सिल्वर वेडिंग

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मनोहर श्याम जोशी

मनोहर श्याम जोशी

सिल्वर वेडिंग

मनोहर श्याम जोशी

और अधिकमनोहर श्याम जोशी

    जब सेक्शन ऑफ़ीसर वाई.डी. (यशोधर) पंत ने आख़िरी फ़ाइल का लाल फ़ीता बाँधकर निगाह मेज़ से उठाई तब दफ़्तर की पुरानी दीवार घड़ी पाँच बजकर पच्चीस मिनट बजा रही थी। उनकी अपनी कलाई घड़ी में साढ़े पाँच बजे थे। पंत जी ने अपनी घड़ी रोज़ाना सुबह-शाम रेडियों समाचारों से मिलाते हैं, इसलिए उन्होंने दफ़्तर की घड़ी को ही सुस्त ठहराया। फ़ाइल आउट ट्रे में डालकर उन्होंने 'दिन के दस' के बंधे हुए राशन में से सातवीं सिगरेट सुलगाई और एक निगाह अपने मातहतों पर डाली जो उनके ही कारण पाँच बजे के बाद भी दफ़्तर में बैठने को मज़बूर होते हैं। चलते-चलते जूनियरों से कोई मनोरंजक बात कहकर दिन-भर के शुष्क व्यवहार का निराकरण कर जाने की कृष्णानंद (किशन दा) पाण्डे से मिली हुई परंपरा का पालन करते उन्होंने कहा, आप लोगों की देखा-देखी सेक्शन की घड़ी भी सुस्त हो गई है।

    सीधे 'असिस्टेंट ग्रेड' में आए नए छोकरे चड्ढा ने, जिसकी चौड़ी मोहरी वाली पतलून और ऊँची एड़ी वाले जूते पंत जी को 'समहाउ इम्प्रॉपर' मालूम होते हैं, थोड़ी बदतमीज़ी-सी की। 'ऐज़ यूजुअल' बोला, बड़े बाऊ, आपकी अपनी चूनेदानी का क्या हाल है? वक़्त सही देती है?

    पंत जी ने चड्ढा की धृष्टता को अनदेखा किया और कहा, “मिनेट टु मिनेट करेक्ट चलती है।

    चड्ढा ने कुछ और धृष्ट होकर पंत जी की कलाई थाम ली। इस तरह का धृष्टता का प्रबल विरोध करना यशोधर बाबू ने छोड़ दिया है। मन-ही-मन वह उस ज़माने की याद ज़रूर करते हैं जब दफ़्तर में किशन दा को भाई नहीं 'साहब' कहते और समझते थे। घड़ी की ओर देखकर कहा, बाबा आदम के ज़माने की है बड़े बाऊ यह तो! आप तो डिजिटल ले लो एक। जापानी। 'स्मगल्ड'! सस्ती मिल जाती है।

    यह घड़ी मुझे शादी में मिली थी। हम पुरानी चाल के, हमारी घड़ी पुरानी चाल की। अरे, यही बहुत है कि अब तक 'राइट टाइम' चल रही है—क्यों, कैसी रही?”

    इस तरह का नहले पर दहला जवाब देते हुए एक हाथ आगे बढ़ा देने की परंपरा थी, रेम्जी स्कूल अल्मोड़ा में, जहाँ से कभी यशोधर बाबू ने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। इस तरह के आगे बढ़े हुए हाथ पर सुनने वाला बतौर दाद अपना हाथ मारा करता था और वक्ता-श्रोता दोनों ठठाकर हाथ मिलाया करते थे। ऐसी ही परंपरा किशन दा के क्वार्टर में थी जहाँ रोज़ी-रोटी की तलाश में आए यशोधर पंत नामक एक मैट्रिक पास बालक को शरण मिली थी कभी। किशन दा कुँआरे थे और पहाड़ से आए हुए कितने ही लड़के ठीक-ठिकाना होने से पहले उनके यहाँ रह जाते थे। मैस जैसी थी। मिलकर लाओ, पकाओ, खाओ। यशोधर बाबू जिस समय दिल्ली आए थे उनकी उम्र सरकारी नौकरी के लिए कम थी। कोशिश करने पर भी 'बॉय सर्विस में वह नहीं लगाए जा सके। तब किशन दा ने उन्हें मैस का रसोइया बनाकर रख लिया। यही नहीं, उन्होंने यशोधर को पचास रुपए उधार भी दिए कि वह अपने लिए कपड़े बना सके और गाँव पैसा भेज सके। बाद में इन्हीं किशन दा ने अपने ही नीचे नौकरी दिलवाई और दफ़्तरी जीवन में मार्गदर्शन किया।

    चड्ढा ने ज़ोर से कहा, बड़े बाऊ, आप किन ख़यालों में खो गए? मेनन पूछ रहा है कि आपकी शादी हुई कब थी?

    यशोधर बाबू ने सकपकाकर अपना बढ़ा हुआ हाथ वापस खींचा और मेनन से मुख़ातिब होकर बोले, नाव लैट मी सी, आई वाज मैरिड ऑन सिक्स्थ फ़रवरी नाइंटीन फोर्टी सेवन।

    मेनन ने फौरन हिसाब लगाया और चहककर बोला, मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ डे सर! आज तो आपका 'सिल्वर वेडिंग' है। शादी को पूरा पच्चीस साल हो गया।

    यशोधर जी ख़ुश होते हुए झेंपे और झेंपते हुए ख़ुश हुए। यह अदा उन्होंने किशन दा से सीखी थी। चड्ढा ने घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया और कहा, सुन भई भगवानदास, बड़े बाऊ से बड़ा नोट ले और सारे सेक्शन के लिए चाय-पानी का इंतिज़ाम कर फटाफट।”

    यशोधर जी बोले, अरे ये वेडिंग एनिवर्सरी वग़ैरह सब गोरे साहिबों के चोंचले हैं—हमारे यहाँ जो थोड़ी मानते हैं।

    चड्ढा बोला, मिक्सचर मत पिलाइए गुरुदेव! चाय-मट्ठी-लड्डू बस इतना ही तो सौदा है। इनमें कौन आपकी बड़ी माया निकली जानी है।

    यशोधर बाबू ने जेब से बटुवा और बटुवे से दस का नोट निकाला और कहा, आप लोग चाय पीजिए। 'दैट' तो 'आई डू नॉट माइंड' लेकिन जो हमारे लोगों में कस्टम' नहीं है, उस पर 'इनसिस्ट' करना, 'दैट' मैं 'समहाउ इम्प्रॉपर फाइंड' करता हूँ।

    चड्ढा ने दस का नोट चपरासी को दिया और पुनः बड़े बाऊ के आगे हाथ फैला दिया कि एक नोट से सेक्शन का क्या बनना है? रुपया तीस हों तो चुग्गे-भर का जुगाड़ करा सकें।

    सारा सेक्शन जानता है कि यशोधर बाबू अपने बटुवे में सौ-डेढ़ सौ रुपए हमेशा रखते हैं, भले ही उनका दैनिक ख़र्च नगंय है। और तो और, बस-टिकट का ख़र्च भी नहीं। गोल मार्केट से 'सेक्रेटरिएट' तक पहले साइकिल से आते-जाते थे। इधर पैदल आने-जाने लगे हैं क्योंकि उनके बच्चे आधुनिक युवा हो चले हैं और उन्हें अपने पिता का साइकिल सवार होना सख़्त नागवार गुज़रता है। बच्चों के अनुसार साइकिल तो चपरासी चलाते हैं। बच्चे चाहते हैं कि पिता जी स्कूटर ले लें। लेकिन पिता जी को 'समाहउ' स्कूटर निहायत बेहूदा सवारी मालूम होती है और कार जब 'अफोर्ड' की ही नहीं जा सकती तब उसकी बात सोचना ही क्यों?

    चड्ढा के ज़ोर देने पर बड़े बाऊ ने दस-दस के दो नोट और दे दिए लेकिन सारे सेक्शन के इसरार करने पर भी वह अपनी 'सिल्वर वेडिंग' की इस दावत के लिए रुके नहीं। मातहत लोगों के चलते-चलते थोड़ा हँसी-मज़ाक कर लेना किशन दा की परंपरा में है। उनके साथ बैठकर चाय-पानी और गप्प-गप्पाष्टक में वक़्त बरबाद करना उस परंपरा के विरुद्ध है।

    इधर यशोधर बाबू ने दफ़्तर से लौटते हुए रोज़ बिड़ला मंदिर जाने और उसके उद्यान में बैठकर प्रवचन सुनने अथवा स्वयं ही प्रभु का ध्यान लगाने की नर्इ रीत अपनाई है। यह बात उनके पत्नी-बच्चों को बहुत अखरती है। बब्बा, आप कोई बुड्डे थोड़े हैं जो रोज़-रोज़ मंदिर जाएँ, इतने ज़ियादा व्रत करें। ऐसा कहते हैं वे। यशोधर बाबू इस आलोचना को अनसुना कर देते हैं। सिद्धान्त के धनी की, किशन दा के अनुसार, वही निशानी है।

    बिड़ला मंदिर से उठकर यशोधर बाबू पहाड़गंज जाते हैं और घर के लिए साग-सब्ज़ी ख़रीद लाते हैं। अगर किसी से मिलना-मिलाना हो तो वह भी इसी समय कर लेते हैं। तो भले ही दफ़्तर पाँच बजे छूटता हो, वह घर आठ बजे से पहले कभी नहीं पहुँते।

    आज बिड़ला मंदिर जाते हुए यशोधर बाबू की निगाह उस अहाते पर पड़ी जिसमें कभी किशन दा का तीन बेडरूम वाला बड़ा क्वार्टर हुआ करता था और जिस पर इन दिनों एक छह मंज़िला इमारत बनाई जा रही है। इधर से गुज़रते हुए, कभी के 'डी.आई.ज़ेड.' एरिया की बदलती शक्ल देखकर यशोधर बाबू को बुरा-सा लगता है। ये लोग सारा गोल मार्केट क्षेत्र तोड़कर यहाँ एक मंज़िला क्वार्टरों की जगह ऊँची इमारतें बना रहे हैं। यशोधर बाबू को पता नहीं कि ये लोग ठीक कर रहे हैं कि ग़लत कर रहे हैं। उन्हें यह ज़रूर पता है कि उनकी यादों के गोल मार्केट के ढहाए जाने का ग़म मनाने के लिए उनका इस क्षेत्र में डटे रहना निहायत ज़रूरी है। उन्हें एण्ड्रयूजगंज, लक्ष्मीबाई नगर, पंडारा रोड आदि नई बस्तियों में पद की गरिमा के अनुरूप डी-2 टाइप क्वार्टर मिलने की अच्छी ख़बर कई बार आई है, मगर हर बार उन्होंने गोल मार्केट छोड़ने से इंकार कर दिया है। जब उनका क्वार्टर टूटने का नंबर आया तब भी उन्हें इसी क्षेत्र की इन बस्तियों में बचे हुए क्वार्टरों में एक अपने नाम अलॉट करा लिया। पत्नी के यह पूछने पर कि जब यह भी टूट जाएगा तब क्या करोगे? उन्होंने कहा—तब की तब देखी जाएगी। कहा और उसी तरह मुस्कुराए जिस तरह किशन दा यही फ़िक़रा कहकर मुस्कुराते थे।

    सच तो यह है कि पिछले कई वर्षों से यशोधर बाबू का अपनी पत्नी और बच्चों से हर छोटी-बड़ी बात में मतभेद होने लगा है और इसी वजह से वह घर जल्दी लौटना पसंद नहीं करते। जब तक बच्चे छोटे थे तब तक वह उनकी पढ़ाई-लिखाई में मदद कर सकते थे। अब बड़ा लड़का एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी पा गया है। यद्यपि 'समहाउ' यशोधर बाबू को अपने साधारण पुत्र को असाधारण वेतन देने वाली यह नौकरी कुछ समझ में आती नहीं। वह कहते हैं कि डेढ़ हज़ार रुपया तो हमें अब 'रिटायरमेंअट' के पास पहुँचकर मिला है, शुरू में ही डेढ़ हज़ार रुपया देने वाली इस नौकरी में ज़रूर कुछ पेच होगा। यशोधर जी का दूसरा बेटा दूसरी बार आई.ए.एस. देने की तैयारी कर रहा है और यशोधर बाबू के लिए यह समझ सकता असंभव है कि अब यह पिछले साल ‘एलोइड सर्विसेज' की सूची में, माना काफी नीचे गया था तब इसने 'ज्वाइन' करने से इंकार कर दिया? उनका तीसरा बेटा 'स्कॉलरशिप' लेकर अमरीका चला गया है और उनकी एकमात्र बेटी ने केवल तमाम प्रस्तावित वर अस्वीकार करती चली जा रही है बल्कि डॉक्टरी की उच्चतम शिक्षा के लिए स्वयं भी अमरीका चले जाने की धमकी दे रही है। यशोधर बाबू जहाँ बच्चों की इस तरक़्क़ी से ख़ुश होते हैं वहाँ 'समहाउ' यह भी अनुभव करते हैं कि वह ख़ुशहाली भी कैसी जो अपनों में परायापन पैदा करे। अपने बच्चों द्वारा ग़रीब रिश्तेदारों की उपेक्षा उन्हें 'समहाउ' अँचती नहीं। 'एनीवे-जनरेशनों' में गैप तो होता ही है सुना-ऐसा कहकर स्वयं को दिलासा देता है पिता।

    यद्यपि यशोधर बाबू की पत्नी अपने मूल संस्कारों से किसी भी तरह आधुनिका नहीं है, तथापि बच्चों की तरफ़दारी करने की मातृसुलभ मजबूरी ने उन्हें भी 'मॉड' बना डाला है। कुछ यह भी है कि जिस समय उनकी शादी हुई थी। यशोधर बाबू के साथ गाँव से आए ताऊ जी और उनके दो विवाहित बेटे भी रहा करते थे। इस संयुक्त परिवार में पीछे ही पीछे बहुओं में ग़ज़ब के तनाव थे लेकिन ताऊ जी के डर से कोई कुछ कह नहीं पाता था। यशोधर बाबू की पत्नी को शिकायत है कि संयुक्त परिवार वाले उस दौर में पति ने हमारा पक्ष कभी नहीं लिया, बस जिठानियों की चलने दी। उनका यह भी कहना है कि मुझे आचार-व्यवहार के ऐसे बंधनों में रखा गया मानो मैं जवान औरत नहीं, बुढ़िया थी। जितने भी नियम इसकी बुढ़िया ताई के लिए थे, वे सब मुझ पर भी लागू करवाए-ऐसा कहती है घरवाली बच्चों से। बच्चे उससे सहानुभूति व्यक्त करते हैं। फिर वह यशोधर जी से उनमुख होकर कहती है—तुम्हारी ये बाबा आदम के ज़माने की बातें मेरे बच्चे नहीं मानते तो इसमें उनका कोई कसूर नहीं। मैं भी इन बातों को उसी हद तक मानूँगी जिस हद तक सुभीता हो। अब अब मेरे कहने से वह सब ढोंग-ढकोसला हो नहीं सकता-साफ़ बात।

    धर्म-कर्म, कुल-परंपरा सबको ढोंग-ढकोसला कहकर घरवाली आधुनिकाओं-सा आचरण करती है तो यशोधर बाबू 'शानियल बुढ़िया, चटाई का लहँगा' या 'बूढ़ी मुँह मुँहासे, लोक करें तमाशे' कहकर उसके विद्रोह को मज़ाक़ में उड़ा देना चाहते हैं, अनदेखा कर देना चाहते हैं, लेकिन यह स्वीकार करने को बाध्य भी होते जाते हैं कि तमाशा स्वयं उनका बन रहा है।

    जिस जगह किशनदा का एक क्वार्टर था उसके सामने खड़े होकर एक गहरा निःश्वास छोड़ते हुए यशोधर जी ने अपने से पूछा कि यह 'बेटर' नहीं रहता कि किशन दा की तरह घर-गृहस्थी का बवाल ही पाला होता और 'लाइफ़-कम्युनिटी' के लिए 'डेडीकेट' कर दी होती।

    फिर उनका ध्यान इस ओर गया कि बाल-जती किशन दा का बुढ़ापा सुखी नहीं रहा। उसके तमात साथियों ने हौज़ख़ास, ग्रीन पार्क, कैलाश कॉलोनी कहीं-न-कहीं ज़मीन ली, मकान बनवाया, लेकिन उसने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। रिटायर होने के छह महीने बाद जब उसे क्वार्टर ख़ाली करना पड़ा, तब हद हो गई, उसके द्वारा उपकृत इतने सारे लोगों में से एक ने भी उसे अपने यहाँ रखने की पेशकश नहीं की। स्वयं यशोधर बाबू उसके सामने ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं रख पाए क्योंकि उस समय तक उनकी शादी हो चुकी थी और उनके दो कमरों के क्वार्टर में तीन परिवार रहा करते थे। किशन दा कुछ साल राजेंद्र नगर में किराए का क्वार्टर लेकर रहा और फिर अपने गाँव लौट गया जहाँ साल-भर बाद उसकी मृत्यु हो गई।

    ज़ियादा पेंशन खा नहीं सका बेचारा! विचित्र बात यह है कि उसे कोई भी बीमारी नहीं हुई। बस, रिटायर होने के बाद मुरझाता-सूखता ही चला गया। जब उसके एक बिरादर से मृत्यु का कारण पूछा तब उसने यशोधर बाबू को यही जवाब दिया, जो हुआ होगा। 'यानी' पता नहीं क्यों हुआ!'

    जिन लोगों के बाल-बच्चे नहीं होते, घर-परिवार नहीं होता उनकी रिटायर होने के बाद 'जो हुआ होगा' से भी मौत हो जाती है—यह जानते हैं यशोधर जी। बच्चों का होना भी ज़रूरी है। यह सही है कि यशोधर जी के बच्चे मनमानी कर रहे हैं और ऐसा संकेत दे रहे हैं कि उनके कारण यशोधर जी को बुढ़ापे में कोई विशेष सुख प्राप्त नहीं होगा, लेकिन यशोधर जी अपने मर्यादा-पुरुष किशन दा से सुनी हुई यह बात नहीं भूले हैं कि गधा-पच्चीसी में कोई क्या करता है, इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए क्योंकि बाद में हर आदमी समझदार हो जाता है। यद्यपि युवा यशोधर को विश्वास नहीं होता तथापि किशन दा बताते हैं कि किस तरह मैंने जवानी में पचासों क़िस्म की ख़ुराफ़ात की हैं। ककड़ी चुराना, गर्दन मोड़ के मुर्ग़ी मार देना, पीछे की खिड़की से कूदकर 'सेकंड शो' सिनेमा देख आना-कौन करम ऐसा है जो तुम्हारे इस किशन दा ने नहीं कर रखा।

    ज़िम्मेदारी सिर पर पड़ेगी तब सब अपने-आप ठीक हो जाएँगे, यह भी किशन दा से विरासत में मिला हुआ एक फ़िक़रा है जिसे यशोधर बाबू अक्सर अपने बच्चों के प्रसंग में दोहराते हैं। उन्हें कभी-कभी लगता है कि अगर मेरे पिता तब नहीं गुज़रे होते जब मैं मैट्रिक में था तो शायद मैं भी गधा-पच्चीसी के लंबे दौर से गुज़रता। ज़िम्मेदारी सिर पर जल्दी पड़ गई तो जल्दी ही ज़िम्मेदार आदमी भी बन गया। जब तक बाप है तब तक मौज कर ले। यह बात यशोधर जी कभी-कभी तंज़िया कहते हैं। लेकिन कहते हुए उनके चेहरे पर जो मुस्कान खेल जाती है वह बच्चों पर यह प्रकट करती है कि बाप को उनका साथ होना, ग़ैर-ज़िम्मेदाराना होना, कुल मिलाकर अच्छा लगता है।

    यशोधर बाबू कभी-कभी मन-ही-मन स्वीकार करते हैं कि दुनियादारी में बीवी-बच्चे उनसे अधिक सुलझे हुए हो सकते हैं, लेकिन दो के चार करने वाली दुनिया ही उन्हें कहाँ मंज़ूर है जो उसकी रीति मंज़ूर करे। दुनियादारी के हिसाब से बच्चों का यह कहना सही हो सकता है कि बब्बा ने डी.डी.ए. फ़्लैट के लिए पैसा भर के भयंकर भूल की है। किंतु 'समहाउ' यशोधर बाबू को किशन दा की यह उक्ति अब भी जंचती है—मूरख लोग मकान बनाते हैं, सयाने उनमें रहते हैं। जब तक सरकारी नौकरी तब तक सरकारी क्वार्टर। रिटायर होने पर गाँव का पुश्तैनी घर बस! गाँव का पुश्तैनी घर टूट-फूट चुका है और उस पर इतने लोगों का हक़ है कि वहाँ जाकर बसना, मरम्मत की ज़िम्मेदारी ओढ़ना और बेकार के झगड़े मोल लेना होगा-इस बात को यशोधर जी अच्छी तरह समझते हैं। बच्चे बहस में जब वह तर्क दोहराते हैं तब उनसे कोई जवाब देते नहीं बनता। उन्होंने हमेशा यही कल्पना की थी, और आज भी करते हैं कि उनका कोई लड़का उनके रिटायर होने से पहले सरकारी नौकरी में जाएगा और क्वार्टर उनके परिवार के पास बना रह सकेगा। अब भी पत्नी द्वारा भविष्य का प्रश्न उठाए जाने पर यशोधर बाबू इस संभावना को रेखांकित कर देते हैं जब पत्नी कहती है, “अगर ऐसा नहीं हुआ तो? आदमी को तो हर तरह से सोचना चाहिए। तब यशोधर बाबू टिप्पणी करते हैं कि सब तरह से सोचने वाले हमारी बिरादरी में नहीं होते हैं। उसमें तो एक तरह से सोचने वाले होते हैं। कहते हैं और कहकर लगभग नक़ली ही हँसी हँसते हैं।

    जितना ही इस लोक की ज़िंदगी यशोधर बाबू को यह नक़ली हँसी हँसने के लिए बाध्य कर रही है। उतना ही वह परलोक के बारे में उत्साही होने का यत्न कर रहे हैं। तो उन्होंने बिड़ला मंदिर की ओर तेज़ क़दम बढ़ाए, लक्ष्मीनारायण के आगे हाथ जोड़े, असीक का फूल चुटिया में खोंसा और पीछे के उस प्रांगण में जा पहुँचे जहाँ एक महात्मा जी गीता का प्रवचन कर रहे थे।

    अफ़सोस, आज प्रवचन सुनने में यशोधर जी का मन ख़ास लगा नहीं। सच तो यह है कि वह भीतर से बहुत ज़ियादा धार्मिक अथवा कर्मकाण्डी हैं नहीं। हाँ, इस संबंध में अपने मर्यादा-पुरुष किशन दा द्वारा स्थापित मानक हमेशा उनके सामने रहे हैं। जैसे-जैसे उम्र ढल रही है, वैसे-वैसे वह भी किशन दा की तरह रोज़ मंदिर जाने, संध्या-पूजा करने और गीता प्रेस गोरखपुर की किताबें पढ़ने का यत्न करने लगे हैं। अगर कभी उनका मन शिकायत करता है कि इस सबमें लग नहीं पा रहा हूँ तब उससे कहते हैं कि भाई लगना चाहिए। अब तो माया-मोह के साथ-साथ भगवत भजन को भी कुछ स्थान देना होगा कि नहीं? नई पीढ़ी को देकर राजपाट तुम लग जाओ-बाट-वनप्रदेश की। जो करते हैं, जैसा करते हैं, करें। हमें तो अब इस 'वर्ल्ड' की नहीं, उसकी इस ‘लाइफ़' की नहीं, उसकी चिंता करनी हुई। वैसे अगर बच्चे सलाह माँगे, अनुभव का आदर करें तो अच्छा लगता है। अभी नहीं माँगते तो माँगे।

    यशोधर बाबू ने फिर अपने को झिड़का कि यह भी क्या हुआ कि मन को समझाने में फिर भटक गए। गीता-महिमा सुनो।

    सुनने लगे मगर व्याख्या में जनार्दन शब्द जो सुनाई पड़ा तो उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद हो आई। परसों ही कार्ड आया है कि उनकी तबीअत ख़राब है। यशोधर बाबू सोचने लगे कि जीजा जी का हाल पूछने अहमदाबाद जाना ही होगा। ऐसा सोचते ही उन्हें यह भी ख़याल आया कि यह प्रस्ताव उनकी पत्नी और बच्चों को पसंद नहीं आएगा। सारा संयुक्त परिवार बिखर गया है। पत्नी और बच्चों की धारणा है कि इस बिखरे परिवार के प्रति यशोधर जी का एकतरफ़ा लगाव आर्थिक दृष्टि से सर्वथा मूर्खतापूर्ण है। यशोधर जी ख़ुशी-ग़मी के हर मौक़े पर रिश्तेदारों के यहाँ जाना ज़रूरी समझते हैं। वह चाहते हैं कि बच्चे भी पारिवारिकता के प्रति उत्साही हों। बच्चे क्रुद्ध ही होते हैं। अभी उस दिन हद हो गई। कमाऊ, बेटे ने यह कह दिया कि आपको बुआ को भेजने के लिए पैसे मैं तो नहीं दूँगा। यशोधरा बाबू को कहना पड़ा कि अभी तुम्हारे बब्बा की इतनी साख़ है कि सौ रुपया उधार ले सकें।

    यशोधर जी का नारा है, 'हमारा तो पैसा ही ऐसा देखा ठहरा'—हमें तो यही परंपरा विरासत में मिली है। इस नारे से उनकी पत्नी बहुत चिढ़ती हैं। पत्नी का कहना है और सही कहना है, कि यशोधर जी का स्वयं का देखा हुआ कुछ भी नहीं है। माँ के मर जाने के बाद छोटी ही उम्र में वह गाँव छोड़कर अपनी विधवा बुआ के पास अल्मोड़ा गए थे। बुआ का कोई ऐसा लंबा-चौड़ा परिवार तो था नहीं जहाँ कि यशोधर जी कुछ देखते और परंपरा के रंग में रंगते। मैट्रिक पास करते ही वह दिल्ली गए और यहाँ रहे कुँआरे कृष्णानंद जी के साथ। कुँआरे की गिरस्ती में देखने को होता क्या है? पत्नी आग्रहपूर्वक कहती है कि कुछ नहीं, तुम अपने उन किशन दा के मुँह से सुनी-सुनाई बातों को अपनी आँखों-देखी यादें बना डालते हो। किशन दा को जो भी मालूम था वह उनका पुराने गँवई लोगों से सीखा हुआ ठहरा। दिल्ली आकर उन्होंने घर-परिवार तो बसाया नहीं जो जान पाते कि कौन से रिवाज निभा सकते हैं, कौन से नहीं। पत्नी का कहना है किशन दा तो थे ही जन्म के बूढ़े, तुम्हें क्या सुर लगा जो उनका बुढ़ापा ख़ुद ओढ़ने लगे हो? तुम शुरू में तो ऐसे नहीं थे, शादी के बाद मैंने तुम्हें देख जो क्या नहीं रखा है। हफ़्ते में दो-दो सिनेमा देखते थे। हर इतवार भड्डू चढ़ाकर अपने लिए शिकार पकाते थे। ग़ज़ल गाते थे ग़ज़ल। ग़ज़ल हुई और सहगल के गाने।

    यशोधार बाबू स्वीकार करते हैं कि उनमें कुछ परिवर्तन हुआ है, लेकिन वह समझते हैं कि उम्र के साथ-साथ बुज़ुर्गियत आना ठीक ही है। पत्नी से वह कहते हैं कि जिस तरह तुमने बुढ्याकाल यह वग़ैरह बाँह का ब्लाउज़ पहनना, यह रसोई से बाहर भात-दाल खा लेना, यह ऊँची हील वाली सैंडल पहनना, और ऐसे ही पचासों काम अपनी बेटी की सलाह पर शुरू कर दिए हैं, मुझ तो वे 'समहाउ इम्प्रॉपर' ही मालूम होते हैं। 'एनीवे' मैं तुम्हें ऐसा करने से रोक नहीं रहा, 'देयरफोर' तुम लोगों को भी मेरे जीने के ढंग पर कोई एतिराज़ होना नहीं चाहिए।

    यशोधर बाबू को धार्मिक प्रवचन सुनते हुए भी अपना पारिवारिक चिंतन में ध्यान डूबा रहना अच्छा नहीं लगा। सुबह-शाम संध्या करने के बाद जब वह थोड़ा ध्यान लगाने की कोशिश करते हैं तब भी मन किसी परमसत्ता नहीं, इसी परिवार में लीन होता है। यशोधर जी चाहते हैं कि ध्यान लगाने की सही विधि सीखें। साथ ही वह अपने से भी कहते हैं कि 'परहैप्स' ऐसी चीज़ों के लिए 'रिटायर' होने के बाद का समय ही 'प्रॉपर' ठहरा। वानप्रस्थ के लिए 'प्रेसक्राइव्ड' ठहरीं ये चीज़ें। वानप्रस्थ के लिए यशोधर बाबू का अपने पुश्तैनी गाँव जाने का इरादा है कि रिटायर होकर। 'फॉर फ्रॉम मैडिंग क्राउड' —समझे!

    इस तरह की तमाम बातें यशोधर बाबू पैदाइशी बुज़ुर्गवार किशन दा के शब्दों में और उनके ही लहजे में कहा करते हैं और कहकर उनकी तरह की वह झेंपी-सी लगभग नक़ली-सी हँसी हँस देते हैं। जब तक किशन दा दिल्ली में रहे यशोधर बाबू नित्य नियम से हर दूसरी शाम उनके दरबार में हाज़िरी लगाने पहुँचते रहे।

    स्वयं किशन दा हर सुबह सैर से लौटते हुए अपने इस मानसपुत्र के क्वार्टर में झाँकना और 'हेल्दी वेल्दी एंड वाइज़' बन रहा है भाऊ, ऐसा कहना कभी नहीं भूलते। जब यशोधर बाबू दिल्ली आए थे तब उनकी सुबह थोड़ी देर से उठने की आदत थी। किशन दा ने उन्हें रोज़ सुबह झकझोरकर उठाने और साथ सैर पर ले जाना शुरू किया और यह मंत्र दिया कि 'अर्ली टु बेड एंड अर्ली टु राइज़ मेकस मैन हेल्दी वेल्दी एंड वाइज़' जब यशोधर बाबू अलग क्वार्टर में रहने लगे और अपनी गृहस्थी में डूब गए तब भी किशन दा ने यह देखते रहना ज़रूरी समझा कि भाऊ यानी बच्चा सवेरे जल्दी उठता है कि नहीं। हर सवेरे वह किशन दा से अनुरोध करते कि चाय पीकर जाएँ। किशन दा कभी-कभी इस अनुरोध की रक्षा कर देते। यशोधर बाबू ने किशन दा को घर और दफ़्तर में विभिन्न रूपों में देखा है लेकिन किशन दा की ही जो छवि उनके मन में बसी हुई है वह सुबह की सैर निकले किशन दा की है—कुर्ते-पैजामें के ऊपर ऊनी गाउन पहने, सिर पर गोल विलायती टोपी और पाँवों में देशी खड़ाऊ धारण किए हुआ और हाथ में (कुत्तों को भगाने के लिए) एक छड़ी लिए हुए।

    जब तक किशन दा दिल्ली में रहे तब तक यशोधर बाबू ने उनके पट्टशिष्य और उत्साही कार्यकर्ता की भूमिका पूरी निष्ठा से निभाई। किशन दा के चले जाने के बाद उन्होंने ही उनकी कई परंपराओं को जीवित रखने की कोशिश की और इस कोशिश में पत्नी और बच्चों को नाराज़ किया। घर में होली गवाना, 'जन्यो पुन्यूँ' के दिन सब कुमाऊँनियों को जनेऊ बदलने के लिए अपने घर आमंत्रित करना, रामलीला की तालीम के लिए क्वार्टर का एक कमरा दे देना—ये और ऐसे ही कई और काम यशोधर बाबू ने किशन दा से विरासत में लिए थे। उनकी पत्नी और बच्चों को इन आयोजनों पर होने वाला ख़र्च और इन आयोजनों में होने वाला शोर, दोनों ही सख़्त नापसंद थे। बहतर यही कि इस आयोजनों के लिए समाज में भी कोई ख़ास उत्साह रह नहीं गया है।

    यशोधर जी चाहते हैं कि उन्हें समाज का सम्मानित बुज़र्ग माना जाए, लेकिन जब समाज ही हो तो यह पद उन्हें क्योंकर मिले? यशोधर जी चाहते हैं कि बच्चे मेरा आदर करें और उसी तरह हर बात में मुझसे सलाह लें जिस तरह मैं किशन दा से लिया करता था। यशोधर बाबू 'डेमोक्रेट' हैं और हर्गिज़ यह दुराग्रह नहीं करना चाहते कि बच्चे उनके कहे को पत्थर की लकीर समझें। लेकिन यह भी क्या हुआ कि पूछा ताछा, जिसके मन में जैसा आया, करता रहा! 'ग्राण्टेड' तुम्हारी 'नॉलेज' ज़ियादा होगी, लेकिन ‘एक्सपीरिएंस' को कोई 'सबस्टिट्यूट' ठहरा नहीं बेटा! मानों मानो, झूठे मुँह से सही-एक बार पूछ तो लिया करो, ऐसा कहते हैं यशोधर बाबू और बच्चे यही उत्तर देते हैं, बब्बा, आप तो हद करते हैं! जो बात आप जानते ही नहीं आपसे क्यों पूछे?

    प्रवचन सुनने के बाद यशोधर बाबू सब्ज़ी मंडी गए। यशोधर बाबू को अच्छा लगता अगर उनके बेटे बड़े होने पर अपनी तरफ़ से यह प्रस्ताव करते कि दूध लाना, राशन लाना, सी.जी.एच. डिस्पेंसरी से दवा लाना, सदर बाज़ार जाकर दालें लाना, पहाड़गंज से सब्ज़ी लाना, डिपो से कोयला लाना-ये सब काम आप छोड़ दें, अब हम कर दिया करेंगे। एकाध बार बेटों से ख़ुद उन्होंने कहा, तब वे एक-दूसरे से कहने लगे कि तू किया कर, तू क्यों नहीं करता! इतना कोहराम मचा और लड़कों ने एक-दूसरे को इतना ज़ियादा बुरा-भला कहा कि यशोधर बाबू ने इस विषय को उठाना भी बंद कर दिया। जब से बड़ा बेटा विज्ञापन कंपनी में बड़ी नौकरी पा गया है, तब से बच्चों का इस प्रसंग में एक ही वक़्तव्य है—बब्बा, हमारी समझ में नहीं आता कि इन कामों के लिए आप एक नौकर क्यों नहीं रख लेते? इजा को भी आराम हो जाएगा। कमाऊ बेटा नमक छिड़कते हुए यह भी कहता कि नौकर की तनख़्वाह मैं दे दूँगा।

    यशोधर बाबू को यही 'समहाउ इम्प्रॉपर' मालूम होता है कि उनका बेटा अपना वेतन उनके हाथ में नहीं रखे। यही सही है कि वेतन स्वयं बेटे के अपने हाथ में नहीं आता, 'एकाउंट ट्रान्सफ़र' द्वारा बैंक में जाता है। लेकिन क्या बेटा बाप के साथ 'ज्वाइंट एकाउंट' नहीं खोल सकता था? झूठे मुँह से ही सही, एक बार ऐसा कहता तो! तिस पर बेटे का अपने वेतन को अपना समझते हुए बार-बार कहना कि यह काम मैं अपने पैसे से कर रहा हूँ, आपके से नहीं जो नुक्ताचीनी करें। हम क्रम में बेटे ने यह क्वार्टर तक अपना बना लिया है। अपना वेतन अपने ढंग से वह इस घर में ख़र्च कर रहा है। कभी 'कारपेट' बिछवा रहा है, कभी पर्दे लगवा रहा है। कभी सोफ़ा रहा है। कभी 'डनलप' वाला 'डबलबेड' और सिंगार-मेज़। कभी टी.वी., कभी फ्रिज़। क्या हुआ यह? और ऐसा भी नहीं कहता कि लीजिए पिताजी, मैं आपके लिए टी.वी. ले आया हूँ। कहता यही है कि यह मेरा टी.वी. है, समझे, इसे कोई छुआ करे। क्वार्टर ही उसका हो गया। यह अच्छी रही। अब इनका एक नौकर भी रखो घर में। इनका नौकर होगा तो इनके लिए ही होगा। हमारे लिए तो क्या होगा—ऐसा समझाते हैं यशोधर बाबू घरवाली को। काम सब अपने हाथ से ही ठीक होते हैं। नौकरों को सौंपा कारबार चौपट हुआ। कहते हैं यशोधर बाबू, पत्नी भी सुनती है, मगर नहीं सुनती। पर सुनकर अब चिढ़ती भी नहीं। सब्ज़ी का झोला लेकर यशोधर बाबू ख़ुदी हुई सड़कों और टूटे हुए क्वार्टर के मलबे से पटे हुए नालों नालों को पार करके 'स्क्वेअर' के उस कोने में पहुँचे जिसमें तीन क्वार्टर अब भी साबुत खड़े हुए थे। उन तीन में से कुल एक को अब तक एक सिरफिरा आबाद किए हुए है। बाहर बदरंग तख़्ती में उसका नाम लिखा—वाई.डी.पंत।

    इस क्वार्टर के पास पहुँचकर आज वाई.डी.पंत को पहले धोखा हुआ कि करे। किसी ग़लत जगह गए हैं। क्वार्टर के बाहर एक कार थी, कुछ स्कूटर-मोटरसाइकिल। बहुत-से लोग विदा ले दे रहे थे। बाहर बरामदे में रंगीन काग़ज़ की झालरें और ग़ुब्बारे लटके हुए थे और रंग-बिरंगी रोशनियाँ जली हुई थीं।

    फिर उन्हें अपना बड़ा, बेटा भूषण पहचान में आया, जिससे कार में बैठा हुआ कोई साहब हाथ मिला रहा था और कह रहा था, गिव माई वार्म रिगार्ड्स टु योर फादर।

    यशोधर बाबू ठिठक गए। उन्होंने अपने से पूछा—क्यों, आज मेरे क्वार्टर में क्या हो रहा होगा? उसका जवाब भी उन्होंने अपने को दिया—जो करते होंगे यह लौंडे-मौंडे, इनकी माया यही जानें!

    अब यशोधर बाबू का ध्यान इस ओर गया कि उनकी पत्नी और उनकी बेटी भी कुछ मेमसाबों को विदा करते हुए बरामदे में खड़ी हैं। लड़की जीन्स और बग़ैर बाँह का टॉप पहने है। यशोधर बाबू उससे कई मर्तबा कह चुके हैं कि तुम्हारी यह पतलून और सैंडो बनियानी ड्रेस मुझे तो 'समहाउ इम्प्रॉपर' मालूम होती है। लेकिन वह भी ज़िद्दी ऐसी है कि इसे ही पहनती है। और पत्नी भी उसी की तरफ़दारी करती है। कहती है—वह सिर पर पल्लू-वल्लू मैंने कर लिया बहुत तुम्हारे कहने पर, समझे मेरी बेटी वही करेगी जो दुनिया कर रही है। पुत्री का पक्ष लेने वाली यह पत्नी इस समय होंठों पर लाली और बालों पर ख़िज़ब लगाए हुए थी जबकि ये दोनों ही चीज़ें, आप कुछ भी कहिए, यशोधर बाबू को 'समहाउ इम्प्रॉपर' ही मालूम होती हैं।

    आधुनक क़िस्म के अजनबी लोगों की भीड़ देखकर यशोधर बाबू अँधेरे में ही दुबके रहे। उनके बच्चों को इसीलिए शिकायत है कि बब्बा तो 'एल.डी.सी. टाइपों से ही 'मिक्स' करते हैं।

    जब कार वाले लोग चले गए तब यशोधर बाबू ने अपने क्वार्टर में क़दम रखने का साहस जुटाया। भीतर अब भी पार्टी चल रही थी। उनके पुत्र-पुत्रियों के कई मित्र तथा उनके कुछ रिश्तेदार जमे हुए थे। उनके बड़े बेटे ने झिड़की-सुनाई, बब्बा, आप भी हद करते हैं। 'सिल्वर वेडिंग' के दिन साढ़े आठ बजे घर पहुँचे हैं। अभी तक मेरे बॉस आपकी राह देख रहे थे।

    हम लोगों के यहाँ 'सिल्वर वेडिंग' कब से होने लगी? यशोधर बाबू ने शर्मीली हँसी हँस दी।

    जबसे तुम्हारा बेटा डेढ़ हज़ार माहवार कमाने लगा, तब से। यह टिप्पणी थी चन्द्रदत्त तिवारी की जो इसी साल ‘एस.ए.एस.' पास हुआ है और दूर के रिश्ते से यशोधर बाबू का भानजा लगता है।

    यशोधर बाबू को अपने बेटों से तमाम तरह की शिकायतें हैं, लेकिन कुल मिलाकर उन्हें यह अच्छा लगता है कि लोग-बाग उन्हें ईर्ष्या का पात्र समझते हैं। भले ही उन्हें भूषण का ग़ैर-सरकारी नौकरी करना समझ में आता हो तथापि वह यह बख़ूबी समझते हैं कि इनती छोटी उम्र में डेढ़ हज़ार माहवार प्लस कंवेंस एलाउंस एंड' तुम्हारा ‘अदर वर्क्स' पा जाना कोई मामूली बात नहीं है। इसी तरह भले ही यशोधर बाबू ने बेटों की ख़रीदी हुई हर नई चीज़ के संदर्भ में यही टिप्पणी की हो कि ये क्या हुई 'समहाउ' मेरी तो समझ में आता नहीं। इसकी क्या ज़रूरत थी, तथापि उन्हें कहीं इस बात से थोड़ी ख़ुशी भी होती है कि इस चीज़ के जाने से उन्हें नए दौर के, निश्चय ही ग़लत, मानकों के अनुसार बड़ा आदमी मान लिया जा रहा है। मिसाल के लिए जब बेटों ने गैस का चूल्हा जुटाया तब यशोधर बाबू ने उसका विरोध किया और आज भी वह यही कहते हैं कि इस पर बनी रोटी मुझे तो 'समहाउ' रोटी जैसी लगती नहीं, तथापि वह जानते हैं कि गैस होने पर इस नगर में चपरासी श्रेणी के मान लिए जाते। इसी तरह फ़्रिज़ के संदर्भ में आज भी यशोधर बाबू यही कहते हैं कि मेरी समझ में आज तक यह नहीं आया कि इसका फ़ायदा क्या है। बासी खाना खाना अच्छी आदत नहीं ठहरी। और यह ठहरा इसी काम का कि सुबह बना के रख दिया और शाम को खाया। इसमें रखा हुआ भी मेरे मन को तो भाता नहीं, गला पकड़ लेता है। कहते हैं, मगर इस बात से संतुष्ट होते हैं कि घर आए साधारण हैसियत वाले मेहमान इस फ़्रिज़ का पानी पीकर अपने को धन्य अनुभव करते हैं।

    अपनी 'सिल्वर वेडिंग' की यह भव्य पार्टी भी यशोधर बाबू को 'समहाउ इम्प्रॉपर' ही लगी तथापि उन्हें इस बात से संतोष हुआ कि जिस अनाथ यशोधर के जन्मदिन तक पर कभी लड्डू नहीं आए, जिसने अपना विवाह भी ‘कोऑपरेटिव' से दो-चार हज़ार क़र्ज़ निकालकर किया, वग़ैरह किसी ख़ास धूमधाम के, उसके विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर केक, चार तरह की मिठाई, चार तरह की नमकीन, फल, कोल्ड ड्रिंक्स, चाय और नज़र-अंदाज़ कैसे करें, व्हिस्की, सब मौजूद हैं।

    व्हिस्की की लगभग ख़ाली बोतल को इंगित करते हुए यशोधर बाबू ने पूछा, क्यों भूषण, व्हाट इज़ दिस?

    भूषण बोला, व्हिस्की है, और क्या। मैंने अपने 'बॉस' को, 'कुलीग्स' को 'इनवाइट' किया था। उनको क्या पिलाता, शिकंजी?

    शिकंजी ज़हर होती होगी, यशोधर बाबू ने व्यंग्य किया, जब हमारे यहाँ व्हिस्की 'सर्व' करने का कोई 'ट्रेडिशन' ही नहीं ठहरा, तब हमें कोई 'फोर्स' तो क्या कर सकता है? मैं तो कहता हूँ कि यह 'पार्टी' करने की भी क्या ज़रूरत पड़ गई थी? किसी ने कथा था तुमसे? सवेरे जब मैं गया था तो इसकी कोई बात नहीं थी।

    एक कोने में बैठकर कोला में ढकी हुई व्हिस्की पीता हुआ गिरीश बोला, गुनाहगार मैं हूँ जीजा जी। मुझे आज सुबह बैठे-बैठे याद आई कि आपकी शादी छह फ़रवरी सन् सैंतालीस को हुई थी। और इस हिसाब से आज उसे पच्चीस साल पूरे हो गए हैं। मैंने आपके दफ़्तर फ़ोन किया लेकिन शायद आपका फ़ोन ख़राब था। तब मैंने भूषण को फ़ोन किया। भूषण ने कहा, शाम को जाइए, 'पार्टी' करते हैं। मैंने अपने 'बॉस' को भी बुला लूँगा इसी बहाने।

    गिरीश यशोधर बाबू की पत्नी का चचेरा भाई है। बड़ी कंपनी में 'मार्केटिंग मैनेजर' है और इसकी सहायता से ही यशोधर बाबू के बेटे को विज्ञापन कंपनी में बढ़िया नौकरी मिली है। यशोधर बाबू को अपना यह संपन्न साला ‘समहाउ' भयंकर ओछाट यानी ओछेपन का धनी मालूम होता है। उन्हें लगता है कि इसी ने भूषण को बिगाड़ दिया है। कभी कहते हैं ऐसा तो पत्नी बरस पड़ती है—ज़िंदगी बना दी तुम्हारे 'सिकंड क्लास' बी.ए. बेटे की, कहते हो बिगाड़ दिया।

    भूषण ने अपने मित्रों-सहयोगियों का यशोधर बाबू से परिचय कराना शुरू किया। उनकी 'मैनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ डे' का 'थैक्यू' कहकर जवाब देते हुए, जिन लोगों का नाम पहले बता दिया गया हो उनकी ओर ‘वाई.डी.पंत, होम मिनिस्ट्री, भूषण' से फ़ादर' कहकर स्वयं हाथ बढ़ा देने में यशोधर बाबू ने हर क्षण यह बताने की कोशिश की कि भले ही वह सरकारी कुमाऊँनी हैं तथापि विलायती रीति-रिवाज़ से भी भली-भाँति परिचित हैं। किशन दा कहा करते थे कि आना सब कुछ चाहिए, सीखना हर एक की बात ठहरी, लेकिन अपनी छोड़ना नहीं हुई। टाई-सूट पहनना आना चाहिए लेकिन धोती-कुर्ता अपनी पोशाक है यह नहीं भूलना चाहिए।

    अब बच्चों ने एक और विलायती परंपरा के लिए आग्रह किया—यशोधर बाबू अपनी पत्नी के साथ 'केक' काटें। घरवाले पहली थोड़ा शर्माई लेकिन जब बेटी ने हाथ खींचा तब उसे 'केक' के पीछे जा खड़ा होने में कोई हिचक नहीं हुई, वहीं से उसने पति को भी पुकारा।

    यशोधर बाबू को 'केक काटना' बचकानी बात मालूम हुई। बेटी उन्हें लगभग खींचकर ले गई। यशोधर बाबू ने कहा, समहाउ आई डॉण्ट लाइक ऑल दिस, लेकिन 'एनीवे' उन्होंने केक काट ही दिया। गिरीश ने उनकी यह अनमनी किंतु संतुष्ट छवि कैमरे में क़ैद कर ली। अब पत्नी-पति से कहा गया कि वे 'केक' से मुँह मीठा करें एक-दूसरे का। पत्नी ने खा लिया मगर यशोधर बाबू ने इंकार कर दिया। उनका कहना था कि मैं केक खाता नहीं, इसमें अंडा पड़ा होता है। उन्हें याद दिलाया गया कि अभी कुछ वर्षों पहले तक आप माँसहारी थे, एक टुकड़ा 'केक' खा लेने में क्या हो जाएगा? लेकिन वह नहीं माने। तब उनसे अनुरोध किया गया कि लड्डू ही खा लें। भूषण के एक मित्र ने लड्डू उठाकर मुँह में ठूसने का यत्न किया। लेकिन यशोधर बाबू इसके लिए भी राज़ी नहीं हुए। उनका कहना था कि मैंने अब तक संध्या नहीं की है। इस पर भूषण ने झुंझलाकर कहा, तो बब्बा, पहले जाकर संध्या कीजिए। आपकी वजह से हम लोग कब तक रुके रहेंगे।

    'नहीं-नहीं, आप सब लोग खाइए, यशोधर बाबू ने बच्चों के दोस्तों से कहा, प्लीज, गो अहेड, नो फॉरमैल्टी।

    यशोधर बाबू ने आज पूजा में कुछ ज़ियादा ही देर लगाई। इतनी देर कि ज़ियादातर मेहमान उठकर चले जाएँ।

    उनकी पत्नी, उनके बच्चे बारी-बारी आकर झाँकते रहे और कहते रहे—जल्दी कीजिए, मेहमान जा रहे हैं।

    शाम की पंद्रह मिनट की पूजा को लगभग पच्चीस मिनट तक खींच लेने के बाद भी जब बैठक से मेहमानों की आवाज़ें आती सुनाई दी तब यशोधर बाबू पद्मासन साधकर ध्यान लगाने बैठ गए। वह चाहते थे कि उन्हें प्रकाश का एक नीला बिंदु दिखाई दे, मगर उन्हे किशन दा दिखाई दे रहे थे।

    यशोधर बाबू किशन दा से पूछ रहे थे कि 'जो हुआ होगा' से आप कैसे मर गए? किशन दा कह रहे थे कि भाऊ, सभी जन इसी, जो हुआ होगा, से मरते हैं। गृहस्थ हों, ब्रह्मचारी हों, अमीर हों, ग़रीब हों, मरते ‘जो हुआ होगा' से ही हैं। हाँ हाँ, शुरू में और आख़िर में, सब अकेले ही होते हैं, अपना कोई नहीं ठहरा दुनिया में, बस एक नियम अपना हुआ।

    यशोधर बाबू ने पाजामा-कुर्ता पर ऊनी ड्रेसिंग गाउन पहने, सिर पर गोल विलायती टोपी, पाँवों में देशी खड़ाऊँ और हाथ में डंडा धारण किए इस किशन दा से अकेलेपन के विषय में बहस करनी चाही, उनका विरोध करने के लिए नहीं बल्कि बात कुछ और अच्छी तरह समझने के लिए।

    हर रविवार किशन दा शाम को ठीक चार बजे यशोधर बाबू के घर आया करते थे। उनके लिए गर्मा-गर्म चाय बनवाई जाती थी। उनका कहना था कि जिसे फूंक मारकर पीना पड़े वह चाय कैसी। चाय सुड़कते हुए किशन दा प्रवचन करते थे और यशोधर बाबू बीच-बीच में शंकाएँ उठाते थे।

    यशोधर बाबू को लगता है कि किशन दा आज भी मेरा मार्गदर्शन कर सकेंगे और बता सकेंगे कि मेरी बीवी-बच्चे जो कुछ भी कर रहे हैं उसके विषय में मेरा रवैया क्या होना चाहिए?

    लेकिन किशन दा तो वही अकेलापन का खटराग अलापने पर आमादा से मालूम होते हैं।

    कैसी बीवी, कहाँ के बच्चे। यह सब माया ठहरी और यह जो भूषण तेरा आज इतना उछल रहा है वह भी किसी दिन इतना ही अकेला और असाहय अनुभव करेगा जितना कि आज तू कर रहा है।

    यशोधर बाबू बात आगे बढ़ाते लेकिन उनकी घरवाली उन्हें झिड़कते हुए पहुँची कि क्या आज पूजा में ही बैठे रहोगे? यशोधर बाबू आसन से उठे और उन्होंने दबे स्वर में पूछा “मेहमान गए? पत्नी ने बताया, कुछ गए, कुछ हैं। उन्होंने जानना चाहा कि कौन-कौन हैं? आश्वस्त होने पर कि सभी रिश्तेदार ही हैं वह उसी लाल गमछे में बैठक में चले गए जिसे पहनकर वह संध्या पर बैठे थे। यह गमछा पहनने की आदत भी उन्हें किशन दा से विरासत में मिली है और उनके बच्चे इसके सख़्त ख़िलाफ़ हैं।

    एवरीबडी गॉन, पार्टी ओवर? यशोधर बाबू ने मुस्कुराकर अपनी बेटी से पूछा, अब गोया गमछा पहने रहा जा सकता है?

    उनकी बेटी झल्लाई—लोग चले गए इसका मतलब यह थोड़ी है कि आप गमछा पहनकर बैठक में जाएँ। बब्बा, 'यू आर लिमिट'।”

    बेटी, हमें जिसमें सज आएगी वहीं करेंगे ना'' यशोधर बाबू ने कहा, तुम्हारी तरह जीन्स पहनकर हमें तो सज आती नहीं।

    यशोधर बाबू की दृष्टि मेज़ पर रखे कुछ पैकटों पर पड़ी। बोले, “ये कौन भूले जा रहा है?

    भूषण बोला, आपके लिए 'प्रेजेंट' हैं, खोलिए ना।

    अह, इस उम्र में क्या हो रहा 'प्रेज़ेंट-वीज़ेंट!' तुम खोलो, तुम्ही इस्तेमाल करो। यशोधर बाबू शर्मीली हँसी हँसे।

    भूषण सबसे बड़ा पैकेट उठाकर और उसे खोलते हुए बोला, “इसे तो ले लीजिए। यह मैं आपके लिए लाया हूँ। ऊनी 'ड्रेसिंग गाउन' है। आप सवेरे जब दूध लेने जाते हैं बब्बा, फटा ‘प्लोवर' पहन के चले जाते हैं जो बहुत ही बुरा लगता है। आप इसे पहन के जाया कीजिए।

    बेटी पिता का पाजामा-कुर्ता उठा लाई कि इसे पहनकर गाउन पहनें।

    थोड़ा-सा ना-नुच करने के बाद यशोधर जी ने इस आग्रह की रक्षा की। 'गाउन' का 'सैश' कसते हुए उन्होंने कहा, “अच्छा तो यह ठहरा 'ड्रेसिंग गाउन'। उन्होंने कहा और उनकी आँखों की कोर में ज़रा-सी नमी चमक गई।

    यह कहना मुश्किल है कि इस घड़ी उन्हें यह बात चुभ गई कि उनका जो बेटा यह कह रहा है कि आप सवेरे यह 'ड्रेसिंग गाउन' पहनकर दूध लाने जाया करें, वह यह नहीं कर रहा है कि दूध मैं ला दिया करूँगा या कि इस गाउन को पहनकर उनके अंगों में वह किशन दा उतर आया है जिसकी मौत 'जो हुआ होगा' से हुई।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 76)
    • संपादक : स्वयं प्रकाश
    • रचनाकार : मनोहर श्याम जोशी
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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