धर्म और रिलिजन' एक नहीं है। ये अलग धर्म, पंथ और संप्रदाय जिस हद तक धर्म या सार्वभौम धर्म का उपजीवन करते हैं उस हद तक ही इन सारे धर्मों की शक्ति और पवित्रता है। इन सारे अलग-अलग धर्मों ने विशिष्ट ग्रंथ, विशिष्ट रूढ़ि और विशिष्ट व्यक्तियों के साथ लोगों को बाँधकर अपने को बिगाड़ दिया है। धर्म के ग्रंथ-परतंत्र, व्यक्ति-परतंत्र, या रूढ़ि-परतंत्र नहीं करना चाहिए था। धर्म के स्वयं-शासित और स्वयंभू रखना चाहिए। हर-एक युग के श्रेष्ठ पुरुषों के हृदय में जो धर्मभाव जाग्रत होता है। उसी के अनुसार सबको चलना चाहिए। ऐसे सारवभौम, सर्वकल्याणकारी, सर्वोदयी धर्म के द्वारा ही व्यक्ति का और समाज का जीवन कृतार्थ होता है।