझे चूहा बेचेंगे?
डॉक्टर ने कंधे झटके, “आप अपने साँप को खाते देखना चाहती हैं? अच्छी बात है। मैं खिलाता हूँ। एक चूहे का दाम पच्चीस सेंट होगा। एक तरफ़ से देखें तो साँप का चूहे को खाना साँड़ों की लड़ाई से भी ज़्यादा मज़ेदार दृश्य है और दूसरी तरफ़ से देखें तो यह सिर्फ़ साँप के भोज करने का एक तरीक़ा है। उसके लहज़े में कड़वाहट आ गई थी। प्राकृतिक कार्यकलाप को जो लोग खेल और क्रीड़ा बना डालते हैं—उनसे उसे नफ़रत थी। वह खिलाड़ी नहीं, जीव-शास्त्री था। ज्ञान के लिए वह हज़ारों जीवों की हत्या कर सकता है, लेकिन आनंद के लिए एक कीड़ा मारना भी उसके लिए मुश्किल है—यह उसके दिमाग़ में पहले से ही एकदम साफ़ था।
स्त्री ने धीरे-धीरे अपना सिर उसकी ओर घुमाया और उसके पतले-पतले होंठों पर मुस्कराहट झलक उठी, मैं अपने साँप को खिलाना चाहती हूँ, वह बोली, मैं इसे दूसरे पिंजरे में रखूँगी। उसने पिंजरे के ऊपर का ढक्कन खोल लिया था। इससे पहले कि डॉक्टर जाने कि वह क्या कर रही है, उसने अपना हाथ भीतर डाल दिया। डॉक्टर एकदम छलाँग लगाकर उसके पास पहुँचा और झट उसे पीछे खींच लिया। ढक्कन धड़ से गिरकर बंद हो गया।
“आपको अक़्ल है या नहीं? उसने ग़ुस्से से पूछा, “हो सकता है, वह आपको जान से न मारता; लेकिन आपकी तबीयत ज़रूर अच्छी तरह दुरुस्त कर देता, फिर मेरी लाख कोशिशों के बाद भी आपको तारे नज़र आते रहते।
वह निरुद्विग्न शांत भाव से बोली, तो फिर आप ही इसे दूसरे पिंजरे में रख दीजिए।
डॉ० फिलिप्स को जैसे किसी ने झकझोर डाला। उसे महसूस हुआ कि जो आँखें किसी को भी देखती नहीं लग रही हैं—वह उन्हें सीधे देखने से क़तरा रहा है। उसे लगा कि पिंजरे में चूहा डालना निहायत ही ग़लत है—जैसे इसमें कोई घोर पाप है। लेकिन ऐसा सब उसे क्यों लगा, वह ख़ुद नहीं जान पाया। जब भी किसी ऐरे-ग़ैरे ने चाहा है, उसने पिंजरे में चूहे डाले हैं; लेकिन आज रात, इस विशेष इच्छा ने उसे इतना अस्वस्थ और असंतुलित बना डाला है कि मन ख़राब हो गया है। वह ख़ुद अपने लिए इस सारी बात को समझने की कोशिश करता रहा।
“यों इसे देखना है तो बड़ा अच्छा,” वह बोला, इससे आपको पता चलेगा कि साँप कैसे अपना काम करता है? इससे यह भी लगता है कि आपके दिल में अमेरिकन साँपों के लिए इज़्ज़त है, लेकिन एक बात और भी है, साँप किस तरह अपने शिकार को मारता है, इसे लेकर हज़ारों लोगों के अजब-अजब ख़ौफ़नाक ख़यालात होते हैं। मुझे लगता है, इसका कारण चूहे के साथ अपना तादात्म्य कर लेना है। उस समय चूहा व्यक्ति का अपना प्रतिबिंब हो जाता है। लेकिन एक बार आप इसे अपनी आँखों से देख लें, तो सारी चीज़ बड़ी ही निरपेक्ष और तटस्थ लगेगी। चूहा केवल शुद्ध चूहा रह जाता है और सारा ख़ौफ़ हवा हो जाता है।
उसने दीवार पर लगी एक लंबी-सी छड़ी उठा ली, इसमें एक सरकने वाला चमड़े का फंदा लगा था। जाल खोलकर उसने फंदा बड़े साँप के सिर पर डालकर खींचा और गाँठ को कस दिया। एक कर्णभेदी खड़खड़ाहट सारे कमरे में भर गई। जब उसने साँप को उठाकर खाने वाले पिंजरे में डाला तो छड़ी की मूठ पर साँप का मोटा-सा शरीर बुरी तरह लिपट गया था। कुछ देर तो उस पिंजरे में वह हमला करने को तैयार तना खड़ा रहा, लेकिन फिर धीरे-धीरे उसकी फुफकारें बंद हो गईं। साँप रेंगता हुआ कोने में सरक गया और अपने शरीर को हिंदी के अंक चार की शक्ल में डालकर चुपचाप लेट गया।
‘‘देखा आपने!'' नौजवान डॉक्टर ने समझाया, ये साँप काफ़ी पालतू हैं। मेरे पास तो ये काफ़ी दिनों से हैं। मेरा ख़याल है कि अगर मैं चाहूँ तो इन्हें ही अपना कार्यक्षेत्र बना सकता हूँ, लेकिन जो भी इन अमेरिकन साँपों को अपना कार्यक्षेत्र बनाता है, देर-सबेर इनके दाँतों का शिकार हो जाता है और इस तरह तक़दीर के साथ खिलवाड़ करने का मेरा क़तई इरादा नहीं है। उसने स्त्री को नज़र भरकर देखा। पिंजरे में चूहा डालना उसे अच्छा नहीं लग रहा था—जैसे बड़ी वितृष्णा हो रही हो। स्त्री अब नए पिंजरे के सामने जा पहुँची थी। उसकी काली-काली आँखें फिर साँप के पथरीले सिर को टकटकी लगाए देखे जा रही थीं।
बोली, चूहा डालिए न भीतर!
बड़े बेमन से वह चूहों के पिंजरे की ओर बढ़ा। जाने क्यों, उसे चूहे पर बड़ा तरस आ रहा था। इस तरह तो उसने पहले कभी भी महसूस नहीं किया। तार की जाली के पीछे अपनी ओर उलछते सफ़ेद-सफ़ेद शरीरों वाले चूहों के खचपच-खचपच करते ढेर को उसकी आँखें टटोलती-सी देखती रहीं। 'कौन-सा हो?' उसने मन ही मन कहा, 'इनमें से कौन-सा चूहा हो?' अचानक ग़ुस्से से वह स्त्री की तरफ़ घूम पड़ा, आप से कहें तो चूहे की बजाय एक बिल्ली न रख दूँ भीतर? तब आप देखेंगी कि सचमुच की लड़ाई क्या होती है? बिल्ली, हो सकता है जीत भी जाए, लेकिन अगर वह जीत गई तो हो सकता है साँप का काम तमाम कर डाले। आप चाहें तो मैं आपके हाथ एक बिल्ली बेच सकता हूँ।
स्त्री ने उसकी ओर मुड़कर देखा तक नहीं, एक चूहा रख दीजिए भीतर,” वह बोली, ‘‘मैं तो इसे खाना खिलाना चाहती हूँ।
डॉक्टर ने चूहों का पिंज़रा खोला और अपना हाथ भीतर ठूँस दिया। उँगलियों की पकड़ में पूँछ आ गई तो उसने एक लाल-लाल आँखों वाले गोल-मटोल चूहे को खींचकर ऊपर उठा लिया। पहले तो वह उसकी उँगलियों को काटने की कोशिश में छटपटाया, पर फिर हारकर चारों हाथ-पाँव फैलाकर चुपचाप बेजान की तरह पूँछ से लटका रहा। डॉक्टर तेज़ी से कमरा पार करके आया, खाने वाले पिंजरे का ढक्कन खोला और चूहे को फ़र्श पर साँप के ऊपर फेंक दिया।
लीजिए, देखिए अब। उसने लगभग चीख़कर कहा।
चूहा पाँवों के बल गिरा, चारों तरफ़ घूमा और अपनी सुर्ख़ नंगी पूँछ की तरफ़ सूँ-सूँ करता रहा। फिर नथुने फुलाकर सूँघते हुए वह निहायत तटस्थ भाव से रेत पर दौड़ लगाने लगा। कमरे में एकदम स्तब्धता छाई थी। डॉक्टर फिलिप्स की समझ में नहीं आया कि नीचे के खंभों में पानी ही उसाँसें ले रहा है या स्त्री की साँसें गहरी-गहरी चलने लगी हैं। एक कनखी से उसने देखा, स्त्री का शरीर ऐंठ और तन-सा गया है।
बहुत ही आहिस्ता और धीरे-धीरे साँप आगे सरका। जीभ बाहर और भीतर लपलपाने लगी। सारी हरकत इतनी नामालूम, आहिस्ता और धीरे-धीरे हो रही थी कि लगता ही नहीं था कि साँप के भीतर कोई हरकत हो भी रही है। पिंजरे के दूसरे सिरे पर चूहा आत्माभिमान से तना हुआ-सा बैठ गया था और सिर झुकाकर अपनी छाती के मुलायम, महीन-महीन बालों को चाटने लगा था। अपनी गर्दन को दृढ़तापूर्वक रोमन अक्षर 'एस' की शक्ल में रखे हुए साँप आगे सरक रहा था।
चुप्पी नौजवान के सिर पर मानो धक-धक बज रही थी। उसे लगा, जैसे ख़ून उसके शरीर में सन्नाने लगा है। उसने ऊँचे स्वर में कहा, देखिए, साँप हमला करने के लिए सिर के मरोड़ को हमेशा तैयार रखता है। ये अमेरिकन साँप बड़े ही चौकन्ने होते हैं। कहना चाहिए बड़े ही डरपोक जीव होते हैं। यह सारी कार्यवाही बेहद नाज़ुक होती है। जैसी कुशलता और चतुराई से सर्जन अपना काम करता है, ठीक उसी तरह साँप का भोजन भी बड़ी कुशलता और सावधानी से होता है। सर्जन जानता है कि किस जगह कौन औजार काम आएगा—वहाँ वह इस या उस औजार को प्रयोग करने का जोख़िम नहीं उठा सकता।
अब तक साँप पिंजरे के बीचोबीच सरक आया था। चूहे ने सिर उठाया, साँप को देखा और फिर उसी तटस्थता और इत्मीनान से अपनी छाती को चाटने लगा।
दुनिया की यह सबसे ख़ूबसूरत और आकर्षक चीज़ है,” नौजवान ने बताया। ख़ून उसकी नसों में बजने लगा था, साथ ही यह दुनिया की सबसे ख़ौफ़नाक चीज़ भी है।
साँप अब पास आ गया था। अब उसका सिर रेत से कुछ इंच ऊँचा उठ आया था। दूरी का अंदाज़ लगाता हुआ सिर घात लगाए हुए आगे-पीछे झूम रहा था। डॉक्टर फिलिप्स ने फिर स्त्री की ओर निगाहें घुमाईं। उत्तेजना और भय से वह सिहर उठा। वह अब भी झूम रही थी...ज़्यादा नहीं, लेकिन बहुत ही हलके-हलके बेमालूम-सी, सिर्फ़ लगती थी।
चूहे ने फिर सिर उठाया और साँप को देखा। वह चारों पाँवों के बल गिरा और यों ही सिर साँप की तरफ़ किए-किए पीछे सरका—कि तभी खट...एक बिजली-सी कौंधी। कुछ भी देख पाना असंभव था। जैसे किसी अदृश्य झपाटे के नीचे आ गया हो, चूहा इस तरह चिंचिया उठा। साँप तेज़ी से फिर अपने उसी पहले वाले कोने में लौट आया और फिर वहीं लेट गया—हाँ, उसकी जीभ अभी भी लगातार लपलपा रही थी।
कमाल है! डॉक्टर फिलिप्स चिल्ला उठा, ठीक कंधों की हड्डियों के बीचोबीच चोट की है। दाँत क़रीब-क़रीब दिल तक पहुँच गए होंगे।
छोटी-सफ़ेद धौंकनी की तरह चूहा अभी भी खड़ा-खड़ा हाँफ रहा था। सहसा वह एकदम ऊपर उछला और करवट के बल गिर पड़ा। एक सेकेंड उसके पाँव ऐंठने से हवा में छटपटाते रहे और फिर प्राण-पखेरू उड़ गए।
स्त्री ने मुक्ति की साँस छोड़कर बदन ढीला किया, जैसे नींद में शरीर ढीला छोड़ दिया हो।
क्यों? इस बार नौजवान डॉक्टर ने पूछा, यह मानसिक उद्वेग के सागर में गहरे स्नान करने जैसा ही लगता है न?
स्त्री ने अपनी धुँधली-धुँधली आँखें उसकी ओर घुमाईं, अब क्या यह इसे खा जाएगा? उसने सवाल किया।
बिलकुल खाएगा। केवल खिलवाड़ के लिए तो इसने इसे नहीं मारा। मारा इसलिए है कि भूखा था। स्त्री के मुँह के सिरों पर फिर हल्की-सी ऐंठन आई। वह फिर साँप को देखने लगी, मैं इसे खाते हुए देखना चाहती हूँ।
साँप फिर अपना कोना छोड़कर बाहर निकल आया। अब उसकी गर्दन में वह हमला करने वाली मरोड़न नहीं थी। लेकिन वह जैसे फूँक-फूँककर उधर सरक रहा था—मान लो, अगर चूहा हमला कर भी दे तो वह उछलकर पीछे आ जाएगा। अपनी भोंथरी नाक से उसने चूहे को कोंधा और फिर पीछे सिमट आया। उसे संतोष हो गया कि चूहा मर गया है। फिर सिर से लेकर पूँछ तक साँप ने उसके शरीर को अपनी ठोड़ी से सहलाया। लगा जैसे वह शरीर का जायज़ा लेता हुआ प्यार से उसे चूम रहा हो। आख़िरकार उसने अपना मुँह खोला और अपने जबड़ों के सिरों पर जीभ फिराई।
डॉ० फिलिप्स अपनी सारी इच्छाशक्ति लगाकर उस स्त्री की ओर जाने से अपने ध्यान को रोके था। उसने मन ही मन कहा, 'अगर यह भी अपना मुँह खोले होगी तो मेरा भी दिमाग़ ख़राब हो जाएगा। मुझे डर लगने लगेगा’ अपनी निगाहें उधर से हटाए रखने में उसे कैसे सफलता मिली, यह वही जानता था।
साँप ने अपना जबड़ा चूहे के सिर पर अड़ाया और रुक-रुककर धीरे-धीरे लकवे के झटकों की तरह चूहे को निगलने लगा। जबड़े फँसे तो सारा गला आगे सिमट आया। जबड़ों ने फिर दुबारा अपनी पकड़ ठीक की।
घूमकर डॉक्टर फिलिप्स अपनी काम करने की मेज़ पर लौट आया। तल्ख़ी से बोला, आपके कारण मेरी प्रक्रिया-माला की एक कड़ी यों ही निकल गई न? अब यह सारा सैट कभी पूरा नहीं होगा। एक परीक्षण गिलास को उसने कम शक्ति वाले अन्वीक्षण-यंत्र के नीचे रखकर उसे देखा। फिर झल्लाकर उसने सारी तश्तरियों के पदार्थ को बर्तन धोने की नाँद में उलट दिया। लहरें अब कम हो गई थीं, इसलिए अब फ़र्श के पार से सीला-सीला भभका ही आ पा रहा था। नौजवान डॉक्टर ने अपने पाँवों के पास ही एक कमानी वाले दरवाज़े का पल्ला उठाया और सारी तारक मछलियाँ नीचे समुद्र के काले-काले पानी में उलट दीं। पालने की सूली पर बढ़ी रोशनी में उपहास से मुँह बिराती, दाँत चमकाती हुई बिल्ली के पास आकर वह कुछ देर रुका। नली द्वारा प्रविष्ट होने वाले द्रव के कारण उसका शरीर फूलकर कुप्पा हो गया था। उसने नली बंद की, सुई निकाली और नस को कसकर बाँध दिया।
“आप थोड़ी-सी कॉफ़ी पिएँगी क्या? उसने पूछा।
नहीं धन्यवाद! मुझे अभी जल्दी ही चले जाना है।
साँप के पिंजरे के पास वह खड़ी थी। डॉक्टर उसके पास आ गया। चूहा निगला जा चुका था—बस, साँप के मुँह के बाहर उसकी एक इंच लाल-लाल पूँछ इस तरह निकली हुई थी, मानो किसी को चिढ़ाने को जीभ निकाल रखी हो। गले ने फिर भीतर की तरफ़ साँस खींची और पूँछ भी ग़ायब हो गई। जबड़े अपने-अपने ख़ानों में सटकर बैठ गए और वह बड़ा साँप अलसाया-सा रेंगकर कोने में आ गया। बड़ा-सा चार का अंक बनाया और रेत पर अपना सिर डालकर सो गया।
इसे तो अब नींद आ गई,” स्त्री ने कहा, अब मैं जा रही हूँ। लेकिन मैं थोड़े-थोड़े समय बाद आकर अपने साँप को खाना खिलाया करूँगी। चूहों के पैसे दे दूँगी, लेकिन इसे जी भरकर खिलाना चाहती हूँ और फिर किसी समय अपने साथ ले जाऊँगी। एक क्षण को अपने धूसर-धूमिल सपनों से उसकी आँखें पार निकल आईं, याद रखिए, यह मेरा है। इसका ज़हर मत निकालिएगा। मेरी इच्छा है, ज़हर इसमें ही रहे। अच्छा नमस्कार! तेज़ी से वह दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी और बाहर चली गई। डॉक्टर ने उसके जाते क़दमों की आवाज़ को सीढ़ियों पर सुना, लेकिन फिर नीचे के फ़र्श पर उसके चलने की आवाज़ सुनाई नहीं दी।
डॉक्टर फिलिप्स ने एक कुर्सी घुमाकर अपनी ओर की और साँप के पिंजरे के सामने ही बैठ गया। उस निश्चल साँप की ओर निगाहें टिकाए हुए वह अपने विचारों की गुत्थी सुलझाने की कोशिश करता रहा। मन ही मन बोला-'मनोवैज्ञानिक यौन-प्रतीकों के बारे में मैंने इतना कुछ पढ़ा है; लेकिन वह सब इसे समझने में मदद करता नहीं लगता। शायद मैं सबसे बहुत ज़्यादा अलग पड़ गया हूँ। हो सकता है, मैं इस साँप को मार डालूँ। काश, मैं जान पाता! लेकिन इस सबको जानने के लिए मैं प्रार्थना करने किसी भगवान् के पास नहीं जाऊँगा।'
हफ़्तों वह उसके लौटने की राह देखता रहा। उसने निश्चय किया, इस बार जब वह आएगी तो मैं उसे अकेला छोड़ बाहर चला जाऊँगा। उस कमबख़्त को दुबारा देखूँगा ही नहीं।
मगर वह फिर कभी वापस नहीं आई। वह जब भी बस्ती में बाहर घूमने जाता तो महीनों उसे तलाश करता। कई बार तो किसी भी लंबी-सी स्त्री को वही समझकर उसके पीछे हो लेता, लेकिन वह स्त्री उसे फिर कभी दिखाई नहीं दी।
jhutpute ka sa samay tha. doctor philips ne jhatke se ghumakar jhola kandhe par lada aur baaDh ke pani se bhar jane vali pokhar jaisi jagah se chal paDa. pahle patthar ke Dhoke par chaDhkar kuch rasta paar kiya aur phir rabar ke buton se chhap chhap karta saDak par nikal aaya. monteri ki machhliyon aur dusri khaady samagri ko tin ke Dibbon mein bharne vali saDak par uski apni chhoti si peshevar prayogashala thi. vahan tak aate aate saDak ki battiyan jal chuki theen. daba bhincha sa chhota sa makan tha—iska kuch hissa khaDi ke pani ke upar latthon ke khambhe aur pul lagakar bana tha aur kuch zamin par tha. baDe baDe lahardar, lohe ki chadaron ke bane machhli vale, gandhate godamon ne ise donon or se buri tarah gher aur bheench rakha tha.
kaath ki siDhiyan chaDhkar Dau० philips ne darvaza khola. safed chuhe apne pinjre mein taar ke upar niche zor zor se uchhal kood machane lage aur chhote chhote baDon mein band qaidi billiyan doodh ke liye myaun myaun karne lagin. doctor philips ne apni cheer phaaD ki mez par tez chaundhiya dene vali roshni jala di aur us lisalise jhole ko dhamm se dharti par patak diya. phir wo khiDki ke paas rakhe shishe ke pinjron ke paas aaya aur jhukkar bhitar dekhne laga. ismen amerikan saanp band the.
saanp ek dusre mein ganthe hue konon mein aram kar rahe the, lekin sabke sir alag alag saaf dikhai dete the. dhumil ankhen kisi or bhi dekhti nahin lagti theen, lekin jaise hi naujavan doctor pinjre par jhuka ki sire par kali aur pichhe se surkh duhri jibhen bahar lapalpa uthin aur dhire dhire upar niche hilne lagin. jab sanpon ne us vekti ko pahchan liya to jibhen bhitar kar leen.
Dau० philips ne chamDe ka coat ek taraf phenka aur teen ki angihti par pani ki ketli chaDhai, phir gilas bhar matar usmen chhoD di. ab wo farsh par paDe us jhole ko khaDa khaDa ghurta raha. doctor dubla patla naujavan tha. uski ankhen chundhiyayi, chhoti aur khoi khoi theen, jaisa aksar anvikshan yantr ke dvara bahut adhik dekhte rahne valon ki ho jati hain. uski chhoti khubsurat si daDhi thi. gahri gahri sanson si siskari bharti hui bhaap ki dhari chimani mein ja rahi thi aur angihti se garmahat ka bhabhka aa raha tha. makan ke niche chhoti chhoti lahren haule haule khambhon ko sahla rahi theen. kamre mein charon or lakDi ke khanon mein ek ke upar ek ajiboghrib imartban saje the. inmen samudri vastuon aur jivon ke namune Dhake rakhe the. ye prayogashala bhi thi inhin sabke liye.
Dau० philips ne baghal ka darvaza kholkar sone vale kamre mein pravesh kiya. ismen charon or kitabon ki lainen lagi theen. ek fauji khaat paDi thi. paDhne ke liye roshni aur ek ghairaramdeh qim ki lakDi ki kursi rakhi thi. usne apne rabar ke boot kheench khinchkar utare aur bheD ki khalon ke sleeper pahan liye. jab wo bagal vale kamre mein vapas lauta to ketli ka pani sanasnane laga tha.
usne jhola uthakar mez par safed roshni ke niche rakha aur usmen se do darzan sadharan tarak machhliyan ulatkar bahar nikalin. inhen usne mez par phaila diya. phir uski khoi khoi ankhen pinjron mein band uchhalkud machate chuhon ki or muDin. qagaz ke ek thaile se anaj ke dane nikalkar usne khane vale taslon mein Dale. chuhe fauran hi ek dusre ko khundate taron se niche ki or dauDe aur khane par toot paDe. kaanch ki ek almari par kekDe aur jeli machhli ke beech doodh ki botal rakhi thi. doctor philips ne jhukkar doodh uthaya aur billiyon ke pinjre ki or baDha. lekin Dibbon ko doodh se bharne se pahle hi usne haath baDhakar ahista se ek baDi, lambe lambe haath panvon vali margilli si chitkabri billi ko pakaDkar bahar nikal liya. pal bhar use haath se thapthapaya aur phir use kale pute hue bakse mein Daal diya. Dhakkan band karke kunDi chaDha di. iske baad ek hainDil ghuma diya. ab us marne vale Dibbe mein gas bharne lagi. kale Dibbe mein halki halki uchhalkud hoti rahi aur wo taslon ko doodh se bharta raha. ek billi uske haath se satkar kaman jaisi duhri ho gai to wo muskra paDa. usne uski gardan pyaar se sahla di.
Dibbe mein ab shanti ho gai thi. usne hainDil ko ulta ghuma diya. zarur us randhrhin Dibbe mein Datkar gas bhari hogi.
angihti par matar se bhare gilas ke charon or pani buri tarah khaul raha tha. Dau० philips ne ek sanDasi se pakaDkar gilas bahar nikala aur use kholkar matar kaanch ki ek tashtari mein ulat diye. khate khate wo mez par rakhi un tarak machhliyon ko dekhta raha. kirnon ke beech mein dudhiya drav ki chhoti chhoti bunden pasij pasijkar nikal i theen. usne phatakne ki tarah bachi hui matar ek taraf phenk di aur jab sab phail gain to tashtari dhone vale naand mein rakhkar apni aujaron vali almari ki or baDha. yahan se usne ek anvikshan yantr aur kaanch ki tashtariyon ki ek gaDDi nikali. nal dvara ek ek karke in sari tashtariyon ko samudri pani se bhara aur tarak machhaliyon ke paas ek line mein unhen saja diya. apni ghaDi nikali aur ghani umaDti safed roshni ke niche mez par rakh diya. farsh ke niche lahren usmen bharti hui si khambhon ko sahla rahi theen. usne ek daraz se ankh mein dava Dalne vali kaanch ki ek pichkari nikali aur ek tarak machhli ke upar jhuk gaya.
theek usi samay lakDi ki siDhiyon par lapakti, dabe qadmon ki avaz ke saath saath darvaze par ek tez dastak sunai di. darvaza kholne jate hue naujavan ke chehre par jhunjhlahat ki halki talkhi jhalak uthi. darvaze mein ek patli dubli lambi si istri khaDi thi. wo bhanvar kala soot pahne thi. aur uske sidhe sidhe baal kale chapte mathe par niche tak ug aaye the. ab is tarah ast vyast the, mano andhi mein uDte rahe hon. tez roshni mein uski kali kali ankhen chamak rahi theen.
usne mulayam, rundhi si avaz mein puchha, “main bhitar aa jaun n? aapse kuch baten karna chahti hoon.
is samay to main bahut vyast hoon, usne beman se kaha, mujhe to sare kaam vaक़t par hi karne paDte hain. lekin wo darvaze se hatkar khaDa ho gaya tha. lambi istri tirchhi hokar bhitar aa gai.
“apko jab tak mujhse baat karne ki fursat nahin milegi, main chupchap baithi rahungi.
usne darvaza band kar liya aur sone ke kamre se us gair aramdeh kursi ko utha laya. “dekhiye”, usne mafi mangte hue kaha, kaary ki prakriya shuru ho gai hai aur mujhe usmen lagna hai. jane kitne adami yon hi chale aate hain aur duniya bhar ke saval puchhte hain. sadharan nasamajh logon ko sari kaary pranaali samjhane ke liye uske paas alag se koi sadhan ya suvidha nahin hai. unse to wo bina soche bol deta hai ki “aap yahan baithiye, do minat baad main apaki baten sununga.
wo lambi istri mez par upar jhuk i. ankh mein dava Dalne ki pichkari se doctor ne tarak machhliyon ki kirnon ke bichobich mein drav ikattha kiya aur pichch se pani ke pyale mein chhoD diya. iske baad usne kuch dudhiya drav sunta aur phir pichkari se pani ko dhire dhire hilaya. ab usne apna vahi vyakhyan bhashan jaldi jaldi bolna shuru kiya ha
“jab ye tarak machhliyan apne poorn viksit yauvan par aa chukti hain to halke jvaar ka khula vistar pakar inke sharir se veery kitanau aur Dimb nikalne lagte hain. kuch poorn yauvan vali tarak machhliyon ke namune chunkar aur unhen pani se bahar nikalkar main unhen halke jvar ki sari avastha aur vatavarn mein yahan rakhta hoon. ab mainne veery aur Dimbon ko mila diya hai. is ghol mein se thoDa thoDa lekar ab main in sab parikshan gilason mein rakhunga. das minat baad pahle gilas valon ko safed kapur Dalkar maar Dalunga, phir bees minat baad dusre varg ko marunga. aur phir isi tarah har bees minat baad nae varg ko marta jaunga.
isse main sari prakriya ko alag alag avasthaon mein pakaD sakunga aur is sari prakriya mala ko microscope ki kaanch ki slaiDon par jamakar jaivik adhyayan ke liye taiyar kar lunga. ” wo ruk gaya, aap is pahle varg ko anvikshan yantr se dekhengi?
nahin, shukriya.
tezi se wo uski or ghuma. log to hamesha gilason mein dekhne ko udhaar khaye rahte hain. wo mez ki taraf bilkul na dekhkar—dekh rahi thi, khu uski taraf. uski kali kali ankhen theen to uski disha mein, lekin lagta tha, use dekh nahin rahin. usne mahsus kiya, are! is istri ki ankhon ke tare to shesh putliyon ki tarah hi kale kale hain—putaliyon aur taron ke beech mein kisi bhi rang ki koi line nahin hai. doctor philips uske is javab se jhalla utha. yon use savalon ka javab dene se baDi ub hoti thi—kyonki isse haath ke kaam mein dilchaspi kam ho jati thi aur isi se use hamesha baDi koft hoti. ab uske man mein hua ki kisi tarah is istri ko uksaya jaye.
pahle das minat raah dekhne ke dauran hi mujhe ek kaam aur bhi karna hai. kuch log ise dekhana pasand nahin karte. achchha ho, jab tak main ise khatm karun, aap kuch der ke liye us kamre mein chali jayen.
nahin, usne apne usi mulayam aur sapat lahze mein kaha, apaki jo ichha ho so kijiye. mainne kaha na, aapko mujhse baat karne ki phursat hone tak main raah dekhungi. uske haath paas paas uski god mein rakhe the. wo baDe aram aur itminan se baithi thi. uski ankhen zarur chamkili theen, lekin baqi sab kuch aisa tha, mano bejan ho. doctor ne man hi man kaha, dekhne se lagta hai ki bahut hi dhimi raftar se manspeshiyan parivartan ki sthiti mein hain itni dhimi jitni meDhak ki hoti hai. istri ko uski is murdani se jhanjhoDane ki prabal ichha ne use phir avisht kar liya.
usne lakDi ka ek palna jaisa lakar mez par rakha, cheer phaaD karne ka chaku aur kainchi, pichakne vali nali mein lagi poli sui sanvarakar rakhi, phir marne vale Dibbe se usne us bejan murda billi ko nikala aur palne par rakhkar uski tangon ko idhar udhar lage hukon se baandh diya. kanakhiyon se usne istri ko dekha. usmen qatii koi harkat nahin thi. wo usi tarah ab bhi aram se baithi thi.
roshni mein billi mano daant nikalkar chiDha rahi thi. uski surkh jeebh nukile danton ke beech dabi thi. sadhe hue kushal hathon se doctor philips ne gale ke paas se uski khaal kaat Dali. chaku se chirphaDi karte hue usne hirdai se aur bhagon tak rakt le jane vali nali ko bahar nikal liya. apne achuk aur bejhijhak hathon se phusphus mein sui rakhkar anton se kaskar baandh diya. yah masaledar hai,” usne samjhaya, baad mein main injection ki sahayata se iske sare snayumanDal mein pila drav pahunchaunga, laal drav hirdai ki dhamniyon mein dunga. isse rakt pravah ka vishleshan kiya ja sakega, jaisa ki pranishastr ki kakshaon mein. . .
usne phir us istri ki taraf ghumkar dekha. uski ankhon par jaise dhool ki ek parat phaili thi. wo bhavanahin nigahon se billi ke kate hue gale ki taraf dekhe ja rahi thi. khoon ek boond bhi nahin gira, katai bahut hi saaf hui thi. doctor philips ne ghaDi dekhi ha pahle varg ka samay pura ho gaya. ’ usne safed kapur ke kuch chaukor chikne tukDe pahle vale parikshan gilas mein Dalkar hilaye.
istri ki upasthiti uske man mein tanav paida kar rahi thi. apne pinjre mein chuhe phir taar par ja chaDhe the aur dhire dhire choon choon kar rahe the. makan ke niche ki lahren khambhon par halke halke thapeDe maar rahi theen.
naujavan doctor ke sharir mein sheet ki ek jhurjhuri si i. usne angihti mein kuch koyle Dale aur aakar baith gaya. usne kaha, ab bees minat tak mujhe kuch nahin karna. usne dekha, istri ke nichle honth aur chibuk ke sire ke beech ki thoDi kitni zara si hai. laga, jaise wo dhire dhire jagi ho—mano chetna ke kisi gahre kuen se nikalkar bahar aa rahi ho. sir uncha utha, kali kali dhusar ankhen ek baar kamre mein charon or ghumin, phir doctor par aakar tik gain.
“main to raah dekh rahi thi,” wo boli. haath yon hi god mein paas paas rakhe rahe, apke paas saanp honge?
“kisaliye? ji haan, hain to. usne apekshakrit unche svar mein kaha, mere paas qarib do darjan amerikan saanp hain. unka zahr suntakar main vishnashak pryogshalaon mein bhej deta hoon.
wo lagatar use dekhe ja rahi thee; lekin uski ankhen jaise us par kendrit nahin ho pa rahi theen. lagta tha, jaise ve uske charon or ek baDe dayre mein dekh rahi hain—is tarah use charon or se ghere hue hain, “apke paas nar saanp hoga? mera matlab amerikan nar saanp?
“dekhiye, ittphaak hi hai. mera khayal hai mere paas hoga. ek din subah subah aaya to dekha ki ek baDa sa saanp ek chhoti nagin ke saath un un. . . ke saath sahvas kar raha tha. dekhiye, mujhe theek pata hai ki mere paas nar saanp hai.
hai kahan vah?
dekhiye, us khiDki ke paas kaanch ke pinjre ke theek niche.
uska sir dhime se udhar ghoom gaya, lekin uske donon shaant haath yon hi nishchal paDe rahe. wo phir uski or ghumi, “dekh sakti hoon n?
uthkar wo khiDki ke paas rakhe kaanch ke kes ke paas aa gaya. retile tale par ek dusre mein guntha sanpon ka gutthal paDa tha, lekin unke sir alag alag saaf dikhte the. jibhen bahar nikal ain aur ek kshan laplapati rahin. phir kanpan ke liye hava ko tatolti hui si upar niche lahrati rahin. doctor philips ne ghabrakar sir ghumaya. istri uske paas hi khaDi thi. wo kursi se kab uth i, doctor ko pata hi nahin laga. use to sirf khambhon ke beech mein pani ki chhapak chhapak sunai di thi ya taron ki jali par chuhon ka dauDna sunai diya tha.
istri ne dhire se puchha, jis nar saanp ke bare mein aap bata rahe the, wo kaun sa hai?
usne ek pinjre ke ek kone mein akele paDe mote se bhure bhure naag ki or ishara kiya, vo vala. hoga qarib paanch pheet lamba. taiksas praant ka hai. hamare prashant sagar ke kinaron vale saanp aksar chhote hote hain. ye sare chuhe haDap jate hain. jab mujhe dusre sanpon ko khilana hota hai to bahar nikal leta hoon.
istri jhukkar us bhonDe sukhe sukhe bhonthre sir ko ghurti rahi. duhri jeebh nikal i aur kafi der tak thartharati hui jhulti rahi, achchha, aapko yaqin hai ki ye saanp hi hai, sanpin nahin?
ye amerikan saanp hote baDe mazedar hain,” wo snigdh svar mein bola, iske bare mein jo samany siddhant nikaliye ghalat nikalta hai. amerikan sanpon ke bare mein nishchaypurvak to main bhi nahin bata paunga, lekin, ji haan, ye vishvas dilata hoon ki hai ye nar saanp hi.
uski nigahen us chapte se sir se nahin hilin, aap ise mere haath bechenge?
bechunga? wo cheekh sa paDa, apke hathon bechunga?
“aap to namune ki cheez bechte hain. kyon, bechte hain n?”
oh haan, ji haan bechta hoon, bechta to hoon.
kitne ka hai? paanch Dalar ka? das?
are, paanch se zyada ka nahin hai. lekin—apko kya in amerikan sanpon ke bare mein jankari hai? kahin aapko kaat watt na le!
pal bhar wo use dekhti rahi, main ise saath nahin le jana chahti, main to ise yahin rahne dungi. lekin chahti hoon, ye mera hokar rahe. chahti hoon ki main yahan aakar ise dekhun, khilaun aur manun ki ye mera hai. usne ek chhota sa batua kholkar paanch Dalar ka not nikal liya, lijiye ye, ab ye mera hua.
doctor philips ko ab Dar lagne laga, use dekhne to aap bina ise kharide bhi aa sakti hain!
“main chahti hoon ye mera ho.
oh gauD! doctor chilla utha, baton mein mujhe to samay ka bhi khayal nahin raha,” wo mez ki or lapka, “teen minat pure ho chuke. khair, koi khaas nuqsan nahin hua hoga. usne safed kapur ke tukDe dusre parikshan gilas mein ghole aur phir jaise wo khu ba khu vapas sanpon ke pinjre ke paas khinch gaya. istri abhi bhi usi saanp ko ghure ja rahi thi.
“istri ne puchha, “khata kya hai yah?
main to ise safed chuhe khilata hoon. us taraf vale pinjre ke chuhe.
ise aap dusre pinjre mein rakhenge? main ise khilana chahti hoon.
lekin is samay ise khane ki zarurat hi nahin hai. apne is hafte ka chuha ye hazrat pahle hi kha chuke hain. kabhi kabhi to ye log teen teen, chaar chaar mahinon tak kuch nahin khate. mere paas ek saanp tha, usne ek saal se upar tak kuch bhi nahin khaya.
doctor ne kandhe jhatke, “aap apne saanp ko khate dekhana chahti hain? achchhi baat hai. main khilata hoon. ek chuhe ka daam pachchis sent hoga. ek taraf se dekhen to saanp ka chuhe ko khana sanDon ki laDai se bhi zyada mazedar drishya hai aur dusri taraf se dekhen to ye sirf saanp ke bhoj karne ka ek tariqa hai. uske lahze mein kaDvahat aa gai thi. prakritik karyaklap ko jo log khel aur kriDa bana Dalte hain—unse use nafar thi. wo khilaDi nahin, jeev shastari tha. gyaan ke liye wo hazaron jivon ki hattya kar sakta hai, lekin anand ke liye ek kiDa marana bhi uske liye mushkil hai—yah uske dimagh mein pahle se hi ekdam saaf tha.
istri ne dhire dhire apna sir uski or ghumaya aur uske patle patle honthon par muskrahat jhalak uthi, main apne saanp ko khilana chahti hoon, wo boli, main ise dusre pinjre mein rakhungi. usne pinjre ke upar ka Dhakkan khol liya tha. isse pahle ki doctor jane ki wo kya kar rahi hai, usne apna haath bhitar Daal diya. doctor ekdam chhalang lagakar uske paas pahuncha aur jhat use pichhe kheench liya. Dhakkan dhaD se girkar band ho gaya.
“apko aql hai ya nahin? usne ghusse se puchha, “ho sakta hai, wo aapko jaan se na marta; lekin apaki tabiyat zarur achchhi tarah durust kar deta, phir meri laakh koshishon ke baad bhi aapko tare nazar aate rahte.
wo nirudvign shaant bhaav se boli, to phir aap hi ise dusre pinjre mein rakh dijiye.
Dau० philips ko jaise kisi ne jhakjhor Dala. use mahsus hua ki jo ankhen kisi ko bhi dekhti nahin lag rahi hain—vah unhen sidhe dekhne se qatra raha hai. use laga ki pinjre mein chuha Dalna nihayat hi ghalat hai—jaise ismen koi ghor paap hai. lekin aisa sab use kyon laga, wo khu nahin jaan paya. jab bhi kisi aire ghaire ne chaha hai, usne pinjre mein chuhe Dale hain; lekin aaj raat, is vishesh ichha ne use itna asvasth aur asantulit bana Dala hai ki man kharab ho gaya hai. wo khu apne liye is sari baat ko samajhne ki koshish karta raha.
“yon ise dekhana hai to baDa achchha,” wo bola, isse aapko pata chalega ki saanp kaise apna kaam karta hai? isse ye bhi lagta hai ki aapke dil mein amerikan sanpon ke liye izzat hai, lekin ek baat aur bhi hai, saanp kis tarah apne shikar ko marta hai, ise lekar hazaron logon ke ajab ajab khaufnak khayalat hote hain. mujhe lagta hai, iska karan chuhe ke saath apna tadatmy kar lena hai. us samay chuha vekti ka apna pratibimb ho jata hai. lekin ek baar aap ise apni ankhon se dekh len, to sari cheez baDi hi nirpeksh aur tatasth lagegi. chuha keval shuddh chuha rah jata hai aur sara khauf hava ho jata hai.
usne divar par lagi ek lambi si chhaDi utha li, ismen ek sarakne vala chamDe ka phanda laga tha. jaal kholkar usne phanda baDe saanp ke sir par Dalkar khincha aur gaanth ko kas diya. ek karnabhedi khaDkhaDahat sare kamre mein bhar gai. jab usne saanp ko uthakar khane vale pinjre mein Dala to chhaDi ki mooth par saanp ka mota sa sharir buri tarah lipat gaya tha. kuch der to us pinjre mein wo hamla karne ko taiyar tana khaDa raha, lekin phir dhire dhire uski phuphkaren band ho gain. saanp rengta hua kone mein sarak gaya aur apne sharir ko hindi ke ank chaar ki shakl mein Dalkar chupchap let gaya.
‘‘dekha apne! naujavan doctor ne samjhaya, ye saanp kafi paltu hain. mere paas to ye kafi dinon se hain. mera khayal hai ki agar main chahun to inhen hi apna karyakshaetr bana sakta hoon, lekin jo bhi in amerikan sanpon ko apna karyakshaetr banata hai, der saber inke danton ka shikar ho jata hai aur is tarah taक़dir ke saath khilvaD karne ka mera qatii irada nahin hai. usne istri ko nazar bharkar dekha. pinjre mein chuha Dalna use achchha nahin lag raha tha—jaise baDi vitrshnaa ho rahi ho. istri ab nae pinjre ke samne ja pahunchi thi. uski kali kali ankhen phir saanp ke pathrile sir ko takatki lagaye dekhe ja rahi theen.
boli, chuha Daliye na bhitar!
baDe beman se wo chuhon ke pinjre ki or baDha. jane kyon, use chuhe par baDa taras aa raha tha. is tarah to usne pahle kabhi bhi mahsus nahin kiya. taar ki jali ke pichhe apni or ulachhte safed safed shariron vale chuhon ke khachpach khachpach karte Dher ko uski ankhen tatolti si dekhti rahin. kaun sa ho? usne man hi man kaha, inmen se kaun sa chuha ho? achanak ghusse se wo istri ki taraf ghoom paDa, aap se kahen to chuhe ki bajay ek billi na rakh doon bhitar? tab aap dekhengi ki sachmuch ki laDai kya hoti hai? billi, ho sakta hai jeet bhi jaye, lekin agar wo jeet gai to ho sakta hai saanp ka kaam tamam kar Dale. aap chahen to main aapke haath ek billi bech sakta hoon.
istri ne uski or muDkar dekha tak nahin, ek chuha rakh dijiye bhitar,” wo boli, ‘‘main to ise khana khilana chahti hoon.
doctor ne chuhon ka pinzra khola aur apna haath bhitar thoons diya. ungliyon ki pakaD mein poonchh aa gai to usne ek laal laal ankhon vale gol matol chuhe ko khinchkar upar utha liya. pahle to wo uski ungliyon ko katne ki koshish mein chhataptaya, par phir harkar charon haath paanv phailakar chupchap bejan ki tarah poonchh se latka raha. doctor tezi se kamra paar karke aaya, khane vale pinjre ka Dhakkan khola aur chuhe ko farsh par saanp ke upar phenk diya.
lijiye, dekhiye ab. usne lagbhag chikhkar kaha.
chuha panvon ke bal gira, charon taraf ghuma aur apni surkh nangi poonchh ki taraf soon soon karta raha. phir nathune phulakar sunghte hue wo nihayat tatasth bhaav se ret par dauD lagane laga. kamre mein ekdam stabdhata chhai thi. doctor philips ki samajh mein nahin aaya ki niche ke khambhon mein pani hi usansen le raha hai ya istri ki sansen gahri gahri chalne lagi hain. ek kankhi se usne dekha, istri ka sharir ainth aur tan sa gaya hai.
bahut hi ahista aur dhire dhire saanp aage sarka. jeebh bahar aur bhitar lapalpane lagi. sari harkat itni namalum, ahista aur dhire dhire ho rahi thi ki lagta hi nahin tha ki saanp ke bhitar koi harkat ho bhi rahi hai. pinjre ke dusre sire par chuha atmabhiman se tana hua sa baith gaya tha aur sir jhukakar apni chhati ke mulayam, muhin muhin balon ko chatne laga tha. apni gardan ko driDhtapurvak roman akshar s ki shakl mein rakhe hue saanp aage sarak raha tha.
chuppi naujavan ke sir par mano dhak dhak baj rahi thi. use laga, jaise khoon uske sharir mein sannane laga hai. usne unche svar mein kaha, dekhiye, saanp hamla karne ke liye sir ke maroD ko hamesha taiyar rakhta hai. ye amerikan saanp baDe hi chaukanne hote hain. kahna chahiye baDe hi Darpok jeev hote hain. ye sari karyavahi behad nazuk hoti hai. jaisi kushalta aur chaturai se surgeon apna kaam karta hai, theek usi tarah saanp ka bhojan bhi baDi kushalta aur savadhani se hota hai. surgeon janta hai ki kis jagah kaun aujar kaam ayega—vahan wo is ya us aujar ko prayog karne ka jokhim nahin utha sakta.
ab tak saanp pinjre ke bichobich sarak aaya tha. chuhe ne sir uthaya, saanp ko dekha aur phir usi tatasthata aur itminan se apni chhati ko chatne laga.
duniya ki ye sabse khubsurat aur akarshak cheez hai,” naujavan ne bataya. khoon uski nason mein bajne laga tha, saath hi ye duniya ki sabse khaufnak cheez bhi hai.
saanp ab paas aa gaya tha. ab uska sir ret se kuch inch uncha uth aaya tha. duri ka andaz lagata hua sir ghaat lagaye hue aage pichhe jhoom raha tha. doctor philips ne phir istri ki or nigahen ghumain. uttejna aur bhay se wo sihar utha. wo ab bhi jhoom rahi thi. . . zyada nahin, lekin bahut hi halke halke bemalum si, sirf lagti thi.
chuhe ne phir sir uthaya aur saanp ko dekha. wo charon panvon ke bal gira aur yon hi sir saanp ki taraf kiye kiye pichhe sarka—ki tabhi khat. . . ek bijli si kaundhi. kuch bhi dekh pana asambhau tha. jaise kisi adrshy jhapate ke niche aa gaya ho, chuha is tarah chinchiya utha. saanp tezi se phir apne usi pahle vale kone mein laut aaya aur phir vahin let gaya—han, uski jeebh abhi bhi lagatar lapalpa rahi thi.
kamal hai! doctor philips chilla utha, theek kandhon ki haDDiyon ke bichobich chot ki hai. daant qarib qarib dil tak pahunch gaye honge.
chhoti safed dhaunkni ki tarah chuha abhi bhi khaDa khaDa haanph raha tha. sahsa wo ekdam upar uchhla aur karvat ke bal gir paDa. ek second uske paanv ainthne se hava mein chhataptate rahe aur phir paran pakheru uD gaye.
istri ne mukti ki saans chhoDkar badan Dhila kiya, jaise neend mein sharir Dhila chhoD diya ho.
kyon? is baar naujavan doctor ne puchha, yah manasik udveg ke sagar mein gahre snaan karne jaisa hi lagta hai n?
istri ne apni dhundhli dhundhli ankhen uski or ghumain, ab kya ye ise kha jayega? usne saval kiya.
bilkul khayega. keval khilvaD ke liye to isne ise nahin mara. mara isliye hai ki bhukha tha. istri ke munh ke siron par phir halki si ainthan i. wo phir saanp ko dekhne lagi, main ise khate hue dekhana chahti hoon.
saanp phir apna kona chhoDkar bahar nikal aaya. ab uski gardan mein wo hamla karne vali maroDan nahin thi. lekin wo jaise phoonk phunkakar udhar sarak raha tha—man lo, agar chuha hamla kar bhi de to wo uchhalkar pichhe aa jayega. apni bhonthri naak se usne chuhe ko kondha aur phir pichhe simat aaya. use santosh ho gaya ki chuha mar gaya hai. phir sir se lekar poonchh tak saanp ne uske sharir ko apni thoDi se sahlaya. laga jaise wo sharir ka jayaज़a leta hua pyaar se use choom raha ho. akhiraka usne apna munh khola aur apne jabDon ke siron par jeebh firai.
Dau० philips apni sari ichchhashakti lagakar us istri ki or jane se apne dhyaan ko roke tha. usne man hi man kaha, agar ye bhi apna munh khole hogi to mera bhi dimagh kharab ho jayega. mujhe Dar lagne lagega’ apni nigahen udhar se hataye rakhne mein use kaise saphalta mili, ye vahi janta tha.
saanp ne apna jabDa chuhe ke sir par aDaya aur ruk rukkar dhire dhire lakve ke jhatkon ki tarah chuhe ko nigalne laga. jabDe phanse to sara gala aage simat aaya. jabDon ne phir dubara apni pakaD theek ki.
ghumkar doctor philips apni kaam karne ki mez par laut aaya. talkhi se bola, apke karan meri prakriya mala ki ek kaDi yon hi nikal gai n? ab ye sara sait kabhi pura nahin hoga. ek parikshan gilas ko usne kam shakti vale anvikshan yantr ke niche rakhkar use dekha. phir jhallakar usne sari tashtariyon ke padarth ko bartan dhone ki naand mein ulat diya. lahren ab kam ho gai theen, isliye ab farsh ke paar se sila sila bhabhka hi aa pa raha tha. naujavan doctor ne apne panvon ke paas hi ek kamani vale darvaze ka palla uthaya aur sari tarak machhliyan niche samudr ke kale kale pani mein ulat deen. palne ki suli par baDhi roshni mein uphaas se munh birati, daant chamkati hui billi ke paas aakar wo kuch der ruka. nali dvara pravisht hone vale drav ke karan uska sharir phulkar kuppa ho gaya tha. usne nali band ki, sui nikali aur nas ko kaskar baandh diya.
“aap thoDi si coffe piyengi kyaa? usne puchha.
nahin dhanyavad! mujhe abhi jaldi hi chale jana hai.
saanp ke pinjre ke paas wo khaDi thi. doctor uske paas aa gaya. chuha nigla ja chuka tha—bus, saanp ke munh ke bahar uski ek inch laal laal poonchh is tarah nikli hui thi, mano kisi ko chiDhane ko jeebh nikal rakhi ho. gale ne phir bhitar ki taraf saans khinchi aur poonchh bhi ghayab ho gai. jabDe apne apne khanon mein satkar baith gaye aur wo baDa saanp alsaya sa rengkar kone mein aa gaya. baDa sa chaar ka ank banaya aur ret par apna sir Dalkar so gaya.
ise to ab neend aa gai,” istri ne kaha, ab main ja rahi hoon. lekin main thoDe thoDe samay baad aakar apne saanp ko khana khilaya karungi. chuhon ke paise de dungi, lekin ise ji bharkar khilana chahti hoon aur phir kisi samay apne saath le jaungi. ek kshan ko apne dhusar dhumil sapnon se uski ankhen paar nikal ain, yaad rakhiye, ye mera hai. iska zahr mat nikaliyega. meri ichha hai, zahr ismen hi rahe. achchha namaskar! tezi se wo darvaze ki taraf baDhi aur bahar chali gai. doctor ne uske jate qadmon ki avaz ko siDhiyon par suna, lekin phir niche ke farsh par uske chalne ki avaz sunai nahin di.
doctor philips ne ek kursi ghumakar apni or ki aur saanp ke pinjre ke samne hi baith gaya. us nishchal saanp ki or nigahen tikaye hue wo apne vicharon ki gutthi suljhane ki koshish karta raha. man hi man bola manovaigyanik yaun prtikon ke bare mein mainne itna kuch paDha hai; lekin wo sab ise samajhne mein madad karta nahin lagta. shayad main sabse bahut zyada alag paD gaya hoon. ho sakta hai, main is saanp ko maar Dalun. kaash, main jaan pata! lekin is sabko janne ke liye main pararthna karne kisi bhagvan ke paas nahin jaunga.
hafton wo uske lautne ki raah dekhta raha. usne nishchay kiya, is baar jab wo ayegi to main use akela chhoD bahar chala jaunga. us kambakht ko dubara dekhunga hi nahin.
magar wo phir kabhi vapas nahin i. wo jab bhi basti mein bahar ghumne jata to mahinon use talash karta. kai baar to kisi bhi lambi si istri ko vahi samajhkar uske pichhe ho leta, lekin wo istri use phir kabhi dikhai nahin di.
jhutpute ka sa samay tha. doctor philips ne jhatke se ghumakar jhola kandhe par lada aur baaDh ke pani se bhar jane vali pokhar jaisi jagah se chal paDa. pahle patthar ke Dhoke par chaDhkar kuch rasta paar kiya aur phir rabar ke buton se chhap chhap karta saDak par nikal aaya. monteri ki machhliyon aur dusri khaady samagri ko tin ke Dibbon mein bharne vali saDak par uski apni chhoti si peshevar prayogashala thi. vahan tak aate aate saDak ki battiyan jal chuki theen. daba bhincha sa chhota sa makan tha—iska kuch hissa khaDi ke pani ke upar latthon ke khambhe aur pul lagakar bana tha aur kuch zamin par tha. baDe baDe lahardar, lohe ki chadaron ke bane machhli vale, gandhate godamon ne ise donon or se buri tarah gher aur bheench rakha tha.
kaath ki siDhiyan chaDhkar Dau० philips ne darvaza khola. safed chuhe apne pinjre mein taar ke upar niche zor zor se uchhal kood machane lage aur chhote chhote baDon mein band qaidi billiyan doodh ke liye myaun myaun karne lagin. doctor philips ne apni cheer phaaD ki mez par tez chaundhiya dene vali roshni jala di aur us lisalise jhole ko dhamm se dharti par patak diya. phir wo khiDki ke paas rakhe shishe ke pinjron ke paas aaya aur jhukkar bhitar dekhne laga. ismen amerikan saanp band the.
saanp ek dusre mein ganthe hue konon mein aram kar rahe the, lekin sabke sir alag alag saaf dikhai dete the. dhumil ankhen kisi or bhi dekhti nahin lagti theen, lekin jaise hi naujavan doctor pinjre par jhuka ki sire par kali aur pichhe se surkh duhri jibhen bahar lapalpa uthin aur dhire dhire upar niche hilne lagin. jab sanpon ne us vekti ko pahchan liya to jibhen bhitar kar leen.
Dau० philips ne chamDe ka coat ek taraf phenka aur teen ki angihti par pani ki ketli chaDhai, phir gilas bhar matar usmen chhoD di. ab wo farsh par paDe us jhole ko khaDa khaDa ghurta raha. doctor dubla patla naujavan tha. uski ankhen chundhiyayi, chhoti aur khoi khoi theen, jaisa aksar anvikshan yantr ke dvara bahut adhik dekhte rahne valon ki ho jati hain. uski chhoti khubsurat si daDhi thi. gahri gahri sanson si siskari bharti hui bhaap ki dhari chimani mein ja rahi thi aur angihti se garmahat ka bhabhka aa raha tha. makan ke niche chhoti chhoti lahren haule haule khambhon ko sahla rahi theen. kamre mein charon or lakDi ke khanon mein ek ke upar ek ajiboghrib imartban saje the. inmen samudri vastuon aur jivon ke namune Dhake rakhe the. ye prayogashala bhi thi inhin sabke liye.
Dau० philips ne baghal ka darvaza kholkar sone vale kamre mein pravesh kiya. ismen charon or kitabon ki lainen lagi theen. ek fauji khaat paDi thi. paDhne ke liye roshni aur ek ghairaramdeh qim ki lakDi ki kursi rakhi thi. usne apne rabar ke boot kheench khinchkar utare aur bheD ki khalon ke sleeper pahan liye. jab wo bagal vale kamre mein vapas lauta to ketli ka pani sanasnane laga tha.
usne jhola uthakar mez par safed roshni ke niche rakha aur usmen se do darzan sadharan tarak machhliyan ulatkar bahar nikalin. inhen usne mez par phaila diya. phir uski khoi khoi ankhen pinjron mein band uchhalkud machate chuhon ki or muDin. qagaz ke ek thaile se anaj ke dane nikalkar usne khane vale taslon mein Dale. chuhe fauran hi ek dusre ko khundate taron se niche ki or dauDe aur khane par toot paDe. kaanch ki ek almari par kekDe aur jeli machhli ke beech doodh ki botal rakhi thi. doctor philips ne jhukkar doodh uthaya aur billiyon ke pinjre ki or baDha. lekin Dibbon ko doodh se bharne se pahle hi usne haath baDhakar ahista se ek baDi, lambe lambe haath panvon vali margilli si chitkabri billi ko pakaDkar bahar nikal liya. pal bhar use haath se thapthapaya aur phir use kale pute hue bakse mein Daal diya. Dhakkan band karke kunDi chaDha di. iske baad ek hainDil ghuma diya. ab us marne vale Dibbe mein gas bharne lagi. kale Dibbe mein halki halki uchhalkud hoti rahi aur wo taslon ko doodh se bharta raha. ek billi uske haath se satkar kaman jaisi duhri ho gai to wo muskra paDa. usne uski gardan pyaar se sahla di.
Dibbe mein ab shanti ho gai thi. usne hainDil ko ulta ghuma diya. zarur us randhrhin Dibbe mein Datkar gas bhari hogi.
angihti par matar se bhare gilas ke charon or pani buri tarah khaul raha tha. Dau० philips ne ek sanDasi se pakaDkar gilas bahar nikala aur use kholkar matar kaanch ki ek tashtari mein ulat diye. khate khate wo mez par rakhi un tarak machhliyon ko dekhta raha. kirnon ke beech mein dudhiya drav ki chhoti chhoti bunden pasij pasijkar nikal i theen. usne phatakne ki tarah bachi hui matar ek taraf phenk di aur jab sab phail gain to tashtari dhone vale naand mein rakhkar apni aujaron vali almari ki or baDha. yahan se usne ek anvikshan yantr aur kaanch ki tashtariyon ki ek gaDDi nikali. nal dvara ek ek karke in sari tashtariyon ko samudri pani se bhara aur tarak machhaliyon ke paas ek line mein unhen saja diya. apni ghaDi nikali aur ghani umaDti safed roshni ke niche mez par rakh diya. farsh ke niche lahren usmen bharti hui si khambhon ko sahla rahi theen. usne ek daraz se ankh mein dava Dalne vali kaanch ki ek pichkari nikali aur ek tarak machhli ke upar jhuk gaya.
theek usi samay lakDi ki siDhiyon par lapakti, dabe qadmon ki avaz ke saath saath darvaze par ek tez dastak sunai di. darvaza kholne jate hue naujavan ke chehre par jhunjhlahat ki halki talkhi jhalak uthi. darvaze mein ek patli dubli lambi si istri khaDi thi. wo bhanvar kala soot pahne thi. aur uske sidhe sidhe baal kale chapte mathe par niche tak ug aaye the. ab is tarah ast vyast the, mano andhi mein uDte rahe hon. tez roshni mein uski kali kali ankhen chamak rahi theen.
usne mulayam, rundhi si avaz mein puchha, “main bhitar aa jaun n? aapse kuch baten karna chahti hoon.
is samay to main bahut vyast hoon, usne beman se kaha, mujhe to sare kaam vaक़t par hi karne paDte hain. lekin wo darvaze se hatkar khaDa ho gaya tha. lambi istri tirchhi hokar bhitar aa gai.
“apko jab tak mujhse baat karne ki fursat nahin milegi, main chupchap baithi rahungi.
usne darvaza band kar liya aur sone ke kamre se us gair aramdeh kursi ko utha laya. “dekhiye”, usne mafi mangte hue kaha, kaary ki prakriya shuru ho gai hai aur mujhe usmen lagna hai. jane kitne adami yon hi chale aate hain aur duniya bhar ke saval puchhte hain. sadharan nasamajh logon ko sari kaary pranaali samjhane ke liye uske paas alag se koi sadhan ya suvidha nahin hai. unse to wo bina soche bol deta hai ki “aap yahan baithiye, do minat baad main apaki baten sununga.
wo lambi istri mez par upar jhuk i. ankh mein dava Dalne ki pichkari se doctor ne tarak machhliyon ki kirnon ke bichobich mein drav ikattha kiya aur pichch se pani ke pyale mein chhoD diya. iske baad usne kuch dudhiya drav sunta aur phir pichkari se pani ko dhire dhire hilaya. ab usne apna vahi vyakhyan bhashan jaldi jaldi bolna shuru kiya ha
“jab ye tarak machhliyan apne poorn viksit yauvan par aa chukti hain to halke jvaar ka khula vistar pakar inke sharir se veery kitanau aur Dimb nikalne lagte hain. kuch poorn yauvan vali tarak machhliyon ke namune chunkar aur unhen pani se bahar nikalkar main unhen halke jvar ki sari avastha aur vatavarn mein yahan rakhta hoon. ab mainne veery aur Dimbon ko mila diya hai. is ghol mein se thoDa thoDa lekar ab main in sab parikshan gilason mein rakhunga. das minat baad pahle gilas valon ko safed kapur Dalkar maar Dalunga, phir bees minat baad dusre varg ko marunga. aur phir isi tarah har bees minat baad nae varg ko marta jaunga.
isse main sari prakriya ko alag alag avasthaon mein pakaD sakunga aur is sari prakriya mala ko microscope ki kaanch ki slaiDon par jamakar jaivik adhyayan ke liye taiyar kar lunga. ” wo ruk gaya, aap is pahle varg ko anvikshan yantr se dekhengi?
nahin, shukriya.
tezi se wo uski or ghuma. log to hamesha gilason mein dekhne ko udhaar khaye rahte hain. wo mez ki taraf bilkul na dekhkar—dekh rahi thi, khu uski taraf. uski kali kali ankhen theen to uski disha mein, lekin lagta tha, use dekh nahin rahin. usne mahsus kiya, are! is istri ki ankhon ke tare to shesh putliyon ki tarah hi kale kale hain—putaliyon aur taron ke beech mein kisi bhi rang ki koi line nahin hai. doctor philips uske is javab se jhalla utha. yon use savalon ka javab dene se baDi ub hoti thi—kyonki isse haath ke kaam mein dilchaspi kam ho jati thi aur isi se use hamesha baDi koft hoti. ab uske man mein hua ki kisi tarah is istri ko uksaya jaye.
pahle das minat raah dekhne ke dauran hi mujhe ek kaam aur bhi karna hai. kuch log ise dekhana pasand nahin karte. achchha ho, jab tak main ise khatm karun, aap kuch der ke liye us kamre mein chali jayen.
nahin, usne apne usi mulayam aur sapat lahze mein kaha, apaki jo ichha ho so kijiye. mainne kaha na, aapko mujhse baat karne ki phursat hone tak main raah dekhungi. uske haath paas paas uski god mein rakhe the. wo baDe aram aur itminan se baithi thi. uski ankhen zarur chamkili theen, lekin baqi sab kuch aisa tha, mano bejan ho. doctor ne man hi man kaha, dekhne se lagta hai ki bahut hi dhimi raftar se manspeshiyan parivartan ki sthiti mein hain itni dhimi jitni meDhak ki hoti hai. istri ko uski is murdani se jhanjhoDane ki prabal ichha ne use phir avisht kar liya.
usne lakDi ka ek palna jaisa lakar mez par rakha, cheer phaaD karne ka chaku aur kainchi, pichakne vali nali mein lagi poli sui sanvarakar rakhi, phir marne vale Dibbe se usne us bejan murda billi ko nikala aur palne par rakhkar uski tangon ko idhar udhar lage hukon se baandh diya. kanakhiyon se usne istri ko dekha. usmen qatii koi harkat nahin thi. wo usi tarah ab bhi aram se baithi thi.
roshni mein billi mano daant nikalkar chiDha rahi thi. uski surkh jeebh nukile danton ke beech dabi thi. sadhe hue kushal hathon se doctor philips ne gale ke paas se uski khaal kaat Dali. chaku se chirphaDi karte hue usne hirdai se aur bhagon tak rakt le jane vali nali ko bahar nikal liya. apne achuk aur bejhijhak hathon se phusphus mein sui rakhkar anton se kaskar baandh diya. yah masaledar hai,” usne samjhaya, baad mein main injection ki sahayata se iske sare snayumanDal mein pila drav pahunchaunga, laal drav hirdai ki dhamniyon mein dunga. isse rakt pravah ka vishleshan kiya ja sakega, jaisa ki pranishastr ki kakshaon mein. . .
usne phir us istri ki taraf ghumkar dekha. uski ankhon par jaise dhool ki ek parat phaili thi. wo bhavanahin nigahon se billi ke kate hue gale ki taraf dekhe ja rahi thi. khoon ek boond bhi nahin gira, katai bahut hi saaf hui thi. doctor philips ne ghaDi dekhi ha pahle varg ka samay pura ho gaya. ’ usne safed kapur ke kuch chaukor chikne tukDe pahle vale parikshan gilas mein Dalkar hilaye.
istri ki upasthiti uske man mein tanav paida kar rahi thi. apne pinjre mein chuhe phir taar par ja chaDhe the aur dhire dhire choon choon kar rahe the. makan ke niche ki lahren khambhon par halke halke thapeDe maar rahi theen.
naujavan doctor ke sharir mein sheet ki ek jhurjhuri si i. usne angihti mein kuch koyle Dale aur aakar baith gaya. usne kaha, ab bees minat tak mujhe kuch nahin karna. usne dekha, istri ke nichle honth aur chibuk ke sire ke beech ki thoDi kitni zara si hai. laga, jaise wo dhire dhire jagi ho—mano chetna ke kisi gahre kuen se nikalkar bahar aa rahi ho. sir uncha utha, kali kali dhusar ankhen ek baar kamre mein charon or ghumin, phir doctor par aakar tik gain.
“main to raah dekh rahi thi,” wo boli. haath yon hi god mein paas paas rakhe rahe, apke paas saanp honge?
“kisaliye? ji haan, hain to. usne apekshakrit unche svar mein kaha, mere paas qarib do darjan amerikan saanp hain. unka zahr suntakar main vishnashak pryogshalaon mein bhej deta hoon.
wo lagatar use dekhe ja rahi thee; lekin uski ankhen jaise us par kendrit nahin ho pa rahi theen. lagta tha, jaise ve uske charon or ek baDe dayre mein dekh rahi hain—is tarah use charon or se ghere hue hain, “apke paas nar saanp hoga? mera matlab amerikan nar saanp?
“dekhiye, ittphaak hi hai. mera khayal hai mere paas hoga. ek din subah subah aaya to dekha ki ek baDa sa saanp ek chhoti nagin ke saath un un. . . ke saath sahvas kar raha tha. dekhiye, mujhe theek pata hai ki mere paas nar saanp hai.
hai kahan vah?
dekhiye, us khiDki ke paas kaanch ke pinjre ke theek niche.
uska sir dhime se udhar ghoom gaya, lekin uske donon shaant haath yon hi nishchal paDe rahe. wo phir uski or ghumi, “dekh sakti hoon n?
uthkar wo khiDki ke paas rakhe kaanch ke kes ke paas aa gaya. retile tale par ek dusre mein guntha sanpon ka gutthal paDa tha, lekin unke sir alag alag saaf dikhte the. jibhen bahar nikal ain aur ek kshan laplapati rahin. phir kanpan ke liye hava ko tatolti hui si upar niche lahrati rahin. doctor philips ne ghabrakar sir ghumaya. istri uske paas hi khaDi thi. wo kursi se kab uth i, doctor ko pata hi nahin laga. use to sirf khambhon ke beech mein pani ki chhapak chhapak sunai di thi ya taron ki jali par chuhon ka dauDna sunai diya tha.
istri ne dhire se puchha, jis nar saanp ke bare mein aap bata rahe the, wo kaun sa hai?
usne ek pinjre ke ek kone mein akele paDe mote se bhure bhure naag ki or ishara kiya, vo vala. hoga qarib paanch pheet lamba. taiksas praant ka hai. hamare prashant sagar ke kinaron vale saanp aksar chhote hote hain. ye sare chuhe haDap jate hain. jab mujhe dusre sanpon ko khilana hota hai to bahar nikal leta hoon.
istri jhukkar us bhonDe sukhe sukhe bhonthre sir ko ghurti rahi. duhri jeebh nikal i aur kafi der tak thartharati hui jhulti rahi, achchha, aapko yaqin hai ki ye saanp hi hai, sanpin nahin?
ye amerikan saanp hote baDe mazedar hain,” wo snigdh svar mein bola, iske bare mein jo samany siddhant nikaliye ghalat nikalta hai. amerikan sanpon ke bare mein nishchaypurvak to main bhi nahin bata paunga, lekin, ji haan, ye vishvas dilata hoon ki hai ye nar saanp hi.
uski nigahen us chapte se sir se nahin hilin, aap ise mere haath bechenge?
bechunga? wo cheekh sa paDa, apke hathon bechunga?
“aap to namune ki cheez bechte hain. kyon, bechte hain n?”
oh haan, ji haan bechta hoon, bechta to hoon.
kitne ka hai? paanch Dalar ka? das?
are, paanch se zyada ka nahin hai. lekin—apko kya in amerikan sanpon ke bare mein jankari hai? kahin aapko kaat watt na le!
pal bhar wo use dekhti rahi, main ise saath nahin le jana chahti, main to ise yahin rahne dungi. lekin chahti hoon, ye mera hokar rahe. chahti hoon ki main yahan aakar ise dekhun, khilaun aur manun ki ye mera hai. usne ek chhota sa batua kholkar paanch Dalar ka not nikal liya, lijiye ye, ab ye mera hua.
doctor philips ko ab Dar lagne laga, use dekhne to aap bina ise kharide bhi aa sakti hain!
“main chahti hoon ye mera ho.
oh gauD! doctor chilla utha, baton mein mujhe to samay ka bhi khayal nahin raha,” wo mez ki or lapka, “teen minat pure ho chuke. khair, koi khaas nuqsan nahin hua hoga. usne safed kapur ke tukDe dusre parikshan gilas mein ghole aur phir jaise wo khu ba khu vapas sanpon ke pinjre ke paas khinch gaya. istri abhi bhi usi saanp ko ghure ja rahi thi.
“istri ne puchha, “khata kya hai yah?
main to ise safed chuhe khilata hoon. us taraf vale pinjre ke chuhe.
ise aap dusre pinjre mein rakhenge? main ise khilana chahti hoon.
lekin is samay ise khane ki zarurat hi nahin hai. apne is hafte ka chuha ye hazrat pahle hi kha chuke hain. kabhi kabhi to ye log teen teen, chaar chaar mahinon tak kuch nahin khate. mere paas ek saanp tha, usne ek saal se upar tak kuch bhi nahin khaya.
doctor ne kandhe jhatke, “aap apne saanp ko khate dekhana chahti hain? achchhi baat hai. main khilata hoon. ek chuhe ka daam pachchis sent hoga. ek taraf se dekhen to saanp ka chuhe ko khana sanDon ki laDai se bhi zyada mazedar drishya hai aur dusri taraf se dekhen to ye sirf saanp ke bhoj karne ka ek tariqa hai. uske lahze mein kaDvahat aa gai thi. prakritik karyaklap ko jo log khel aur kriDa bana Dalte hain—unse use nafar thi. wo khilaDi nahin, jeev shastari tha. gyaan ke liye wo hazaron jivon ki hattya kar sakta hai, lekin anand ke liye ek kiDa marana bhi uske liye mushkil hai—yah uske dimagh mein pahle se hi ekdam saaf tha.
istri ne dhire dhire apna sir uski or ghumaya aur uske patle patle honthon par muskrahat jhalak uthi, main apne saanp ko khilana chahti hoon, wo boli, main ise dusre pinjre mein rakhungi. usne pinjre ke upar ka Dhakkan khol liya tha. isse pahle ki doctor jane ki wo kya kar rahi hai, usne apna haath bhitar Daal diya. doctor ekdam chhalang lagakar uske paas pahuncha aur jhat use pichhe kheench liya. Dhakkan dhaD se girkar band ho gaya.
“apko aql hai ya nahin? usne ghusse se puchha, “ho sakta hai, wo aapko jaan se na marta; lekin apaki tabiyat zarur achchhi tarah durust kar deta, phir meri laakh koshishon ke baad bhi aapko tare nazar aate rahte.
wo nirudvign shaant bhaav se boli, to phir aap hi ise dusre pinjre mein rakh dijiye.
Dau० philips ko jaise kisi ne jhakjhor Dala. use mahsus hua ki jo ankhen kisi ko bhi dekhti nahin lag rahi hain—vah unhen sidhe dekhne se qatra raha hai. use laga ki pinjre mein chuha Dalna nihayat hi ghalat hai—jaise ismen koi ghor paap hai. lekin aisa sab use kyon laga, wo khu nahin jaan paya. jab bhi kisi aire ghaire ne chaha hai, usne pinjre mein chuhe Dale hain; lekin aaj raat, is vishesh ichha ne use itna asvasth aur asantulit bana Dala hai ki man kharab ho gaya hai. wo khu apne liye is sari baat ko samajhne ki koshish karta raha.
“yon ise dekhana hai to baDa achchha,” wo bola, isse aapko pata chalega ki saanp kaise apna kaam karta hai? isse ye bhi lagta hai ki aapke dil mein amerikan sanpon ke liye izzat hai, lekin ek baat aur bhi hai, saanp kis tarah apne shikar ko marta hai, ise lekar hazaron logon ke ajab ajab khaufnak khayalat hote hain. mujhe lagta hai, iska karan chuhe ke saath apna tadatmy kar lena hai. us samay chuha vekti ka apna pratibimb ho jata hai. lekin ek baar aap ise apni ankhon se dekh len, to sari cheez baDi hi nirpeksh aur tatasth lagegi. chuha keval shuddh chuha rah jata hai aur sara khauf hava ho jata hai.
usne divar par lagi ek lambi si chhaDi utha li, ismen ek sarakne vala chamDe ka phanda laga tha. jaal kholkar usne phanda baDe saanp ke sir par Dalkar khincha aur gaanth ko kas diya. ek karnabhedi khaDkhaDahat sare kamre mein bhar gai. jab usne saanp ko uthakar khane vale pinjre mein Dala to chhaDi ki mooth par saanp ka mota sa sharir buri tarah lipat gaya tha. kuch der to us pinjre mein wo hamla karne ko taiyar tana khaDa raha, lekin phir dhire dhire uski phuphkaren band ho gain. saanp rengta hua kone mein sarak gaya aur apne sharir ko hindi ke ank chaar ki shakl mein Dalkar chupchap let gaya.
‘‘dekha apne! naujavan doctor ne samjhaya, ye saanp kafi paltu hain. mere paas to ye kafi dinon se hain. mera khayal hai ki agar main chahun to inhen hi apna karyakshaetr bana sakta hoon, lekin jo bhi in amerikan sanpon ko apna karyakshaetr banata hai, der saber inke danton ka shikar ho jata hai aur is tarah taक़dir ke saath khilvaD karne ka mera qatii irada nahin hai. usne istri ko nazar bharkar dekha. pinjre mein chuha Dalna use achchha nahin lag raha tha—jaise baDi vitrshnaa ho rahi ho. istri ab nae pinjre ke samne ja pahunchi thi. uski kali kali ankhen phir saanp ke pathrile sir ko takatki lagaye dekhe ja rahi theen.
boli, chuha Daliye na bhitar!
baDe beman se wo chuhon ke pinjre ki or baDha. jane kyon, use chuhe par baDa taras aa raha tha. is tarah to usne pahle kabhi bhi mahsus nahin kiya. taar ki jali ke pichhe apni or ulachhte safed safed shariron vale chuhon ke khachpach khachpach karte Dher ko uski ankhen tatolti si dekhti rahin. kaun sa ho? usne man hi man kaha, inmen se kaun sa chuha ho? achanak ghusse se wo istri ki taraf ghoom paDa, aap se kahen to chuhe ki bajay ek billi na rakh doon bhitar? tab aap dekhengi ki sachmuch ki laDai kya hoti hai? billi, ho sakta hai jeet bhi jaye, lekin agar wo jeet gai to ho sakta hai saanp ka kaam tamam kar Dale. aap chahen to main aapke haath ek billi bech sakta hoon.
istri ne uski or muDkar dekha tak nahin, ek chuha rakh dijiye bhitar,” wo boli, ‘‘main to ise khana khilana chahti hoon.
doctor ne chuhon ka pinzra khola aur apna haath bhitar thoons diya. ungliyon ki pakaD mein poonchh aa gai to usne ek laal laal ankhon vale gol matol chuhe ko khinchkar upar utha liya. pahle to wo uski ungliyon ko katne ki koshish mein chhataptaya, par phir harkar charon haath paanv phailakar chupchap bejan ki tarah poonchh se latka raha. doctor tezi se kamra paar karke aaya, khane vale pinjre ka Dhakkan khola aur chuhe ko farsh par saanp ke upar phenk diya.
lijiye, dekhiye ab. usne lagbhag chikhkar kaha.
chuha panvon ke bal gira, charon taraf ghuma aur apni surkh nangi poonchh ki taraf soon soon karta raha. phir nathune phulakar sunghte hue wo nihayat tatasth bhaav se ret par dauD lagane laga. kamre mein ekdam stabdhata chhai thi. doctor philips ki samajh mein nahin aaya ki niche ke khambhon mein pani hi usansen le raha hai ya istri ki sansen gahri gahri chalne lagi hain. ek kankhi se usne dekha, istri ka sharir ainth aur tan sa gaya hai.
bahut hi ahista aur dhire dhire saanp aage sarka. jeebh bahar aur bhitar lapalpane lagi. sari harkat itni namalum, ahista aur dhire dhire ho rahi thi ki lagta hi nahin tha ki saanp ke bhitar koi harkat ho bhi rahi hai. pinjre ke dusre sire par chuha atmabhiman se tana hua sa baith gaya tha aur sir jhukakar apni chhati ke mulayam, muhin muhin balon ko chatne laga tha. apni gardan ko driDhtapurvak roman akshar s ki shakl mein rakhe hue saanp aage sarak raha tha.
chuppi naujavan ke sir par mano dhak dhak baj rahi thi. use laga, jaise khoon uske sharir mein sannane laga hai. usne unche svar mein kaha, dekhiye, saanp hamla karne ke liye sir ke maroD ko hamesha taiyar rakhta hai. ye amerikan saanp baDe hi chaukanne hote hain. kahna chahiye baDe hi Darpok jeev hote hain. ye sari karyavahi behad nazuk hoti hai. jaisi kushalta aur chaturai se surgeon apna kaam karta hai, theek usi tarah saanp ka bhojan bhi baDi kushalta aur savadhani se hota hai. surgeon janta hai ki kis jagah kaun aujar kaam ayega—vahan wo is ya us aujar ko prayog karne ka jokhim nahin utha sakta.
ab tak saanp pinjre ke bichobich sarak aaya tha. chuhe ne sir uthaya, saanp ko dekha aur phir usi tatasthata aur itminan se apni chhati ko chatne laga.
duniya ki ye sabse khubsurat aur akarshak cheez hai,” naujavan ne bataya. khoon uski nason mein bajne laga tha, saath hi ye duniya ki sabse khaufnak cheez bhi hai.
saanp ab paas aa gaya tha. ab uska sir ret se kuch inch uncha uth aaya tha. duri ka andaz lagata hua sir ghaat lagaye hue aage pichhe jhoom raha tha. doctor philips ne phir istri ki or nigahen ghumain. uttejna aur bhay se wo sihar utha. wo ab bhi jhoom rahi thi. . . zyada nahin, lekin bahut hi halke halke bemalum si, sirf lagti thi.
chuhe ne phir sir uthaya aur saanp ko dekha. wo charon panvon ke bal gira aur yon hi sir saanp ki taraf kiye kiye pichhe sarka—ki tabhi khat. . . ek bijli si kaundhi. kuch bhi dekh pana asambhau tha. jaise kisi adrshy jhapate ke niche aa gaya ho, chuha is tarah chinchiya utha. saanp tezi se phir apne usi pahle vale kone mein laut aaya aur phir vahin let gaya—han, uski jeebh abhi bhi lagatar lapalpa rahi thi.
kamal hai! doctor philips chilla utha, theek kandhon ki haDDiyon ke bichobich chot ki hai. daant qarib qarib dil tak pahunch gaye honge.
chhoti safed dhaunkni ki tarah chuha abhi bhi khaDa khaDa haanph raha tha. sahsa wo ekdam upar uchhla aur karvat ke bal gir paDa. ek second uske paanv ainthne se hava mein chhataptate rahe aur phir paran pakheru uD gaye.
istri ne mukti ki saans chhoDkar badan Dhila kiya, jaise neend mein sharir Dhila chhoD diya ho.
kyon? is baar naujavan doctor ne puchha, yah manasik udveg ke sagar mein gahre snaan karne jaisa hi lagta hai n?
istri ne apni dhundhli dhundhli ankhen uski or ghumain, ab kya ye ise kha jayega? usne saval kiya.
bilkul khayega. keval khilvaD ke liye to isne ise nahin mara. mara isliye hai ki bhukha tha. istri ke munh ke siron par phir halki si ainthan i. wo phir saanp ko dekhne lagi, main ise khate hue dekhana chahti hoon.
saanp phir apna kona chhoDkar bahar nikal aaya. ab uski gardan mein wo hamla karne vali maroDan nahin thi. lekin wo jaise phoonk phunkakar udhar sarak raha tha—man lo, agar chuha hamla kar bhi de to wo uchhalkar pichhe aa jayega. apni bhonthri naak se usne chuhe ko kondha aur phir pichhe simat aaya. use santosh ho gaya ki chuha mar gaya hai. phir sir se lekar poonchh tak saanp ne uske sharir ko apni thoDi se sahlaya. laga jaise wo sharir ka jayaज़a leta hua pyaar se use choom raha ho. akhiraka usne apna munh khola aur apne jabDon ke siron par jeebh firai.
Dau० philips apni sari ichchhashakti lagakar us istri ki or jane se apne dhyaan ko roke tha. usne man hi man kaha, agar ye bhi apna munh khole hogi to mera bhi dimagh kharab ho jayega. mujhe Dar lagne lagega’ apni nigahen udhar se hataye rakhne mein use kaise saphalta mili, ye vahi janta tha.
saanp ne apna jabDa chuhe ke sir par aDaya aur ruk rukkar dhire dhire lakve ke jhatkon ki tarah chuhe ko nigalne laga. jabDe phanse to sara gala aage simat aaya. jabDon ne phir dubara apni pakaD theek ki.
ghumkar doctor philips apni kaam karne ki mez par laut aaya. talkhi se bola, apke karan meri prakriya mala ki ek kaDi yon hi nikal gai n? ab ye sara sait kabhi pura nahin hoga. ek parikshan gilas ko usne kam shakti vale anvikshan yantr ke niche rakhkar use dekha. phir jhallakar usne sari tashtariyon ke padarth ko bartan dhone ki naand mein ulat diya. lahren ab kam ho gai theen, isliye ab farsh ke paar se sila sila bhabhka hi aa pa raha tha. naujavan doctor ne apne panvon ke paas hi ek kamani vale darvaze ka palla uthaya aur sari tarak machhliyan niche samudr ke kale kale pani mein ulat deen. palne ki suli par baDhi roshni mein uphaas se munh birati, daant chamkati hui billi ke paas aakar wo kuch der ruka. nali dvara pravisht hone vale drav ke karan uska sharir phulkar kuppa ho gaya tha. usne nali band ki, sui nikali aur nas ko kaskar baandh diya.
“aap thoDi si coffe piyengi kyaa? usne puchha.
nahin dhanyavad! mujhe abhi jaldi hi chale jana hai.
saanp ke pinjre ke paas wo khaDi thi. doctor uske paas aa gaya. chuha nigla ja chuka tha—bus, saanp ke munh ke bahar uski ek inch laal laal poonchh is tarah nikli hui thi, mano kisi ko chiDhane ko jeebh nikal rakhi ho. gale ne phir bhitar ki taraf saans khinchi aur poonchh bhi ghayab ho gai. jabDe apne apne khanon mein satkar baith gaye aur wo baDa saanp alsaya sa rengkar kone mein aa gaya. baDa sa chaar ka ank banaya aur ret par apna sir Dalkar so gaya.
ise to ab neend aa gai,” istri ne kaha, ab main ja rahi hoon. lekin main thoDe thoDe samay baad aakar apne saanp ko khana khilaya karungi. chuhon ke paise de dungi, lekin ise ji bharkar khilana chahti hoon aur phir kisi samay apne saath le jaungi. ek kshan ko apne dhusar dhumil sapnon se uski ankhen paar nikal ain, yaad rakhiye, ye mera hai. iska zahr mat nikaliyega. meri ichha hai, zahr ismen hi rahe. achchha namaskar! tezi se wo darvaze ki taraf baDhi aur bahar chali gai. doctor ne uske jate qadmon ki avaz ko siDhiyon par suna, lekin phir niche ke farsh par uske chalne ki avaz sunai nahin di.
doctor philips ne ek kursi ghumakar apni or ki aur saanp ke pinjre ke samne hi baith gaya. us nishchal saanp ki or nigahen tikaye hue wo apne vicharon ki gutthi suljhane ki koshish karta raha. man hi man bola manovaigyanik yaun prtikon ke bare mein mainne itna kuch paDha hai; lekin wo sab ise samajhne mein madad karta nahin lagta. shayad main sabse bahut zyada alag paD gaya hoon. ho sakta hai, main is saanp ko maar Dalun. kaash, main jaan pata! lekin is sabko janne ke liye main pararthna karne kisi bhagvan ke paas nahin jaunga.
hafton wo uske lautne ki raah dekhta raha. usne nishchay kiya, is baar jab wo ayegi to main use akela chhoD bahar chala jaunga. us kambakht ko dubara dekhunga hi nahin.
magar wo phir kabhi vapas nahin i. wo jab bhi basti mein bahar ghumne jata to mahinon use talash karta. kai baar to kisi bhi lambi si istri ko vahi samajhkar uske pichhe ho leta, lekin wo istri use phir kabhi dikhai nahin di.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 220-232)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : जॉन अर्नेस्ट स्टैनबेक
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।