काबुलीवाला

kabuliwala

रवीन्द्रनाथ टैगोर

और अधिकरवीन्द्रनाथ टैगोर

    मेरी पाँच बरस की छोटी लड़की मिनी क्षण-भर भी बात किए बिना नहीं रह सकती। जन्म लेने के बाद भाषा सीखने में उसने सिर्फ़ एक ही साल लगाया होगा। उसके बाद जब तक वह जगी रहती है अपना एक मिनट का समय भी मौन में नष्ट नहीं करती। उसकी माँ अकसर डाँटकर उसका मुँह बंद कर देती है, किंतु मैं ऐसा नहीं कर पाता। मिनी का चुप रहना मुझे इतना अस्वाभाविक लगता है कि मैं ज़्यादा देर तक सहन नहीं कर पाता और यही कारण है कि मेरे साथ वह कुछ ज़्यादा उत्साह से ही बातचीत किया करती है।

    सुबह मैंने अपने उपन्यास के सत्रहवें परिच्छेद को लिखना शुरू ही किया था कि मिनी गई और बोलने लगी, “बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वो काक को कौआ कहता था—वह कुछ जानता नहीं बाबूजी?”

    दुनिया की भाषाओं की भिन्नता के बारे में मेरे कुछ कहने के पहले ही उसने दूसरा प्रसंग छेड़ दिया, “देखो बाबूजी, भोला कहता था, आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है इसी से बरसा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ-मूठ की बकवास बहुत करता है न? ख़ाली बक-बक किया करता है, रात-दिन बकता रहता है।”

    इस विषय में मेरी राय जानने के लिए ज़रा भी इंतज़ार करके वह चट से बड़े नरम स्वर में एक जटिल सवाल पूछ बैठी, “अच्छा बाबूजी, माँ तुम्हारी कौन लगती है?”

    मैंने मन ही मन कहा, 'साली'। और मुँह से बोला, “मिनी, तू जा, जाकर भोला के साथ खेल। मुझे अभी कुछ काम है, अच्छा।”

    तब उसने मेरी टेबल के बग़ल में पैरों के पास बैठकर अपने दोनों घुटनों और हाथों को हिला-हिलाकर जल्दी-जल्दी मुँह चलाकर 'अटकन-बटकन दही चटकन' खेलना शुरू कर दिया, जबकि मेरे उपन्यास के सत्रहवें परिच्छेद में प्रताप सिंह उस समय कंचनमाला को लेकर अँधेरी रात में कारागार के ऊँचे झरोखे से नीचे बहती हुई नदी में कूद रहा था।

    मेरा घर सड़क के किनारे पर है। सहसा मिनी 'अटकल-बटकन' खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ गई और बड़े ज़ोर से चिल्लाने लगी, “काबुलीवाला! काबुलीवाला!”

    मैले-कुचैले ढीले कपड़े पहने, सिर पर साफ़ा बाँधे, कंधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में दो-चार अँगूर की पिटारियाँ लिए एक लंबा-सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। उसे देखकर बेटी के मन में कैसा भावोदय हुआ, यह बताना कठिन है। उसने ज़ोर से उसे पुकारना शुरू कर दिया। मैंने सोचा, अभी झोली कंधे में लटकाए एक आफ़त सिर पर खड़ी होगी और मेरा सत्रहवाँ परिच्छेद आज भी पूरा होने से रह जाएगा।

    लेकिन मिनी के चिल्लाने पर ज्यों ही काबुली ने हँसते हुए उसकी तरफ़ मुँह फेरा और वह मकान की तरफ़ आने लगा, त्यों ही मिनी जानबूझकर भीतर भाग गई। फिर उसका पता ही नहीं लगा कि कहाँ ग़ायब हो गई। उसके मन में एक अंधविश्वास-सा बैठ गया था कि उस झोली के अंदर तलाश करने पर उसकी जैसी और भी दो-चार जीती-जागती लड़कियाँ निकल आएँगी।

    इधर काबुली ने आकर मुस्कराते हुए मुझे सलाम किया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा, यद्यपि प्रतापसिंह और कंचनमाला की हालत अत्यंत संकटपूर्ण है, फिर भी घर में बुलाकर इससे कुछ ख़रीदना अच्छा होगा।

    कुछ सामान ख़रीदा गया। उसके बाद मैं उससे इधर-उधर की बातें करने लगा। अब्दुर्रहमान, रूस, अंग्रेज़, सीमांत-रक्षा इत्यादि विषयों में गपशप होने लगी।

    अंत में उठकर जाते वक़्त, उसने अपनी खिचड़ी भाषा में मुझसे पूछा, “बाबू साब, आपकी बिटिया कहाँ गई?”

    मिनी के मन से बेकार का डर दूर करने के इरादे से मैंने उसे भीतर से बुलवा लिया। वह मुझसे बिलकुल सटकर काबुली के मुँह और झोली की तरफ़ संदिग्ध दृष्टि से देखती हुई खड़ी रही। काबुली ने झोली में से किसमिस और ख़ूबानी निकालकर मिनी को देना चाहा, परंतु उसने कुछ भी नहीं लिया, बल्कि वह दूने संदेह के साथ मेरे घुटनों से चिपक गई। पहला परिचय कुछ इस तरह हुआ।

    कुछ दिन बाद एक दिन सवेरे किसी ज़रूरी काम से मैं बाहर जा रहा था। अचानक देखता हूँ कि मेरी बिटिया दरवाज़े के पास बेंच पर बैठी हुई काबुली से ख़ूब बातें कर रही है। काबुली उसके पैरों के पास बैठा-बैठा मुस्कराता हुआ ध्यान से सब सुन रहा है और बीच-बीच में प्रसंगानुसार अपना मतामत भी खिचड़ी भाषा में व्यक्त करता जा रहा है। मिनी को अपने पाँच साल के जीवन में 'बाबूजी' के अलावा ऐसा धीरज वाला श्रोता शायद ही कभी मिला हो! देखा तो उसका छोटा-सा आँचल बादाम-किसमिस से भरा हुआ है। मैंने काबुली से कहा, “इसे यह सब क्यों दिए? अब मत देना।” यह कहकर जेब से एक अठन्नी निकालकर उसे दे दी। उसने बिना किसी संकोच के अठन्नी लेकर अपनी झोली में डाल ली।

    घर लौटकर मैंने देखा कि मेरी उस अठन्नी ने बड़ा भारी उपद्रव खड़ा कर दिया है। मिनी की माँ एक सफ़ेद चमकीला गोलाकार पदार्थ हाथ में लिए मिनी से पूछ रही है, “तूने यह अठन्नी पाई कहाँ से, बता?”

    मिनी ने रोने की तैयारी करते हुए कहा, “मैंने माँगी नहीं थी, उसने अपने आप दी है।”

    मैंने आकर मिनी की उस आसन्न विपत्ति से रक्षा की और उसे बाहर ले आया।

    पता चला कि उस काबुली के साथ मिनी की यह दूसरी ही मुलाक़ात हो, ऐसी बात नहीं है। इस बीच वह रोज़ आता रहा है और पिस्ता-बादाम की रिश्वत दे-देकर मिनी के छोटे-से हृदय पर उसने काफ़ी अधिकार जमा लिया है।

    देखा कि इन दोनों मित्रों में कुछ बँधी हुई बातें और हँसी मौजूद है। जैसे रहमत को देखते ही मेरी बेटी हँसती हुई पूछती, “काबुलीवाला, काबुलीवाला, तुम्हारी झोली में क्या है?”

    रहमत एक अनावश्यक चंद्रबिंदु जोड़कर हँसता हुआ उत्तर देता, “हाथी!” उसके परिहास का मर्म अत्यंत सूक्ष्म हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, फिर भी इससे इन दोनों को ज़रा विशेष कौतुक होता लगता और शरद् ऋतु के प्रभाव में एक सयाने और एक बच्चे की सरल हँसी देखकर मुझे भी काफ़ी अच्छा लगता।

    उनमें और भी एक-आध बातें सामान्य तौर पर होती थीं। रहमत मिनी से कहता, “तुम ससुराल कभी नहीं जाना, अच्छा!”

    हमारे यहाँ की लड़कियाँ जन्म से ही 'ससुराल' शब्द से परिचित होती हैं, किंतु हम लोग ज़रा कुछ नए ज़माने के होने के कारण छोटी-सी बच्ची को ससुराल के संबंध में विशेष ज्ञानी नहीं बना सके थे, इसलिए रहमत का अनुरोध वह साफ़-साफ़ नहीं समझ पाती थी, फिर भी किसी बात का जवाब दिए बिना चुप रहना उसके स्वभाव के बिलकुल विरुद्ध था। उलटे वह रहमत से ही पूछती, “तुम ससुराल कब जाओगे?”

    रहमत काल्पनिक ससुर के लिए अपना ज़बरदस्त मोटा घूँसा तानकर कहता, “हम ससुर को मारेगा।”

    यह सुनकर मिनी किसी ससुर नामक अपरिचित जीव की दुरवस्था की कल्पना करके ख़ूब हँसती।

    देखते-देखते शुभ्र शरऋतु पहुँची। प्राचीनकाल में इसी समय राजा-महाराजा दिग्विजय के लिए निकलते थे। मैं कलकत्ता छोड़कर कभी कहीं नहीं गया, शायद इसलिए मेरा मन पृथ्वी-भर में घूमा करता है। यानी, मैं अपने घर के कोने में चिरप्रवासी हूँ, बाहर की दुनिया के लिए मेरा मन सर्वदा चंचल रहता है। किसी विदेश का नाम सुनते ही मेरा चित्त वहीं के लिए दौड़ने लगता है। इसी तरह विदेशी आदमी को देखते ही तुरंत मेरा मन नदी-पर्वत-वन के बीच में एक कुटीर का दृश्य देखने लगता है और एक उल्लासपूर्ण स्वाधीन जीवन-यात्रा की बात कल्पना में जाग उठती है।

    दूसरी तरफ़ मैं ऐसा स्थावर प्रकृति हूँ कि अपना कोना छोड़कर घर से बाहर निकलने के नाम से मेरा शरीर काँपने लगता है। यही वजह है कि सवेरे के वक़्त अपने छोटे-से कमरे में टेबल के सामने बैठकर उस काबुली से बातें करके मैं बहुत कुछ भ्रमण का आनंद ले लिया करता हूँ। मेरे सामने काबुल का पूरा चित्र खिंच जाता। दोनों तरफ़ ऊबड़-खाबड़ जले हुए लाल रंग के ऊँचे दुर्गम पहाड़ हैं और रेगिस्तानी सँकरा रास्ता—उस पर लदे हुए ऊँटों की क़तार जा रही है। साफ़ा बाँधे हुए सौदागर और मुसाफ़िर हैं। कोई ऊँट पर सवार है तो कोई पैदल ही जा रहा है। किसी के हाथ में बरछा है तो कोई बाबाआदम के ज़माने की पुरानी बंदूक़ लिए हुए है। मेघ गर्जन के स्वर में काबुली लोग अपनी खिचड़ी भाषा में अपने देश की बातें कर रहे हैं।

    मिनी की माँ का स्वभाव बड़ा शंकालु है। रास्ते में कोई शोरगुल हुआ नहीं कि उसने मान लिया कि दुनिया भर के सारे मतवाले-शराबी हमारे ही मकान की तरफ़ दौड़े रहे हैं। उसकी समझ से यह दुनिया इस छोर से लेकर उस छोर तक चोर-डकैत, मतवाले-शराबी, साँप-बाघ, मलेरिया, सूँआँ, तिलचट्टे और गोरों से भरी पड़ी है। इतने दिन हुए (बहुत ज़्यादा दिन नहीं हुए) इस दुनिया में रहते हुए फिर भी उसके मन का यह संशय दूर नहीं हुआ।

    ख़ासकर रहमत काबुली की तरफ़ से वह पूरी तरह निश्चित नहीं थी। उस पर विशेष दृष्टि रखने के लिए मुझसे वह बार-बार कहती रहती। जब मैं उसका संदेह हँसी में उड़ा देना चाहता तो वह मुझसे एक साथ कई सवाल कर बैठती, “क्या कभी किसी का लड़का चुराया नहीं गया?” “क्या काबुल में ग़ुलाम नहीं बेचे जाते?” “एक लंबे-मोटे-तगड़े काबुली के लिए एक छोटे से बच्चे को चुरा ले जाना क्या बिलकुल असंभव बात है?” इत्यादि।

    मुझे मानना पड़ता कि यह बात बिलकुल असंभव हो, ऐसा तो नहीं, परंतु विश्वास-योग्य नहीं। विश्वास करने की शक्ति सबमें समान नहीं होती, इसलिए मेरी पत्नी के मन में डर रह ही गया, लेकिन सिर्फ़ इसलिए बिना किसी दोष के रहमत को अपने मकान में आने से मैं मना नहीं कर सका।

    हर वर्ष माघ के महीने में रहमत अपने देश चला जाता है। इस समय वह अपने ग्राहकों से रुपए वसूल करने के काम में बड़ा उद्विग्न रहता है। उसे घर-घर घूमना पड़ता है, मगर फिर भी वह मिनी से एक बार मिल ही जाता है। देखने में तो ठीक ऐसा ही लगता है कि दोनों में कोई षड्यंत्र चल रहा हो। जिस दिन वह सवेरे नहीं पाता, उस दिन शाम को हाज़िर हो जाता। अँधेरे में घर के कोने में उस ढीले-ढाले जामा-पाजामा पहने झोला-झोली वाले लंबे-तगड़े आदमी को देखकर सचमुच ही मन में सहसा एक आशंका-सी पैदा हो जाती है।

    परंतु जब देखता हूँ कि मिनी ‘काबुलीवाला, काबुलीवाला' पुकारती हँसती-हँसती दौड़ी आती है और दो अलग-अलग उम्र के असम मित्रों में वही पुराना सरल परिहास चलने लगता है तब मेरा संपूर्ण हृदय प्रसन्न हो उठता है।

    एक दिन सवेरे मैं अपने छोटे कमरे में बैठा हुआ अपनी नई पुस्तक का प्रूफ़ देख रहा था। जाड़ा विदा होने से पहले दो-तीन दिनों से ख़ूब ज़ोरों से पड़ रहा था। जहाँ देखो वहाँ जाड़े की ही चर्चा है। ऐसे जाड़े-पाले में खिड़की में से सवेरे की धूप टेबल के नीचे पैरों पर पड़ी तो उसकी गरमी मुझे आनंद-विभोर कर गई। क़रीब आठ बजे होंगे। सिर में गुलूबंद लपेटे प्रातः भ्रमण करने वाले अपना भ्रमण समाप्त करके लोग अपने-अपने घर की तरफ़ लौट रहे थे। ठीक इसी समय सड़क पर एक ज़ोरदार शोर सुनाई दिया।

    देखता हूँ, अपने उसे रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए चले जा रहे हैं। उसके पीछे बहुत से कुतूहली लड़कों का झुंड चला जा रहा है। रहमत के कुरते पर ख़ून के दाग़ हैं और एक सिपाही के हाथ में ख़ून से सना हुआ छुरा। मैंने दरवाज़े से बाहर निकलकर सिपाही को रोक लिया। पूछा, “क्या बात है?”

    कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से रामपुरी चादरें ख़रीदी थीं। उसके कुछ रुपए उसकी तरफ़ बाक़ी थे, जिन्हें वह देने से नट गया। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई और रहमत ने छुरा निकालकर उसको भोंक दिया।

    रहमत उस झूठे बेईमान आदमी के लिए तरह-तरह की अश्राव्य गालियाँ सुना रहा था। इतने में 'काबुलीवाला, काबुलीवाला' पुकारती हुई मिनी घर से निकल आई।

    रहमत का चेहरा क्षण-भर में कौतुक हास्य से प्रफुल्ल हो उठा। उसके कंधे पर आज झोली नहीं थी, इसलिए झोली के बारे में दोनों मित्रों में अभ्यस्त परिहास चल सका। मिनी ने आते ही उससे पूछा, “तुम ससुराल जाओगे?”

    रहमत ने हँसकर कहा, “हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।”

    रहमत ताड़ गया कि उसका यह उत्तर मिनी के चेहरे पर हँसी नहीं ला सका है और तब उसने हाथ दिखाकर कहा, “ससुर को मारता, पर क्या करूँ, हाथ बँधे हुए हैं।”

    छुरा चलाने के क़सूर में रहमत को कई साल की सज़ा हो गई।

    काबुली का ख़याल धीरे-धीरे मन से बिलकुल उतर गया। हम लोग जब अपने घर में बैठकर हमेशा की आदत के अनुसार नित्य का काम-धंधा करते हुए आराम से दिन बिता रहे थे, तब एक स्वाधीन पर्वतारोही पुरुष जेल की दीवारों के अंदर बैठा कैसे साल पर साल बिता रहा होगा, यह बात हमारे मन में कभी आई ही नहीं।

    और चंचल-हृदया मिनी का आचरण तो और भी लज्जाजनक था, यह बात उसके बाप को भी माननी पड़ी। उसने सहज ही अपने पुराने मित्र को भूलकर पहले तो नबी सईस के साथ मित्रता जोड़ी, फिर क्रमश: जैसे-जैसे उसकी उम्र बढ़ने लगी, वैसे-वैसे सखाओं के बदले एक के बाद एक उसकी सखियाँ जुटने लगीं। और तो और अब वह अपने बाबूजी के लिखने के कमरे में भी नहीं दिखाई देती। मेरा तो एक तरह से उसके साथ संबंध ही टूट गया है।

    कितने ही साल बीत गए। सालों बाद आज फिर एक शरद् ऋतु आई है। मिनी की सगाई पक्की हो गई है। पूजा की छुट्टियों में ही उसकी शादी हो जाएगी। कैलासवासिनी के साथ-साथ अबकी बार हमारे घर की आनंदमयी मिनी भी माँ-बाप के घर में अँधेरा करके सास-ससुर के घर चली जाएगी।

    प्रभात का सूर्य बड़ी सुंदरता से उदित हुआ। वर्षा के बाद शरद् ऋतु की यह नई धुली धूप मानो सुहागे में पिघले निर्मल सोने की तरह रंग दे रही है। कलकत्ता की गलियों के भीतर परस्पर सटे हुए पुराने ईंट झरे गंदे मकानों के ऊपर भी इस धूप की आभा ने एक तरह का अनुपम लावण्य फैला दिया है।

    हमारे घर आज सुबह से ही शहनाई बज रही है। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे वह मेरे कलेजे की पसलियों में से रो-रोकर बज रही हो। उसकी करुण भैरवी रागिनी मानो मेरी आसन्न विच्छेद-व्यथा को शरद् ऋतु की धूप के साथ संपूर्ण विश्व जगत् में व्याप्त किए दे रही हो।

    मेरी मिनी का आज ब्याह है।

    सवेरे से भागदौड़ शुरू है। हर वक़्त लोगों का आना-जाना जारी है। आँगन में बाँस बाँधकर मंडप छाया जा रहा है। हर एक कमरे में और बरामदे में झाड़ लटकाए जा रहे हैं और उनकी टन-टन की आवाज़ मेरे कमरे में रही है। 'चलो रे', 'जल्दी करो', 'इधर आओ' की आवाज़ें गूँज रही हैं।

    मैं तब अपने लिखने-पढ़ने के कमरे मैं बैठा हुआ ख़र्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत आया और सलाम करके खड़ा हो गया।

    पहले तो मैं उसे पहचान ही सका। उसके पास तो झोली थी, वैसे लंबे-लंबे बाल थे और चेहरे पर पहले जैसा तेज़ ही था। अंत में उसकी मुस्कराहट देखकर पहचान सका कि वह रहमत है।

    मैंने पूछा, “क्यों रहमत, कब आए?”

    उसने कहा, “कल शाम को जेल से छूटा हूँ।'

    सुनते ही उसके शब्द मेरे कानों में खट से बज उठे। किसी ख़ूनी को मैंने कभी आँखों से नहीं देखा था, उसे देखकर मेरा सारा मन एकाएक सिकुड़-सा गया। मेरी यही इच्छा होने लगी कि आज के इस शुभ दिन में यह आदमी यहाँ से चला जाए तो अच्छा हो।

    मैंने उससे कहा, “आज हमारे घर में एक ज़रूरी काम है, सो आज मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ—फिर आना।”

    मेरी बात सुनकर वह उसी समय जाने को तैयार हो गया। पर दरवाज़े के पास जाकर कुछ इधर-उधर करके बोला, “बच्ची को ज़रा नहीं देख सकता?”

    शायद उसे विश्वास था कि मिनी अब तक वैसी ही बच्ची बनी है। उसने सोचा कि मिनी अब भी पहले की तरह 'काबुलीवाला, काबुलीवाला' चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों के उस पुराने कौतुकजन्य हास्यालाप में किसी तरह की रुकावट नहीं होगी। यहाँ तक कि पहले की मित्रता याद करके वह एक पेटी अँगूर और एक काग़ज़ के दौनों में थोड़ी-सी किसमिस और बादाम, शायद अपने देश के किसी आदमी से माँग- मूँगकर लेता आया था। उसकी पहले की वह झोली उसके पास नहीं थी।

    मैंने कहा, “आज घर में बहुत काम है। आज किसी से मुलाक़ात हो सकेगी।”

    मेरा जवाब सुनकर वह कुछ उदास-सा हो गया। ख़ामोशी के साथ उसने एक बार मेरे मुँह की ओर स्थिर दृष्टि से देखा, फिर “सलाम बाबू साब,” कहकर दरवाज़े के बाहर निकल गया।

    मेरे हृदय में जाने कैसी एक वेदना-सी उठी। मैं सोच ही रहा था कि उसे बुलाऊँ, इतने में देखा तो वह ख़ुद ही रहा है।

    पास आकर बोला, “ये अँगूर और कुछ किसमिस-बादाम बच्ची के लिए लाया था—उसको दे दीजिएगा।”

    मैंने उसके हाथ से सामान लेकर उसे पैसे देने चाहे, पर उसने मेरा हाथ थाम लिया, कहने लगा, “आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साब, हमेशा याद रहेगी...पैसे रहने दीजिए।” ज़रा ठहरकर फिर बोला, “बाबू साब, आपकी जैसी मेरी भी देश में एक लड़की है। मैं उसकी याद कर-करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ी-सी मेवा हाथ में ले आया करता हूँ। मैं तो यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।”

    कहते-कहते उसने अपने ढीले-ढाले कुरते के अंदर हाथ डालकर छाती के पास से एक मैला-कुचैला काग़ज़ का टुकड़ा निकाला और बड़े जतन से उसकी तह खोलकर दोनों हाथों से उसे फैलाकर मेरी टेबल पर रख दिया।

    देखा कि काग़ज़ पर एक नन्हें से हाथ के छोटे-से पंजे की छाप है। फ़ोटो नहीं, तैलचित्र नहीं, सिर्फ़ हाथ में थोड़ी-सी कालिख लगाकर काग़ज़ के ऊपर उसी का निशान ले लिया गया है। अपनी लड़की की इस याददाश्त को छाती से लगाकर रहमत हर साल कलकत्ता की गली-कूचों में सौदा बेचने आता है, और तब यह कालिख-चित्र मानो उसकी बच्ची के हाथ का कोमल स्पर्श उसके बिछुड़े हुए विशाल वक्षस्थल में सुधा उँड़ेलता रहता है।

    देखकर मेरी आँखें भर आईं। और फिर इस बात को मैं बिलकुल ही भूल गया कि वह एक काबुली मेवावाला है और मैं एक उच्च वंश का रईस हूँ। तब मैं महसूस करने लगा कि जो वह है, वही मैं हूँ। वह भी एक बाप है, मैं भी एक बाप हूँ। उसकी पर्वतवासिनी छोटी-सी पार्वती के हाथ की निशानी मुझे मेरी ही मिनी की याद दिला दी। मैंने उसी वक़्त मिनी को बाहर बुलवाया। हालाँकि इस पर भीतर बहुत आपत्ति की गई, किंतु मैंने उस पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया। ब्याह की पूरी पोशाक और ज़ेवर-गहने पहने हुए बेचारी वधू-वेशिनी मिनी मारे शर्म के सिकुड़ी हुई-सी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

    उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया, उससे पहले जैसी बातचीत करते बना।

    बाद में वह हँसता हुआ बोला, “लल्ली, सास के घर जा रही है क्या?”

    मिनी अब सास के मानी समझने लगी है, लिहाज़ा अब उससे पहले की तरह जवाब देते बना। रहमत की बात सुनकर मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा। उसने मुँह फेर लिया। मुझे उस दिन की बात याद गई, जब काबुली के साथ मिनी का प्रथम परिचय हुआ था। मन में एक व्यथा-सी जाग उठी।

    मिनी के चले जाने पर एक गहरी उसाँस भरकर वह ज़मीन पर बैठ गया। शायद उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी लड़की भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी, और उसके साथ भी उसे अब फिर से नई जान-पहचान करनी होगी। शायद उसे अब वह ठीक पहले की-सी वैसी की वैसी पाएगा। इन आठ वर्षों में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने! सवेरे के वक़्त शरद् की स्निग्ध सूर्य-किरणों में शहनाई बजने लगी और रहमत कलकत्ता की एक गली के भीतर बैठा हुआ अफ़ग़ानिस्तान के मरुपर्वत का दृश्य देखने लगा।

    मैंने एक सौ का नोट निकालकर उसके हाथ में दिया और कहा, “रहमत, तुम अपने देश चले जाओ, अपनी लड़की के पास। तुम दोनों के मिलन-सुख से मेरी मिनी सुख पाएगी।”

    रहमत को रुपए देने के बाद ब्याह के हिसाब में से मुझे उत्सव समारोह के दो-एक अंग छाँटकर निकाल देने पड़े। जैसी मन में थी, वैसी रोशनी नहीं करा सका, अंग्रेज़ी बाजे भी नहीं आए। घर में औरतें ख़ूब नाराज़ हुईं। सब कुछ हुआ, फिर भी, मेरा ख़याल है कि आज एक अपूर्व मंगल प्रकाश से हमारा शुभ उत्सव उज्ज्वल हो उठा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 60-69)
    • संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
    • रचनाकार : रबिन्द्रनाथ टैगोर
    • प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
    • संस्करण : 2008

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