जो लेखक तत्त्व के विकास और परिष्कार की चिंता नहीं करता, वस्तुतः वह प्रतिक्रिया के हाथों में खेलता है। यही नहीं, वह यह सोचता है कि उसकी अपनी संवेदना; जो अभिव्यक्ति चाहती है, अभिव्यक्ति की आतुरता-मात्र के कारण बहुत सिगनीफ़िकेंट है, मार्मिक है—उसका औचित्य वह अपनी आतुर उद्विग्नता में खोजता है।