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रीतिबद्ध कवि। भावों के सघन विधान और कल्पना के सफल निर्वाह के लिए समादृत नाम।

रीतिबद्ध कवि। भावों के सघन विधान और कल्पना के सफल निर्वाह के लिए समादृत नाम।

तोषनिधि का परिचय

मूल नाम : तोषनिधि

जन्म :इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

ये तोषनिधि और तोषमणि दोनों ही नामों से जाने जाते हैं। आचार्य शुक्ल ने इन्हें तोषनिधि ही कहा है। इनके जीवनवृत्त और काल के समय में कुछ निश्चित पता नहीं चलता। तोष शृंगवेरपुर (सिंगरौर) के रहनेवाले चतुर्भुज शुक्ल के पुत्र थे। एक सवैये से प्रकट होता है कि इनके पिता प्रयाग की पूरब दिशा से दस कोस दूर गंगा के तट पर सिंगरौर गाँव के रहने वाले थे—
"शुक्ल चतुर्भुज को सुत तोष बसे सिंगरौर जहाँ रिषि थानो।
दक्षिन देव नदी निकटै, दस कोस प्रयागहि पूरब मानो।"

सिंगरौर ग्राम रामायण का शृंगवेरपुर है, जो शृंगी ऋषि की तपोभूमि था। शुक्ल जी ने ‘सुधानिधि’ का काल सं. 1791 दिया है, जो इनके काल निर्धारण में भ्रम पैदा करता है। इनके ‘सुधानिधि’ ग्रंथ के एक दोहे से पता चलता है कि इन्होंने सं. 1691 अर्थात् सन् 1635 ई. में गुरुवार, आषाढ़ पूर्णिमा के दिन उपर्युक्त ग्रंथ की रचना की थी। आचार्य तोष का लिखा हुआ ‘सुधानिधि’ रसभेद, भाव-भेद-संबंधी ग्रंथ है। यह ग्रंथ ‘भारत जीवन प्रेस’ से सन् 1892 में रामकृष्ण वर्मा द्वारा संपादित होकर प्रकाशित हुआ है। इसमें 560 छंद हैं। इसके रचनाकाल के संबंध में शुक्लजी ने संवत 1791 अर्थात् सन् 1735 ई. लिखा है। किंतु अयोध्या नरेश के पुस्तकालय से प्राप्त प्रति के अनुसार मिश्रबंधुओं ने एक दोहे—"संवत सोरह से बरस गो इकानबे बीति । गरु आषाढ़ की पूर्णिमा रच्यो ग्रंथ करि प्रीति।“ के आधार पर सन् 1635 ई. निश्चित किया है। इस तरह से इनके रचनाकाल में सौ वर्ष का अंतर पड़ जाता है पर मिश्रबंधुओं द्वारा निश्चित काल ही ठीक प्रतीत होता है। 'सुधानिधि' रस विवेचन का एक अच्छा ग्रंथ है। इसमें नवरसों, भावों, भावोदय, रसाभास, रसदोष, वृत्ति तथा नायिकाभेद का वर्णन किया गया है। सखा-सखी भेद, हाववर्णन तथा वियोग दशाओं के मनोहारी वर्णन हैं। शृंगारेतर रसों तथा संचारियों के विवेचन कम हैं पर उदाहरण अच्छे हैं। दोहा छंद का प्रयोग प्रायः लक्षण देने के लिए और कवित्त, सवैया, छप्पय आदि छंदों का प्रयोग लेखक ने उदाहरण के लिए किया है। इस ग्रंथ में रस से संबद्ध किसी भी बात को लेखक ने छोड़ा नहीं है और उदाहरणों की मार्मिकता के कारण आचार्यत्व कुछ दबा-दबा-सा लगता है।

'सुधानिधि' के अतिरिक्त इनके दो और ग्रंथों का पता चला है-'विनयशतक' और 'नखशिख'। इनमें काव्य प्रतिभा और आचार्यत्व दोनों का समावेश तो था ही, किंतु कल्पना और भाव की सघनता इनके काव्य-गुण को अधिक द्योतित करती है, यद्यपि कहीं-कहीं उहात्मकता से पूर्ण अत्युक्तियों के दर्शन भी होते हैं। इनकी रचना में उक्ति-चमत्कार तथा सरसता का संयोग रसखान के समान हुआ है। ये भाषा पर अधिकार रखने वाले रसज्ञ कवि थे, इसलिए भाषा-प्रवाह और आलंकारिक सौंदर्य इनके काव्य में विशेष रूप से पाया जाता है।

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