वह असफलताओं से खेलता रहा

veh asfaltaaon se khelta raha

अनुवाद : सुरजीत

जॉन गाल्सवर्दी

जॉन गाल्सवर्दी

वह असफलताओं से खेलता रहा

जॉन गाल्सवर्दी

और अधिकजॉन गाल्सवर्दी

    ऋतु गर्म हो या ठंडी, अच्छी हो या बुरी, इससे अधिक निश्चित बात और कोई थी कि वह लँगड़ा आदमी शहतूत की टेढ़ी-मेढ़ी छड़ी के सहारे चलता हुआ यहाँ से अवश्य गुज़रेगा। उसके कंधे पर लटकती हुई खपच्चियों की बनी हुई टोकरी में एक फटी-पुरानी बोरी से ढके हुए ग्रोंडसील के बीज पड़े हुए थे। ग्रोंडसील घास की तरह एक छोटा-सा पौधा है, जिसमें पीले रंग के फूल लगते हैं। पालतू पक्षी इसके बीज शौक़ से खाते हैं। खुंबियों के मौसम में वह खुंबियाँ भी अख़बार में लपेटकर टोकरी के अंदर रख लेता है। उसका चेहरा सपाट मज़बूत था। उसकी लाल दाढ़ी की रंगत भूरी होती जा रही थी और झुर्रियों भरे चेहरे से उदासी टपकती थी, क्योंकि उसकी टाँग में हर समय टीसें उठती थीं। एक दुर्घटना में उसकी यह टाँग कट गई थी और अब सही-सलामत टाँग से कोई दो इंच छोटी थी। टाँग की पीड़ा और काम में असमर्थता उसे हर समय इनसान के नश्वर होने का अहसास दिलाती थी। शक्ल से वह संपन्न सही, सम्मानित अवश्य दिखाई देता था, क्योंकि उसका नीला ओवरकोट बहुत पुराना था। जुराबें, सदरी और टोपी निरंतर उपयोग से घिस-पिट गई थीं और बदलती हुई ऋतुओं ने उन पर स्पष्ट निशान छोड़े थे। दुर्घटना से पूर्व वह गहरे पानी में मछलियाँ पकड़ा करता था, लेकिन अब बेस-वाटर के क़स्बे में एक स्थान पर फुटपाथ के किनारे सुबह दस बजे से शाम सात बजे तक पालतू पक्षियों का खाना बेचकर जीवन के बुरे-भले दिन काट रहा था। राह चलती हुई सम्मानित महिलाओं में से किसी के मन में अपने पालतू पक्षी की सेवा का ख़याल आता तो वह उससे एकाध पिनी के बीज ख़रीद लेती।

    जैसाकि वह बताता था, कई बार उसे बीज प्राप्त करने में बहुत कठिनाई होती थी। वह सुबह पाँच बजे बिस्तर से उठता। भाग-दौड़ में लंदन से देहात की ओर जाने वाली गाड़ी पकड़ता और उन खुले मैदानों में पहुँच जाता, जहाँ केनरी और अन्य पालतू पक्षियों की ख़ुराक मिलने की संभावना होती थी। वह बड़ी कठिनाइयों से अपनी असमर्थ टाँगें धरती पर घसीटता था। प्रकृति का अत्याचार देखिए कि धरती जिस पर वह घास के बीज ढूँढ़ता था, बहुत कम शुष्क होती थी। प्राय: उसे सिर झुकाकर कीचड़ और कुहरे में पीली छतरियों वाले छोटे-छोटे पौधे इकट्ठे करने होते। वह स्वयं कहा करता कि कम पौधों के बीज सही-सलामत मिलते थे। अधिकांश हिमपात के कारण नष्ट हो जाते थे। बहरहाल जो भाग्य में होता, मिल जाता। वह उसे लेकर गाड़ी के द्वारा लंदन वापस आता और फिर दिन-भर के अभियान पर निकल खड़ा होता। सुबह से शाम तक परिश्रम के बाद रात के नौ-दस बजे तक वह लड़खड़ाता घर की ओर चल देता। ऐसे अवसरों पर विशेषतः अनुपयुक्त परिस्थितियों में, उसकी आँखें, जो अभी तक समुद्र की अज्ञात विशालताएँ देखने की विशेषता से वंचित हुई थीं, आत्मा की गहराइयों में छुपे हुए स्थायी दुःख का पता देतीं। उसकी यह स्थिति उस पक्षी से मिलती-जुलती थी, जो पंख कटने के बावजूद बार-बार उड़ने का प्रयत्न कर रहा हो।

    कभी-कभार जब ग्रोंडसील के बीज मिलते, असमर्थ टाँग में शिद्दत की पीड़ा उठती या कोई ग्राहक नज़र आता तो बरबस उसके मुख से निकलता, कितना कठिन है यह जीवन!

    टाँग की पीड़ा तो उसे सदा रहती थी, फिर भी वह अपने दु:ख, ग्रोंडसील बीज की कमी या ग्राहकों की लापरवाही की शिकायत बहुत कम करता था। इसलिए कि वह जानता था कि उसकी शिकायत पर कान धरने वाले बहुत कम होंगे। वह फुटपाथ पर चुपचाप बैठा या खड़ा रहकर गुज़रने वालों को देखता रहता था। बिलकुल उसी प्रकार जैसे कभी वह उन लहरों को देखा करता था, जो उसकी नाव से आकर टकराती थीं। उसकी कभी रुकने वाली तहदार नीली आँखों से असाधारण धैर्य सहनशीलता की भावनाएँ प्रकट होती थीं। अवचेतन रूप में ये भावनाएँ एक ऐसे व्यक्ति के धर्म को प्रकट करती थीं जो हर बड़ी से बड़ी कठिनाई में कहता हो, मैं आख़िरी दम तक लडूँगा।

    यह बताना बहुत कठिन है कि दिन-भर फुटपाथ पर खड़े-खड़े वह क्या सोचता था! मगर उसकी सोच पुराने युग से संबंधित हो सकती थी। हो सकता है, वह गडोन के रेतीले किनारों के बारे में विचार करता हो या ग्रोंडसील की कलियों के बारे में चिंतातुर हो, जो अच्छी तरह खिलती थीं। कभी टाँग उसकी चिंता का विषय बन जाती, तो कभी वह कुत्ते जो उसकी टोकरी देखते ही सूँघते हुए आगे बढ़ते और बहुत बदतमीज़ी का प्रदर्शन करते थे। संभवत: उसे अपनी पत्नी की चिंता भी थी, जो गठिए के पीड़ाजनक रोग से ग्रस्त थी। कभी वह मछेरा था, इसलिए अभी तक चाय के साथ हेरिंग मछली खाने की इच्छा होती थी। संभव है, वह यही सेचता हो कि मछली कैसे प्राप्त करें! या मकान का किराया भी देना था, इसकी चिंता भी उसे पागल करती होगी। या ग्राहकों की संख्या भी तो दिन दिन कम होती जा रही थी और एक बार फिर टाँग की पीड़ा की तीव्रता का अहसास! उफ्!

    राह चलने वालों में से किसी के पास इतना समय था कि एक क्षण रुककर उसकी ओर देखे। कभी-कभार कोई महिला अपने चहेते मियाँ मिट्ठू के लिए एकाध पीनी के बीज ख़रीदती और लपक-झपक आगे बढ़ जाती। सच बात तो यह है कि लोग उसकी ओर देखते भी क्यों! उसमें कोई ख़ास बात तो थी नहीं। बेचारा सीधा-सादा भूरी दाढ़ीवाला आदमी था। जिसके चेहरे की झुर्रियाँ बहुत गहरी और स्पष्ट थीं और जिसकी एक टाँग में नुक़्स था। उसके बीज भी इतने ख़राब होते थे कि लोग अपने पक्षियों को खिलाना पसंद करते और साफ़ कह देते कि आजकल तुम्हारे ग्रोंडसील के बीज अच्छे नहीं होते और फिर साथ ही क्षमापूर्वक कहते, ऋतु भी ख़राब है।'

    ऐसे अवसरों पर वह कुछ इस प्रकार उत्तर दिया करता था, जी...जी हाँ, मादाम! मौसम बड़ा ख़राब है। आप शायद नहीं जानतीं, यहाँ इस जगह मेरी टाँग की पीड़ा बढ़ गई है।

    उसकी यह बात शत-प्रतिशत सच थी, लेकिन लोग उस पर अधिक ध्यान देते और अपने काम से आगे बढ़ जाते। शायद वे समझते हों कि लँगड़े का हर बात में अपनी टाँग का ज़िक्र करना शोभा नहीं देता। प्रकटत: यही नज़र आता था कि वह अपनी ज़ख़्मी टाँग का हवाला देकर दूसरों की हमदर्दी प्राप्त करना चाहता है, पर असल बात यह है कि उस व्यक्ति में वह शर्म-लिहाज़ और शराफ़त मौजूद थी, जो गहरे पानी के मछेरों की विशेषता है, किंतु टाँग का ज़ख़्म इतना पुराना हो चुका है कि हर समय उसकी चिंता लगी रहती थी। यह दुःख और पीड़ाएँ उसके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थीं और वह चाहता तो भी उसके ज़िक्र से बाज नहीं आता। कई बार जब मौसम अच्छा होता और उसके गोंडसील ख़ूब फलदार होते तो उसे ग्राहकों की ओर से ऐसी सांत्वनाओं की ज़रूरत पड़ती थी। ग्राहक भी ख़ुश हो उसे आधी पिनी के बजाय एक पिनी दे डालते। हो सकता है इस 'टिप' के कारण उसे अवचेतन रूप में अपनी टाँग का ज़िक्र करने की आदत हो गई हो।

    वह कभी छुट्टी करता था, पर कभी-कभार अपनी जगह से ग़ायब हो जाता। ऐसा उस समय होता था, जब उसकी टाँग की पीड़ा बहुत बढ़ जाती। वह इस स्थिति को कुछ इस प्रकार बयान करता, “आज तो तकलीफ़ों का पहाड़ पड़ा है।

    बीमार पड़ता तो उसके ज़िम्मे ख़र्च बढ़ जाते। फिर जो काम पर लौटता तो पहले से अधिक परिश्रम करता। अच्छे बीजों की खोज में दूर-दूर निकल जाता और रात गए तक फुटपाथ पर खड़ा रहता ताकि बिक्री अधिक हो और छुट्टियों की क्षतिपूर्ति हो सके।

    उसके लिए ख़ुशी का अवसर केवल एक था, और वह था क्रिसमस का त्योहार। कारण यह था कि क्रिसमस पर लोग अपने पालतू पक्षियों पर कुछ अधिक ही कृपालु हो जाते थे और उसकी ख़ूब बिक्री होती थी। बड़े दिन का कोई विशेष ग्राहक उसे छह पेंस की रक़म भी दे डालता। फिर भी वह बात अधिक सुखद थी, क्योंकि आर्थिक परिस्थितियाँ अच्छी हों या बुरी, इन्हीं दिनों हर साल उसे दमे का रोग दबोच लेता था। रोग के दौरे के बाद उसका चेहरा और पीला पड़ जाता और नीली आँखों में अनिद्रा की धुंध दिखाई देती। यों लगता जैसे वह किसी ऐसे मछेरे का भूत हो, जो समुद्र में डूब गया हो। ऐसे समय में प्रात:काल के धुँधले प्रकाश में वह अधपके ग्रोंडसील के बीज टटोलता, जिन्हें पक्षी शौक़ से खा सकें, तो उसके पीले खुरदरे हाथ काँप-काँप जाते थे।

    वह प्राय: कहा करता था, “आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि शुरू में इस मामूली-से काम के लिए अपने-आपको तैयार करने में कितनी कठिनाई पेश आई। उन दिनों टाँग का ज़ख़्म नया था और कई बार चलते हुए यों महसूस होता था, जैसे मेरी टाँग पीछे रह जाएगी। मैं इतना दुर्बल था कि कीचड़ में उसे घसीटना संसार का सबसे कठिन काम नज़र आता। ऊपर से पत्नी की बीमारी ने परेशान कर रखा था। उसे गठिया है। देखा आपने, मेरा जीवन सिर से पाँव तक दुःखों से भरा है!

    यहाँ वह एक अविश्वसनीय अंदाज़ में मुस्कराता और फिर अपनी इस टाँग की ओर देखते हुए हुए, जो पीछे घिसट रही होती थी, गर्वीले ढंग से कहता, आप देखते हैं न! अब इसमें कोई जान नहीं रही। इसका मांस तो मर चुका है।”

    उसे देखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह जानना बहुत कठिन था कि आख़िर इस ग़रीब अपंग को जीवन से क्या दिलचस्पी थी! स्थायी असहायता, दुःख और पीड़ा के स्याह परदों के नीचे वह थके-हारे अपने जर्जर पंख हिलाता रहता था। जीवन के प्रकाश को देखना बहुत कठिन था। इस व्यक्ति का जीवन से चिपटे रहना बिल्कुल अस्वाभाविक दिखाई देता था। भविष्य में उसके लिए आशा की कोई किरण थी और यह बात तय थी कि भविष्य उसके वर्तमान से कहीं अधिक ख़राब और ख़स्ता होगा। रही अगली दुनिया, तो वह उसके बारे में बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से कहता, मेरी पत्नी का विचार है कि दूसरी दुनिया इस दुनिया से बहरहाल बुरी नहीं हो सकती और यदि वस्तुत: इस जीवन के बाद दूसरा जीवन है तो मैं समझता हूँ कि उसकी बात सही है।

    फिर भी एक बात विश्वास से कही जा सकती है कि उसके मस्तिष्क में कभी यह विचार आया था कि वह ऐसा जीवन क्यों व्यतीत कर रहा है! क्यों कष्ट उठा रहा है! यों अनुभव होता था, जैसे अपने कष्टों के बारे में सोचकर और अपनी सहनशीलता की इन कष्टों से तुलना करके इसे कोई आंतरिक प्रसन्नता प्राप्त होती है। यह बात सुखदायक बहुत थी। वह मानवता के भविष्य का ज्ञाता था। दर्पण था। और ऐसी आशा थी, जो और कहीं दिखाई नहीं देती।

    इस भरी-पूरी दुनिया में कोलाहल से आबाद सड़क के किनारे टोकरी के पास छड़ी के सहारे वह अपना निढाल, किंतु संकल्पपूर्ण चेहरा लिए इस महान् और असाधारण मानवीय गुण की एक जर्जर प्रतिमा की तरह खड़ा है, जिससे अधिक आशापूर्ण और उत्साहजनक भावना दुनिया में कोई नहीं। वह आशा के बिना प्रयत्न का एक जीवंत उदाहरण है। जीता-जागता प्रतिबिंब है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 114-118)
    • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
    • रचनाकार : जॉन गाल्सवर्दी
    • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
    • संस्करण : 2008

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