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सम्पूर्णानंद के उद्धरण

योगी न होते हुए भी सच्चा कलाकार वितर्क का अतिक्रमण करके विचार और आनंद की भूमिकाओं के बीच पेंगें मारता रहता है। साधना के अभाव के कारण वह किसी एक जगह टिक नहीं सकता, परंतु थोड़ी देर के लिए उसको सत्य की जो आभा देख पड़ती है, जड़ चेतन के आवरण के पीछे अर्द्ध-नारीश्वर की जो झलक मिलती है, वह उसको इस जगत के ऊपर उठा देती है, उसके जीवन को पवित्र और प्रकाशमय बना देती है।