बाह्म जीवन-जगत् के प्रत्याघात से विचलित होकर; जब अंतर्तत्त्व-व्यवस्था का अंगभूत कोई मनस्तत्त्व, एक तीव्र लहर के रूप में उत्थित होकर, मन की आँखों के सामने तरंगायित और उद्घाटित और आलोकित होते हुए, अभिव्यक्ति के लिए आतुर हो उठता है—तब वह कला के वस्तु-तत्त्व के रूप में प्रस्तुत हो जाता है।