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गजानन माधव मुक्तिबोध के उद्धरण

पूँजीवाद कवियों को वह विश्व-दृष्टि और विश्व-स्वप्न रखने ही नहीं देता कि जो दृष्टि या जो स्वप्न, जीवन-जगत् की व्याख्या और उसकी विकासमान प्रक्रिया के आभ्यंतरीकरण से उत्पन्न होता है।