कोरा नाम एक आदमी का था, जो भूमि जोतता था। जब उसने कुछ पैसे बचा लिए तो वह एक ग़ुलाम ख़रीदने शहर गया।
ग़ुलामों का व्यापार करने वाले ने उसे कई ग़ुलाम दिखाए, लेकिन कोरा को तसल्ली नहीं हुई।
“लगता है कि तुम चाहते हो मैं सारे ग़ुलामों को यहाँ बाहर घसीट लाऊँ,” व्यापारी ने भुनभुनाते हुए कहा। दुपहर का समय था और सारे ग़ुलाम सोए हुए थे।
“मैं और कहीं तो जा ही सकता हूँ।” कोरा ने आराम से कह दिया।
“ठीक है, ठीक है!” व्यापारी ने ज़ंजीर खींची और ग़ुलाम नींद में चलते हुए बाहर निकल पड़े। कोरा ने उन सबको देखा और बड़ी सावधानी से उन्हें परखा।
“इसे टटोलकर देखो, यह बढ़िया तगड़ा आदमी है,” कहते हुए व्यापारी ने एक ग़ुलाम को धकेलकर आगे कर दिया, “क्या सोचते हो इसके बारे में? है न कड़ियल सीना? इसे ठोककर देखो। और ये कलाइयाँ देखो; नसें ऐसी हैं, जैसे किसी वायलिन के तार! अपना मुँह खोलो!”
व्यापारी ने ग़ुलाम के मुँह में एक उँगली घुसेड़ी और उसे रोशनी की ओर घुमा दिया, “अब तुम इसके मज़बूत दाँत देखो।” उसने डींग हाँकी। उसने ग़ुलाम के दाँतों पर उलटा चाकू घुमाया, “देखो! ये दाँत लोहे जैसे हैं। ये कील के दो टुकड़े कर सकते हैं।”
कोरा ने फिर भी अपने मन में कुछ विचार किया। उसने ग़ुलाम का मूल्य आँकने के लिए उसके जिस्म पर हाथ फेरा। चिकनी मांसपेशियों को अपनी उँगलियों के पोरों से दबा-दबाकर देखा कि वे कसी हुई हैं या नहीं। आख़िर उसने उसे ख़रीदने का मन बना लिया। मुँह बिचकाकर उसका दाम चुकाया और उसकी ज़ंजीर खुलवाकर उसे अपने घर ले आया।
अभी कुछ ही दिन हुए थे कि ग़ुलाम बीमार पड़ गया और व्यथित होकर सूखने लगा। अब क्योंकि वह बाज़ार में नहीं रह गया था बल्कि हमेशा के लिए एक जगह जम गया था, सो उसे उन जंगलों की याद सताने लगी, जहाँ से वह आया था। यह अत्यंत शुभ संकेत था; कोरा को इन लक्षणों की जानकारी थी। एक दिन जीवन में निराश ग़ुलाम पीठ के बल लेटा हुआ था तो वह उसकी बगल में आकर बैठ गया और सोच में भरकर उससे बातें करने लगा।
“तुम अपने जंगलों को वापस जाओगे, डरो मत। मैं तुमसे यह वादा करता हूँ और मेरे वादों पर भरोसा करो। तुम अभी भी जवान हो, तुम्हें पता है...अगर तुम मन से और मेहनत से पाँच साल तक मेरे खेत जोतोगे तो मैं तुम्हें तुम्हारी आज़ादी दे दूँगा, भले ही मैं तुम्हारा पैसा दे चुका हूँ। पाँच साल। सौदा अच्छा है?”
और ग़ुलाम ने काम किया। किसी दैत्य की तरह वह डट गया। कोरा अपने दरवाज़े पर बैठकर साँवली चमड़ी के नीचे ग़ुलाम की उन मांसपेशियों को गठते और थरथराते देखता और उसे इसमें आनंद आता, और वह दिन में कई-कई घंटे यह आनंद लेता क्योंकि और करने के लिए उसके पास कोई काम था भी नहीं। उसे यह समझ में आने लगा कि शरीर एक सुंदर और आँखों को आनंद देने वाली चीज़ है।
पाँच साल ग़ुलाम ने हिसाब लगाया—यानी उतने अयनकाल, जितनी कि उसके हाथों में उँगलियाँ थीं। सूरज को दस बार घूमना था। हर शाम वह सूरज को डूबता देखता और पत्थरों और टेकरियों पर निशान लगाकर समय की गिनती का हिसाब रखता। जब सूरज पहली बार घूमा तो उसने अपने दाहिने हाथ के अँगूठे पर गिनती की। एक और अयनकाल बीतने पर। और यह उसे अनंत काल लगा—तर्जनी स्वतंत्र हो गई। दूसरी उँगलियों की अपेक्षा उसे इन दो उँगलियों से अधिक प्रेम था। दूसरी उँगलियाँ अभी भी उसकी दासता की गिनती कर रही थीं।
इस तरह दिनों तक हिसाब रखना और समय बीतने के निशान लगाना, उस ग़ुलाम का धर्म, उसकी आंतरिक संपदा और उसका आत्मिक ख़ज़ाना हो गई, जिसे न तो कोई उससे ले सकता था और न इसे लेकर उससे विवाद कर सकता था।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, उसकी गणनाएँ बढ़ती गईं, और भी व्यापक तथा गहन होती गईं। साल ऐसी असीम अमूर्तताओं के समान निकलते चले गए, जिन्हें वह थामकर नहीं रख सकता था; सृजन करता और अपनी आस्था की पुनः प्रतिष्ठा करता। समय, जो वर्तमान में क्षणभंगुर था, वही अतीत होने पर अनंत दिखाई देता; और भविष्य अनंत रूप से दूर दिखता।
इस तरह से उस ग़ुलाम की आत्मा गहन हो गई। जैसे उसकी उत्कंठा ने समय को अनंतता प्रदान की, वैसे ही उसका संसार अनंत और उसके विचार असीम हो गए। हर शाम वह ग़ुलाम विचारमग्न होकर सुदूर पश्चिम को ताकता, और हरेक सूर्यास्त उसकी आत्मा में अधिकाधिक गहनता लेकर आता।
जब अंतत: पाँच साल की अवधि बीत गई—शब्दों में कहना बहुत आसान है—तो वह ग़ुलाम अपने मालिक के पास आया और अपनी आज़ादी की माँग की। वह जंगलों में अपने घर को जाना चाहता था।
“तुमने बहुत वफ़ादारी से काम किया है,” कोरा ने मनन करते हुए स्वीकार किया।
“मुझे बताओ तुम्हारा घर कहाँ है? क्या पश्चिम में है? मैंने अकसर तुम्हें उस दिशा में ताकते देखा है।”
हाँ, उसका घर पश्चिम में है।
“तब तो वह बहुत दूर है?” कोरा ने कहा...ग़ुलाम ने सिर हिलाया...बहुत दूर।
“और तुम्हारे पास बिल्कुल भी पैसा नहीं है, क्यों?”
ग़ुलाम ख़ामोश था, वह निराश हो गया था। नहीं, यह सच था, उसके पास बिल्कुल भी पैसा नहीं था।
“देखो, तुम पैसे के बिना कहीं भी नहीं जा सकते। अगर तुम तीन साल और मेरे लिए काम करो...नहीं, चलो दो साल के लिए...तो मैं तुम्हें तुम्हारे सफ़र लायक काफ़ी पैसे दे दूँगा।”
ग़ुलाम ने अपना सिर झुकाया और फिर जुत गया। उसने बहुत अच्छी तरह से काम किया, लेकिन पहले की तरह उसने दिनों के बीतने का कोई हिसाब अब नहीं रखा। इसके विपरीत वह दिवास्वप्न देखने लगा; कोरा को नींद में उसके कराहने और बड़बड़ाने की आवाज़ सुनाई देती। कुछ समय बाद वह फिर बीमार पड़ गया।
तब कोरा उसकी बगल में बैठा और उसने बहुत देर तक गंभीर होकर उससे बातें की। उसकी बातचीत में सूझबूझ और बुद्धिमानी की झलक मिलती थी, मानो ईमानदारी भरे अनुभव में पगी हो।
“मैं बूढ़ा आदमी हूँ,” वह बोला,” अपनी जवानी के दिनों में मैं भी पश्चिम के लिए तड़पता था; विराट जंगल मुझे बुलाते थे। लेकिन मेरे पास कभी भी सफ़र लायक पैसा नहीं हुआ। अब मैं वहाँ कभी नहीं जाऊँगा—अब तो मेरे मरने के बाद मेरी आत्मा ही वहाँ जाएगी। तुम तो जवान और योग्य हो, और तुम मेहनती भी हो, लेकिन क्या तुम उससे भी ज़्यादा मज़बूत और योग्य हो जितना कि अपनी जवानी के दिनों में मैं था? इस सब पर विचार करो, और एक बूढ़े आदमी की सलाह पर कान दो। और फिर से स्वस्थ हो जाने की जुगत करो।”
लेकिन वह ग़ुलाम धीरे-धीरे सुधरा, और जब उसने फिर से काम सँभाला तो उसमें वह पहले वाला जोश नहीं था। अब वह आसानी से समर्पण कर देता, उसकी महत्त्वाकांक्षा मर चुकी थी और उसको काम के बीच में लेटना और सोना अच्छा लगने लगा था। तब एक दिन कोरा ने उसे कोड़े लगाए। इससे उसका भला हुआ और वह रोया।
इस तरह वे दो साल निकल गए।
तब कोरा ने सचमुच उस ग़ुलाम को उसकी आज़ादी दे दी। वह पश्चिम दिशा में चला गया; लेकिन महीनों बाद वह अत्यंत दयनीय स्थिति में वापस आ गया। वह अपने जंगलों को ढूँढ़ने में असमर्थ रहा था।
“देखा तुमने?” कोरा ने कहा, “मैंने तुमको चेताया था न? लेकिन कोई यह नहीं कहेगा कि मैं तुम्हारे लिए अच्छा नहीं हूँ। एक बार फिर कोशिश करो और इस बार पूर्व दिशा में जाओ। हो सकता है तुम्हारे जंगल उसी दिशा में हों।”
एक बार फिर वह ग़ुलाम चल दिया, इस बार उसका मुँह उगते सूरज की ओर था और अंत में, इधर-उधर खूब भटक लेने के बाद, वह अपने जंगलों में आ पहुँचा। लेकिन वह तो उन्हें जानता ही नहीं था। थके-माँदे और परास्त! ग़ुलाम ने अपना मुँह पश्चिम की ओर किया और अपने मालिक के पास वापस आ गया; और उसने अपने मालिक से कहा कि हालाँकि उसे जंगल मिल गए थे, बड़े जंगल भी और छोटे भी, फिर भी वे उसके अपने जंगल नहीं थे।
'हुक्म!” कोरा खाँसा।
“मेरे पास रहो,” फिर उसने गरमजोशी से कहा, “जब तक मैं ज़िंदा हूँ, तुम्हें इस धरती पर कभी घर की कमी नहीं होगी। और जब मैं अपने पुरखों में जा मिलूँगा तो मेरा बेटा इस बात का ध्यान रखेगा कि तुम्हें किसी बात की परेशानी न हो।” इस तरह वह ग़ुलाम अपने मालिक के पास ही ठहर गया।
कोरा बूढ़ा हो गया, लेकिन उसका ग़ुलाम अभी भी जवान था। कोरा उसे अच्छी तरह खिलाता-पिलाता था, ताकि वह अधिक दिन तक जी सके और उसे साफ़ रखता था ताकि उसका स्वास्थ्य बना रहे, और बीच-बीच में उसे कोड़े भी मारता रहता था ताकि वह विनम्र और आदरपूर्ण रहे। वह उसे विश्राम देने में भी कोताही नहीं करता था; हर इतवार को ग़ुलाम को इस बात की आज़ादी होती थी कि वह किसी टीले पर बैठकर पश्चिम को ताके।
कोरा के खेतों में बहुतायत से फ़सल होने लगी। वह जंगल ख़रीदकर उन्हें साफ़ करवाता और फिर उनमें हल चलवाता ताकि उसके ग़ुलाम के पास काम की कमी नहीं हो; और वह ग़ुलाम मन से पेड़ गिराता। कोरा अब पैसे वाला हो गया था और एक दिन वह एक ग़ुलाम औरत को घर लेकर आया।
साल बीतते गए और कोरा के मकान में छ: तगड़े ग़ुलाम लड़के पलकर बड़े हुए। अपने पिता के समान ही वे भी कड़ी मेहनत करते थे। काम करने से ही व्यक्ति का समय कटता है, उनके पिता ने उन्हें बताया, और जब समय कट जाता है तो थकान हमें अनंत जंगलों में उड़ा ले जाती है। हर विश्राम के दिन वह अपने बेटों को टीले के ऊपर ले जाता, जहाँ से वे डूबते सूरज को देख सकते थे और वह उन्हें सिखाता कि उत्कंठित कैसे रहा जाता है।
कोरा बूढ़ा और जीर्ण हो गया था। सच में तो वह हमेशा से बूढ़ा ही था, लेकिन अब उसमें बुढ़ापे को छोड़ और कुछ नहीं बचा था। उसका बेटा कभी मज़बूत नहीं रहा था, लेकिन उन्हें किसी से डरने की ज़रूरत ही नहीं थी, क्योंकि उनमें से एक-एक ग़ुलाम ऐसा था कि किसी भी आदमी को लाठी के एक वार में ही गिरा सकता था। वे शानदार लोग थे; उनकी इस्पाती मांसपेशियों पर मांस कसा हुआ था और उनके दाँत चीते जैसे थे। लेकिन ज़माना काफ़ी सुरक्षित था। ये ग़ुलाम अपनी कुल्हाड़ियाँ चलाते और पेड़ गिराते।
kora naam ek adami ka tha, jo bhumi jotta tha. jab usne kuch paise bacha liye to wo ek ghulam kharidne shahr gaya.
ghulamon ka vyapar karne vale ne use kai ghulam dikhaye, lekin kora ko tasalli nahin hui.
“lagta hai ki tum chahte ho main sare ghulamon ko yahan bahar ghasit laun,” vyapari ne bhunabhunate hue kaha. duphar ka samay tha aur sare ghulam soe hue the.
“main aur kahin to ja hi sakta hoon. ” kora ne aram se kah diya.
“theek hai, theek hai!” vyapari ne zanjir khinchi aur ghulam neend mein chalte hue bahar nikal paDe. kora ne un sabko dekha aur baDi savadhani se unhen parkha.
“ise tatolkar dekho, ye baDhiya tagDa adami hai,” kahte hue vyapari ne ek ghulam ko dhakelkar aage kar diya, “kya sochte ho iske bare men? hai na kaDiyal sina? ise thokkar dekho. aur ye kalaiyan dekho; nasen aisi hain, jaise kisi vayalin ke taar! apna munh kholo!”
vyapari ne ghulam ke munh mein ek ungli ghuseDi aur use roshni ki or ghuma diya, “ab tum iske mazbut daant dekho. ” usne Deeng hanki. usne ghulam ke danton par ulta chaku ghumaya, “dekho! ye daant lohe jaise hain. ye keel ke do tukDe kar sakte hain. ”
kora ne phir bhi apne man mein kuch vichar kiya. usne ghulam ka mooly ankane ke liye uske jism par haath phera. chikni manspeshiyon ko apni ungliyon ke poron se daba dabakar dekha ki ve kasi hui hain ya nahin. akhir usne use kharidne ka man bana liya. munh bichkakar uska daam chukaya aur uski zanjir khulvakar use apne ghar le aaya.
abhi kuch hi din hue the ki ghulam bimar paD gaya aur vyathit hokar sukhne laga. ab kyonki wo bazar mein nahin rah gaya tha balki hamesha ke liye ek jagah jam gaya tha, so use un jangalon ki yaad satane lagi, jahan se wo aaya tha. ye atyant shubh sanket tha; kora ko in lakshnon ki jankari thi. ek din jivan mein nirash ghulam peeth ke bal leta hua tha to wo uski bagal mein aakar baith gaya aur soch mein bharkar usse baten karne laga.
“tum apne jangalon ko vapas jaoge, Daro mat. main tumse ye vada karta hoon aur mere vadon par bharosa karo. tum abhi bhi javan ho, tumhein pata hai. . . agar tum man se aur mehnat se paanch saal tak mere khet jotoge to main tumhein tumhari azadi de dunga, bhale hi main tumhara paisa de chuka hoon. paanch saal. sauda achchha hai?”
aur ghulam ne kaam kiya. kisi daity ki tarah wo Dat gaya. kora apne darvaze par baithkar sanvli chamDi ke niche ghulam ki un manspeshiyon ko gathte aur thartharate dekhta aur use ismen anand aata, aur wo din mein kai kai ghante ye anand leta kyonki aur karne ke liye uske paas koi kaam tha bhi nahin. use ye samajh mein aane laga ki sharir ek sundar aur ankhon ko anand dene vali cheez hai.
paanch saal ghulam ne hisab lagaya—yani utne ayankal, jitni ki uske hathon mein ungliyan theen. suraj ko das baar ghumna tha. har shaam wo suraj ko Dubta dekhta aur pattharon aur tekariyon par nishan lagakar samay ki ginti ka hisab rakhta. jab suraj pahli baar ghuma to usne apne dahine haath ke anguthe par ginti ki. ek aur ayankal bitne par. aur ye use anant kaal laga—tarjani svatantr ho gai. dusri ungliyon ki apeksha use in do ungliyon se adhik prem tha. dusri ungliyan abhi bhi uski dasta ki ginti kar rahi theen.
is tarah dinon tak hisab rakhna aur samay bitne ke nishan lagana, us ghulam ka dharm, uski antrik sampada aur uska atmik khazana ho gai, jise na to koi usse le sakta tha aur na ise lekar usse vivad kar sakta tha.
jaise jaise samay bitta gaya, uski gannayen baDhti gain, aur bhi vyapak tatha gahan hoti gain. saal aisi asim amurttaon ke saman nikalte chale gaye, jinhen wo thamkar nahin rakh sakta tha; srijan karta aur apni astha ki pun pratishtha karta. samay, jo vartaman mein kshanabhangur tha, vahi atit hone par anant dikhai deta; aur bhavishya anant roop se door dikhta.
is tarah se us ghulam ki aatma gahan ho gai. jaise uski utkantha ne samay ko anantta pradan ki, vaise hi uska sansar anant aur uske vichar asim ho gaye. har shaam wo ghulam vicharamagn hokar sudur pashchim ko takta, aur harek suryast uski aatma mein adhikadhik gahanta lekar aata.
jab anttah paanch saal ki avadhi beet gai—shabdon mein kahna bahut asan hai—to wo ghulam apne malik ke paas aaya aur apni azadi ki maang ki. wo jangalon mein apne ghar ko jana chahta tha.
“tumne bahut vafadari se kaam kiya hai,” kora ne manan karte hue svikar kiya.
ghulam khamosh tha, wo nirash ho gaya tha. nahin, ye sach tha, uske paas bilkul bhi paisa nahin tha.
“dekho, tum paise ke bina kahin bhi nahin ja sakte. agar tum teen saal aur mere liye kaam karo. . . nahin, chalo do saal ke liye. . . to main tumhein tumhare saफ़r layak kafi paise de dunga. ”
ghulam ne apna sir jhukaya aur phir jut gaya. usne bahut achchhi tarah se kaam kiya, lekin pahle ki tarah usne dinon ke bitne ka koi hisab ab nahin rakha. iske viprit wo divasvapn dekhne laga; kora ko neend mein uske karahne aur baDbaDane ki avaz sunai deti. kuch samay baad wo phir bimar paD gaya.
tab kora uski bagal mein baitha aur usne bahut der tak gambhir hokar usse baten ki. uski batachit mein sujhbujh aur buddhimani ki jhalak milti thi, mano imandari bhare anubhav mein pagi ho.
“main buDha adami hoon,” wo bola,” apni javani ke dinon mein main bhi pashchim ke liye taDapta tha; virat jangal mujhe bulate the. lekin mere paas kabhi bhi saफ़r layak paisa nahin hua. ab main vahan kabhi nahin jaunga—ab to mere marne ke baad meri aatma hi vahan jayegi. tum to javan aur yogya ho, aur tum mehnati bhi ho, lekin kya tum usse bhi zyada mazbut aur yogya ho jitna ki apni javani ke dinon mein main tha? is sab par vichar karo, aur ek buDhe adami ki salah par kaan do. aur phir se svasth ho jane ki jugat karo. ”
lekin wo ghulam dhire dhire sudhra, aur jab usne phir se kaam sambhala to usmen wo pahle vala josh nahin tha. ab wo asani se samarpan kar deta, uski mahattvakanksha mar chuki thi aur usko kaam ke beech mein letana aur sona achchha lagne laga tha. tab ek din kora ne use koDe lagaye. isse uska bhala hua aur wo roya.
is tarah ve do saal nikal gaye.
tab kora ne sachmuch us ghulam ko uski azadi de di. wo pashchim disha mein chala gaya; lekin mahinon baad wo atyant dayniy sthiti mein vapas aa gaya. wo apne jangalon ko DhunDhane mein asmarth raha tha.
“dekha tumne?” kora ne kaha, “mainne tumko chetaya tha n? lekin koi ye nahin kahega ki main tumhare liye achchha nahin hoon. ek baar phir koshish karo aur is baar poorv disha mein jao. ho sakta hai tumhare jangal usi disha mein hon. ”
ek baar phir wo ghulam chal diya, is baar uska munh ugte suraj ki or tha aur ant mein, idhar udhar khoob bhatak lene ke baad, wo apne jangalon mein aa pahuncha. lekin wo to unhen janta hi nahin tha. thake mande aur parast! ghulam ne apna munh pashchim ki or kiya aur apne malik ke paas vapas aa gaya; aur usne apne malik se kaha ki halanki use jangal mil gaye the, baDe jangal bhi aur chhote bhi, phir bhi ve uske apne jangal nahin the.
hukm!” kora khansa.
“mere paas raho,” phir usne garamjoshi se kaha, “jab tak main zinda hoon, tumhein is dharti par kabhi ghar ki kami nahin hogi. aur jab main apne purkhon mein ja milunga to mera beta is baat ka dhyaan rakhega ki tumhein kisi baat ki pareshani na ho. ” is tarah wo ghulam apne malik ke paas hi thahar gaya.
kora buDha ho gaya, lekin uska ghulam abhi bhi javan tha. kora use achchhi tarah khilata pilata tha, taki wo adhik din tak ji sake aur use saaf rakhta tha taki uska svaasthy bana rahe, aur beech beech mein use koDe bhi marta rahta tha taki wo vinamr aur adarpurn rahe. wo use vishram dene mein bhi kotahi nahin karta tha; har itvaar ko ghulam ko is baat ki azadi hoti thi ki wo kisi tile par baithkar pashchim ko take.
kora ke kheton mein bahutayat se fasal hone lagi. wo jangal kharidkar unhen saaf karvata aur phir unmen hal chalvata taki uske ghulam ke paas kaam ki kami nahin ho; aur wo ghulam man se peD girata. kora ab paise vala ho gaya tha aur ek din wo ek ghulam aurat ko ghar lekar aaya.
saal bitte gaye aur kora ke makan mein chhe tagDe ghulam laDke palkar baDe hue. apne pita ke saman hi ve bhi kaDi mehnat karte the. kaam karne se hi vekti ka samay katta hai, unke pita ne unhen bataya, aur jab samay kat jata hai to thakan hamein anant jangalon mein uDa le jati hai. har vishram ke din wo apne beton ko tile ke upar le jata, jahan se ve Dubte suraj ko dekh sakte the aur wo unhen sikhata ki utkanthit kaise raha jata hai.
kora buDha aur jeern ho gaya tha. sach mein to wo hamesha se buDha hi tha, lekin ab usmen buDhape ko chhoD aur kuch nahin bacha tha. uska beta kabhi mazbut nahin raha tha, lekin unhen kisi se Darne ki zarurat hi nahin thi, kyonki unmen se ek ek ghulam aisa tha ki kisi bhi adami ko lathi ke ek vaar mein hi gira sakta tha. ve shanadar log the; unki ispati manspeshiyon par maans kasa hua tha aur unke daant chite jaise the. lekin zamana kafi surakshait tha. ye ghulam apni kulhaDiyan chalate aur peD girate.
kora naam ek adami ka tha, jo bhumi jotta tha. jab usne kuch paise bacha liye to wo ek ghulam kharidne shahr gaya.
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“tum apne jangalon ko vapas jaoge, Daro mat. main tumse ye vada karta hoon aur mere vadon par bharosa karo. tum abhi bhi javan ho, tumhein pata hai. . . agar tum man se aur mehnat se paanch saal tak mere khet jotoge to main tumhein tumhari azadi de dunga, bhale hi main tumhara paisa de chuka hoon. paanch saal. sauda achchha hai?”
aur ghulam ne kaam kiya. kisi daity ki tarah wo Dat gaya. kora apne darvaze par baithkar sanvli chamDi ke niche ghulam ki un manspeshiyon ko gathte aur thartharate dekhta aur use ismen anand aata, aur wo din mein kai kai ghante ye anand leta kyonki aur karne ke liye uske paas koi kaam tha bhi nahin. use ye samajh mein aane laga ki sharir ek sundar aur ankhon ko anand dene vali cheez hai.
paanch saal ghulam ne hisab lagaya—yani utne ayankal, jitni ki uske hathon mein ungliyan theen. suraj ko das baar ghumna tha. har shaam wo suraj ko Dubta dekhta aur pattharon aur tekariyon par nishan lagakar samay ki ginti ka hisab rakhta. jab suraj pahli baar ghuma to usne apne dahine haath ke anguthe par ginti ki. ek aur ayankal bitne par. aur ye use anant kaal laga—tarjani svatantr ho gai. dusri ungliyon ki apeksha use in do ungliyon se adhik prem tha. dusri ungliyan abhi bhi uski dasta ki ginti kar rahi theen.
is tarah dinon tak hisab rakhna aur samay bitne ke nishan lagana, us ghulam ka dharm, uski antrik sampada aur uska atmik khazana ho gai, jise na to koi usse le sakta tha aur na ise lekar usse vivad kar sakta tha.
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jab anttah paanch saal ki avadhi beet gai—shabdon mein kahna bahut asan hai—to wo ghulam apne malik ke paas aaya aur apni azadi ki maang ki. wo jangalon mein apne ghar ko jana chahta tha.
“tumne bahut vafadari se kaam kiya hai,” kora ne manan karte hue svikar kiya.
ghulam khamosh tha, wo nirash ho gaya tha. nahin, ye sach tha, uske paas bilkul bhi paisa nahin tha.
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“main buDha adami hoon,” wo bola,” apni javani ke dinon mein main bhi pashchim ke liye taDapta tha; virat jangal mujhe bulate the. lekin mere paas kabhi bhi saफ़r layak paisa nahin hua. ab main vahan kabhi nahin jaunga—ab to mere marne ke baad meri aatma hi vahan jayegi. tum to javan aur yogya ho, aur tum mehnati bhi ho, lekin kya tum usse bhi zyada mazbut aur yogya ho jitna ki apni javani ke dinon mein main tha? is sab par vichar karo, aur ek buDhe adami ki salah par kaan do. aur phir se svasth ho jane ki jugat karo. ”
lekin wo ghulam dhire dhire sudhra, aur jab usne phir se kaam sambhala to usmen wo pahle vala josh nahin tha. ab wo asani se samarpan kar deta, uski mahattvakanksha mar chuki thi aur usko kaam ke beech mein letana aur sona achchha lagne laga tha. tab ek din kora ne use koDe lagaye. isse uska bhala hua aur wo roya.
is tarah ve do saal nikal gaye.
tab kora ne sachmuch us ghulam ko uski azadi de di. wo pashchim disha mein chala gaya; lekin mahinon baad wo atyant dayniy sthiti mein vapas aa gaya. wo apne jangalon ko DhunDhane mein asmarth raha tha.
“dekha tumne?” kora ne kaha, “mainne tumko chetaya tha n? lekin koi ye nahin kahega ki main tumhare liye achchha nahin hoon. ek baar phir koshish karo aur is baar poorv disha mein jao. ho sakta hai tumhare jangal usi disha mein hon. ”
ek baar phir wo ghulam chal diya, is baar uska munh ugte suraj ki or tha aur ant mein, idhar udhar khoob bhatak lene ke baad, wo apne jangalon mein aa pahuncha. lekin wo to unhen janta hi nahin tha. thake mande aur parast! ghulam ne apna munh pashchim ki or kiya aur apne malik ke paas vapas aa gaya; aur usne apne malik se kaha ki halanki use jangal mil gaye the, baDe jangal bhi aur chhote bhi, phir bhi ve uske apne jangal nahin the.
hukm!” kora khansa.
“mere paas raho,” phir usne garamjoshi se kaha, “jab tak main zinda hoon, tumhein is dharti par kabhi ghar ki kami nahin hogi. aur jab main apne purkhon mein ja milunga to mera beta is baat ka dhyaan rakhega ki tumhein kisi baat ki pareshani na ho. ” is tarah wo ghulam apne malik ke paas hi thahar gaya.
kora buDha ho gaya, lekin uska ghulam abhi bhi javan tha. kora use achchhi tarah khilata pilata tha, taki wo adhik din tak ji sake aur use saaf rakhta tha taki uska svaasthy bana rahe, aur beech beech mein use koDe bhi marta rahta tha taki wo vinamr aur adarpurn rahe. wo use vishram dene mein bhi kotahi nahin karta tha; har itvaar ko ghulam ko is baat ki azadi hoti thi ki wo kisi tile par baithkar pashchim ko take.
kora ke kheton mein bahutayat se fasal hone lagi. wo jangal kharidkar unhen saaf karvata aur phir unmen hal chalvata taki uske ghulam ke paas kaam ki kami nahin ho; aur wo ghulam man se peD girata. kora ab paise vala ho gaya tha aur ek din wo ek ghulam aurat ko ghar lekar aaya.
saal bitte gaye aur kora ke makan mein chhe tagDe ghulam laDke palkar baDe hue. apne pita ke saman hi ve bhi kaDi mehnat karte the. kaam karne se hi vekti ka samay katta hai, unke pita ne unhen bataya, aur jab samay kat jata hai to thakan hamein anant jangalon mein uDa le jati hai. har vishram ke din wo apne beton ko tile ke upar le jata, jahan se ve Dubte suraj ko dekh sakte the aur wo unhen sikhata ki utkanthit kaise raha jata hai.
kora buDha aur jeern ho gaya tha. sach mein to wo hamesha se buDha hi tha, lekin ab usmen buDhape ko chhoD aur kuch nahin bacha tha. uska beta kabhi mazbut nahin raha tha, lekin unhen kisi se Darne ki zarurat hi nahin thi, kyonki unmen se ek ek ghulam aisa tha ki kisi bhi adami ko lathi ke ek vaar mein hi gira sakta tha. ve shanadar log the; unki ispati manspeshiyon par maans kasa hua tha aur unke daant chite jaise the. lekin zamana kafi surakshait tha. ye ghulam apni kulhaDiyan chalate aur peD girate.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 148-152)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : जोहान्स विल्हेम जेन्सेन
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
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