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स्वामी हरिदास

1480 - 1575 | वृंदावन, उत्तर प्रदेश

कृष्णोपासक कवि। चतुष् ध्रुपद-शैली के रचयिता और तानसेन के संगीत गुरु। सखी संप्रदाय के प्रवर्तक।

कृष्णोपासक कवि। चतुष् ध्रुपद-शैली के रचयिता और तानसेन के संगीत गुरु। सखी संप्रदाय के प्रवर्तक।

स्वामी हरिदास का परिचय

वैष्णव भक्ति संप्रदायों में उच्चकोटि के विरक्त महात्मा तथा संगीतशास्त्र के आचार्य के रूप में स्वामी हरिदास की बहुत अधिक ख्याति है। स्वामी के जन्म-स्थान, जन्म-संवत् और जाति के विषय में निंबार्क मतावलंबियों तथा विष्णु स्वामी संप्रदाय वालों में विरोध है। निंबार्क संप्रदाय वालों का मत है कि हरिदास का जन्म वृंदावन से एक मील दूर राजपुर गाँव में गंगाधर ब्राह्मण के घर सं० 1537 ई. (सन् 1490 ई.) में हुआ। गंगाधर के गुरु का नाम आशुधीर स्वामी था। उन्हीं से स्वामी हरिदास ने भी निंबार्क संप्रदाय की दीक्षा ग्रहण की थी किंतु विष्णु स्वामी संप्रदाय के गोस्वामी स्वामी हरिदास को हरिदासपुर (अलीगढ़) गाँव का निवासी, सारस्वत ब्राह्मण और आशुधीर का पुत्र मानते हैं। ‘निजमत सिद्धांत’ ग्रंथ के आधार पर स्वामी हरिदास तथा अष्टाचार्यों के संबंध में बहुत सी जानकारी उपलब्ध होती है किंतु विष्णु स्वामी संप्रदाय वाले इस ग्रंथ को जाली रचना ठहराते हैं।

स्वामी हरिदास के पदों के अनुशीलन से यह स्पष्ट विदित होता है कि उनकी भक्ति माधुर्य भाव की है और ‘जुगल उपासना’ को उन्होंने स्वीकार किया है और विष्णु स्वामी संप्रदाय की ‘बालभाव’ की उपासना उन्हें मान्य नहीं है। ‘निकुंज लीला’ के पद और राधाकृष्ण का नित्य बिहार वर्णन उन्होंने निंबार्क और राधावल्लभीय विचारधारा के अनुकूल ही किया है। उन्हें ‘ललिता सखी का अवतार’ माना जाता है।

भगवत रसिक ने अपने को हरिदास स्वामी का शिष्य बतलाते हुए स्वतंत्र संप्रदाय का अनुयायी कहा है—

“आचारज ललिता सखी, रसिक हमारी छाप।
नित्य किशोर उपासना, जुगल मंत्र को जाप॥
नाहीं द्वैताद्वैत हरि, नहीं विशिष्ट द्वैत।
बंधे नहीं मतवाद में, ईश्वर इच्छा द्वैत॥"

स्वामी हरिदास की भावना इन्हीं दोहों के अनुरूप थी। ‘सखी भाव’ की उपासना के कारण उनका संप्रदाय ‘सखी संप्रदाय’ के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ है । बाँस की जाफरी (टट्टी) से घिरा होने के कारण इनकी शिष्य परंपरा का स्थान ‘टट्टी संस्थान’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। कुछ विद्वान उनके संप्रदाय को ‘हरिदासी संप्रदाय’ के नाम से भी अभिहित करते हैं। इस प्रकार ये तीन नाम स्वामी जी के संप्रदाय के प्रचलित हैं। स्वामी हरिदास ने युवावस्था में गृहत्याग करके वृंदावन में लता-पत्रवेष्टित निधिवन को अपनी साधनास्थली बनाया था। संसार के समस्त सुख-वैभव के उपकरणों का त्याग कर कामरी और करुआ को अपनी संपत्ति मान लिया था। उनके इष्टदेव का विग्रह ‘बाँके बिहारी’ के नाम से विख्यात है। अपनी गान-विद्या के लिए वे अपने समय में ही भारत वर्ष में विख्यात हो गये थे। तानसेन जैसा सुप्रसिद्ध गायक उनका शिष्य था। ध्रुपद की रचना करके उन्होंने अपना स्थान अमर बना लिया था। सम्राट अकबर भी उनकी संगीत विद्या से प्रभावित था।

स्वामी हरिदास ने अपने सिद्धांतों को स्वतंत्र रूप से नहीं लिखा। श्याम-श्यामा की निकुंज-लीलावर्णन के लिए जो पद वे बनाते थे, उन्हीं में सिद्धांतों का भी समावेश है। उनकी रचनाओं का संकलन ‘केलिमाल’ नामक पुस्तक में कर दिया गया है। ‘केलिमाल’ में 108 पद हैं। 18 सिद्धांत के पद अलग से संकलित हैं। स्वामी हरिदास की वाणी बड़ी सरस और संगीतमय है। ब्रजभाषा का चलता रूप इनके पदों में देखा जाता है। राधा-कृष्ण की लीलाओं के वर्णन में पुनरावृत्ति अधिक है। माधुर्यभक्ति का मन मोहन रूप उनके पदों में सर्वत्र व्याप्त है। उनका निधन संवत् 1632 (सन् 1575 ई.) के समीप माना जाता है।

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