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भक्तिकाल और रीतिकाल के संधि कवि। ऋतुवर्णन और ललित पदविन्यास के लिए प्रसिद्ध। शृंगार के अतिरिक्त भक्तिप्रेरित उद्गारों के लिए भी स्मरणीय।

भक्तिकाल और रीतिकाल के संधि कवि। ऋतुवर्णन और ललित पदविन्यास के लिए प्रसिद्ध। शृंगार के अतिरिक्त भक्तिप्रेरित उद्गारों के लिए भी स्मरणीय।

सेनापति का परिचय

सेनापति की जन्म-मृत्यु की तिथियाँ अज्ञात हैं। इनकी कृति ‘कवित्त रत्नाकर’ का रचनाकाल संवत 1706 वि० (सन् 1649 ई.) है। यह कवि की प्रौढ़ कृति है। इसके अनेक छंदों से प्रतीत होता है कि कवि अपनी जीवन-यात्रा के अंतिम चरण में था। अतः यदि इस रचना की समाप्ति के समय कवि की आयु 60-65 वर्ष मान ली जाय तो उसका जन्म-काल सन् 1584-88 ई. के आस-पास माना जा सकता है और मृत्यु भी सत्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण के आसपास हुई होगी।

‘कवित्त रत्नाकर’ की पहली तरंग के एक छंद की पंक्ति “गंगा तीर बसति अनुप जिनि पाई है" के आधार पर यह कल्पना की जा सकती है कि अनूप नगरी (अनूपशहर) इनके पिता को किसी व्यक्ति से प्राप्त हुई थी। इसलिए जनश्रुति अनूपशहर (जिला बुलंदशहर) को सेनापति का निवास स्थान मानती आ रही है।

‘कवित्त रत्नाकर’ की पाँचवीं तरंग के एक छंद की पंक्ति—“चारि बरदानि तजि पाई कम लेच्छन के, पाइक मलेच्छन के काहे को कहाइए” के आधार पर मिश्र बंधुओं ने यह अनुमान लगाया है कि सेनापति का संबंध किसी मुसलमान शासक के दरबार से था।

सेनापति मुख्य रूप से रामभक्त ही थे। ‘कवित्त रत्नाकर’ की चौथी तरंग में राम-चरित्र वर्णित है। अन्यत्र भी राम का वर्णन कवि ने बड़े उत्साह के साथ किया है। कुछ स्थलों पर कृष्ण तथा शिव पर लिखे गये छंद भी मिलते हैं। 'शिवसिंह सरोज' के अनुसार सेनापति ने संन्यास ले लिया था और उसके बाद वे वृंदावन में ही रहते थे। सेनापति के स्वाभिमान एवं उग्र व्यक्तित्त्व की स्पष्ट व्यंजना उनके काव्य में यत्र-तत्र देखी जाती है। वे आत्म सम्मान को ही विशेष महत्व देते थे-संकटापन्न होने पर भी दुर्जनों से याचना करना उन्हें असह्य था। निरादृत करने वाले व्यक्ति के प्रति वे काष्ठ से अधिक शुष्क बन सकते थे। सांसारिक आकर्षणों के कारण धैर्य खो देना तथा उनकी प्राप्ति के लिए लालायित रहना उनके स्वभाव के प्रतिकूल था।

सेनापति ने अपने श्लिष्ट काव्य की महत्ता द्योतित करने के लिए जगह-जगह गर्वोक्तियाँ की हैं। उनकी वाणी की मर्यादा इसी में है कि उससे विविध प्रकार के अर्थ बरबस निकलते चले आते हैं। भक्ति-भावना के क्षेत्र में भी यह स्वाभिमानी प्रकृति दबी न रह सकी। यदि कर्मानुसार ही संसार में मोक्ष प्राप्ति संभव है और आराध्य देव की कृपा का उससे कोई संबंध नहीं है, तब कवि अपने को ही सृष्टिकर्ता क्यों न मान ले—
“आपने करम करिहों ही निबहोंगो,
तोब हों ही करतार, करतार तुम काहे के ?"(कवित्त रत्नाकर)

आचार्य शुक्ल ने इन्हें भक्तिकाल के अंतर्गत रखा है लेकिन काव्य-रूप की दृष्टि से सेनापति रीतिकाल के अधिक निकट पड़ते हैं। उनका ग्रंथ स्फुट छंदों का संग्रह है। चौथी तरंग में यद्यपि रामचरित का विस्तार किया गया है किंतु कवि ने प्रारंभ में ही कथा-क्रम को प्रणाम कर लिया है और रामचरित के कुछ प्रमुख स्थलों पर ही रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। कवि ने प्रधान रूप से राम के शौर्य और उनकी भक्त-वत्सलता पर ही विशेष ध्यान दिया है। सीता-स्वयंवर, परशुराम तेजोभंग, सीताहरण, राम-रावण युद्ध आदि असाधारण पराक्रमपूर्ण व्यापारों का बहुत ही आवेगपूर्ण चित्रण तीसरी तरंग में मिलता है। कवि ने ‘उत्साह’ की मार्मिक व्यंजना कराने के लिए उपयुक्त स्थलों को विशेष रूप से चुना है। राम के प्रति असीम भक्ति-भावना के होते हुए भी उसने प्रतिपक्षी रावण की महत्ता को घटाया नहीं है। उसने रावण को भी एक महान योद्धा के रूप में चित्रित किया है। प्रतिपक्षी की महानता की समकक्षता में नायक के शौयपूर्ण कृत्यों की महत्ता और भी बढ़ जाती है। रस की अभिव्यंजना में इससे विशेष सहायता मिलती है।

'उत्साह' के अतिरिक्त भगवद्विषयक 'रति' तथा ‘निर्वेद’ भाव का विशेष प्रभाव कवि पर है। राम के प्रति प्रगाढ़ भक्ति-भावना तथा संसार की नश्वरता के अनेकानेक मार्मिक चित्र कवि की कृति में बहुतायत से मिलते हैं। शृंगार रस की दृष्टि से लौकिक रतिभाव से भी कवि अत्यधिक प्रभावित है। उसकी दूसरी तरंग ‘उद्दीपन विभाव’ के अंतर्गत रखी जा सकती है। आलंबन विभाव में स्वभावत: नायक-नायिका भेद का विस्तार सर्वाधिक है। यद्यपि छंदों के ऊपर विभिन्न शीर्षक नहीं दिये गए हैं, फिर भी उनसे स्पष्ट है कि कवि वयःसंधि, खंडिता तथा मुग्धा आदि के वर्णन प्रस्तुत कर रहा है। इनका एक ग्रंथ ‘काव्य कल्पद्रुम’ भी है।

सेनापति के भावजगत् की सीमाएँ बहुत अधिक व्यापक भले ही न हों, उन्होंने जिस सीमित क्षेत्र को चुना, उसके सम्यक निर्वाह के लिए सामान्य कवियों से अधिक प्रखर प्रतिभा का परिचय दिया है। उसके भाव-चित्रण में परंपरा भुक्त प्रणालियों का अंधानुसरण नहीं है। साथ ही मौलिकता का भी ऐसा आग्रह नहीं है कि दूरारूढ़ कल्पनाओं में कवि की भाव-धारा उलझ जाय। इसीलिए उसके संयोग और वियोग के वर्णनों में सरस प्रवाह और प्रासादिकता है। श्लेष तथा अनुप्रास आदि का अतिशय आग्रह उसे कुछ अंशों मे कुंठित कर दे, यह बात तो दूसरी है। सेनापति की मौलिकता का ज्वलंत उदाहरण उनकी ऋतु संबंधी रचनाएँ हैं। इनका मुख्य सौंदर्य प्रकृति के विभिन्न व्यापारों के सूक्ष्म निरीक्षण पर आधारित है। साहित्यिक ग्रंथों में बार-बार दोहराई गयी पिटी-पिटाई बातों के अनुकरण पर ही इनकी रचना नहीं की गयी है। भारतीय जलवायु में जाड़ा, गरमी और बरसात ये ही प्रधान तीन ऋतुएँ हैं। कवि ने इन तीनों का ही यथातथ्य चित्रण नहीं किया, वरन् इन तीनों की संधियों की ओर भी ध्यान दिया है, तभी उसकी रचनाओं में एक अद्वितीय आकर्षण है।

ब्रजभाषा के प्रचलित साहित्यिक तथा मौखिक रूपों से सेनापति का घनिष्ठ परिचय था, उनके श्लिष्ट छंदों के चमत्कार का बहुत बड़ा श्रेय कवि के भाषाधिकार को है। ऐसे स्थलों पर अन्य रीतिकारों ने प्रायः संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का अवलंब ग्रहण किया है किंतु अप्रयुक्त संस्कृतनिष्ठ शब्दावली के प्रयोग से भाषा की प्रासादिकता तथा गतिशीलता को क्षति पहुँचती है। सेनापति के अभंग तथा सभंग श्लेष और यमक बहुत करके ब्रजभाषा की व्याकरणगत विशेषताओं के आधार पर निर्मित हैं। इसीलिए न तो उनमें अधिक क्लिष्ट कल्पना करनी पड़ती है और न अर्थ जानने के लिए संस्कृत कोशों की शरण में जाना पड़ता है। कई बार शब्दों के अभिधेयार्थ और लक्ष्यार्थ के आधार पर ही शब्दों से दोहरे अर्थ निकाले गये हैं। लक्ष्य प्रयोगें में व्यंग्यार्थ निहित रहता ही है। अतः कवि के श्लेष व्यंग्यगर्भित हो गये हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनकी भाषा की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि “भाषा पर ऐसा अच्छा अधिकार कम कवियों का देखा जाता है। अनुप्रास और यमक की प्रचुरता होते हुए भी कहीं भद्दी कृत्रिमता नहीं आने पायी है।”

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