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भारतेंदु हरिश्चंद्र

bhartendu harishchandr

बालकृष्ण भट्ट

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बालकृष्ण भट्ट

भारतेंदु हरिश्चंद्र

बालकृष्ण भट्ट

और अधिकबालकृष्ण भट्ट

    रोचक तथ्य

    हिंदी प्रदीप; जनवरी 1886

    श्रीमान कवि चूड़ामणि भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने सन् 1850 ई. के सितंबर मास की 9 वीं तारीख़ को जन्मग्रहण किया था। जब वह 5 वर्ष के थे तो उनकी पूज्य माता जी, वो 9 वर्ष के हुए तो महामान्य पिता जी का स्वर्गवास हुआ, जिससे उनको माता-पिता का सुख बहुत कम देखने में आया। उनकी शिक्षा बालकपन से दी गई थी और उन्होंने कई वर्ष लो कॉलेज में अँग्रेज़ी तथा हिंदी पढ़ी थी। संस्कृत, फ़ारसी, बंगला, महाराष्ट्री इत्यादि अनेक भाषाओं में बाबू साहिब ने घर पर निज परिश्रम किया था। इस समय बाबू साहिब तैलंग तथा तामिल भाषा को छोड़कर भारत की सब देश भाषा के पंडित थे। बाबू साहिब की विद्वत्ता, बहुज्ञता, नीतिज्ञता, पांडित्य तथा चमत्कारिणी बुद्धि का हाल सब पर विदित है, कहने की कोई आवश्यकता नहीं। इनकी बुद्धि का चमत्कार देख कर लोगों को आश्चर्य होता था कि इतनी अल्प अवस्था में यह सर्वज्ञता। कविता की रुचि बाबू साहिब को वाल्यावस्था ही से थी उनकी उस समय की कविता पढ़ने से कि जब वह बहुत छोटे थे बड़ा आश्चर्य होता है और इस समय की तो कहना ही क्या है। मूर्तिमान आशुकवि कालिदास थे। जैसी कविता इनकी सरस और प्रिय होती थी वैसी आज दिन किसी की नहीं होती। कविता सब भाषा की करते थे, पर भाषा की कविता में अद्वितीय थे। उनके जीवन का बहुमूल्य समय सदा लिखने-पढ़ने में जाता था। कोई काल ऐसा नहीं था कि उनके पास क़लम, दवात और काग़ज़ रहता रही हो। 18 वर्ष की अवस्था में कविवचनसुधा पत्र निकाला था, जो आज तक चला जाता है। इसके उपरांत तो क्रमशः अनेक पत्र-पत्रिकाएँ और सैकड़ों पुस्तक लिख डाले जो युग-युगांतर तक संसार में उनका नाम जैसा का तैसा बनाए रखेंगे। 20 वर्ष की अवस्था अर्थात सन् 70 में बाबू साहिब ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट नियुक्त हुए और सन् 74 तक रहे वो उसी के लगभग 6 वर्ष लो म्यूनिसिपल कमिश्नर भी थे। साधारण लोगों में विद्या फैलाने के लिए सन् 1867 ई. में जबकि बाबू साहिब की अवस्था केवल 17 वर्ष की थी चौखंभा स्कूल जो अब तक उनकी कीर्ति की ध्वजा है, स्थापित किया, जिसके छात्र आज दिन एम.ए., बी.ए. तथा बड़ी-बड़ी तनख़्वाह के नौकर हैं। लोगों के संस्कार सुधारने तथा हिंदी की उन्नति के लिए हिंदी डिवेटिंग क्लब, अनाथ-रक्षिणी, तदीव समाज, काव्य समाज इत्यादि सभाएँ संस्थापित कीं और उनके सभापति रहे। भारतवर्ष के प्रायः सब प्रतिष्ठित समाज तथा सभाओं में से किसी के प्रेसीडेंट, सेक्रेटरी और किसी के मेंबर रहे लोगों के उपकारार्थ अनेक बार देश-देशांतरों में व्याख्यान दिए। उनकी वक्तृता सरस और सारग्रहिणी होती थी। उनके लेख तया वक्तृत्व से देश गौरव झलकता था। विद्या का सम्मान जैसा बाबू सहिब करते थे वैसा करना आजकल कठिन है, ऐसा कोई भी विद्वान होगा जिसने इनसे आदर-सत्कार पाया हो। यहाँ के पंडितों ने जो अपना-अपना हस्ताक्षर करके बाबू साहिब को प्रशंसापत्र दिया था उसमें उन लोगों ने स्पष्ट लिखा है कि—

    'सब सज्जन के मान को कारन इक हरिचंद।

    जिमि सुभाव दिन रैन के कारन नित हरिचंद॥'

    बाबू साहिब दानियों में कर्ण थे, इतना ही कहना बहुत है उनसे हज़ारों मनुष्य का कल्याण होता रहा। विद्योन्नति के लिए भी उन्होंने बहुत व्यय किया 500 रु. तो उन्होंने प. परमानंद जी का सतसई की संस्कृत टीका का दिया था और इसी प्रकार से कॉलिज वो स्कूलों में उचित पारितोषिक बाँटे हैं। बंगाल, बंबई वो मद्रास में स्त्रियाँ परिक्षोत्तीर्ण हुई हैं तब-तब बाबू साहिब ने उनके उत्साह बढ़ाने के लिए बनारसी साड़ियाँ भेजी थीं, जिनमें से कई एक को श्रीमती लेडी रिपन ने प्रसन्नतापूर्वक अपने हाथ से बाँटा था। बाबू साहिब ने देशोपकार के लिए “नेशनल फंड, होमियोपैथिक डिस्पेंसरी, गुजरात वो जौनपुर रिलीफ़ फंड, सेलर्ज होम, प्रिंस आव वेल्स हॉस्पिटल और लाइब्रेरी” इत्यादि की सहायता में समय-समय पर चंदा दिए है। ग़रीब दुखियों की बराबर सहायता करते रहे।

    गुणग्राहक भी एक ही थे, गुणियों के गुण से प्रसन्न होकर उनको यथेष्ट द्रव्य देते थे, तात्पर्य यह कि जहाँ तक बना दिया, देने से हाथ नहीं रोका।

    देश हितैषियों में पहले इन्हीं के नाम पर अंगुली पड़ती है क्योंकि यह वह हितैषी थे कि जिन्होंने अपने देशगौरव को स्थापित रखने के लिए अपना धन, मान, प्रतिष्ठा एक ओर रख दी थी और सदा उसके सुधरने का उपाय सोचते रहे। उनको अपने देशवासियों पर कितनी प्रीति थी यह बात उनके भारत-जननी, वो भारत दुर्दशा इत्यादि ग्रंथों के पढ़ने ही से विदित हो सकती है। उनके लेखों से उनकी हितैषिता और देश का सच्चा प्रेम झलकता था।

    यद्यपि बहुत लोगों ने उनको गवर्नमेंट का डिस्लायल (अशुभचिंतक) मान रखा था पर यह उनका भ्रम था, हम कह सकते हैं कि वह परम राजभक्त थे। यदि ऐसा होता तो उन्हें क्या पड़ी थी कि जब प्रिंस आव वेल्स आए थे तो वह बड़ा उत्सव और अनेक भाषा के छंदों में बनाकर स्वागत ग्रंथ (मानसोपायन) उनको अर्पण करते। ड्यूक आव एडिम्बर जिस समय यहाँ पधारे थे बाबू साहिब ने उनके साथ उस समय वह राजभक्ति प्रकट की जिससे ड्यूक उन पर ऐसे प्रसन्न हुए कि जब तक काशी में रहे उन पर विशेष स्नेह रखा। सुमनोजंलि उनके अर्पण किया था जिसके प्रति अक्षर से अनुराग टपकता है। महाराणी की प्रशंसा में मनोनुकुल माला बनाई। मिस्र युद्ध के विजय पर प्रकाश्य सभा की, वो विजयिनी विजय बैजयंती बनाकर पूर्ण अनुराग सहित भक्ति प्रकाशित की। महाराणी के बचने पर सन् 82 में चौकाघाट के बग़ीचे में भारी उत्सव किया था और महाराणी के जन्म-दिवस तथा राजराजेश्वरी की उपाधि लेने के दिन प्रायः बाबू साहिब उत्सव करते रहे। ड्यूक आव अलबनी की अकाल मृत्यु पर सभा करके महाशोक किया था। जब-जब देशहितैषी लार्ड रिपन आए उनको स्वागत कविता देकर आनंदित हुए सन् 72 में म्यो मेमोरियल सिरीज़ में 1500 रु. दिए यह सब लॉयल्टी नहीं तो क्या है?

    बाबू साहिब भारतवर्ष के एजूकेशन कमीशन (विद्या समाज) के सभ्य तो हुए ही थे परंतु इनका गुण वह था कि विलायत में जो नेशनल एंथम (जातीय गीत) के भारत की सब भाषाओं में अनुवाद करने के लिए महाराणी की ओर से एक कमेटी हुई थी उसके मेंबर भी थे और उनके सेक्रेटरी ने जो पत्र लिखा था उसमें उसने बाबू साहिब की प्रशंसा लिख कर स्पष्ट लिखा था कि “मुझको विश्वास है कि आपकी कविता सबसे उत्तम होगी, और अंत में ऐसा ही हुआ। क्यों नहीं जब कि भारती जिह्वा पर थी। सच पूछिए तो कविता का महत्व उन्हीं के साथ गया। बाबू साहिब की विद्वत्ता और बहुज्ञता की प्रशंसा केवल भारतीय पत्रों ने नहीं की वर विलायत के प्रसिद्ध पत्र ओवरलैंड, इंडियन और होममेल्स इत्यादिक अनेक पत्रों ने की है। उनकी बहदर्शिता के विषय में एशियाटिक सोसाइटी के प्रधान डॉक्टर राजेंद्रलाल मित्र, एम. ए. शेरिंग, श्रीमान पंडितंवर ईश्वरचंद्र विद्यासागर प्रभृति महाशयों ने अपने-अपने ग्रंथों में बड़ी प्रशंसा की है। श्रीयुत् विद्यासागर जी ने अपने अभिज्ञानशाकुंतल की भूमिका में बाबू साहिब को परम अमायिक, देशबंधु, धार्मिक और सुहृद इत्यादि करके बहुत कुछ लिखा है। बाबू साहिब अजातशत्रु थे इसमें लेश मात्र भी संदेह नहीं और उनका शील ऐसा अपूर्व था कि साधारणों की क्या कथा भारतवर्ष के प्रधान-प्रधान, राजे-महाराजे, नवाब और शहज़ादे इनसे मित्रता का बर्ताव बरतते थे और अमेरिका यूरोप के सहृदय प्रधान लोग भी इन पर पूरा स्नेह रखते थे। हाँ जिस समय ये लोग यह अनर्थकारी घोर संवाद सुनेंगे उनको कितना कष्ट होगा।

    बाबू साहब की अपने देश के कल्याण का सदा ध्यान रहा करता था। उन्होंने गोवध उठा देने के लिए दिल्ली दरबार के समय 60,000 हस्ताक्षर कराके लार्ड लिटन के पास भेजा था। हिंदी के लिए सदा ज़ोर देते गए और अपनी एजुकेशन कमीशन की साक्षी में यहाँ तक ज़ोर दिया कि लोग फड़क उठते हैं। अपने लेख तथा काव्य की लोगों को उन्नति के अखाड़े में आने के लिए सदा चलवान रहे। साधारण की ममता इनमें इतनी थी कि माधोराव के घरहरे पर लोहे के छड़ लगवा दिए कि जिसमे गिरने का भय छूट गया। इनकमटैक्स के समय जब लाट साहिब यहाँ आए थे तो दीपदान की वेला दो नावों पर 'एक पर' 'OH TAX' और दसरी पर “स्वागत-स्वागत धन्य प्रभु श्री सर विलियम म्योर। टैक्स छुड़ावहु सबन को विनिय करत कर जोर॥” लिखा था। इसके उपरांत टिकस उठ गया लोग कहते हैं कि इसी से उठा। चाहे जो हो इसमें संदेह नहीं कि वह अंत तक देश के लिए हाय-हाय करते रहे।

    सन् 1880 के 27 सितंबर के सारसुधानिधि पत्र में हमने बाबू साहिब को भारतेंदु की पदवी देने के लिए एक प्रस्ताव छपवाया था और उसके छप जाने पर भारतेंद्र की हिंदी समाचारपत्रों ने उस पर अपनी सम्मति प्रकट की और सब पत्र के संपादक तथा गुणग्राही विद्वान लोगों ने मिल कर उनको ‘भारतेंदु’ की पदवी दी, तब से वह भारतेंदु लिखे जाते थे।

    बाबू साहिब का धर्म वैष्णव था। श्री वल्लभीय। वह धर्म के बड़े पक्के थे, पर आडंबर से दूर रहते थे। उनके सिद्धांत में परम धर्म भगवतप्रेम था। मत वा धर्म विश्वासमूलक मानते थे, प्रमाणमूलक नहीं। सत्य, अहिंसा, दया, शील, नम्रता आदि चारित्र्य को भी धर्म मानते थे, वह सब जगत को ब्रह्ममय और सत्य मानते थे।

    बाबू साहिब ने बहुत सा द्रव्य व्यय किया, परंतु कुछ शोच था। कदाचित शोच होता भी था तो दो अवसर पर एक जब किसी निज आश्रित को या किसी शुद्ध सज्जन को बिना द्रव्य कष्ट पाते देखते थे, दूसरे जब कोई छोटे-मोटे काम देशोपकारी द्रव्याभाव से रुक जाते थे।

    हा! जिस समय हमको बाबू साहिब की यह करुणा की बात याद जाती है तो प्राण कंठ से आता है। वह प्रायः कहते थे कि “अभी तक मेरे पास पूर्ववत् बहुत धन होता तो मैं चार काम करता। 1. श्री ठाकुर जी को बग़ीचे में पधरा कर धूमधाम से षट्ऋतु का मनोरथ करता। 2. विलायत, फरासोस और अमेरिका जाता। 3. अपने उद्योग से एक शुद्ध हिंदी की यूनिवर्सिटी स्थापन करता। (हाय रे! हतभागिनी हिंदी, अब तेरा इतना ध्यान किसको रहेगा) 4. एक शिल्पकला का पश्चिमोत्तर देश में कॉलिज करता।”

    हाय! क्या आज दिन उनके बड़े-बड़े धनिक मित्रों में से कोई भी मित्र का दम भरने वाला ऐसा सच्चा मित्र है जो उनके इन मनोरथों में से एक को भी उनके नाम पर पूरा करके उनकी आत्मा को सुखी करे। हायरे। हतभाग्य पश्चिमोत्तर देश, तेरा इतना भारी सहायक उठ गया, अब भी तुझसे उसके लिए कुछ बन पड़ेगा या नहीं। जबकि बंगाल और बंबई प्रदेश में साधारण हितैषियों के स्मारक चिह्न के लिए लाखों बात की बात में इकट्ठे हो जाते हैं।

    बाबू साहिब के ख़ास पसंद की चीज़ें राग, वाद्य, रसिक समागम, चित्र, देश-देश और काल-काल की विचित्र वस्तु और भाँति-भाँति की पुस्तक थीं।

    काव्य उनको जयदेव जी, देव कवि, श्री नागरीदास जी, श्री सूरदास जी और आनंदघन जी का अति प्रिय था। उर्दू में वजीर और अनीस का। वह अनीस को अच्छा कवि समझते थे।

    संतति बाबू साहिब को तीन हुई। दो पुत्र एक कन्या। पुत्र दोनों जाते रहे, कन्या है, विवाह हो गया।

    बाबू साहिब कई बार बीमार हुए थे, पर भाग्य अच्छे थे इसलिए अच्छे होते गए। सन् 1882 में जब श्रीमन्महाराणा साहिब उदयपुर से मिलकर जाड़े के दिनों में लौटे तो आते समय रास्ते ही में बीमार पड़े। बनारस पहुँचने के साथ ही ख़ास रोग से पीड़ित हुए। रोग दिन-दिन अधिक होता गया महीनों में शरीर अच्छा हुआ। लोगों ने ईश्वर को धन्यवाद दिया। यद्यपि देखने में कुछ रोज़ तक रोग मालूम पड़ा पर भीतर रोग बना रहा और जड़ से नहीं गया। बीच में दो-एक बार उमड़ आया, पर शांत हो गया था। इधर दो महीने से फिर श्वास चलता था। कभी-कभी ज्वर का आवेश भी हो आता था। औषधि होती रही, शरीर कृशित तो हो चला था पर ऐसा नहीं था कि जिससे किसी काम में हानि होती, श्वास अधिक हो चला क्षयी के चिह्न पैदा हुए। एकाएक दूसरी जनवरी से बीमारी बढ़ने लगी। दवा, इलाज सब कुछ होता था पर रोग बढ़ता ही जाता था। 6वीं तारीख़ को प्रातःकाल के समय जब ऊपर से हाल पूछने के लिए मज़दूरिन आई तो आपने कहा कि जाकर कह दो कि हमारे जीवन के नाटक का प्रोग्राम नित्य नया-नया छप रहा है, पहिले दिन ज्वर की, दूसरे दिन दर्द की, तीसरे दिन खाँसी की सीन हो चुकी, देखें लास्ट नाइट कब होती है। उसी दिन दुपहर से श्वास वेग से आने लगा, कफ में रुधिर गया। डॉक्टर-वैद्य अनेक मौजूद थे और औषधि भी परामर्श के साथ करते थे परंतु “मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की।” प्रतिक्षण में बाबू साहिब डॉक्टर और वैद्यों से नींद आने और कफ के दूर होने की प्रार्थना करते थे, पर करै क्या काल दुष्ट तो सिर पर खड़ा था, कोई जाने क्या अंततोगत्वा बात करते ही करते पौने 10 बजे रात को भयंकर दृश्य उपस्थित हुआ। अंत तक श्रीकृष्ण का ध्यान बना रहा। देहावसान समय में “श्रीकृष्ण! श्री राधा-कृष्ण। हे राम! आते हैं मुख देख लाओ” कहा और कोई दोहा पढ़ा जिसमें से श्रीकृष्ण... सहित स्वामिनी...” से इतना धीरे स्वर से स्पष्ट सुनाई पढ़ा जिसमें ही देखते प्यारे हरिश्चंद्र जी हम लोगों की आखों से दूर हुए। चंद्रमुख हिमाली कर चारों ओर अंधकार हो गया। सारे घर में मातम छा गया, गली-गली में काम्हिला कयारा और सब काशीवासियों का कलेजा फटने लगा। लेखनी अब आगे नहीं बढ़ती बाबू साहिब चरणपादुका पर...।

    हा! काल की गति भी क्या ही कुटिल होती है, अचानक कालनिद्रा ने भारतेंदु को अपने वश में कर लिया कि जिससे सबके सब जहाँ के तहाँ पाहन से खड़े रह गए। वाह रे दुष्ट काल। तूने इतना समय भी दिया जो बाबू साहिब अपने परम प्रिय अनुज बाबू गोकलचंद्र जी बाबू राधाकृष्णदास तथा अन्य आत्मियों से एक बार अपने मन की बात भी कहने पाते और हमको, जिसे उस समय यह भयंकर दृश्य देखना पड़ा था, इतना अवसर भी मिला कि अंतिम संभाषण कर लेते। हा! हम अपने इस कलंक को कैसे दूर करें। वह मोहनी मूर्ति भुलाए से नहीं भूलती पर करें क्या। बाबू साहिब की अवस्था कुल 34 वर्ष 3 महीने 27 दिन 17 घंटे 7 मिनट और 48 सेकेंड की थी। पर निर्दयी काल से कुछ वश नहीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालकृष्ण भट्ट रचनावली
    • संपादक : समीर कुमार पाठक
    • रचनाकार : बालकृष्ण भट्ट
    • प्रकाशन : अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स
    • संस्करण : 2015

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