वह और जगह

wo aur jagah

हृदयेश

हृदयेश

वह और जगह

हृदयेश

और अधिकहृदयेश

    मुरारी क़सदन देर से लौटा।

    वह समस्या जो किसी भारी और भद्दी शिला-जैसी थी, यूँ जिस-तिस प्रकार ठेल दी गई थी, पर वह नहीं चाहता था कि उसके बाद जो किया जाना था, उसे अंतिम रूप उसकी उपस्थिति में ही दिया जाए। दूसरों के लिए स्थिति उसके कारण असुविधाजनक हो गई है, यह अनुभूति उसे कुछ इस प्रकार कचोट रही है जैसे वह दावत की सजी-सुधरी मेज़ पर बैठा है और उसके सामने अति स्वादिष्ट और मूल्यवान भोज्य पदार्थ परोसे गए हैं और एकाएक उसे पता लग गया है कि मेज़बान ने वह सब उधार लेकर विवशतावश उसके लिए जुटाया है; और फिर वह दावत की मेज़ से उठ सकता है और उत्साह और रूचि के साथ खा ही पाता है। ...बीच में जो रिश्ता है उसकी वजह से उन्हें असुविधा के लिए शायद दुःख नहीं होगा, वे उसे संतोष या कुछ ऐसा ही मानेंगे, पर उसके अपने अंदर जो किसकिसैला गरमबगूला घुमड़ रहा है वह...?

    छोटी और सामान्य बातें भी क्यों किसी को इतना अधिक मथती हैं?

    नवंबर के आख़िरी दिन थे और सर्दी होनी ही चहिए। इन दिनों रात होते ही अँधेरा जैसे ख़ून के स्याह मायल चकत्तों जैसा जम जाता हो। दफ़्तर का सतीश मिल गया था और वह उससे ढेर सारी बेकार की बातें करता रहा था। फिर वह देर तक बिना वजह सड़क से लगी एक टाकीज़ के कॉरीडोर में घुसकर बाहर जालीदार खिड़कियों में चिपकी तसवीरें देखता रहा। इसके बाद एक सिगरेट सुलगाकर उस ओर निकल गया जिधर पाँच-मंज़िला एक नर्इ इमारत बन रही थी। यूँ वह उसे पहले भी देख चुका था। जब वह लौटकर अपनी गली में आया तब वकील साहब की बैठक की बत्ती बुझ चुकी थी; बदरी दूधवाला अपनी दुकान पर कूँडे में दही जमाने के लिए दूध उड़ेल रहा था; खंडहर की ओर मुँह किए एक कुत्ता रुक-रुककर ग़ुर्रा रहा था...।

    अपने घर के मोहरे में घुसने से पहले उसने बग़ल के दरवाज़ेवाले मकान की ओर देखा। मालिक-मकान का लड़का आकर अब उसमें ख़ुद रहने लगा था। दो महीने पहले वहाँ रुक्मो भाभी रहती थीं। एक नाज़ुक सी सरसराहट की लहर उसकी रगों में दौड़ गई।

    सिदरी में एक मुड़ी हुई सलाख के सहारे लालटेन लटकी हुई थी और उसका झिल्ली जैसा धुंधलाया प्रकाश फैला हुआ था। उसके अंदर प्रवेशते ही दो जोड़ी आँखें उसके चेहरे पर जड़ गईं।

    “कहीं कुछ काम था? अम्मा ने अपने को फैलाना चाहा। या शायद अपने को समेटा ही हो।

    खाँसी के ठाँसों से बाबू खाट पर बैठे-बैठे हिलने लगे जैसे किसी काग़ज़ के पुतले को हवा छेड़ गई हो।

    उसने बाबू की ओर देखा। गाढ़े की गंजी के ऊपर वह तंबाकू रंग का स्वेटर पहने थे, जगह-जगह जिसमें तार निकले थे। किसी टूटती लहर की तरह उनका सीना उठ और गिर रहा था।

    अम्मा की आँखें उसके चेहरे पर अब भी जमी हैं, उसने महसूस किया।—यूँ ही दफ़्तर का सतीश मिल गया था।—वह बोल गया।

    अम्मा के पूछने में क्या विह्वलता के साथ-साथ एक हलका-सा भय का भाव नहीं था? बाबू और अम्मा को संदेह है कि वह संतुष्ट है। उसके आने से पहले शायद वे उसी के बारे में बातचीत कर रहे थे और उसके लौटने में देर हो जाने से चिंतित थे।

    उसे सतीश की कही गई बात याद गई। बातचीत ख़त्म करते हुए उसने पूछा था—“विदा करा लाए? दोपहर की गाड़ी से आए होंगे?—” फिर ओठों की कोरें फैलाता हुआ मुस्कुरा दिया—“यार, जाओ घर पर। बीबी इंतिज़ार कर रही होगी!...

    दूसरी ओर छोटे-से आँगन के सिरे पर जो कोठा था, उसकी देहलीज़ पर निकलकर कंतो खड़ी हो गई थी। वह फिर आँगन पार कर मुस्कुराती हुई वहाँ गई जहाँ अम्मा थी।

    “भाभी के साथ ख़ूब बातें छन रही हैं, क्यों न? जबसे आई है, मुँह से मुँह जोड़े है।”—अम्मा भी हँस दी और उसकी ओर देखने लगी।

    पर वह कंतो की ओर देखता रहा जो अब भी मुस्कुरा रही थी। कंतो उससे तीन वर्ष ही छोटी है। उसकी शादी उससे पहले होने को थी, किंतु जुड़ी बात टूट गई। कई बार टूट गई। बाबू और अम्मा फिर कोशिश में हैं कि कहीं बात जुड़े। सिर से ऊपर होता पानी नीचे उतरे।

    उसे लगा कि सामने कोठे में साड़ी की हलकी-सी सरसराहट हुई है। वहाँ आज शायद लैंप जल रहा था। झिल्ली-जैसी रौशनी वहाँ भी फैली थी।

    कुछ देर ऐसा लगा कि किसी मूक चल-चित्र के वे पात्र हैं।

    वह अब कोठे के अंदर था। शादी के बाद जब पत्नी आई थी तो सात दिन रही थी और सात दिनों में शायद सारा संकोच, झिझक और अजनबीपन दूर हो चुका था। पत्नी खाट पर दोनों पैर लटकाए बैठी थी। पैरों में चाँदी की पतली पाजेब थी। तलुवे और एड़ी महावर से गुलाबी थे। खाट पर सफ़ेद चादर बिछी थी। पत्नी के दाँतों की लजीली मुस्कुराहट भी शायद इतनी ही धवल थी। कोठरी की इस बीच सफ़ाई हो गई थी। जाला वग़ैरह पोंछ दिया गया था। पर सफ़ाई और पोंछे जाने का भाव वहाँ छूट गया था।

    सिदरी में बाबू को खाँसी फिर उठी थी और वह फिर खाँसने लगे थे। बाबू को खाँसी की शिकायत है। खाँसी सर्दियों में और उग्र हो जाती है।

    बाबू अब सिदरी में सोया करेंगे और वह कोठे में। एक लंबे समय से शायद अपने होश से वह बाबू को इसी कोठे में सोते देख रहा था। गर्मियों में वह कोठे के आगे के किवाड़ और पीछे गली में खुलने वाली खिड़की खोलकर सोते थे और बरसात और सर्दियों में दरवाज़ा भेड़कर। वह अब तक दूसरों के साथ सिदरी में सोता था।

    शादी के बाद वह समस्या उठ खड़ी हुई थी कि बहू कहाँ सोएगी? बहू-बेटी के लेटने-बैठने के लिए आड़-ओट चाहिए ही। घर में केवल वही एक पटा कोठा था। दो सिदरियाँ थीं, जिनमें एक में चौका था—पूजा के लिए उठा हुआ एक घेरा और उसके पीछे ईंधन, भरसावन वग़ैरह रखने की दबी-दबी सी पट्टीनुमा जगह। दूसरी सिदरी में सोना-लेटना होता था। बार्इं तरफ़ बाहर की ओर टट्टी थी और उससे चिपका अंदर की जानिब टीन की चादरों से गुसलख़ाने की ज़रूरत को पूरा करने वाला उठा हुआ एक घेराव। बहुत पहले छत पर एक बरसाती थी जो बरसाती पानी में गिर गई और अब ऊपर बस खुली नंगी छत थी—आकांक्षाहीन ज़िंदगी जैसी।

    शादी में उसकी सुहाग-सेज पड़ोस की रुक्मो भाभी के घर में बिछार्इ गई थी। रुक्मो भाभी के पति ताला और नेम प्लेट बनाने वाली एक कंपनी में नौकर थे और उन दिनों माल लेकर दौरे पर गए थे। रुक्मो भाभी के कोई संतान नहीं थी। मोहल्ले की औरतों और युवकों की ऐसी धारणा थी कि उनके संतान होगी भी नहीं। रुक्मो भाभी के पति की उम्र काफ़ी थी। सगे-संबंधियों से उन दिनों उसका छोटा-सा घर किसी रेल के डिब्बे-जैसा भरा हुआ था। रुक्मो भाभी ने ख़ुद ही सुहाग-सेज वहाँ डालने का प्रस्ताव रखा था।

    शादी के बाद की मधु-रातें दूसरे के घर में गुज़ारते हुए उसे कुछ भारी-भारी-सा लगा था। उसकी पत्नी क्या महसूस करेगी? सलोने-सुंदर अंग पर जैसे एक गंदा ज़ख़्म दीख गया हो।

    एक रात पत्नी ने पूछा भी—“मैं दोबारा जब लौटकर आऊँगी तब क्या इंतिज़ाम होगा जी?

    उसने अम्मा के मुँह से इन दिनों जो बात सुनी थी उसको दोहरा दिया—“हम लोग दूसरे बड़े मकान की खोज में हैं। तब तक क्या कोई मिल नहीं जाएगा?

    पत्नी इसके बाद रुक्मो भाभी के पति को लेकर पूछने लगी थी—जिसके बारे में इतने दिनों में उसने अपनी हमजोलियों के मुँह से कुछ जान लिया था—कि क्या वह बहुत ज़ियादा बदसूरत भी है और ग़ुस्सैल भी; कि पहले क्या उसकी आदतें बहुत ख़राब थीं...। उसी रात को उसने सपना देखा कि रुक्मो भाभी का पति गजाधर प्रसाद दौरे से लौट आया है और रुक्मो भाभी पर बिगड़ रहा है कि उसने किसी दूसरे को वहाँ सोने क्यों दिया और उसकी सेज के निकट आकर वह ग़ुस्साया हुआ उसे झिंझोड़ रहा है। उसकी जब आँख खुली तो उसने पाया कि उसकी गर्दन पसीजी हुई है। पत्नी उससे सटकर सो रही थी और उसकी लंबी-लंबी बरौनियोंदार मुंदी पलकों पर निश्चिंतता लिए स्निग्धता थी।—उसे फिर दोबारा बहुत देर तक नींद आई और बरसात के दिनों-जैसी एक अजीब-सी घुटन और अकुलाहट आभासती रही।

    ऐसी बात नहीं कि उसके बाद उसने किसी दूसरे मकान की तलाश की हो। अपनी ओर से उसने कोई असर उठा रखी। कुछ ही ऐसे काम थे जिनमें उसने इतनी अधिक चिंता और उत्साह दिखाया हो। किंतु भारत की राजधानी दिल्ली-जैसे महानगर में इच्छानुकूल मकान मिलना शायद एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। एक तो पगड़ी का सवाल था और दूसरा किराए की दर का। जिस मकान में रहा जा रहा था वह केवल बारह रुपए पर था। दूसरा जो उससे कुछ ही बड़ा होता उसके पचास-साठ रुपए माँगे जाते। वह सब क्या चाहने पर भी वह दे सकता?

    घर पर सुबह-शाम मकान की चर्चा होती। उसका छोटा भाई राधे या बाबू धीमी-बूझी आवाज़ में बताते कि उनको किसी लड़के या दफ़्तर के साथी से पता लगा है कि अमुक बस्ती में अमुक मकान ख़ाली हुआ है। पर वहाँ जाने पर वही हश्र होता। या तो किराया बहुत ज़ियादा होता या मोटी पगड़ी का सवाल। अम्मा बुदबुदातीं कि वह किसी दूसरे की जगह पर हज़ार-बारह सौ रुपया उधार लेकर कैसे नई तामीर करवा सकती हैं। मकान मालिक किराया तो ले जाता है, पर यह नहीं होता कि ऊपर एक कमरा और बनवा दे, वह आठ-दस रुपए किराया और बढ़ाने को तैयार है। पर मकान मालिक क्या इसके लिए राज़ी है? उसके मकान छोड़ने में ही उसे लाभ था।

    स्थिति से सहजता से समझौता बस एक ही तरह संभव था और वह यूँ कि बाबू वह कोठा ख़ाली कर दें। पर झिझक यह थी कि बाबू को काफ़ी असुविधा और परेशानी थी, विशेषकर सर्दी के दिनों में। सिदरी में सीधी हवा जाती थी। उनकी एकांत में सोने की भी आदत थी।

    पीछे गली के स्कूल के अहाते का हरसिंगार फूल चुका था और रात में हवा में एक मीठी गमक बसी होती थी—कुएँ के शीतल जल में जैसे हलकी-सी मिठास घुली हो।

    बहू के बिदा कराने की बात उठती थी।

    उसके लिए किसी जगह का इंतिज़ाम भी हुआ है कि बुलाने को ही सोचा जा रहा है?

    जैसे एक कमरा हो और उसके अनबुहरे फ़र्श पर मुड़े-तुड़े कुछ काग़ज़ बिखरे हों और हवा का एक झोंका आया हो और वे सब काग़ज़ फड़फड़ा उठे हों। सुबह का समय था और घर पर सब ही मौजूद थे। बाबू पूजा के लिए उठे हुए घेरे में आसनी बिछाकर जाप कर रहे थे और उसका खिंचा स्वर शायद वहाँ भी पहुँच गया था। कुछ क्षणों के लिए लगा कि जाप रुक गया है और फिर जब शुरू हुआ तब स्वर सहज था।

    कहकर जब उसने अनुभव किया तो बरसात की सीलन-जैसी चिपचिपाहट उसके मन पर छाने लगी। इतना निर्लज्ज वह कैसे हो गया। कौन-सी मनःस्थिति थी जिसमें वह अपने आवेग को संभाल सका। राधे उसकी ओर किताब के पीछे से ताक रहा था। बर्तन मलती कंतो की पलकें नल के नीचे से बार-बार उसकी ओर उठ जाती थीं। अँगीठी के पास बैठी हुई अम्मा के चेहरे की सिकुड़ी हुई जिल्द के नीचे कोई साया थरथरा रहा था।

    “जगह की तंगी के पीछे क्या बहू आएगी नहीं? कैसे-न-कैसे बेटे, वक़्त काटा ही जाता है अम्मा के स्वर में भीगा कंपन था। उसने लक्ष्य किया कि अम्मा की आँखों में आर्द्रता उतर आई है।

    एक ऐसा अदृश्य दबाव था जो असह्य होता जा रहा था। नहीं, जैसे प्रतिपल उसे कोई नंगा कर रहा था।

    वह वहाँ से जल्द उठ आया था। फिर जब-जब इस संबंध में कोई बात उठी वह अपने को बचाता रहा, छिपाता रहा। उसकी कोई भी इच्छा-अनिच्छा, सहमति-असहमति नहीं। समस्या का एक ही हल था जिसे वही नहीं सब जानते थे और अंत में उसी पर आया गया था। बाबू सिदरी में जाएँगे। सर्दी जब ज़ियादा पड़ेगी, होगा टाट का मोटा पर्दा डलवा लिया जाएगा या लकड़ी के तख़्ते वग़ैरह ठुकवा दिए जाएँगे।

    उसने अपने में एक बुझापन-सा महसूस किया। स्नायुओं में जैसी ऊष्मता होनी चाहिए, वैसी थी। उत्साह को जैसे किसी ने मसल दिया हो। उसने इस मनःस्थिति से छुटकारा पाने की कोशिश की, पर कुछ ही देर बाद वह अपने को फिर उसी दबाव के नीचे अनुभव करने लगता बाबू को खाँसी क्या आज ज़ियादा रही है? बाबू के लिए सिदरी नर्इ जगह है। ज़रूर वह एक अटपटापन-सा महसूस कर रहे होंगे।

    उसने पीछे गली में खुलने वाली खिड़की खोल दी। खसती हुई रात में हवा तीखी हो गई थी और उसमें स्कूल के अहाते के हरसिंगार की महक घुली थी। चाँद आसमान में दूध में भीगी रोटी-जैसा दिखाई दे रहा था। सर्दियों-की चाँदनी ज़ियादा साफ़ और चमकदार होती है। चाँदनी का एक बड़ा टुकड़ा अंदर भी रेंग आया था। कोठे का फ़र्श काफ़ी खुरदरा था। चूने का गट्टा पड़ा था और जगह-ब-जगह चूना उतर गया था और गट्टा नंगा रह गया था। बाबू ने पिछली बरसात में कहा था कि एक बोरी सीमेंट का प्रबंध हो जाए तो छत की दराज़ें भी चिकना करवा लें। पर फिर उन्होंने वह इच्छा दबा ली और छत की दराज़ों में कहीं से लाकर पिघला कोलतार गिरा दिया। एक चूहा पीछे छिपा हुआ काठ के संदूक़ को किट-किट-किट कर कुतर रहा था। आहट पाकर ज़रा देर के लिए चुप हो जाता था और फिर कुतरने लगता था।

    बाबू फिर खाँसने लगे थे। सूखी खाँसी के ठाँसों की आवाज़ यूँ उठती थी जैसे कोई कड़ी चीज़ छीली जा रही हो।

    कुछ देर बाद जब उसे पेशाबख़ाने में जाने की ज़रूरत हुई और वह बाहर आँगन में आया, बाबू तब भी खाँस रहे थे। उसे लगा कंतो भी सोर्इ नहीं है और जाग रही है। उसकी आहट पाकर उसने अभी-अभी करवट बदली है और लोई सिर तक खींची है।—उसका बिछावन माँ से इधर ही हटकर था। चार फिट का आँगन कोठे और सिदरी में कितना अलगाव रख सकता है।

    कुछ देर पहले पत्नी कोठे में किसी बात पर खुलकर हँसी थी, पर तुरंत बाद ही सहम गई—उइ राम!—बाहर आवाज़ सुनकर कोई सोचेगा कि बहू कितनी निर्लज्ज है!...

    जाने क्यों उसे इन्हीं क्षणों दस-बारह दिन पहले की वह स्थिति भी याद हो आई। सुबह आठ या नौ का समय होगा। धूप ऊनी कालीन-जैसी बिछल रही थी और वह ऊपर छत पर चला गया था। दूसरे मकान की मुँडेर पर कबूतर का एक जोड़ा बैठा हुआ था। कबूतर-कबूतरी के आगे पीछे गर्दन फुलाता और गुटरगूँ की आवाज़ करता चक्कर काट रहा था। एकाएक कबूतर कबूतरी पर बैठ गया। उसने तभी पाया कि पीछे कंतो भी गई हैं दो क्षण के लिए दोनों की आँखें मिलीं और हट गईं। उनमें एक ऐसा भाव जल उठा था जो ओट चाह रहा था। कंतो नीचे वापस लौट गई। वह दूसरी ओर हटकर खड़ा हो गया।

    उसे लगा कि कंतो वहाँ उसकी उपस्थिति अनुभव कर रही है। वह ग़ुसलख़ाने को पार करता हुआ पेशाबख़ाने में चला गया।

    लौटते हुए सिदरी में उसकी नज़र चली गई। खाँसने के बाद घरघराहट के साथ बाबू साँस ले रहे थे जैसे किसी बर्तन के सूराख में से भाप सूँ-सूँ कर गुज़र रही हो। अम्मा गद्दा डाले ज़मीन पर सो रही थीं। थोड़ा हटकर कंतो लेटी थी। उसने अभी-अभी करवट फिर बदली थी।...और राधे...ऐं...राधे कहाँ सो रहा है...जब वह वापस लौटकर आया था, राधे शायद नहीं था। शायद वह रजनीकांत की बैठक में सो रहा होगा। रजनीकांत के छोटे भाई के साथ उसकी पढ़ाई चलती है। इस साल वे दसवीं दर्जे में हैं। उसे याद गया कि तीसरे पहर ऐसी चर्चा उठी थी कि परीक्षा तक राधे वहाँ सोने को कहता है।

    चौदह साल का राधे भी क्या स्थिति से परिचित है और समझौता करना जानता है?

    उसे लगा कि हवा में बढ़ी हुई सिहरन उसे तेज़ी से छू रही है। वह अंदर चला गया।

    सुबह चाय के समय उसने पाया कि वह अपने को सबकी निगाहों से बचाना चाह रहा है। वह उस मनःस्थिति से उबरने के लिए अपने से जूझता रहा, पर बार-बार उसी के बीच अपने को पाता।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1960-1970) (पृष्ठ 80)
    • संपादक : केवल गोस्वामी
    • रचनाकार : हृदयेश
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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