Phanishwarnath Renu's Photo'

फणीश्वरनाथ रेणु

1921 - 1977 | पूर्णिया, बिहार

समादृत कथाकार। कुछ कविताएँ भी लिखीं। समाजवादी और आंचलिक संवेदना के लिए उल्लेखनीय। पद्मश्री से सम्मानित।

समादृत कथाकार। कुछ कविताएँ भी लिखीं। समाजवादी और आंचलिक संवेदना के लिए उल्लेखनीय। पद्मश्री से सम्मानित।

फणीश्वरनाथ रेणु का परिचय

जन्म : 04/03/1921 | पूर्णिया, बिहार

निधन : 11/04/1977 | पूर्णिया, बिहार

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य में प्रबल उपस्थिति रखने वाले उपन्यासकार-कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के पूर्णिया ज़िले के औराही हिंगना नामक गाँव में एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम शिलानाथ और माता का नाम पानो देवी था। उनकी आरंभिक शिक्षा पहले अररिया, फिर फारबिसगंज में हुई। मैट्रिकुलेशन परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्हें आगे की शिक्षा के लिए बनारस भेजा गया। लेकिन वहाँ अधिक समय टिक नहीं सके और बिहार लौट आए। उन्होंने भागलपुर के एक कॉलेज में दाख़िला लिया और सक्रिय राजनीति से संलग्न होने लगे। यहीं वह समाजवादी आंदोलन के प्रभाव में भी आए। 1942 के स्वतंत्रता आंदोलन में इन्होंने खुलकर भाग लिया था और इस कारण जेल भी गए। इनका जन्म स्थान भारत-नेपाल सीमा के निकट था। इस कारण उनकी स्वाभाविक रुचि नेपाल की सशस्त्र क्रांति में भी रही। 1950 में जब नेपाल की एकतंत्रीय राजशाही के विरुद्ध संघर्ष छिड़ा तो एक क्रांतिकारी के रूप में वह भी विद्रोही सेना के साथ रहे। वह विद्रोहियों द्वारा परिचालित नेपाल रेडियो के प्रथम डायरेक्टर जनरल भी बने। वह लंबे समय तक कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे थे। उनके व्यक्तित्व का विकास एक सजग नागिरक और देशभक्त के साथ ही एक सृजनात्मक लेखक के रूप में होने लगा था।

रेणु 1952-53 में दीर्घकाल तक रोगग्रस्त रहे थे। इस कारण वह सक्रिय राजनीति से दूर हटकर साहित्य सृजन की ओर प्रवृत्त हुए। यद्यपि उनकी राजनीतिक सजगता अंतिम समय तक भी बनी रही थी और देश में आपातकाल का उन्होंने कड़ा विरोध किया था। 1954 में प्रकाशित हुए उनके पहले उपन्यास ‘मैला आंचल’ ने ही उन्हें हिंदी साहित्यिक जगत में स्थापित कर दिया।

फणीश्वरनाथ रेणु को हिंदी साहित्य में एक आँचलिक युग की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। यद्यपि आँचलिकता की प्रवृति का आरंभ प्रेमचंद युग से ही दृष्टिगोचर होने लगा था और आँचलिक उपन्यासों की विधा का सूत्रपात भी हो चुका था, लेकिन रेणु के उपन्यासों और कहानियों के साथ इसका पूर्ण विकास हुआ। उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों में ग्रामीण जीवन का गहन रागात्मक और रसपूर्ण चित्र खींचा है। उनकी विशिष्ट भाषा-शैली ने हिंदी कथा-साहित्य को एक नया आयाम प्रदान किया।

‘परती परिकथा’ उपन्यास और ‘मारे गये गुलफाम’ कहानी, जिस पर राजकपूर अभिनीत प्रसिद्ध फ़िल्म बनी, के साथ उनकी ख्याति और बढ़ गई। उपन्यास और कहानी के अतिरिक्त उन्होंने निबंध, रिपोर्ताज़, संस्मरण आदि गद्य विधाओं में भी लेखन किया और व्यापक रूप से सराहे जाते हैं।

 
भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया और उन पर डाक टिकट भी ज़ारी किया गया है। 

प्रमुख कृतियाँ

उपन्यास : मैला आँचल, परती परिकथा, जुलूस, पल्टू बाबू रोड, दीर्घतपा, कितने चौराहे।

कहानी-संग्रह : ठुमरी, एक आदिम रात्रि की महक, अग्निखोर, मेरी प्रिय कहानियाँ, एक श्रावणी दोपहरी की धूप, अच्छे आदमी।

चर्चित कहानियाँ : मारे गए गुलफाम, एक आदिम रात्रि की महक, लाल पान की बेगम, पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस, संवदिया।

रिपोर्ताज़/संस्मरण/निबंध : ऋणजल-धनजल, श्रुत-अश्रुत पूर्व, आत्म परिचय, वन तुलसी की गंध, समय की शिला पर, नेपाली क्रांतिकथा।

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