प्यासी हूँ

pyasi hoon

उषादेवी मित्र

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प्यासी हूँ

उषादेवी मित्र

और अधिकउषादेवी मित्र

    कोई बारह बज चुके थे। दुनिया के पर्दे से स्वप्न की रानी झाँक रही थी—विजेता की भाँति, उसके नूपुर के मिलन-गीत से पृथ्वी मूर्छित-सी होती जाती थी।

    वकील केशव के उस बड़े मकान के सभी कमरों की बत्तियाँ बुझ चुकी थीं, केवल सहाना का कमरा तब भी बिजली-शिखा से उज्ज्वल हो रहा था। मख़मल के काउच पर कुत्ते के बच्चे को लिए वह बैठी थी। पलंग के सफ़ेद रेशम के बिस्तर को किसी ने छुआ तक नहीं था, गुलदस्तों के फूलों की मीठी सुगंध से कमरे की हवा व्याकुल हो रही थी, गुलाब जल से बसे पान के बीड़े अनादर से रकाबी पर ही सूख रहे थे, दीवाल पर के ऑयल-पेंटिंग चित्रों के नीचे की दीप-शिखाएँ उस गहरी रात में कुछ म्लान-सी हो रही थी, शायद नींद से उनकी आँखें भी अलसा रही हों, किंतु उसकी पलकों में नींद की एक हलकी-सी छाया भी थी। वह उस बच्चे को सुला रही थी, परम आदर के साथ कभी उसे आदर, प्यार, सोहाग से बेचैन कर देती तो कभी उसे हृदय से लगाती, मुँह चूमने लगती। वह भूल बैठी थी पति के अस्तित्व को जो कि कुछ ही दूर आराम कुर्सी पर अधलेटे हुए नारी हृदय की ममता की प्यास को, मातृत्व की वुभुक्षा को अपलक नेत्रों से देख रहा था। उसकी दृष्टि जीवंत विस्मय से विमूढ़ हो रही थी। मुक़दमे के काग़ज़ वैसे ही इधर-उधर पड़े थे, उस ओर ध्यान देने योग्य उस समय उसके मन की स्थिति नहीं थी।

    आज अचानक नहीं, परंतु कई दिनों से केशव शायद अपनी भूल कुछ-कुछ समझ रहा था। एक अनजान दर्द, एक अपरिचित प्रभाव से यह कभी बेचैन हो जाता, चेष्टा करने पर उसकी समझ में बात नहीं आती कि वह व्यथा, वह अभाव किस लिए और क्यों है? वह अनजान-सा बना रहता।

    पत्नी का दीर्घ श्वास, कुत्ते के प्रति उसकी वह लालायित दृष्टि केशव के अंतर के किसी गोपनीय अंश में आघात कर बैठी, जूही की झाड़ी आँखों के सामने से हट गई, मोती-जैसे फूल बिखर गए। गत-दिवस के वे रंगीले दृश्य चल-चित्र के समान सामने अड़ गए, जहाँ कि एक नारी रूप, रूप-गंध-पूर्ण अपने सुगठित यौवन की मदिरा भरे कलश को लेकर उसी के पैर तले बैठी वर्षों विनिद्र रजनी बिता दिया करती थी, नारी रूप-उपासक के पैरों में अपने श्रेष्ठ मातृत्व तक को न्योछावर करने में जिसने विचार तक नहीं किया था, पति की तुष्टि के लिए जिसके नयन, प्रत्येक रोम सदा ख़ुशी की वर्षा किया करते थे, नूतनत्व-विहीन संपूर्ण लुटी हुई नारी वह यही है। बाहरी जगत के तीव्र आकर्षण, करोड़ों कामों में पिसकर जिसे कि आज बासी माला की तरह दूर फेंक देना पड़ा है, वह दूसरी नहीं—यही है—यही, यही। जिसे कि आज इस विलासिता के अंदर तपस्विनी गौरी की तरह जागते ही रात बितानी पड़ रही है, कुत्तों और बिल्ली के बच्चों को लेकर माँ की प्यास—केशव जबरन ही हँस पड़ा। अपने आपको डाँटने लगा—यह सब वह क्या सोच रहा था? वह आश्चर्य में था कि ऐसे विचार उसके मन में उठे ही क्यों?

    उस हँसी से सहाना चौकी—अभी सोओगे? बत्ती बुझा दूँ?

    'नहीं, अभी काग़ज़ देखना है।'

    'क्या रात-भर काम ही करते रहोगे? दो बज रहे हैं।'

    'किंतु अभी तक तो तुम्हारे खेल को देख रहा था। बुढ़ापे में कुत्तों के पिल्लों से खेलते तुम्हें शर्म नहीं आती, लोग कहेंगे क्या?

    सहाना ने सहमी हुई आँखें उठाई—उसकी माँ मर गई है, बच्चा दिन-रात रोया करता है। आँसू छिपाने के लिए सहाना ने दूसरी ओर मुँह फेर लिया।

    'एक दिन मरना तो सबको है; फिर कुत्ते-बिल्ली के लिए यदि सभी आँसू बहा दोगी तो मेरे लिए बचेगा क्या?'

    'तुम फिर वही बातें करते हो।' उसने अभिमान से मुँह फेर लिया। बहुत दिनों के बाद पति के मुँह से उसी भूले-से परिहास को सुनकर वह विस्मित हो रही थी। गत प्रेम के दिनों का जीवन ही कितना था? बूँद भर ओस, जुगुनू की दीवट, फूल की पँखुड़ी की तरह छोटे, बहुत ही छोटे दिन, किंतु उन छोटे दिनों की वह प्रेम-स्मृति सहाना के निकट अमर और अविनाशी थी।

    'बहुत दिनों के बाद।' उसने धीरे से कहा।

    'मैं उन बातों को भूला नहीं हूँ सहाना। किंतु मैं कभी आश्चर्य करता हूँ, सोचता रहता हूँ कि जिस अंतर में कभी दिन-रात प्रेम-प्यार की पुकार उठा करती थी, आज चेष्टा करने पर भी क्यों नहीं उठती? शायद मेरा यौवन मर चुका हो।' केशव का स्वर दर्द से भरा हुआ था। सहाना हँसी, उस हँसी की जाति ही निराली थी।

    (दो)

    'पूजा के कमरे में आज से तुम मत जाना दुलहिन।' सहाना की सास नर्मदा ने कहा।

    फूल चुनते-चुनते वह रुकी—क्यों अम्माजी?

    'सबेरे हल्कू को दूध नहीं पिला रही थी?'

    'वह रो रहा था।'

    'साईस का लड़का रोए या मरे, अपने को क्या? बड़े घर में आई हो, ज़ात-पात का भी तो कुछ विचार किया करो। कहाँ वह जैसवारा और कहाँ हम ब्राह्मण! 'कुत्ते-बिल्ली दिन-भर लिए रहती हो, मेरे हज़ार सर पीटने पर भी मानती नहीं। दिन-पर-दिन तुम हठी होती जाती हो। ऐसा अनाचार मैं सह नहीं सकती हूँ।'

    उत्तर देने के लिए सहाना के कंठ में शब्दों की भीड़-सी लग गई। किंतु फिर भी उसका उत्तर संक्षिप्त ही हुआ—वह छह महीने का अबोध शिशु है अम्माजी! मरते वक़्त दुखिया बच्चा मुझे सौंप गई थी।

    'आज जैसवारा तो कल मेहतर के बच्चे को उठा लाना। मेरे रहते इस घर में तेरा अधिकार ही कौन-सा है? मेरे मत विरुद्ध यहाँ कोई काम नहीं हो सकता है। उसे अभी दूर कर दे।' गृहिणी झुँझला पड़ी।

    'नहीं।'

    'क्या नहीं?

    'नहीं।'

    नर्मदा के चिल्लाने से केशव भीतर गया—'क्या है?'

    'भैया, मुझे तू काशी पहुँचा दे।'

    'क्यों माँ?'

    'क्योंकि मैं नौकरानी बनकर नहीं रह सकती हूँ। तुम्हीं से पूछती हूँ—घर की मालकिन बहू है या मैं?'

    केशव को चुप रहते देखकर माता जल उठी—कहो, मैं तुमसे सुनना चाहती हूँ।—माता ने अपना प्रश्न दुहराया।

    'तुम्हारे रहते हुए तो दूसरी कोई मालकिन बन नहीं सकती। परंतु उसे भी तुम्हीं लाई हो और अधिकार भी दिया है।'

    केशव की पूरी बातें सुनने का धीरज उस समय गृहिणी में था नहीं। नर्मदा ने कहा—तो तुम्हारे राज में आज क्या चमार-भंगी के साथ बैठकर खाना पड़ेगा?

    'ऐसा करने को तुमसे किसने कहा?'

    'तुम्हारी पत्नी ने। सवेरे से दुखिया के लड़के को उठा लाई है—कहती है उसे रखूँगी।'

    'क्या यह सच है?'

    'हाँ! उसकी माँ मुझे सौंप गई है।'

    'किंतु वह जैसवारा का लड़का है। इस घर में उसकी जगह कैसे हो सकती है सहाना?'

    'जैसवार के घर में जन्म लेना क्या उसका अपराध है?'

    उत्तर दिया नर्मदा ने- 'ऊपर से लगी जवाब-सवाल करने! तेरी हिम्मत देख-देखकर मैं अवाक होती हूँ। दूसरी सास होती तो तुझ जैसी बाँझ का मुँह भी देखती।'

    व्यथा से उसका चेहरा पीला पड़ गया। अपने को सँभालकर सहाना ने कहा—मैं आप से नहीं, उनसे पूछती हूँ कि यदि आत्मा अमर है, ईश्वर का अंश है और सभी में उसी एक पावन आत्मा का प्रकाश है तो यह छुआछूत का प्रश्न उठा ही क्यों और कैसे?

    'लोकाचार है। समाज का नियम है। जब कि उसी समाज में हमें रहना है, तब उसके नियमों को मानना भी जरूरी बात है।'

    'मैं कब कहती हूँ कि तुम निराले समाज में चले जाओ। किंतु पुराने की महिमा में मुग्ध होकर उसके कीचड़ को संदूक़ में भरकर रखने में कोई पौरुष, कोई श्लाघा नहीं है। प्रकृति के नियम से नित नई वस्तु बनती और मिटती है। पुराने में जो मिली वस्तु है उसका सम्मान और रक्षा हम अवश्य ही करेंगे। परंतु बुरे को सदा त्यागने के साहस की कमी हममें कभी हो, यह प्रार्थना मैं ईश्वर से किया करती हूँ।'

    'तो तुम इस नियम को ख़राब कहती हो?

    'हज़ार बार। आदमी आदमी को घृणा करेगा, यह निरी पहेली ही नहीं अपराध भी है।'

    'मैं घृणा की बात नहीं कहता, केवल माँ के सम्मान के लिए तुम बच्चे को हटा दो सहाना!' वह डर रहा था क्योंकि स्वाधीन स्वभाव की पत्नी को वह भली-भाँति पहचानता था। 'नहीं' कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा—नहीं, यह असंभव है, तुम्हारे और माँ के संतोष-सम्मान के लिए अपने प्राण न्योछावर कर सकती हूँ पर दूसरे के नहीं और उस वचन को तोड़ ही सकती हूँ जो कि उसकी मरन-सेज पर मैं दे चुकी हूँ।

    'सहाना, आज इस जीवन के अंत में तुम मुझसे क्या सुनना, क्या कहना चाहती हो?

    'कुछ भी नहीं।' उसने बालक को छाती से लगा लिया। जाते समय कहती गई—बच्चा भूखा है। इसे दूध पिलाकर फिर तुम्हारी बातें सुनूँगी।

    माता-पुत्र स्तंभित-से खड़े रह गए।

    (तीन)

    'सहाना, आल्मारी की चाभी देना, काग़ज़ निकालना है।' मंदिर के द्वार पर केशव ने पुकारा।

    कटोरे में चंदन पोंछकर शीला लौटी। एक-दूसरे की ओर देखने लगे। उन दृष्टियों में प्रश्न था—तुम कौन हो, कहाँ से आए?

    उसी दिन से सहाना का मंदिर में जाना तथा रसोई आदि में जाना—नर्मदा देवी ने बंद कर दिया था। ये बातें केशव जानता नहीं था, ऐसा नहीं। कदाचित अभ्यासवश फिर भी वह उस दिन मंदिर-द्वार पर खड़ा हो गया। उसे स्मरण हो पाया कि रात में इसी शीला की बात सहाना कह रही थी। वह नर्मदा की अनाथ ज्ञाती कन्या थी, अविवाहिता थी। नर्मदा ने उसे बुला लिया था!

    'चाभी तो मेरे पास नहीं है। मैं शीला हूँ। कल यहाँ आई हूँ।'

    इस तरुणी की संकोचहीन बातों से केशव-कम विस्मित हुआ। वह उन आयत नयनों के सामने संकुचित हो रहा था। बोला—'अच्छा तो मैं जाता हूँ।' किसी तरह इतना कहकर वह भागा।

    भोजन के आसन पर बैठकर केशव विरक्ति से यहाँ-वहाँ निहारने लगा। शीला थाली और कटोरों को रखकर पंखे से मक्खी भगाने लगी। रसोई ब्राह्मण बनाता था। किंतु भोजन के समय सहाना सामने बैठती थी दो-चार तरकारियाँ भी पति के लिए अपने हाथ से बनाया करती थी, परंतु हल्कू के आने के बाद से गृहिणी उसे दूर रखकर स्वयं उन कामों को कर लिया करती थी और आज उन्होंने शीला को अपना स्थान सौंप दिया था।

    'केशव, करेले कैसे बने हैं?' माता सामने आकर खड़ी हो गई।

    'अच्छे।'

    'शीला ने बनाए हैं। बड़ी काम की लड़की है और वैसी ही नम्र-शांत भी है। मैं जिस काम को कह देती हूँ उसे जी खोलकर करती है। आलू के बड़े भी उसी ने बनाए हैं, अच्छे बने हैं न?'

    'हाँ।

    'क्यों झूठ बोलते हैं! आपने उन्हें छुआ तक नहीं।'—शीला हँस पड़ी।

    अप्रस्तुत होने के साथ-ही-साथ शीला के सरल व्यवहार से केशव संतुष्ट भी हुआ।

    'शीला सच कह रही है भैया! तुमने तो आज कुछ नहीं खाया।'

    'ख़राब बना होगा।'

    'नहीं-नहीं, सब चीज़ें अच्छी बनी हैं। भूख नहीं है।'

    फिर भी आप झूठ कहते हैं। मैं कहती हूँ मौसी, भौजी को बुला लो, अभी ये भरपेट भोजन कर लेंगे।'

    इस तरुणी की मुँह पर सच कहने की शक्ति को देखकर केशव मन में उसकी प्रशंसा करने लगा।

    'ऐसा तो नहीं हो सकता शीला कि मेरे जीते-जी घर में भंगी बसोरों का निवास हो जाए। बहू घर की लक्ष्मी कहलाती है, वही यदि अनाचार करने लगे तो उस घर की भलाई कब तक हो सकती है! एक तो इस वंश का ही नाश होने बैठा है। एक बच्चा तक नहीं हुआ। वंश-रक्षा करना एक ज़रूरी बात है। किंतु कोई सुनता ही नहीं। मुझे तो ऐसा लगता है कि अपने हाथों अपना सर पीट लूँ।'

    एक अनजान के सामने इन बातों की अवतारणा से केशव चिढ़ रहा था, फिर भी उसने हँसकर कहा—'तो अपना सर पीटकर ही देख लो।'