अंगरेज़ स्तोत्र

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भारतेंदु हरिश्चंद्र

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    हे अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं। तुम नानागुण विभूषित, सुन्दर कान्ति विशिष्ट, बहुत संपद हो; अतएव हे अंगरेज! हम तुमको प्रणाम करते हैं। तुम हर्ता—शचुदल के; तुम कर्ता आईनादि के, तुम विधाता—नौकरियों के, अतएव हे अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं। तुम समर में दिव्यास्त्रधारी—शिकार में बल्लमधारी, विचारागार में अर्ध इति परिमित व्यासविशिष्ट वेत्रधारी, आहार के समय काटा चिमचधारी, अतएव हे अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं। तुम एक रूप से पूरी के ईश होकर राज्य करते हो, एक रूप से पराये वीथिका में व्यापार करते हो और एक रूप से खेत में हल चलाते हो, अतएव हे त्रिमूर्ते! हम तुमको प्रणाम करते हैं। आप के सत्वगुण आप के ग्रंथों से प्रगट, आप के रजो गुण आप के युद्धों से प्रकाशित, एवं आप के तमोगुण भवत्प्रणीत भारतवर्षीय संवाद पत्रदिकों से विकसित, अतएव हे त्रिगुणात्मक! हम तुमको प्रणाम करते हैं। तुम हो अतएव सत् हो, तुम्हारे शत्रु युद्ध में चित्, उम्मेदवारों को आनंद, अतएव हे सच्चिदानंद हम तुमको प्रणाम करते हैं।

    तुम इंद्र हो—तुम्हारी सेवा वज्र है, तुम चंद्र हो—इनकम टैक्स तुम्हारा कलंक है, तुम वायु हो—रेल तुम्हारी गति है, तुम वरुण हो—जल में तुम्हारा राज्य है, अतएव हे अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं। तुम दिवाकर हो—तुम्हारे प्रकाश से हमारा अज्ञानांधकार दूर होता है, तुम अग्नि हो—क्योंकि सब खाते हो, तुम यम हो—विशेष करके अमला वर्ग के, अतएव हे अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं। तुम वेद हो—और रिग्यजुस्साम को नहीं मानते, तुम स्मृति हो—मन्वादि भूल गए, तुम दर्शन हो—क्योंकि न्याय मीमांसा तुम्हारे हाथ है, अतएव हे अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं। हे श्वेतकांत—तुम्हारा अमलधवल द्विरद रद शुभ्रा महाश्मश्रु शोभित मुखमंडल देख करके हमें वासना हुई कि हम तुम्हारा स्तव करैं, अतएव हे अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं।

    हे वरद! हमको वर दो, हम सिर पर शमला बांध के तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ेंगे, तुम हमको चाकरी दो हम तुमको प्रणाम करते हैं। हे शुभंकर! हमारा शुभ करो, हम तुम्हारी खुशामद करेंगे, और तुम्हारे जी की बात कहेंगे, हमको बड़ा बनाओ हम तुमको प्रणाम करते हैं। हे मानद! हमको टाईटल दो, खिताब दो, खिलत दो, हमको अपना प्रसाद दो हम तुमको प्रणाम करते हैं। हे भक्तवत्सल! हम तुम्हारा पात्रावशेष भोजन करने की इच्छा करते हैं, तुम्हारे कर स्पर्श से लोकमंडल में महामनास्पद होने  की इच्छा करते हैं, तुम्हारे स्वहस्तलिखित दो-एक पत्र बाक्स में रखने की स्पर्द्धा करते हैं, हे अंगरेज़! तुम हम पर प्रसन्न हो हम तुमको नमस्कार करते हैं। हे अंतरयामिन्! हम जो कुछ करते हैं केवल तुमको धोखा देने को, तुम दाता कहो इस हेतु हम दान करते हैं, तुम परोपकारी कहो इस हेतु हम परोपकार करते हैं, तुम विद्यावान् कहो इस हेतु हम विद्या पढ़ते हैं, अतएव हे अंगरेज़! तुम हम पर प्रसन्न हो हम तुमको नमस्कार करते हैं।

    हम तुम्हारी इच्छानुसार डिस्पेंसरी करेंगे, तुम्हारे प्रीत्यर्थ स्कूल करेंगे, तुम्हारी आज्ञा प्रमाण चंदा देंगे, तुम हम पर प्रसन्न हो हम तुमको नमस्कार करते हैं। हे सौम्य! हम वही करेंगे जो तुमको अभिमत है, हम बूट पतलून पहिरैंगे, नाक पर चश्मा देंगे, काँटा और चिमिचे से टिबिल पर खाएँगे, तुम हम पर प्रसन्न हो हम तुमको प्रणाम करते हैं। हे मिष्टभाषिण! हम मातृभाषा त्याग करके तुम्हारी भाषा बोलेंगे, पैतृक धर्म छोड़ के बाह्य धर्मावलंब करेंगे, बाबू नाम छोड़कर मिस्टर नाम लिखवावेंगे, तुम हम पर प्रसन्न हो हम तुमको प्रणाम करते हैं। हे सुभोजक! हम चावल छोड़कर पावरोटी खाएँगे, निषिद्ध मांस बिना हमारा भोजन ही नहीं बनता, कुकुर हमारा जलपान है, अतएव हे अंगरेज़! तुम हमको चरण में रक्खो हम तुमको प्रणाम करते हैं। हम विधवा विवाह करेंगे, कुलीनों की जाति मारेंगे, जातिभेद उठा देंगे—क्योंकि ऐसा करने से तुम हमारी सुज्योति करोगे, अतएव हे अंगरेज़! तुम हम पर प्रसन्न हो हम तुमको नमस्कार करते हैं। हे सर्वद! हमको धन दो, मान दो, यश दो, हमारी सब वासना सिद्ध करो, हमको चाकरी दो, राजा करो, राय बहादुर करो, कौसिल का मिंबर करो, हम तुमको प्रणाम करते हैं। यदि यह न हो तो हमको डिनर होम में निमंत्रण करो, बड़ी-बड़ी कमेटियों का मिंबर करो। सीनट का मिंबर करो, जस्टिस करो, अनरेरी मजेस्ट्रेट करो, हम तुमको प्रणाम करते हैं। हमारी स्पीच सुनो, हमारा ऐसे पढ़ो, हमको वाहवाही दो, इतना ही होने से हम हिंदू समाज की अनेक निंदा पर ध्यान न करेंगे, अतएव हम तुम्हीं को नमस्कार करते हैं।

    हे भगवन! हम अकिंचन हैं और तुम्हारे द्वार पर खड़े रहेंगे, तुम हमको अपने चित्त में रक्खो हम तुमको डाली भेजेंगे, तुम अपने मन में थोड़ा सा स्थान मेरी ओर से भी दो, हे अंगरेज़! हम तुमको कोटि-कोटि साष्टांग प्रणाम करते हैं। तुम दशावतारधारी हो, तुम मत्स्य हो क्योंकि समुद्रचारी हो और पुस्तक छाप-छाप के वेद का उद्धार करते हो, तुम कच्छ हो, क्योंकि मदिरा, हलाहल वारांगना धन्वन्तर और लक्ष्मी इत्यादि रत्न तुमने निकाले हैं, पर वहाँ भी विष्णुत्व नहीं त्याग किया है, अर्थात् लक्ष्मी उन रत्नों में से तुमने आप लिया है, तुम श्वेत वाराह हो क्योंकि गौर हो और पृथ्वी के पति हो, अतएव हे अवतारिन्! हम तुमको नमस्कार करते हैं। तुम नृसिंह हो क्योंकि मनुष्य और सिंह दोनोपन तुम में हैं, टैक्स तुम्हारा क्रोध है और परम विचित्र हो, तुम वामन हो क्योंकि तुम वामन कर्म्म में चतुर हो, तुम परशुराम हो क्योंकि पृथ्वी निक्षत्री कर दी है, अतएव हे लीलाकारिन्! हम तुमको नमस्कार करते हैं।

    तुम राम हो क्योंकि अनेक सेतु बाँधे हैं, तुम बलराम हो क्योंकि मद्य-प्रिय और हलधारी हो, तुम बुद्ध हो क्योंकि वेद के विरुद्ध हो, और तुम कल्कि हो क्योंकि शत्रु संहारकारी हो, अतएव हे दशविधिरूप धारिन! हम तुमको नमस्कार करते हैं। तुम मूर्तिमान् हो! राज्य प्रबंध तुम्हारा अंग है, न्याय तुम्हारा शिर है, दूरदर्शिता तुम्हारा नेत्र है, और कानून तुम्हारे केश हैं, अतएव हे अंगरेज़! हम तुमको नमस्कार करते हैं। कौंसिल तुम्हारा मुख है, मान तुम्हारी नाक है, देश पक्षपात तुम्हारी मोछ है और टैक्स तुम्हारे कराल दंष्ट्रा हैं, अतएव हे अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं, हमारी रक्षा करो। चुंगी और पुलिस तुम्हारी दोनों भुजा है, अमेल तुम्हारे नख हैं, अंधेर तुम्हारा पृष्ठ है और आमदनी तुम्हारा हृदय है, अतएव हे अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं। खजाना तुम्हारा पेट है, लालच तुम्हारी क्षुधा है, सेवा तुम्हारा चरण है, खिताब तुम्हारा प्रसाद है, अतएव हे विराटरूप अंगरेज़! हम तुमको प्रणाम करते हैं।

     

    दीक्षा दानं तपस्तीर्थ ज्ञानयागादिका:क्रिया:।

    अंगरेजस्तव पाठस्य कलां नार्हति षोडशीम्॥1॥

    विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्।

    स्टारार्थी लभते स्टारम् मोक्षार्थी लभते गतिं॥2॥

    एक कालं द्विकालं च त्रिकालं नित्यमुत्पठेत्।

    भव पाश विनिमुर्क्त: अंगरेजलोकं स गच्छति॥3॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतेन्दुकालीन व्यंग परम्परा (पृष्ठ 44)
    • संपादक : ब्रजेंद्रनाथ पांडेय
    • रचनाकार : भारतेंदु हरिश्चंद्र
    • प्रकाशन : कल्याणदास एंड ब्रदर्स
    • संस्करण : 1956

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